उपसर्ग का सम्बन्ध धातु के साथ बड़ा ही रोचक है, अथवा यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि प्र, परा आदि धातु के साथ मिलने पर ही उपसर्ग कहे जाते हैं। महर्षि पाणिनि का स्पष्ट मत है –
प्रादयः१, उपसर्गाः क्रियायोगे २
अर्थात् क्रिया के योग में प्रयुक्त ‘प्र’ आदि उपसर्ग संज्ञा को प्राप्त होते हैं। ‘उपसर्ग’ शब्द का भी सामान्यतः यही अर्थ है जो धातुओं के समीप रखे जाते हैं। उपसर्ग के महत्त्व को ध्यान में रखकर कहा गया है –
उपसर्गेण धात्वर्थः बलादन्यः प्रतीयते।
प्रहाराहारसंहारविहारपरिहारवत्।।
अर्थात् उपसर्ग से जुड़ने पर धातु का (मूल) अर्थ भिन्न हो जाता है। जैसे – ‘हार’ शब्द का अर्थ पराजय या माला है, किन्तु उपसर्ग लगने पर उसका अर्थ बिलकुल अन्य ही हो जाता है।
धातुओं पर उपसर्गों का प्रभाव तीन प्रकार से होता है
धात्वर्थं बाधते कश्चित् कश्चित् तमनुवर्तते।
विशिनष्टि तमेवार्थमुपसर्गगतिस्त्रिधा।।
१. कहीं वह उपसर्ग धातु के मुख्य अर्थ को बाधित कर उससे बिल्कुल भिन्न अर्थ का बोध करता है।
जैसे-
२. कहीं धातु के अर्थ का ही अनुवर्तन करता है।
जैसे-
३. कहीं विशेषण रूप में उसी धात्वर्थ को और भी विशिष्ट बना देता है। जैसे
उपसर्ग संख्या में २२ हैं, जो अग्रलिखित हैं – प्र, परा, अप, सम्, अनु, अव, निस्, निर्, दुस्, दुर्, वि, आङ्, नि, अधि, अपि, अति, सु, उत्, अभि, प्रति, परि तथा उप।
धातु के साथ लगकर ये विशिष्ट अर्थ का बोध कराते हैं, किन्तु धातु योग रहने पर इनका सामान्य अर्थ भी इस प्रकार बताया गया है –
प्र- अधिक या प्रकर्ष; परा – उलटा, पीछे; अप – इसका उल्टा, दूर; सम् – अच्छी तरह, एक साथ; अनु – पीछे; अव – नीचे, दूर; निस्– विना, बाहर; निर् – बाहर, उलटा; दुस् – कठिन, उलटा; दुर् – बुरा; वि- विना, अलग, विशेष रूप से; आङ् – तक, इधर; नि-नीचे; अधि- ऊपर या सबसे ऊपर; अपि- निकट, संसर्ग; अति-बहुत अधिक; सु-सुन्दर, आदर; उत्- ऊपर; अभि – सामने, ओर; प्रति – ओर, उलटा; परि – चारो ओर, उप – समीप।
उपसर्ग के साथ प्रयुक्त कुछ धातु रूप
१. प्र:
२. परा :
३. अप :
४. सम् :
५. अनु :
८. निर् :
९. दुस् :
१०. दुर् :
११. वि :
१२. आङ् :
१३. नि :
१४. अधि :
१५. अपि :
१६. अति :
१७. सु :
१८. उत् :
१९. अभि :
२०. प्रति :
२१. परिः
२२. उप :
१. प्र-प्रगति, प्रभाव, प्रवेश, प्रवाह, प्रणय
२. परा- पराजय, पराभव, पराकाष्ठा
३. अप- अपयश, अपव्यय, अपकार, अपमान, अपवाद
४. ‘सम्-संहार, संसार, संगति, सम्वेदना, संवाद
५. अनु- अनुचर, अनुज, अनुभव, अनुमान, अनुनय
६. अव-अवसाद, अवमान, अवरोध, अवरोह, अवकाश
७. निस् – निस्तेज, निष्काम, निस्तार, निश्चय, निस्सार
८. निर्-निरादर, निर्वेद, निर्णय, निराकरण, निर्भय
९. दुस्-दुष्कर, दुस्तर, दुष्प्राप्य, दुःसाध्य, दुस्सह
१०. दुर्-दुर्बोध, दुर्योधन, दुराशा, दुराग्रह, दुर्गम
११. वि-विनय, विरोध, विचार, विभाव, विहार
१२. आङ्-आहार, आगम, आचार, आदान, आकर्षण
१३. नि-निवेदन, नियम, निवास, निरोध, निषेध
१४. अधि- अधिकार, अधिगम, अधिमान, अधिभार
१५. अपि-अपिधान, अपिहित, अपिगीर्ण, अपिधि
१६. अति- अतिशय, अतिचार, अतिवृष्टि, अतिक्रमण
१७. सु-सुबोध, सुलभ, सुप्रसिद्ध, सुराग, सुदिन
१८. उत्- उद्बोध, उद्भव, उत्पति, उन्नति, उद्गम
१९. अभि- अभिमान, अभिवादन, अभियोग, अभिलाप
२०. प्रति- प्रतिकार, प्रत्येक, प्रतिदिन, प्रतिपक्ष, प्रतिपद
२१. परि-परिहार, परिचय, परिभव, परिमाण, परिणय
२२. उप- उपहार, उपदेश, उपवास, उपनयन, उपकार
णत्वविधान
विभिन्न स्थितियों में ‘न्’ का ‘ण’ में परिवर्तित हो जाना ही णत्व-विधान है। इसके विधान के लिए कुछ प्रमुख पाणिनि सूत्र इस प्रकार हैं –
१. रषाभ्यां नो णः समानपदे? –
एक ही पद में र, ष् अथवा ‘ऋ’ के बाद ‘न्’ रहे तो उस
(न्) का ‘ण’ हो जाता है। जैसे – चतुर्णाम्, पुष्णाति, वृक्षाणाम्।
२. अट्कुप्वानुम्व्यवायेऽपि२ –
(अट् + कु + पु+ आङ् + नुम् + व्यवाये + अपि) अर्थात् ‘र’ और ‘ष’ के बाद किन्तु ‘न्’ से पहले अर्थात् दोनो के बीच अट् (अ, इ, उ, ऋ, लु, ए, ओ, ऐ औ, ह, य, व, र) वर्ण, कु (क्, ख, ग, घ, ङ्), पु (प, फ, ब, भ, म्), आङ् तथा नुम् में से किसी वर्ण के रहने पर भी ‘न्’ का ‘ण्’ हो जाता है।
जैसे –
किन्तु उपरि निर्दिष्ट वर्गों के अतिरिक्त किसी भी वर्ण से व्यवधान रहने पर ‘न’ का ‘ण’ नहीं होता है। जैसे – सरलेन, अर्थेन, अर्चनम्, रसानाम् आदि।
३. पूर्वपदात संज्ञायामगः ३ –
दो पदों के मिलने पर संज्ञावाचक होने की स्थिति में पूर्वपद में ऋ, र या ष में से कोई वर्ण रहे और कहीं भी ‘ग’ नहीं रहे तो उत्तर पद में विद्यमान ‘न’ का ‘ण’ हो जाता है।
जैसे –
गकार रहने पर ‘न्’ का ‘ण’ नहीं होता है।
जैसे –
४. अहोऽदन्तात् –
अदन्त या अकारान्त पूर्वपद में ‘र’ अथवा ‘ष’ रहने पर उत्तरवर्ती अहन् (अह्न) के ‘न्’ का ‘ण’ हो जाता है।
जैसे
५. कृत्यचः५ –
रकार से युक्त उपसर्ग के बाद कृत् प्रत्यय से बने शब्द में अच् (स्वर) वर्ण के बाद ‘न्’ रहे तो उसके स्थान में ‘ण’ आदेश हो जाता है।
जैसे –
पदान्तस्य’ – पदान्त ‘न्’ का ‘ण’ नहीं होता है। जैसे – रामान्, हरीन्, भ्रातृन्।
कुछ शब्द स्वतः ‘ण’ वर्ण वाले हैं, जिनमें णत्व करने की आवश्यकता नहीं होती।
जैसे –
षत्वविधान
कुछ स्थितियों में ‘स्’ के स्थान में ‘ए’ का आ जाना ही षत्वविधान है। इसके विधान के लिए कुछ नियम इस प्रकार हैं
१. इण्कोः आदेशप्रत्ययोः२ – इण (अकार को छोड़कर सभी स्वर इ, उ, ऋ, ल, ए, ऐ, ओ, औ तथा य, र, ल, व और ह्) एवं कु (क, ख, ग, घ, ङ्) से परे आदेश स्वरूप तथा प्रत्यय के अवयव भूत ‘स्’ के स्थान में ‘ष’ आदेश हो जाता है।
जैसे –
२. नुम्विसर्जनीयशर्यवायेऽपि३ —
इण एवं कवर्ग और उनसे उत्तरवर्ती सकार के बीच नुम्, विसर्ग तथा शर् प्रत्याहार के (श्, ष, स्) वर्ण रहने पर भी ‘स्’ का ‘ए’ आदेश हो जाता है।
जैसे –
३. उपसर्गात्सुनोतिसुवतिस्यति स्वञ्जाम् –
इण् (इ और उकार) अन्त वाले उपससर्ग से परे सुनोति, सुवति, स्यति, स्तौति आदि धातु रूप के ‘स्’ के स्थान में ‘ष’ आदेश हो जाता है। जैसे –
४. सदिरपतेः५ –
‘प्रति’ से भिन्न इण (इ, उ) वर्ण वाले उपसर्ग के बाद विद्यमान सद् (षद्लू) धातु के भी ‘स्’ के स्थान में ‘ष’ हो जाता है।
जैसे-
५. परिनिविभ्यः सेवसित….सज्जाम् –
‘परि’, ‘नि’ और ‘वि’ इन उपसर्गों के बाद प्रयुक्त ‘सेव’ सित, सिव आदि धातुओं के ‘स्’ का ‘ए’ हो जाता है।
जैसे-
स्फुरतिस्फुलत्योर्निनिविभ्यः २ –
‘निस्’, ‘नि’ अथवा ‘वि’ उपसर्ग के बाद वर्तमान स्फुर् और स्फुल् धातुओं के सकार का विकल्प से षकार आदेश हो जाता है।
जैसे –
सुबिनिदुर्थ्यः सुविसूतिसमाः ३ –
‘सु’, ‘वि’, ‘निर्’ अथवा ‘दुर्’ उपसर्ग से परे सुप्, सूति और सम शब्दों के सकार के स्थान में षकार आदेश हो जाता है।
जैसे-
निनदीभ्यां स्नातेः कौशले ४-
कौशल ( = निपुणता) अर्थ प्रतीत होने पर ‘नि’ और ‘नदी’ शब्दों के बाद प्रयुक्त स्ना धातु के भी सकार का षकार आदेश हो जाता है।
जैसे-
मातृपितृभ्यां स्वसा५ –
‘मातृ’ और ‘पितृ’ शब्दों से परे ‘स्वसृ’ शब्द रहने पर ‘स्’ का ‘ए’ हो जाता है।
जैसे –
गवियुधिभ्यां स्थिरः६ –
‘गवि’ और ‘युधि’ शब्दों से परवर्ती ‘स्थिर’ के ‘स्’ का ‘ष’ हो जाता है।
जैसे-
उपर्युक्त नियमों के अतिरिक्त भी अनेक ऐसे शब्द या स्थल हैं, जहाँ ‘स्’ की जगह ‘ए’ हो जाता है।
जैसे-
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