गाकर गीत विरह के तटिनी
वेगवती बहती जाती है,
दिल हलका कर लेने को
उपलों से कुछ कहती जाती है।
तट पर एक गुलाब सोचता
“देते स्वर यदि मुझे विधाता,
अपने पतझर के सपनों का
मैं भी जग को गीत सुनाता।“
गा-गाकर बह रही निर्झरी,
पाटल मूक खड़ा तट पर है।
गीत, अगीत, कौन सुंदर है?
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ गीत-अगीत कविता से उद्धृत हैं, जो कवि रामधारी सिंह दिनकर जी के द्वारा रचित है | इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कह रहे हैं कि नदी दुःखी होकर विरह या दुःख का गीत गाते हुए तेज गती से निरन्तर बहती जा रही है तथा अपना दुःख से भारी दिल हलका करने के लिए किनारों या उपलों से कुछ कहती जा रही है। तत्पश्चात्, इसी बीच किनारों पर खिला एक गुलाब के मन में भाव जागता है और वह सोचता है कि यदि भगवान ने मुझे भी स्वर दिया होता तो मैं भी अपने पतझड़ के सपनों का गीत सारे जग को सुनाता। बहते हुए झरने गीत गा-गाकर निरन्तर बह रही है, और गुलाब किनारों या तट पर शान्त खड़ा है। आगे कवि कह रहे हैं कि गीत, अगीत, कौन सुंदर है ? अर्थात् मेरे गीत सुन्दर हैं या प्रकृति के यह अद्भुत ना बोलने वाले अगीत अधिक सुंदर हैं।
(2) बैठा शुक उस घनी डाल पर
जो खोंते को छाया देती।
पंख फुला नीचे खोंते में
शुकी बैठ अंडे है सेती।
गाता शुक जब किरण वसंती
छूती अंग पर्ण से छनकर।
किंतु, शुकी के गीत उमड़कर
रह जाते सनेह में सनकर।
गूँज रहा शुक का स्वर वन में,
फूला मग्न शुकी का पर है।
गीत, अगीत, कौन सुंदर है?
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ गीत अगीत कविता से उद्धृत हैं, जो कवि रामधारी सिंह दिनकर जी के द्वारा रचित है | इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कह रहे हैं कि शुक यानी तोता एक घनी डाल पर बैठा है, जो डाल तोते के घोंसले को छाया देती है तथा उसी डाल में नीचे के घोंसले में उस तोते की पत्नी शुकी पंख फैलाकर अपने अंडों को सेती है। जब सुनहरे सूर्य की किरणें पत्तों से पार होकर तोते के पंखो को छूती है, तो तोता बेशुद्ध होकर गीत गाने लगता है, साथ में उसकी पत्नी शुकी भी गाना चाहती है, किन्तु पत्नी के गीत पति के प्रेम के बंधन में ही बंध कर रह जाती है | तोता यानी शुक का स्वर वन में गूंजता देख उसकी पत्नी शुकी फुले नहीं समा रही है, वह अत्यंत हर्षित है | आगे कवि कह रहे हैं कि ये सब विचार करने वाली बात है कि कवि के गीत सुन्दर हैं या प्रकृति के न बोल पाने वाले अगीत सुन्दर हैं।
(3) दो प्रेमी हैं यहाँ, एक जब
बड़े साँझ आल्हा गाता है,
पहला स्वर उसकी राधा को
घर से यहीं खींच लाता है।
चोरी-चोरी छिपकर सुनती है,
‘हुई न क्यों मैं कड़ी गीत की
बिधना’, यों मन में गुनती है।
वह गाता, पर किसी वेग से
फूल रहा इसका अंतर है।
गीत, अगीत कौन सुंदर है?
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ गीत अगीत कविता से उद्धृत हैं, जो कवि रामधारी सिंह दिनकर जी के द्वारा रचित है | इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कह रहे हैं कि यहाँ दो प्रेमी रहते हैं, जब एक प्रेमी संध्या के वक़्त आल्हा (एक प्रकार की गीत) गाता है, तो गीत का पहला स्वर उसकी प्रेमिका रूपी राधा को सीधे घर से खिंच लाता है | वह चोरी से छुपकर अपने प्रीतम का गीत सुनती है | प्रेमिका मन में सोचने लगती है कि मैं भी इस गीत का हिस्सा क्यों नही हूँ | ये सब देखकर कवि विचार करते हैं कि मेरा गीत सुन्दर है या ये प्रकृति का अगीत सुन्दर है |
प्रस्तुत पाठ गीत-अगीत लेखक रामधारी सिंह दिनकर जी के द्वारा रचित है | इस पाठ में कवि ने प्रकृति का सजीव चित्रण किया है | यह पूरा पाठ प्रकृति में उपस्थित नदी, झरने, पुष्प, पशु-पक्षी, वन और प्रेमी-प्रेमिका के कुछ कहने और मौन रहने दोनों पर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष वर्णन किया गया है।
कवि को नदी के बहाव में गीत का सृजन होता जान पड़ता है | नदी के विरह के गीत गाते हुए बहना, गुलाब का तट पर मौन खड़े होकर भगवान से आवाज़ होने पर अपने सपनों का बखान करना, शुक-शुकी के प्रेम के गीत में पूरे वन में गूंज जाना। प्रेमी के गीत को सुनकर प्रेमिका का मन में सोचना की वह भी इस गीत का हिस्सा क्यों नहीं है। यह सब देखकर कवि को दुविधा बस इतनी होती है कि उनका गीत सुन्दर है या ये प्रकृति का मौन अगीत सुन्दर है...||
प्रस्तुत पाठ के रचयिता रामधारी सिंह दिनकर जी हैं। इनका जन्म 30 सितम्बर 1908 को बिहार में मुंगेर जिले के सिमरिया गाँव मे हुआ था। दिनकर जी सन् 1952 में राज्य सभा के सदस्य मनोनीत किये गए थे, भारत सरकार ने दिनकर जी को 'पद्मभूषण' सम्मान से अलंकृत किया था। इनको "संस्कृति की चार अध्याय" पुस्तक के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं काव्यकृति "उर्वशी" के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। दिनकर जी की लेखनी अत्यंत सरल, ओजस्वी, प्रवाहपूर्ण है , इन्हें ओज के कवि के रूप में जाना जाता है, ये हमेशा युग एवं देश के प्रति सजग रहे है, इनके विचार और संवेदना का अनोखा समन्वय प्राप्त होता है। दिनकर जी की रचनाओं में प्रेम और सुंदरता का भी अनूठा चित्रण मिलता है। इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं - रश्मिरथी, परशुराम की प्रतीक्षा, हुँकार, कुरुक्षेत्र, उर्वशी, और संस्कृति के चार अध्याय...||
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