माँ, बाप, बहिन और भाभियों से गले मिलती, पितृगृह की हर वस्तु को हसरत से निहारती, एक भारतीय बेटी की उपर्युक्त उक्ति किसके हृदय को द्रवित नहीं कर देती है। कन्या के मन पर पराश्रयता और पराधीनता का यह बन्धन उसके विवाह के साथ ही बाँध दिया जाता है, जो एक जन्म तो क्या, जन्म–जन्मान्तरों तक नहीं खुल पाता।
महाकवि कालिदास ने अपनी विश्वप्रसिद्ध रचना ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ में महर्षि कण्व से कहलवाया है–”अर्थो हि कन्या परकीय एव।” अर्थात् कन्या पराया धन है, न्यास है, धरोहर है।
न्यास और धरोहर की सावधानी से सुरक्षा करना तो सही है, किन्तु उसके पाणिग्रहण को दान कहकर वर–पक्ष को सौदेबाजी का अवसर प्रदान करना तो कन्या–रत्न के साथ घोर अन्याय है।
आज दहेज समस्या कन्या के जन्म के साथ ही, जन्म लेने वाली विकट समस्या बन चुकी है। आज कन्या एक ऋण–पत्र है, ‘प्रॉमिज़री नोट’ है और पुत्र विधाता के बैंक से जारी एक ‘गिफ्ट चैक’ बन गया है।
वर्तमान स्थिति–प्राचीन समय में दहेज नव–दम्पत्ती को नवजीवन आरम्भ करने के उपकरण देने का और सद्भावना का चिह्न था। उस समय दहेज कन्या पक्ष की कृतज्ञता का रूप था। कन्या के लिए दिया जाने वाला धन, स्त्री–धन था, किन्तु आज वह कन्या का पति बनने का शुल्क बन चुका है।
आज दहेज अपने निकृष्टतम रूप को प्राप्त कर चुका है। अपने परिवार के भविष्य को दाँव पर लगाकर समाज के सामान्य व्यक्ति भी इस मूर्खतापूर्ण होड़ में सम्मिलित हो जाते हैं।
इस भावना का अनुचित लाभ वर–पक्ष पूरा उठाता है। घर में चाहे साइकिल भी न हो, परन्तु बाइक पाए बिना तोरण स्पर्श न करेंगे। बाइक की माँग तो पुरानी हो चुकी अब तो कार की मांग उठने लगी है। बेटी का बाप होना जैसे पूर्व जन्म और वर्तमान जीवन का भीषण पाप हो गया है।
तथाकथित बड़ों को धूमधाम से विवाह करते देख–छोटों का मन भी ललचाता है और फिर कर्ज लिए जाते हैं, मकान गिरवी रखे जाते हैं। घूस, रिश्वत, चोरबाजारी और उचित–अनुचित आदि सभी उपायों से धन–संग्रह की घृणित लालसा जागती है। सामाजिक जीवन अपराधी भावना और चारित्रिक पतन से भर जाता है। एक बार ऋण के दुश्चक्र में फंसा हुआ गृहस्थ अपना और अपनी सन्तान का भविष्य नष्ट कर बैठता है।
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