“ज़मीन जल चुकी है, आसमान बाकी है, सूखे कुएँ तुम्हारा इम्तहान बाकी है, बादलों बरस जाना समय पर इस बार, किसी की ज़मीन गिरवी, तो किसी का लगान बाकी है।”
उपरोक्त पंक्तियाँ उस बेबस अन्नदाता की बेबसी को उजागर कर रही हैं जो संपूर्ण विश्व का पेट पालता है और मानव जीवन को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। किंतु स्वयं कभी मौसम की मार के चलते तो कभी वित्त के अभाव में ऋण के बोझ तले दबकर मर जाता है। चिलचिलाती धूप और कड़कड़ाती ठंड की परवाह किए बिना किसान दिन-रात मिट्टी से सोना उगाने में लगा रहता है, किंतु इस सोने को कभी किसी मंडी का बिचौलिया तो कभी कोई अनुबंधकर्त्ता लूटता है और अंततः राजनीतिक पार्टियाँ कृषि ऋण माफी जैसे हथियारों से इन्हें अपने वोट बैंक का हिस्सा बनाती हैं।
कृषि ऋण माफी पहली नज़र में तो कृषकों की हितैषी प्रतीत होती है, किंतु यह किसी भिखारी को दी गई उस भीख के समान है जो कुछ समय का सुकून तो दे सकती है, किंतु थोड़े वक्त बाद उसे लाचार होकर लोगों के सामने हाथ फैलाना ही पड़ता है। आम चुनावों के आते ही कृषि ऋण माफी सुर्खियों में आ जाती है। राजनेता इसकी आड़ में अपनी रोटी सेकते हैं और ऋण माफी का झुनझुना कृषकों के हाथ में पकड़ाकर अपने पक्ष में वोट वसूलते हैं।
माननीय वी. पी. सिंह के काल से शुरू हुई यह कर्ज माफी की व्यवस्था आज कृषकों और स्वयं भारत के लिए एक नासूर बन चुकी है। चूँकि कृषि मूलतः राज्य का विषय है और राज्यों के पास पहले से ही वित्त का अभाव है, परिणामस्वरूप ऋण माफी राज्यों की अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर देती है। ऋण माफी राज्यों के अतिरिक्त संपूर्ण देश की अर्थव्यवस्था को भी अंदर से खोखला करती है।
कृषि ऋण माफी में लगने वाले इस पैसे से अनेक कल्याणकारी योजनाएँ पूर्ण नहीं हो पातीं; रचना संबंधी व्यय में कमी आती है; देश का राजकोषीय घाटा बढ़ता है; एनपीए में डूबे हुए बैंकों की हालत और खराब हो जाती है, जिससे बैंक नए उद्यमियों को ऋण नहीं दे पाते और उत्पादन गतिविधियों में कमी के फलस्वरूप संपूर्ण देश की आर्थिक गति मंद पड़ जाती है। आर्थिक मंदी के दूरगामी परिणामों से विश्व स्तर में भी भारत की अर्थव्यवस्था के प्रति अविश्वास उत्पन्न होता है और विदेशी निवेश में कमी आती है, जो कि हमारी अर्थव्यवस्था में गरीबी में आटा गीला होने जैसी परिस्थिति होती है। विभिन्न क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों द्वारा भी भारत को खराब क्रेडिट रेटिंग दी जाती है। इस प्रकार कृषि ऋण माफी अर्थव्यवस्था के लिए अत्यंत हानिकारक है।
बहरहाल, कृषि ऋण माफी के कुछ सकारात्मक परिणाम भी प्राप्त होते हैं, जैसे- कुछ कृषक कर्ज से मुक्ति पाकर उपज में वृद्धि द्वारा एक मज़बूत आर्थिक स्थिति प्राप्त करते हैं। कृषक इस ऋण माफी से बचे हुए पैसे का उपयोग कर कृषि हेतु नई तकनीक खरीद सकते हैं, उच्च गुणवत्ता वाले महँगे अनाज, उर्वरक, कीटनाशक आदि की सक्षमता द्वारा पैदावार में वृद्धि कर स्वयं की स्थिति मज़बूत कर देश में खाद्य सुरक्षा भी सुनिश्चित कर सकते हैं। किंतु यह लाभ मुख्यतः बड़े कृषकों तक ही सीमित रह जाता है।
प्रायः यह देखा गया है कि किसानों की कर्ज माफी कृषकों को कर्ज के दुष्चक्र में ही फँसाने का कार्य करती है। सरकार द्वारा एक बार कर्ज माफी से किसान चंद पलों के लिए राहत की साँस तो ले लेगा, किंतु जब उसकी फसल पर मौसम की मार पड़ेगी (बाढ़, सूखा, तुषार अथवा ओलावृष्टि) और उसकी फसल बर्बाद होगी, तो वह पाई-पाई के लिए मोहताज हो जाएगा और कर्ज के लिए दोबारा अपनी झोली फैलाएगा।
भारत की 42% भूमि पर कृषि कार्य किया जाता है, जो कि विश्व में अमेरिका के पश्चात् द्वितीय स्थान पर है, किंतु फिर भी हमारे देश के अन्नदाता की स्थिति अत्यंत दयनीय बनी हुई है। आए दिन समाचार पत्रों में कृषकों की आत्महत्या की खबरें इस भयावह स्थिति का बखान करती हैं। इस समस्या के मूल में जाकर देखें तो इसके कई कारण नज़र आते हैं।
कृषकों के अतिरिक्त सरकार भी इस स्थिति के लिए समान रूप से ज़िम्मेदार है। देश में कृषि से संबंधित अवसंरचना का अभाव है। हंगर इंडेक्स में दोयम स्थिति रखने वाले इस भारत में न जाने कितना अनाज, भंडार गृहों के अभाव में बाहर पड़े-पड़े सड़ जाता है। परिवहन के साधनों में कमी के चलते किसान अपने खेतों से मंडी तक समय पर उत्पाद नहीं पहुँचा पाते, जिससे उन्हें उचित कीमत नहीं प्राप्त होती है।
इसके अतिरिक्त जब फसल की बंपर पैदावार होती है, तो उस स्थिति में मूल्य इतना गिर जाता है कि किसान की फसल की लागत तक नहीं मिल पाती। किसानों द्वारा सड़कों पर दूध की नदियाँ बहाने की घटनाएँ, मंडियों में प्याज, टमाटर आदि फेंकने की घटनाएँ हमारे देश में बड़ी आम हो गई हैं। बेचारा कृषक अधिक पैदावार पर रोए या हंसे, उसे समझ नहीं आता; कैसी विडंबना है ये?
क्या सर्दी क्या गर्मी, क्या दिन क्या रात, मेहनत से जिसने दिया संपूर्ण सभ्यता को आधार, वही अन्नदाता विवश है मरने को लेकर उधार।
कृषि आज लगातार घाटे का सौदा बन रही है, इसलिये युवा वर्ग भी कृषि कार्यों के प्रति उदासीन हो गए हैं। देश की लगभग आधी आबादी अपनी आजीविका के लिये कृषि पर निर्भर है, किंतु कृषि क्षेत्र का योगदान GDP में महज 14 प्रतिशत है। देश की आधी आबादी के लिये यह रोजी-रोटी का जरिया है, अतः इसमें सुधार अपेक्षित है और ऋण माफी के धन का प्रयोग कर यह सुधार किया जा सकता है। कृषि क्षेत्र में असीम संभावनाएँ छुपी हुई हैं, इसके लिये सरकार के सहयोग की आवश्यकता है।
वस्तुतः लाल बहादुर शास्त्री जी ने नारा दिया था “जय जवान जय किसान” जिसका अर्थ था कि जिस प्रकार जवान सीमा पर गोलियाँ खाकर देश की रक्षा करता है, उसी प्रकार एक किसान सर्दी व गर्मी की मार सहकर देश के अंदर देशवासियों की रक्षा करता है। अतः इस अन्नदाता को न तो वोट बैंक बनाने की आवश्यकता है और न ही ऋण माफी का झुनझुना पकड़ाने की। यदि उसके लिये कुछ करना है, तो उसमें इतनी क्षमता का विकास करने की आवश्यकता है कि वह न तो किसी ऋण के बोझ के तले दबे और न ही ऋण माफी के लालच में देश के प्रतिनिधियों का चयन करे।
“कितनी भी विकट हो परिस्थिति, उम्मीद वो बांधे रहता है। भटके न वो राह कभी, लक्ष्य को साधे रखता है। फिर भी ऐसी हुई है हालत, आज हो रहा है कर्जदार। कैसा मचा ये हाहाकार, अन्नदाता की सुनो पुकार।”