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निबंध लेखन | Hindi Grammar Class 5 PDF Download

निबंध लेखन किसे कहते हैं?

विचार, भाव तथा अभिव्यक्ति को प्रकट करने का सबसे उत्तम साधन है। अच्छे निबंध के गुण हैं:
(i) निबंध का आरंभ रोचक होना चाहिए।
(ii) निबंध विषय के दायरे में होता है।
(iii) शुद्ध वर्तनी तथा विराम चिह्नों का ध्यान रखा जाता है।
(iv) निबंध की भाषा विषय के अनुकूल होनी चाहिए।
(v) विषय की जानकारी को श्रृंखलाबद्ध तरीके से प्रस्तुत करना चाहिए।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस

नेताजी सुभाषचंद्र बोस नेताजी सुभाषचंद्र बोस मूलतः कलकत्ता (अब कोलकाता) के निवासी थे, किंतु इनके पिता कटक में मजिस्ट्रेट थे। वहीं शिशु सुभाष का जन्म 23 जनवरी, 1897 को हुआ था। बालक सुभाष की आरंभिक शिक्षा-दीक्षा कटक में ही हुई थी। उनके पिता यद्यपि कटक (उड़ीसा) में बस गए थे, किंतु उन्हें कलकत्ता आना-जाना पड़ता था। श्री सुभाषचंद्र बोस 22 वर्ष की युवा उम्र में भारत छोड़कर पढ़ाई करने के लिए 15 सितंबर 1919 को लंदन चले गए थे। उसी समय प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हुआ था। यद्यपि इस युद्ध से अंग्रेजों को काफी धक्का लगा था। हाँ! सुभाषजी के इंग्लैंड जाने से पहले जलियाँवाला बाग हत्याकांड जरूर हुआ था, जिससे सारा भारत देश तिलमिलाया हुआ था।
इंग्लैंड में इस खबर को ज्यादा विस्तार से छपने नहीं दिया गया। इसलिए सुभाष भी इस घटना से ज्यादा अवगत नहीं थे। महात्मा गाँधी और कुछ नेतागण लोगों को जागरूक कर रहे थे। सुभाष बाबू के लिए एक और मुश्किल थी। वे अपने पिता से किए हुए वादे कि आई. सी. एस. परीक्षा पास करके लौटना है, की वजह से, वे काफी तल्लीनता से अध्ययन करने में जुटे हुए थे। अपने उद्देश्य में सफल होने के पश्चात् सुभाष को भारत की स्थिति के बारे में पता चला। उन्होंने अंग्रेजी सरकार की नौकरी न करके देशसेवा का कार्य करने का निर्णय लिया। भारत में आकर वे सर्वप्रथम महात्मा गाँधी से मिले और अहिंसा और असहयोग आंदोलन में कांग्रेस का साथ दिया।निबंध लेखन | Hindi Grammar Class 5सुभाष बाबू की कार्यनिष्ठा देखकर उन्हें बंगाल प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया और इसी समय “साइमन कमीशन” की नियुक्ति का विरोध करने के लिए एक आंदोलन छेड़ा गया “साइमन कमीशन वापस जाओ”। इसी आंदोलन के पश्चात् वे सन् 1928 में अखिल भारतीय युवा कांग्रेस के अध्यक्ष बने और कालांतर में उन्होंने अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस की बागडोर अपने हाथ में ली और सन् 1931 तक उसके अध्यक्ष बने रहे। कांग्रेस का अध्यक्ष चुने जाने के बाद, गाँधीजी और अन्य उदारवादी (नर्म दल वाले) दल से मतभेद होने के कारण मई 1939 में कांग्रेस से इस्तीफा देकर अपनी फारवर्ड ब्लाक नाम पार्टी बना ली।निर्भीक सुभाष चंद्र बोस बिना ज्यादा परीक्षा के भारत को ब्रिटिश दासता से आजाद कराने के पक्षधर थे। 1942 जनवरी में आजाद हिंद फौज की स्थापना हुई। आजाद हिंद फौज का उद्देश्य भी यही था कि भारत को हाथ जोड़कर और चरखा चलाकर नहीं, अपितु महाशक्ति का उपयोग करके आजाद कराया जाए। स्वतंत्रता के इस अमर सेनानी का दुःखद अंत कैसे हुआ, अथवा वे अभी तक जीवित हैं- चर्चा के विषय हैं। कुछ लोगों का कथन है कि एक जापानी जहाज में जिसमें ये भी सवार थे, आग लग जाने के कारण इनकी मृत्यु हो गई। आज सुभाषजी, जिन्हें भारतवासी नेताजी के प्रिय संबोधन से पुकारते हैं, हमारे बीच में नहीं हैं, किंतु उनका नाम भारत की स्वतंत्रता के अग्रणी सेनानियो में सदा अमर रहेगा।

समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं का महत्त्व

लोकतंत्र में समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं का काफी महत्त्व होता है। समाचार पत्र लोकमत को व्यक्त करने का सबसे सशक्त साधन है। जब रेडियो तथा टेलीविजन का ज्यादा जोर नहीं था, समाचार पत्रों में छपे समाचार पढ़कर ही लोग देश-विदेश में घटित घटनाओं की जानकारी प्राप्त किया करते थे। अब रेडियो तथा टेलीविजन सरकारी क्षेत्र के सूचना के साधन माने जाते हैं। अत: तटस्थ और सही समाचारों के लिए ज्यादातर लोग समाचार पत्रों को पढ़ना अधिक उचित और प्रामाणिक समझते हैं। समाचार पत्र केवल समाचार अथवा सूचना ही प्रकाशित नहीं करते वरन् उसमें अलग-अलग विषयों के लिए अलग-अलग पन्ने और स्तंभ निर्धारित होते हैं।
पहला पन्ना सबसे महत्त्वपूर्ण खबरों के लिए होता है। महत्त्वपूर्ण में भी जो सबसे ज्यादा ज्वलंत खबर होती है वह मुख पृष्ठ पर सबसे ऊपर छापी जाती है। पहले पृष्ठ का शेष भाग अन्यत्र छापा जाता है। अखबार का दूसरा पन्ना ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं होता उसमें प्रायः वर्गीकृत विज्ञापन छापे जाते हैं। तृतीय पृष्ठ पर ज्यादातर स्थानीय समाचार तथा कुछ बड़े विज्ञापन छापे जाते हैं। चौथा पृष्ठ भी प्रायः खबरों तथा बाजार भावों के लिए होता है। पाँचवें पृष्ठ में सांस्कृतिक गतिविधियाँ और कुछ खबरें भी छापी जाती हैं। बीच के पृष्ठ के दाहिनी ओर भी महत्त्वपूर्ण लेख, सूचनाएँ एवं विज्ञापन दिए जाते हैं। अगले पृष्ठों पर स्वास्थ्य, महिला मंडल, बालबाड़ी जैसे स्तंभ होते हैं। अंतिम पृष्ठ से पहले खेल समाचार, सोना, चाँदी, जिन्सों आदि के भाव होते हैं। कुछ अखबार बहुत चर्चित कंपनियों के शेयर भाव अपने पाठकों के लिए छापते हैं। अंतिम पृष्ठ पर पहले पृष्ठ का शेष भाग तथा अन्य महत्त्वपूर्ण खबरों को छापते हैं।
निबंध लेखन | Hindi Grammar Class 5पहले अखबार केवल इकरंगे हुआ करते थे। उसमें छापे गए चित्र ब्लैक एण्ड ह्वाइट होते थे। अब छपाई अथवा मुद्रण कला में काफी प्रगति हुई है जिसकी वजह से अखबारों में अनेक प्रकार के आकर्षक रंगीन चित्र भी छापे जाते हैं। रविवारीय और बुधवारीय परिशिष्टों में कहानियाँ, कविताएँ, निबंध और उत्कृष्ट विज्ञापन छापे जाते हैं। अखबार का मुख पृष्ठ काफी अच्छा होना चाहिए। कुछ पाठक तो अच्छा संपादकीय तथा मोटी खबरें पढ़ने के लिए ही अखबार खरीदते हैं। कुछ अखबार ऐसे होते हैं जिनमें रिक्तियों, खाली स्थानों की खबरें काफी विस्तार से छापी जाती हैं। अखबार कई प्रकार के होते हैं दैनिक, त्रिदिवसीय, साप्ताहिक, पाक्षिक तथा मासिक अखबार भी होते हैं। आमतौर से दैनिक समाचार पत्र ही ज्यादा लोकप्रिय होते हैं। कुछ साप्ताहिक अखबार होते हैं जो पूरे सप्ताह की गतिविधियों का लेखा-जोखा छापते हैं।अखबार के बाद पत्रिकाओं का भी अपना एक विशिष्ट महत्त्व है। पत्रिकाएँ ज्यादातर विषय प्रधान तथा अपने एक सुनिश्चित उद्देश्य को लेकर निकाली जाती हैं। कुछ पत्रिकाएँ केवल नवीन कथाकारों की कहानियाँ ही छापती हैं, सारिका, माया आदि में पहले कहानियाँ छपा करती थीं। कई पत्रिकाएँ ज्योतिष जैसे विषयों की जानकारी के लिए ही छापी जाती हैं। इंडिया टुडे साप्ताहिक पत्रिका है जो अंग्रेजी तथा हिंदी दोनों भाषाओं में छपती है। इसमें ज्यादातर राजनीतिक समाचार होते हैं।
निबंध लेखन | Hindi Grammar Class 5अखबार स्वतंत्र होने चाहिए और उसमें वही सामग्री छपनी चाहिए जो सत्य, शिव तथा सुंदर हो। परंतु ऐसा नहीं हो पाता। इनके स्वामी बड़े-बड़े पूंजीपति ही होते हैं, उनके संबंध विभिन्न राजनीतिक दलों से होते हैं। जिसके कारण कोई भी अखबार विचारों की अभिव्यक्ति पूरी तरह से नहीं रख पाता। अवसर मिलते ही वह पार्टी विशेष का समर्थक बनकर उसी का गुणगान करने लगता है।पत्रिकाओं की स्थिति अखबारों से थोड़े भिन्न होती है। किंतु जो पत्रिकाएँ राजनीति से जुड़ी होती हैं उन्हें अकसर परेशान होना पड़ता है। माया और मनोहर कहानियाँ जैसी पत्रिकाएँ हलचल मचाने वाली पत्रिकाएँ हैं। कोई-न-कोई धमाका करना इनका काम है। अतएव ऐसी पत्रिकाओं को अपने दृष्टिकोण में सुधार लाना चाहिए। वर्तमान युग में अखबार एवं पत्रिकाओं का महत्त्व निरंतर बढ़ता जाता है। प्रायः प्रत्येक पढ़ा-लिखा व्यक्ति अखबार पढ़ने के लिए उत्सुक अवश्य होता है। इसलिए अखबार एवं पत्रिकाओं के मालिकों एवं संपादकों को चाहिए कि वे अपने दायित्व को समझें तथा समाज की सहज उन्नति के लिए सदा सचेत रहकर ऐसी खबरें छापें जो सही तथा समन्वयवादी हों।

दीपावली

दीपावली हिंदुओं का एक प्रमुख त्योहार है। इसे प्रतिवर्ष कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है। दीपावली एक ऐसा पर्व है जिसके आगे-पीछे कई पर्व मनाए जाते हैं। धनतेरस से इस पर्व का आरंभ होता है। इस दिन लोग लक्ष्मी, गणेश, बरतन तथा पूजा की सामग्री खरीदते हैं। धनतेरस से अगले दिन व्यापक रूप से सफाई की जाती है तथा भगवती लक्ष्मी के आगमन के लिए घर-बाहर काफी सजावट की जाती है। इसे छोटी दीपावली कहा जाता है। इस दिन लोग घर के आस-पास सरसों के तेल के दीए जलाकर रखते हैं। इस दिन से अगले दिन दीपावली का महापर्व आता है।
इस पर्व में मिठाई, खील, बताशे, चीनी के खिलौने तथा अन्य सजावटी सामान पुष्पमालाएँ धूप एवं अगरबत्तियाँ आदि अवश्य खरीदी जाती हैं। लोग इस अवसर पर अपने मित्रों और संबंधियों को मिठाइयाँ और उपहार देते हैं। शाम को दीपक जलाए जाते हैं, और पूजन की तैयारी की जाती है। लक्ष्मी और गणेश जी की प्रतिमा को स्नान कराकर चंदन, धूप, पुष्पमाला आदि चढ़ाकर विधिवत् पूजन करके प्रसाद समर्पित किया जाता है। कुछ लोग दीपावली के दिन रात 12 बजे भी भगवती लक्ष्मी की पूजा करते हैं।

निबंध लेखन | Hindi Grammar Class 5

दीपावली के पर्व की शुरुआत कब से हुई इसके विषय में अनेक कथाएँ हैं, जिनमें सबसे ज्यादा प्रचलित कथा यह है कि रावण का वध करने के उपरांत जब भगवान राम अयोध्या वापस आए थे, तो लोगों ने उनके स्वागत के लिए घर, बाहर सभी जगह दीपक जलाए थे। दीपक जलाने का रिवाज तभी से चला आ रहा है। इस अवसर पर श्रीराम की पूजा करने का विधान होना चाहिए था, लेकिन आज लोग लक्ष्मी-गणेश की पूजा करते हैं। हिंदू धर्मशास्त्रों के अनुसार लक्ष्मी समृद्धि तथा धन-संपत्ति की देवी हैं। भगवान गणेशजी मोदकप्रिय तथा आमोद और सुख देने वाले हैं। वे विद्या के समुद्र तथा बुद्धि के देने वाले हैं। गणेशजी की इन्हीं विशेषताओं के कारण शायद उनकी अर्चना शुरू की गई होगी।इस प्रकार दीपावली की विशेषता है कि आराधक जहाँ एक ओर धन लक्ष्मी, श्री-समृद्धि चाहता है, वहीं ज्ञान-विद्या-बुद्धि का भी अभिलाषी है। दीपावली का पर्व दोनों प्रकार की आकांक्षाओं की पूर्ति करने का अवसर देता है। दीपावली का पर्व ऐसे समय आता है, जब न तो ज्यादा गर्मी होती है और न ज्यादा जाड़ा पड़ता है। वर्षा ऋतु के बाद पैदा हुए कीड़े-मकोड़े, मक्खी-मच्छर, दीपावली के त्यौहार के सिलसिले में की जाने वाली सफाई से समाप्त हो जाते हैं। दीपावली के त्योहार में जहाँ अनेक गुण हैं, वहीं उस त्योहार के कुछ दुर्गुण भी हैं। जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि इस त्यौहार के साथ पाँच त्यौहारों का मेल-मिलाप है। धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन पूजा (प्रतिपदा का) भ्रातृ द्वितीया। इन पाँच दिनों तक खान-पान में कुछ न कुछ व्यतिक्रम होता ही रहता है। इसलिए इस त्यौहार के आस-पास के दिनों में खाने-पीने में पूरा संयम बरतना चाहिए। दीपावली एक खर्चीला त्योहार है। कुछ लोग कर्ज लेकर भी इस त्योहार को धूमधाम से मनाते हैं। नए कपड़े पहनते हैं, कार्ड भेजते हैं तथा डटकर मिठाई खाते हैं। नतीजा यह होता है कि आम नागरिक को पूरा महीना तंगी से काटना पड़ता है। इस प्रकार यह त्यौहार आम लोगों के लिए सुखकारी होने की जगह दु:खकारी सिद्ध होता है। दीपावली के पर्व के विषय में एक आम धारणा यह भी है कि इस त्योहार के दिन जुआ खेलने से लक्ष्मीजी प्रसन्न होती हैं तथा वर्ष भर धन आता रहता है।ऐसे अंधविश्वास के कारण लक्ष्मी और गणेश के पूजन का यह महापर्व लोगों के आकस्मिक संकट का कारण बन जाता है। कुछ लोग जुए में अपना सर्वस्व एक ही रात में गँवा बैठते हैं।

सारांश यह है कि दीपावली एक मंगलमय त्योहार है जिसे व्यक्तिगत तथा सामूहिक दोनों प्रकार से मनाने की आवश्यकता है। इस पर्व को सार्वजनिक रूप से धूमधाम के साथ मनाया जाना चाहिए, ताकि हम अपने पौं-त्योहारों के इतिहास और महत्त्व को अधिक अच्छी तरह से जान सकें और उनमें यदि कहीं कोई बुराई हो, तो उसे दूर भी कर सकें। दीपमाला निश्चय ही हमें अंधकार से हटाकर प्रकाश की ओर ले जाती है।

होली का त्योहार

होली भारतीय त्योहारों में से एक ऐसा पर्व है जिसे पूरे उत्साह और धूमधाम से मनाया जाता है। यह खुशियों का एक रंगबिरंगा त्योहार है जिसे हिंदू धर्म के अनुयायियों द्वारा धूमधाम से मनाया जाता है। होली का यह त्योहार भारत के अलावा विश्व के कई अन्य देशों में भी धूमधाम से मनाया जाता है।होली के त्योहार को भारत में वसंत ऋतु के आगमन के अवसर पर मनाया जाता है। यह त्योहार फाल्गुन मास के पूर्णिमा को मनाया जाता है और इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली के इस दिन लोग अपने दोस्तों, परिवारजनों और अन्य प्रियजनों के साथ मिलकर खुशियों का त्योहार मनाते हैं।होली के पर्व के पहले रंगों से भरी पिचकारी बनाई जाती है जिसे पिछकारी कहते हैं। इसके बाद सभी लोग रंगों के धुले हुए कपड़े पहनकर एक-दूसरे को रंगते हैं। इस दिन लोग गुलाल, अबीर, पानी और विभिन्न रंगों का उपयोग करके एक-दूसरे के चेहरे को रंगते हैं। इसे खेलते हुए सभी मिल-जुलकर नाच-गाने का मजा लेते हैं और धूमधाम से यह त्योहार मनाते हैं।होली का त्योहार भारतीय संस्कृति में एकता और समरसता का प्रतीक है। यह त्योहार सभी लोगों को मिलकर खुशियां बांटने का एक अवसर प्रदान करता है। 

निबंध लेखन | Hindi Grammar Class 5

होली के दिन लोग भूल जाते हैं कि उनमें जो भेदभाव है वह सब एक हो जाता है और वे एक-दूसरे के साथ खुशियों के माहौल का आनंद लेते हैं।इसके अलावा, होली के दिन लोग अपने दोस्तों और परिवार के सदस्यों के साथ विशेष पकवान बनाकर खाते हैं। गुजिया, मावा कचौरी, दही वड़ा, पापड़ी और दही भल्ले जैसे मिठे और तले हुए व्यंजन इस त्योहार के विशेष पकवान होते हैं।इस प्रकार, होली एक धार्मिक और सांस्कृतिक त्योहार है जिसे सभी धर्मवालों ने एक साथ मिलकर मनाने का आनंद लेते हैं। यह खुशियों और मिलन-जुलन का त्योहार है जो सभी को एकता और भाईचारे का संदेश देता है। होली के इस रंगबिरंगे त्योहार के साथ भारतीय संस्कृति की समृद्धि और समानता का संदेश सभी तक पहुंचता है।

लोहड़ी का त्यौहार

पंजाब के लोग इस पर्व को पूरे जोश में मनाते है। यह हर साल 13 जनवरी को बड़े ही उत्साह से मनाया जाता है। इस पर्व को उस दिन मनाया जाता है, जब दिन पहले की अपेक्षा छोटे होने लगते है और राते लंबी होने लग जाती है। यह एक प्रकार से फसलों का उत्सव होता है।

पंजाब में रह रहे लोग दुलारी बत्ती सम्मान में खुशी को जाहिर करने के लिए अलाव जलाते है। एक जुट होकर साथ मिलकर नाचते और गाते भी है। यह पंजाबियों का मुख्य पर्व है, लेकिन भारत के कुछ उत्तरी राज्य के लोग भी इस पर्व को मनाते हैं। उन राज्यो में हिमाचल प्रदेश, हरियाणा भी शामिल है।

इसी पर्व को सिंधी समुदाय के लोग “लाल लोई” के रूप में बड़े ही चाव से मनाते है। दुनिया के हर हिस्से में रहने वाले पंजाबी लोहड़ी के त्योहार को बहुत ही गर्मजोशी से मनाते है।

भारत में किसी भी उत्सव को बड़े ही जोरो शोरो से मनाया जाता है। यह अन्य त्योहारों की तरह लोगो को हसीं और उल्लास से भर देता है। इस त्योहार को मनाने के लिए परिवार के साथ साथ दोस्तो का जमावड़ा भी हो जाता है, क्योंकि इसमें सबलोग एकजुट हो जाते है। यही अवसर होता है जब सब एक साथ मिलकर एक दूसरे का सुख दुख साझा करते है। इस पर्व में अपनो के बीच बड़े से बड़े दिलो के फासले मिट जाते है। इस पर्व के मौके पर लोगो को मिठाई दी जाती है। यह मुख्य रूप से किसान भाईयो का पर्व है। क्योंकि यह फसल पर आधारित पर्व है। एक वजह है कि इस पर्व को फसल वाला मौसम के रूप में भी जाना जाता है। लोग अलाव जलाकर बड़े ही धूम धाम से नाचते गाते है और पंजाबी लोग आग के चारो ओर नाचने गाने के दौरान पॉपकॉर्न, गुड़, रेवड़ी, चीनी-कैंडी और तिल अर्पित करते है।

वही शाम के समय लोग अपने अपने घरों में पूजा समारोह आयोजित करते है। यह वह समय होता है जब लोग परिक्रमा करके और पूजा अर्चना करके ईश्वर से आशीर्वाद प्राप्त करते है। रीति रिवाज के अनुसार यह वह दिन होता है जब लोग सरसो का साग, गुड, गजक, तिल, मूंगफली, फूलिया और प्रसाद के रूप में मक्के की रोटी बड़े चाव से खाते है। इस दिन खाने के साथ साथ लोग नए कपड़े भी पहनना पसंद करते है। भांगड़ा पंजाब का नित्य है और इस दिन लोग धमाल मचाते है। किसानो के लिए लोहड़ी का दिन नए वित्तीय वर्ष की शुरुआत का प्रतीक माना जाता है। इस दिन नवविवाहित जोड़े और नवजात शिशुओं के लिए भी बहुत खास पर्व होता है। नवविवाहित दुल्हनों को परिवार के सभी सदस्यों से उपहार प्राप्त होते है, जिसमे गहने भी शामिल होते है।

पंजाब में लोहड़ी पर्व को मनाने के पीछे लोगो की अलग अलग धारणाएं है। एक मान्यता के अनुसार लोहड़ी शब्द को “लोई“ से लिया गया है। ये महान संत कबीर की पत्नी थी। वही कुछ लोगो के अनुसार यह शब्द “लोह” से उत्पन्न हुआ है ऐसा माना जाता है। यह पत्तियों को बनाने के लिए उपयोग किया जाने वाला उपकरण होता है।

एक अन्य मान्यता के मुताबिक कुछ लोगो की विचारधारा के अनुसार लोहड़ी शब्द की उत्पत्ति तिलोरी शब्द से हुई है ऐसा माना जाता है। यह रोरी और तिल शब्द के मेल से बनता है। इस त्योहार को मनाने का अपना अलग ही आनंद होता है। यह देश के विभिन्न हिस्सों में अलग अलग नामों से जाना जाता है। इस दिन का लोग बहुत ही उत्सुकता से इंतजार करते है।

लोहड़ी त्यौहार के विभिन्न नाम राज्यो के अनुसार कुछ इस प्रकार है। आंध्र प्रदेश में इस पर्व को भोगी के नाम से जानते है। तो असम, तमिलनाडु और केरल में इसको माघ बिहू, पोंगल और ताई पोंगल के नामो से जाना जाता है। वही महाराष्ट्र, यूपी और बिहार राज्य के निवासी इस पर्व को मकर संक्रांति के नाम से जानते है।

पहले के समय में लोग एक दूसरे को उपहार के रूप में गजट देकर इस पर्व को मनाते थे। वही समय के साथ अब धीरे धीरे काफी परिवर्तन हो रहा है। लोग गजक के साथ चॉकलेट और केक को उपहार के रूप में देने लगे है। आज की स्थिति को देखते हुए लोग प्रकृति के प्रति जागरूक हो गए है। यही वजह है कि लोग अलाव को जलाने से बचने लगे है।

इस पर्व को मनाए जाने के पीछे वजह अब तक आपको पता चल गयी होगी। इसके अलावा इस त्यौहार को कौन से राज्य में किस नाम से जानते है यह भी हमे पता चल गया है। यह पर्व खाने पीने के शौक वालो के लिए काफी महत्व रखता है। इस पर्व को मनाने के लिए मित्रो के साथ साथ रिश्तेदार भी एकजुट होते है।

इससे उनके अंदर प्रेम और सहयोग की भावना का जन्म होता है। इस पर्व को सांस्कृतिक पर्व कहे तो इसमें कोई बुराई न होगी। क्योंकि इस पर्व को लोग बड़े ही रीति रिवाज के साथ मनाते है। अलाव जलाने से लेकर नित्य करना इसमें शामिल है, जोकि भारतीय संस्कृति को दर्शाता है।

मकर संक्रांति का त्यौहार

हमारे हिन्दू धर्म में सूर्यदेवता से जुड़े कई त्योहार है और उनको मनाने की परंपरा नियम से चली आ रही है। उन्ही में से एक मकर संक्रांति है। शीत ऋतु पोस मास में जब भगवान श्री भास्कर उत्तरायण होकर मकर राशि में प्रवेश करते है, तो सूर्य की इस संक्रांति को मकर संक्रांति कहते है। और इसे देश भर में मनाया जाता है। वैसे तो मकर संक्रांति हर 14 जनवरी को मनाई जाती है, परंतु कुछ सालो में गणनाओं में आये कुछ परिवर्तन की वजह से इसे 15 जनवरी को भी मनाया जाता है। परंतु ऐसा कम ही देखने को मिलता है।

जनवरी माह के मध्य में भारत के लगभग सभी प्रान्तों में फसलों से जुडा कोई न कोई त्योहार मनाया जाता है। कोई फसलों के तैयार हो जाने पर खुशिया बाटता है। तो कुछ लोग इस उम्मीद में खुश होते है की अब पाला कम होंगा। सूरज की गर्मी बढ़ने से खेतों में खड़ी फसल तेजी से बढ़ेगी। सभी प्रान्तों और इलाको का अपना रंग और अपना ढंग नजर आता है। इस दिन सब लोग अच्छी पैदावार की उम्मीद और फसलों के घर में आने की खुशी का इजहार करते है। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश में मकर संक्रांति को तिल संक्रांति, आसाम में बिहू, केरल में ओणम, तमिलनाडु में पोंगल, पंजाब में लोहड़ी, झारखंड में सरहुल, गुजरात में पतंग का पर्व कहा जाता है। सभी खेती और फसलो से जुड़े त्योहार है। इन्हें जनवरी से मध्य अप्रेल तक अलग-अलग समय में मनाया जाता है।

स्त्री-पुरुष दोनों ही ढोल मंजीरे लेकर रात भर नाचते गाते है। चारो और फैली हुई छोटी-छोटी घाटियां लम्बे-लम्बे साल के व्रक्ष के जंगल और वही बसे आस पास छोटे छोटे गांव, लिपे पुते करीने से बहरे और सजाए गए अपने घरो के सामने लोग एक पंक्ति में कमर में बांहे डालकर नृत्य करते है। अगले दिन वो नृत्य करते करते घर घर जाते है और फूलो के पौधे लगाते है। घर घर से चन्दा मांगने की भी प्रथा है। पर चंदे में ये मुर्गा, चावल और मिश्री मांगते है। फिर होता है खेलो का दौर और तीसरे दिन ये पूजा करते है। जिसके बाद ये कानो में सरई का फूल पहनते है। इसी दिन से वसंत ऋतु की शुरुआत मानी जाती है। इस दिन धान की भी पूजा की जाती है। पूजा किये हुए धान को अगली फसल में बोया जाता है।

तमिलनाडु में मकर संक्रांति या फसलों से जुड़ा त्योहार “पोंगल”के रूप में मनाया जाता है। इस दिन खरीफ की फसलें, चावल, अरहर आदि काट कर घरो में लाया जाता है। लोग नए धान को कूटकर चावल निकालते है। हर घर में मिट्टी का नया मटका लाया जाता है। जिसमे नए चावल, दूध और गुड़ डालकर उसे पकाने के लिए धूप में रख देते है। हल्दी शुभ मानी जाती है, इसलिए साबुत हल्दी को मटके के मुँह के चारो और बांध देते है। यह मटका दिन में धूप में रखा जाता है। जैसे ही दूध में उफान आता है और दूध चावल मटके से गिरने लगते है। तो “पांगला-पोंगल” “पांगला-पोंगल” (खिचड़ी में उफान आ गया कह कर सब एक स्वर में कहते है) और हर जगह यही स्वर सुनाई देते है।

गुजरात में पतंगो के बिना तो मकर-संक्रांति का जश्न अधूरा ही माना जाता है। इस दिन आसमान की और यदि नजर उठाए तो शायद हर आकर और रंग-रूप की पतंगे आकाश में लहराती हुई दिखती है। प्रत्येक गुजराती चाहे वह किसी भी धर्म, जाती या आयु का हो। हजारो लाखो पतंगों से सूर्य भी ढक जाता है। आखिर गुजरात में पतंगो के नाम से ही तो प्रसिद्ध है संक्रांति।

कुमायू में मकर संक्रांति को घुघुतिया भी कहते है। इस दिन आटे और गुड़ को गूंधकर पकवान बनाये जाते है। इन पकवानों को तरह-तरह के आकार दिए जाते है। जैसे डमरू, तलवार, दाड़िम का फूल आदि। पकवान को तलने के बाद एक माला में पिरोया जाता है। माला के बीच में संतरा और गन्ने की गंडेरी पिरोई जाती है। यह काम बच्चे बहुत रुचि और उत्साह के साथ करते है। सुबह बच्चों को माला दी जाती है। बहुत ठंड के कारण पक्षी पहाड़ो से चले जाते है। उन्हें बुलाने के लिए बच्चे इस माला से पकवान तोड़ तोड़ कर पक्षियो को खिलाते है और इसके साथ ही जो भी कामना हो उसे मांगते है।

उत्तर भारत में मनाया जाने वाला पर्व लोहड़ी जिसे पंजाबी और सिख धर्म के लोग बड़े ही धुम-धाम के साथ मनाते है। यह त्योहार यहां फसल उत्सव के रूप में मनाया जाता है। आजकल तो लोहड़ी पूरे भारत में ही सिख धर्म को मानने वाले लोग मनाते है। परंतु पंजाब और हरियाणा में इसकी धूम अत्यधिक देखने को मिलती है। किसान अपने फसल को अग्नि देवता को समर्पित करके मनाते है। घरो के बहार लोग आग जलाते है और पंजाबी सांझा चूल्हा जलाते है। उसी पर खाना बनाने के साथ ही ढोल नगाड़ो की थाप पर नाचते है और एक दूसरे को लोहड़ी की बधाई देते है। साथ ही में गुड़ चना और मूंगफली खाते है। यह उत्सव की रोनक रात भर चलती है। जिसे यह बहुत ही धूमधाम और नाचगाने के साथ मनाते है।

आसाम में संक्रांति को बिहू के नाम से जाना जाता है। हर साल जनवरी में यहां के लोग इस त्योहार को मनाते है। यह त्योहार किसानों के लिए प्रमुख त्योहार है, क्योंकि इस पर्व के बाद किसान अपने फसलों की कटाई करके भगवान को शुक्रिया अदा करते है। बिहू पर्व में महिलाएं मीठे पकवान बनाती है और इस त्योहार को बहुत धूमधाम के साथ मनाती है।

राजस्थान में जो सुहागन महिलाएं रहती है। वो अपनी सास को वायना देती है और उनसे आशीर्वाद ग्रहण करती है। किसी भी सोभग्यसूचक वस्तु को चौदह ब्राह्मणों को दान करती है।इस प्रकार राजस्थान में मकर संक्रांति मनाने की परंपरा चली आ रही है।

बिहार में उड़द की दाल, चावल और तिल का डॉन करने की परम्परा है। चिवड़ा, गाय और अन्य चीजे दान करि जाती है।

महाराष्ट में सभी विवाहित महिलाएं कुमकुम चावल का तिलक करके कपास, तेल,और नमक का दान करती है। यहाँ तिल और गुड़ बाटने की प्रथा भी है। लोग एक दूसरे को तिल गुड़ देते है और कहते है “तिल गुळ ध्या आणि गोड़ गोंड़ बोला”। इसका मतलब है तिल गुड़ लो और खाओ और मीठा-मीठा बोलो। इस दिन महिलाएं एक दूसरे को तिल गुड़, रोली और हल्दी बांटती है और आपस में हंसी खुशी यह त्योहार मनाती है।

है न मकर संक्रांति को कितने अलग-अलग अंदाज से मनाया जाता है। कहि दूध चावल और गुड़ की खीर बनती है, तो कही पांच प्रकार के नए अनाज की खिचड़ी बनाती है। कहि-कहि लोगो का सैलाब नदी में स्नान के लिए उमड़ जाता है।लोग ठंड से ठिठुरते रहते है, पर बर्फीले पानी में कम से कम एक बार तो डुबकी जरूर लगाते है। हाल यह होता है की यहां पैर रखने की भी जगह नही होती है। मकर संक्रांति में पानी में तिल डालकर भी स्नान किया जाता है। तिल दान करना, आग में तिल डालना, तिल के पकवान बनाना विशेष महत्व रखता है।

हिन्दू पौराणिक कथाओ के अनुसार इस विशेष दिन पर भगवान सूर्य अपने पुत्र शनि के पास जाते है और जब सूर्य जाते है, तब शनि देव मकर राशि का प्रतिनिधित्व कर रहे होते है। पिता और पुत्र के रिश्तो को मजबूत बनाने के लिए ही और मतभेदों के बावजूद मकर संक्रांति को महत्व दिया गया। ऐसा कहा जाता है की इस पर्व से पिता और पुत्र के रिश्ते मजबूत होते है और सकारात्मक खुशिया उत्पन्न होती है।

भीष्म पितामाह को यह वरदान मिला था की वो अपनी इच्छा से अपनी मृतु प्राप्त कर सकते है। जब वह बाणों की सईया पर लेते थे, तब वह उत्तरायण के दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे।उन्होंने इस दिन अपनी मृतु को स्वीकार किया और अपनी आँखे बन्द कर ली, ताकि उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हो और यह दीन मकर संक्रांति का दिन ही था।

एक कथानुसार पिता सूर्य देव को कुष्ठ रोग से पीड़ित देखकर यमराज काफी दुखी हुए। यमराज ने सूर्यदेव को कुष्ठ रोग से मुक्त करवाने के लिए घोर तपस्या की, लेकिन सूर्य देव ने क्रोधित होंकर शनि महाराज के घर कुम्भ जिसे शनि की राशि कहा जाता है उसे जला दिया। इससे शनि और उनकी माता छाया को कष्ट भोगना पड़ रहा था। यमराज ने अपनी सौतेली माता, भाई शनि को कष्ठ में देख उनके कल्याण के लिए पिता सूर्य को काफी समझाया। और तब जाकर सूर्य देव शनि के घर कुम्भ में पहुंचे और तब से ही मकर संक्रांति मनाने की परम्परा प्रारम्भ हुई।

इस त्योहार को मनाने वाले विधि विधान अनुसार भगवान की पूजा करते है।

सबसे पहले प्रातःकाल स्नान आदि से निवर्त होते है। उसके बाद मुहर्त पर पूजा का स्थान आदि साफ कर, भगवान सूर्य देवता की उपासना की जाती है। पूजा की थाली में पूजन सामग्री को रखते है, जिसमे चावल का आटा या चावल, हल्दी, सुपारी, पान के पत्ते, शुद्ध जल, फूल और अगरबत्ती रखी जाती है। इसके बाद प्रसाद के रूप में काले तिल और सफेद तिल के लड्डू, कुछ मिठाई और चावल दाल की खिचड़ी बना कर भगवान को प्रसाद चढ़ाया जाता है। भगवान को प्रसाद चढ़ा कर आरती की जाती है। उसी दिन या दूसरे दिन ये प्रसाद मंदिर में दान कर दिया जाता है। पूजा के दौरान स्त्रियों का सर अपने आँचल से ढका हुआ रहता है। उसके बाद सूर्य देवता जी का मंत्र ॐ हरम हिम होम सह सूर्याय नमः का कम से कम 108 बार उच्चारण किया जाता है। उसके बाद तिल का लड्डु प्रसाद के तौर पर भी खाया जाता है। पूजा के उपरांत चावल डाल की खिचड़ी खाई जाती है और पतंग बाजी की जाती है।

इस पूजा के करने से बल, बुद्धि, ज्ञान की प्राप्ति होती है। आद्यात्मिक भावना को बढ़ाती है और शरीर को स्वस्थ रखती है। इस दीन किये गए कार्य में सफलता जरूर मिलती है। हिन्दू धर्म को मानने वाले लोगो का यह प्रमुख त्योहार है। इस त्यौहार से आपस में खुशिया बाटी जाती है। इस त्यौहार में मीठा खाने और मीठा बोलने की परम्परा का विकास होता है।

इस प्रकार हमारे देश में त्योहारों की कोई कमी नहीँ है। परन्तु प्रत्येक त्योहार कोई ना कोई सीख प्रदान करता है। जैसे मकर संक्रांती जहां पतंगबाजी की मस्ती है, तो दूसरी और मीठा बोलने और मीठा खाने की ओर हमारी दृष्टि करता है। और कहता है की ये खुशिया केवल एक दिन के लिए ही नही, अपितु इसे अपने जीवन में पूरी तरह से उतारे और कटु वचन को भूल जाए। सभी से नम्रता और मिठास के साथ ही बात करे। जिस प्रकार सूर्य देवता की उपासना और फसल की कटाई की खुशी, उसी प्रकार कहि डांस तो कही नाच गाने का एक आगाज़ का नाम है मकर संक्रांति।

झारखण्ड में सरहुल बड़े जोशो-खरोश के साथ मनाया जाता है। चार दिनों तक इसका जश्न चलता रहता है। अलग- अलग जनजातियाँ इसे अलग-अलग समय में मनाती है।

सन्थाल लोग फरवरी-मार्च में, तो ओरांव लोग इसे मार्च अप्रेल में मनाते है। आदिवासी आमतौर पर प्रकृति की पूजा को महत्व अधिक देते है। सरहुल के दिन विशेष तोर पर साल के पेड़ की पूजा करते है और यही समय है जब साल के पेड़ो में फूल आने लगते है और मौसम बहुत ही ख़ुशनुमा हो जाता है।

रामनवमी पर निबंध

रामनवमी जैसा कि नाम से समझ मे आ जाता है, कि राम जी का जन्म दिवस, जिस दिन श्री राम जी ने जन्म लिया था। राम जी जिन्हें हम मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम जी के नाम से जानते है। राम जी को भगवान विष्णु के अवतार माना जाता है। भगवान विष्णु ने त्रेतायुग में श्रीराम के रूप में अवतार लिया था। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम जी ने अपने जीवन मे बहुत से कष्ट और तकलीफों को सहकार मर्यादा में रहकर जीवन का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत किया। चाहे कैसी भी तकलीफे हो उन्होंने अपने आदर्शों को कभी नही त्यागा और अपने जीवन को बिताया।

रावण के अत्याचार से त्रेता युग मे हाहाकार मचा हुआ था। सभी साधु संतों का जीना मुश्किल हो गया था। रावण ने सभी नव ग्रहों को ओर काल को भी बन्दी बना कर रख लिया था।किसी भी देवता या असुर की हिम्मत नहीं थी कि वो रावण से युद्ध कर सकें। पूरी पृथ्वी पर रावण का राज्य स्थापित हो चुका था। रावण को ये घमंड हो गया कि वो अजेय ओर अमर है। रावण को शिव जी ने अम्रता का वरदान भी दिया था, क्योंकि रावण शिव जी का बहुत बड़ा भक्त था। उसी के तहत शिव जी ने उससे प्रसन्न हो कर ये वरदान दिया था। उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीँ सकता है उसके इस घमंड का अंत करने के लिए ही राम जी ने धरती पर जन्म लिया और रावण का वध करके धरती को मर्यादा ओर धर्मनिष्ठा पर चलने की सिख प्रदान करी।

रामनवमी के त्योहार चैत्रमास के शुक्ल पक्ष की चेत्र शुक्ल नवमी के दिन, सूर्य पुनर्वसु कर्कलग्न में जब पांच ग्रहों की शुभदृष्टि के साथ मेषराशि में विराजमान था, तब धरती के पालनकर्ता श्री विष्णु भगवान ने कौशल्या जी की कोख से राम जी के रुप मे जन्म लिया था। और श्री राम जी के जन्म के उपलक्ष्य में ही इस दिन को रामनवमी के त्योहार के रूप में मनाया जाता है।रामनवमी का दिन धार्मिक और पारंपरिक हिन्दू त्यौहार में से एक है। इस त्योहार को पूरे भारत मे बहुत ही उत्साह के साथ मनाया जाता है। श्री राम जी को विष्णु जी के 10 अवतारों में से 7 वा अवतार माना जाता है। कहि – कहि तो लोग अपने घरों में श्री राम जी की मूर्ति बनाकर इनकी पूजा करते है और सुख शांति की कामना करते है। दक्षिण भारत मे रामनवमी के दिन लोग श्री राम और माता सीता के विवाह की सालगिराह के रूप में मनाते है। इस दिन दक्षिण भारत के मंदिरों को फूल और लाइट की सजावट की जाती है।

अयोध्या और मिथिला में श्री राम और सीता मा की पंचमी के दीन को उनके विवाह की सालगिरह के रूप में मनाया जाता है। इस दिन अयोध्या में लोग पूरे देश से आकर श्रीराम जी के दर्शन करते है। वाराणसी में तो लोग गंगा जी मे स्नान करके राम जी, सीता जी और लक्ष्मण जी ओर हनुमान जी की रथ यात्रा निकालते है।

रामनवमी के दिन प्रातःकाल स्नान करके पीले वस्त्र धारण किये जाते है और व्रत करने का संकल्प लेकर पूजा स्थल पर पूजा की सभी सामग्री, जैसे कमल का फूल, फल, तुलसी, चौकी, लाल कपड़ा और एक छोटा सा पलना लेकर, गंगाजल ओर तांबे का कलश रखकर राम जी के राम दरबार की मूर्ति की पूजा करि जाती है। रामनवमी के व्रत को करने से माना जाता है कि सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है। व्यक्ति के सभी दुख दर्द का अंत होता है। मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम की तरह एक श्रेठ जीवन जीने का लाभ इस व्रत से प्राप्त होता है।

राम जी के जन्म को लेकर हम सामान्य तौर से मानते है कि राम जी ने अयोध्या में जन्म लिया था। उन्हें जन्म देने वाली माँ भले ही कौशल्या हो, पर वो कैकई जिसने राम जी को 14 वर्ष का वनवास दिलवाया था, उन्हें भी माँ से कम नहीं मानते थे। राम जी की एक माँ सुमित्रा भी थी। पुराणों में लेकिन इस बात को लेकर कई मतभेद है कि श्रीराम जी का आखिर जन्म कब हुआ था। प्रचलित कथाओं के अनुसार श्रीराम जी का जन्म चैत्रमास की शुक्लपक्ष के नवमी को हुआ था। जिसे हमारे पूरे भारत वर्ष में रामनवमी के रूप में मनाया जाता है, जो श्रीराम जी के जन्म की घोतक मानी जाती है। परंतु युग आये और बदलते चले गए, फिर भी सभ्यता के साथ ये सवाल आज तक असंभव सा प्रतीत होने लगा कि आखिर श्री राम जी ने जन्म कब लिया था। किस काल खण्ड और वर्ष में, उनके जन्म की तारीख और स्थान पर भी मतभेद होते आये है। फिर भी इस बात को प्रमाणित नही किया जा सका कि राम जी का जन्म आखिर कब हुआ।

तुलसीदास जी की रामचरितमानस के बालकाण्ड 190 के दोहे की पहली चौपाई के अनुसार तुलसीदास जी ने भी राम जी के जीवन की विभिन्न्न अवस्थाओ का जिक्र किया है। जिसमे श्री राम जी के जन्म का भी जिक्र है। यूनिक एक्जीबिशन ऑन कल्चरल कॉन्टिनीयूटी फ्रॉम ऋग्वेद टू रोबॉटिक्स नामनकी इस एक्जीबिशन में प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार श्री राम जी का जन्म 10 जनवरी 5114 ईसापूर्व सुबह बारह बजकर पाँच मिनिट पर हुआ था। वाल्मीकि रामायण द्वारा बताई गई ग्रह नक्षत्रों का जब प्लेनेटेरियम सॉफ्टवेयर के अनुसार विश्लेषण किया गया, तो श्री राम जी के जन्म की तिथि 4 दिसम्बर ईसापूर्व यानी 9349 वर्ष पहले प्रतीत हुई।

वाल्मीकि जी के अनुसार श्री राम जी का जन्म चैत्रमास के शुक्लपक्ष की नवमी को, पुनवरसू नक्षत्र और कर्क लग्न में, कौशल्या देवी ने दिव्य लक्षणों से युक्त श्री राम जी को जन्म दिया था।वाल्मीकि जी कहते है कि श्री राम जी का जब जन्म हुआ, उस समय पाँचग्रह अपनी उच्चतम स्तिथि में थे। इस प्रकार श्रीराम जी की जन्म की कई मान्यताएं है और कुछ उनके जन्म की तिथि भी सही तय नहीं कर पाते है। परंतु हम तो श्रीराम जी के रामनवमी को उनके जन्म के रूप में मनाते है और बहुत ही हर्षोउल्लास के साथ मनाते है। वैसे भी जन्म तो धरती पर रहने वाले प्रत्येक जीव, जंतु और प्रत्येक अंश का हुआ है। परंतु हर कोई तो श्री राम जी के समान मर्यादा पुरुषोत्तम नहीँ हो सकता। इसलिए श्री राम जी के समान अगर हर व्यक्ति हो जाए, तो समझ लीजिए आप अपने जीवन मे तर गए। क्योंकि श्री राम जी जैसा ना कोई इस धरती पर हुआ है और ना ही कोई होंगा। पर उनके समान गुण जरूर अपना सकते है

हमारे हिन्दू ग्रन्थ में रामायण का अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान है। रामायण में श्री राम जी के जीवन व्रतांत का वर्णन किया गया है। रामायण के अनुसार त्रेता युग मे अयोध्या में दशरथ नाम के राजा रहते थे। उनकी तीन पत्नियां थी, कौशल्या, कैकई और सुमित्रा। उनकी कोई संतान नहीं थी। वो इसी बात से दुखी थे। फिर वो ऋषि वशिष्ठ के पास गए ओर अपनी परेशानी बताकर उनसे संतान प्राप्ति का कोई रास्ता पूछा। ऋषि वशिष्ठ ने संतान प्राप्ति के लिए कामेष्टि यज्ञ कराने की सलाह दी। तब राजा दशरथ ने ऋषि ऋष्यस्रिंग को यज्ञ कराने के लिए बुलाया। यज्ञ कराने के बाद यज्ञनेश्वर जी ने प्रसन्न हो कर राजा दशरथ को एक खीर से भरा कटोरा दिया और दशरथ जी से तीनों पत्नियों को खिलाने के लिए कहा। ऋषि यज्ञनेश्वर के आशीर्वाद से नवमी के दिन कौशल्या जी ने श्री राम जी को, सुवित्रा जी ने लक्ष्मण और शत्रु को, कैकई जी ने भरत को जन्म दिया।

राम जी को विष्णु जी का अवतार माना जाता है। जिन्होंने अधर्म को समाप्त करने के लिए ओर मर्यादा में रह कर जीने का ज्ञान प्रदान करने के लिए इस घरती पर जन्म लिया था। राम जी जब बड़े हुए, तो राजा जनक की पुत्री सीता जी से स्वयंवर पर, पंचाग के अनुसार मार्गशीर्ष मास की शुक्लपक्ष की पंचमी की तिथि पर, राम जी और सीता जी का विवाह हुआ था। साथ ही राम जी के अन्य भाईयो का विवाह भी सीता जी की बहनों से हुआ था। जब राम जी और सीता जी अयोध्या आये, तो उनका भव्य रूप से स्वागत हुआ था। कुछ समय बाद जब राजा दशरथ ने राम जी को अपना सिंहासन दें कर उन्हें उस राज्य का राजा बनाने की घोषणा करनी चाही, तो कैकई ने अपना पुराना वचन याद दिला कर भरत को राजगद्दी देने का वचन तो लिया ही, साथ ही राम जी को 14 वर्ष का वनवास भी दिलवाया।

राम जी जब वन जाने लगे, तो सभी बहुत दुखी हुए। तब उनके साथ सीता माता और उनका भाई लक्ष्मण जी भी चले गए। इस बात की खबर भरत को नही थी, क्योंकि भरत उस समय आने ननिहाल गए हुए थे। राम जी वन को चले गए। वहाँ उन्होंने वन – वन भटककर अपना जीवन बिताया। अहिल्या का उद्धार किया। परंतु वन में ही लंका के राजा रावण ने सीता जी का धोखे से अपहरण कर लिया था। सीता जी को ढूढने में राम जी की मद्त हनुमान जी ने की, जो कि राम जी के बहुत बड़े भक्त थे। जामवंत, सुघ्रिव सभी ने राम जी की सहायता करि थी। अंत मे राम जी ने लंका के राजा रावण को हराकर सीता जी को वापस लेकर आ गए थे। राम जी जब अयोध्या वापस लौटकर के गए, तो अयोध्या नगरी को एक दुल्हन की तरह सजा दिया गया था। हर जगह दिए और रोशनी जगमगा रही थी। इस दिन को आज भी हम दिवाली के त्यौहार के रूप में मानते है। तो इस तरह भगवन श्री राम जी का जन्म हुआ और उसी दिन से लोग भगवन राम के जन्म दिवस को रामनवमी का त्यौहार मनाते है।

भगवान श्री राम जो कि विष्णु भगवान के अवतार थे। चाहे तो वो अपने जीवन को आराम और बिना कोई परेशानि बिता सकते थे। परंतु उन्होंने एक आम इंसानों के अनुसार अपना जीवन बिताया और 14 वर्ष तक वन में रहे। फिर भी उन्होंने अपने धर्म का पालन किया। हमे उनके जीवन से कुछ सीखना चाहिए। जैसे –

  • भगवान पर विश्वास रखना चाहिए।
  • सभी के प्रति प्यार और दया की भावना रखना।
  • क्षमा करना।
  • सच्ची मित्रता
  • अच्छी संगति का असर अच्छा
  • सबसे समान व्यवहार
  • हर परिस्थिति को मुश्कराकर निपटाना।
  • ऊँचनीच का कोई भेदभाव नहीँ रखना।
  • माता पिता का आदर करना।
  • सच्ची भक्ति।
  • ऐश्वर्य से बढ़कर रिश्तों को महत्व देना।
  • प्यार और स्नेह को हमेशा बरकरार रखना।

श्री राम जी ने अपने पूरे जीवन मे कई तकलीफ़े देखी और सही, फिर भी उन्होंने अपनी मर्यादा ओर धर्म की राह पर जीने की राह को नहीँ छोड़ा। राम नवमी के त्योहार बस खुशियां या हर्षोउल्लास से मनाने का त्योहार नहीं है, अपितु ये सिखाता है कि राम जी के गुणो को अपनाए ओर अपने जीवन को श्री राम जैसे ही सफल बनायें। भले ही शुरुआत का जीवन कांटो से भरा हुआ हो, परंतु अंत मे हमेशा खुशियां ओर हर्षोउल्लास से भरा जीवन ही विताने को मिलता है और हमेशा अच्छे मित्र और अपनों का साथ मिलता है।

हनुमान जयंती पर निबंध

हनुमान जी का नाम आते ही हमारे सामने हनुमान जी की जो छबि आती है, वो श्री राम जी के सबसे बड़े बलशाली, ताकतवर भक्त के रूप में आती है। हनुमान जी हमारे देश भारत के सबसे बड़े महाकाव्य रामायण में सर्वप्रथम आता है। कुछ लोगो के विचारानुसार हनुमान जी शिवजी के 11 वे रूद्रावतार है, जो सबसे बलवान ओर बुद्धिमान माने जाते है। माना जाता है कि हनुमान जी का जन्म श्री राम जी की सहायता करने के लिए हुआ था। हनुमान जी की ताकत और उनकी बुद्धि की अनेकों कहानियां प्रचलित है। कहते भी है कि कलयुग में कोई ईश्वर अगर इस धरती पर है, तो वो है केवल श्री राम भक्त हनुमान जी। उन्हें वायुपुत्र कहा जाता है, क्योंकि उनका वेग वायु से भी तेज है और कहा जाता है की वो वायु देव के पुत्र है।

हनुमान जी के भक्त बल, बुद्धि की कामना उनसे करते है। हनुमान जी का नाम लेते ही सभी दुख दूर हो जाते है। उनका नाम सुनने मात्र से ही सभी बुरी शक्तिया दूर भाग जाती है।कहते है कलयुग में सिर्फ हनुमान जी ही है, जो सशरीर विधमान है और जब तक श्री राम जी का नाम इस धरती पर रहेगा, तब तक श्री राम भक्त हनुमान जी भी रहेंगे।

ऋषि मुनी या ज्योतिषियों की सटीक गणना के अनुसार हनुमान जी का जन्म 58 हजार 112 वर्ष पहले हुआ था। मान्यताओं के अनुसार त्रेतायुग के आखरी चरण में, चेत्र पूर्णिमा को मंगलवार के दिन, चित्रा नक्षत्र व मेष लग्न के योग में, सुबह 6.03 बजे भारत देश मे झारखंड के गुमला जिले के आंजन नाम की छोटे से पहाड़ी गांव की एक गुफा में हनुमान जी का जन्म हुआ था उनके जन्म की ये जानकारी कई ज्योतिषयों के गणना नुसार है, जो सटीक गणना है। परंतु उनके जन्म को लेकर कुछ भी निश्चित नही माना जाता है। ऐसा कहा जाता है, क्योंकि मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाके के लोगो का कहना है की हनुमान जी का जन्म मध्यप्रदेश में हुआ। जबकि कर्नाटक के रहने वालो कि ये धारणा है कि हनुमान जी कर्नाटक में पैदा हुए थे। पम्पा ओर किष्किंधा के ध्वंसावशेष अब भी हम्पी में देखे जा सकते है। फादर कामिल बुल्के ने लिखा है कि हनुमान जी वानर पंथ में पैदा हुए थे। इस प्रकार हनुमान जी के जन्म को लेकर कई तरह की मान्यताएं है, परंतु उनकी शक्ति को कोई भी नकार नहीँ सकता। कहा जाता है कि जिसने हनुमान जी का नाम लिया उसने अपने जीवन वो सब पा लिया जो वो चाहता है।

हमारे देश मे कई तरह के त्योहार आते है। उनमें हनुमान जयंती का त्योहार भी एक महत्वपूर्ण त्योहार है। इस त्यौहार को हम सभी हनुमान जी के जन्मदिवस के रूप में मनाते है। यह त्योहार चेत्र माह में मार्च-अप्रेल के महिने में मनाया जाता है। जबकि केरल और तमिलनाडु में हनुमान जयंती दिसम्बर जनवरी में मनाया जाता है। इस दीन हनुमान जी के भक्त सुर्यउदय से पहले ही उठकर मंदिरों में स्नान आदि करके एकत्रीत हो जाते है। फिर आरती, पूजापाठ आदि होता है। हनुमान जी की आध्यात्मिक स्मृतियों ओर उनकी बुराई पर अच्छाई की जीत की रामकथा सुनाई जाती है। इस दिन, दिन भर ही हनुमान जी के भक्तों का मंदिर में आना जाना लगा रहता है। सभी भक्त अपने दुखों को दूर करने की कामना हनुमान जी से करते है और बल, बुद्धि की कामना करते है।

हनुमान जी के भक्त पूरे भारत देश मे अनन्य है। इस दिन हनुमान जी के भक्त सुबह प्रातःकाल स्नान आदि करके हनुमान जी की पूजा अर्चना करते है। इस दिन भक्त पूरे दिन व्रत रखते है। उत्तर भारत मे हर एक किलोमीटर पर हनुमान जी का एक मंदिर दिखाई पड़ ही जाता है। मंदिर छोटे हो या बड़े हर जगह उनके भक्त दिखाई पड़ ही जाते है। हनुमान जयंती पूरे रीतिरिवाज ओर परम्परा के अनुसार मनाते है। इस दिन हनुमान जी की मूर्ति को सिंदूर, फूल और आम के पत्तों से सजाया जाता है। इस दिन लोग उत्साह के साथ इस त्योहार को मनाते है। फल, मिठाई आदि प्रसाद के रूप में चढ़ाते है। जिसको प्रसाद के रूप में ही भक्तजन को वितरित किया जाता है। इस दिन हनुमान चालीसा का पाठ पड़ते भक्तगण दिखाई देते है। साथ ही सायंकाल से सुंदरकांड की शुरुआत होती है और किसी – किसी मंदिर में तो पूरी रात इस पाठ का मंचन होता है। हनुमान जयंती के दिन भण्डारे का आयोजन भी किया जाता है। इस भण्डारे में सभी का स्वागत होता है। जिसमे छोटे- बड़े या जात पात का कोई महत्व नहीं रहता ओर भण्डारे के साथ ही कही भक्तों को रोककर उन्हें प्रसाद और शर्बत आदि प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है।

इस दीन या प्रत्येक दिन हनुमान जी के मंदिर के दरवाजे सभी के लिए हमेशा ही खुले रहते है। इंसान भले ही आपस मे भेदभाव रखे, परंतु भगवान जी की नजरों में सब बराबर होते है और उनकी उपासना से मनुष्य हमेशा एक अच्छा इंसान ओर साहस, बल, बुद्धि का आशिर्वाद प्राप्त करता है। हनुमान जी को भक्तगण अच्छे और बुरे दोनों ही समय मे याद करते है। उन्हें हिन्दू धर्म मे सबसे शक्तिशाली देवता के रूप में जाना जाता है। हनुमान जी संकटमोचन श्री बजरंगबली के नाम से पूरी दुनिया मे विख्यात है।

हनुमान जी जब छोटे थे, तो बहुत नटखट थे। बजरंगबली नाम उनका उनके पिता केसरी जी ने रखा था। एक बार की बात है कि हनुमान जी को बहुत भूख लग रही थी और उनकी माँ अंजना उनके लिए भोजन ला ही रही थी, कि उन्होंने खेल खेल में ही सूर्य भगवान को फल के जैसा समझ कर उन्हें ही खाने के लिए अपने मुंह मे रख लिया। ऐसा होने से उनकी माँ अंजना परेशान हो गयी। सूर्य देव को मुँह में रखने से चारों ओर अंधकार छा गया ओर इस बात की खबर जब स्वर्ग के राजा देवराज इंद्र को पता चली तो उन्हें बहुत गुस्सा आ गया। गुस्से में ही उन्होंने अपने वज्र से हनुमान जी की ठोड़ी पर प्रहार किया, जिसकी बजह से वो टूट गयी ओर हनुमान जी वही मूर्छित हो कर गिर गए। जब यह बात पवन देव को पता चली, तो उन्होंने धरती के वायु का संचार रोक दिया। समस्त संसार बिना वायु के विचलित हो उठा। तब ब्रह्मा जी ने आकर बालक मारुति को पुनःजिवित किया और वायुदेव को अनुरोध किया कि वो वायु का पुनः संचार करें, अन्यथा समस्त संसार मृतु को प्राप्त हो जायेगा।

सबके आग्रह करने पर वायु देव मान गए। तब वायुदेव के साथ बाकि समस्त देवताओं ने उन्हें वरदान दिये। साथ ही ब्रह्मादेव सहित अन्य देवताओं ने उन्हें हनु अर्थात ठुड्डी पर चोट लगने के कारण हनुमान नाम दिया। ठोड़ी को संस्कृत में हनु कहते है और तब से बजरंगबली का नाम हनुमान पड़ा।

हमारे धार्मिक पुस्तकों में सभी देवी देवताओं के 108 नाम बताए गए है। ओर सभी देवी देवताओं के 108 नाम महत्वपूर्ण होते है। उसी प्रकार हनुमान जी के भी 108 नाम है। कहा जाता है कि मंगलवार का दिन हनुमान जी का विशेष दिन होता है, क्योंकि इसी दिन हनुमान जी का जन्म हुआ था। जिसे हम हनुमान जयंती के रूप में मनाते है। हनुमान जी की पूजा अर्चना करने से सभी तरह के कष्ट दूर होते है, क्योंकि हनुमान जी को संकटमोचन हनुमान कहा जाता है। कहा जाता है कि मंगलवार के दिन अगर हमने हनुमान जी के 108 नाम का जाप किया, तो अच्छी नींद आती है, परेशानियों से निजात मिलती है और कोई भी डर या बाधा या बुरे सपनो से मुक्ति मिलती है। हनुमान जी भी अपने भक्तों को कष्ठ ओर दुखी नहीं देख सकते, इसलिए हनुमान जी की उपासना करने से हनुमान जी जल्द ही प्रसन्न हो जाते है और उनके भक्तों के दुख दूर करते है।

हम सब बचपन से ही देखते ओर सुनते आ रहे है जब भी नवरात्र शुरू होती है। रामलीला का मंचन भी शुरू हो जाता है और कई जगह पर रामलीला की मंडली रामायण का जीवंत मंचन करते है। रामलीला में भगवान श्री राम के जीवन की हर घटनाओं को दर्शया जाता है। जब भी कही रामलीला का प्रदर्शन हो वहां हनुमान जी का नाम ना आये ऐसा तो होही नहीँ सकता। क्योंकि पूरी रामायण में हनुमान जी का महत्व अत्यधिक है। जो कि राम जी के सबसे बड़े भक्त के रूप में दिखाई पड़ते है। साथ ही वानर सेना के महत्व का भी पता चलता है। जब रामलीला में जय श्री राम का नाम आता है, तो उस वक्त बच्चों से लेकर बड़े सभी खुशी से जय श्री राम का आगाज़ करते है।क्योंकि राम जी की उपासना के साथ हनुमान जी की उपासना का वरदान हनुमान जी को प्राप्त हुआ है। तो चलिए कहते है जय श्री राम।  

हनुमान जयंती के दिन ही नही अपितु हर दिन हनुमान जी के प्रत्येक मंदिर में, चाहे वो देश दुनिया मे किसी भी कोने में ही क्यों ना हो, उनकी उपासना को भक्तगण महत्वपूर्ण स्थान देते है। कहते है की जब तक राम जी का नाम इस पृथ्वी पर रहेंगा, तब तक हनुमान जी का नाम भी रहेगा। राम जी जँहा वँहा हनुमान जी भी रहेंगे और ये वरदान स्वयं राम जी ने हनुमान जी को दिया था। हनुमान जी साक्षात इस धरती पर विराजमान है, इसलिए हनुमान जी की जयंती वाले दिन ही नही बल्कि बाकि दिन भी उनकी उपासना बड़े जोर शोर से की जाती है। उनकी उपासना ऐसी करि जाती है कि ऐसा अनुभव होता है, जैसे साक्षात हनुमान जी अपने भक्तों के दुख और तकलीफों को दूर करने के लिए स्वयं पधारते है।

कृष्ण जन्माष्टमी पर निबंध

जन्माष्टमी का त्योहार हमारे देश के एक छोर से दूसरे छोर तक बड़े उल्लास और आनंद के साथ मनाया जाता है। यह त्योहार होली, दिवाली, दशहरा आदि की तरह विशुद्ध रूप से धार्मिक त्योहार है। यह पवित्रता, स्वच्छता और विषमता का प्रतीक है। इस त्यौहार से श्रद्धा और विश्वास के साथ साथ विभागों का उदय होता है। यह त्यौहार मुख्य रूप से आत्मविश्वास व आत्म चेतना का प्रेरक और संवाहक है। जन्माष्टमी का त्योहार भाद्रपद के कृष्ण पक्ष के अष्टमी की रात्रि को मनाया जाता है। त्यौहार का आयोजन इसके प्रमुख तिथि से कई रोज पूर्व आरंभ हो जाता है। कृष्ण जी के बाल स्वरूप की आराधना उपासना के अंतर्गत उनके स्वरूप का चिंतन और मनन किया जाता है। बालक श्रीकृष्ण की विभिन्न बाल लीलाओं को आधार बनाकर नाटक, परिसंवाद आयोजित किये जाते है। इनसे अधिक रोचक और आकर्षक प्रदर्शन और झांकियां हुआ करती हैं।

ये बात तो आप सभी जानते है की कृष्ण जी बाल्यावस्था से ही बहुत नटखट थे। उनकी लीलाएं इतनी प्यारी थी कि चाहे गोपियों को सताना, माखन चुराना हो, हर लीलाओं में उन्हें कई नाम प्रदान किए गए थे। जैसे मुरलीधर, गोपाल, नटखट नन्दलाल, कान्हा, गोविंद, ऐसे भगवान श्री कृष्ण जी के 108 नाम है। महाभारत के युद्ध में भी भगवान श्री कृष्ण जी ने अहम भूमिका निभाई थी। इसका ज्ञात तो आपको होगा ही। भगवान श्री कृष्ण जी ने “श्री भागवत गीता” का उपदेश प्रदान किया है। हमें उन उपदेशों को अपने जीवन में उतारना चाहिए ओर अपने जीवन में सुख और खुशियां प्राप्त करनी चाहिए।

सौभाग्य, यश, कीर्ति, पराक्रम़ ओर अपार वेभव के लिए भगवान श्री कृष्ण के नामों का हमें जाप करना चाहिए। कहा जाता है की उनके 108 नामों का जाप करने से व्यक्ति को सभी दुख ओर कष्टो से मुक्ति प्राप्त होती है ओर व्यक्ति के जीवन का उद्धार हो जाता है। जन्माष्टमी मनाने के विषय में एक पौराणिक कथा है। श्रीमद् भागवत पुराण के अनुसार द्वापर युग में कंस नामक मथुरा का राजा बड़ा ही अत्याचारी और नृशंस था। वह जब अपनी बहन देवकी को विवाह के बाद उसके ससुराल पहुंचाने के लिए रथ पर ले जा रहा था।

तब उस समय यह आकाशवाणी हुई कि जिस बहन को तुम इतने लाड प्यार के साथ विदा कर रहे हो, उसी की आठवीं संतान तुम्हारे मृत्यु का कारण होगी। कंस इस आकाशवाणी को सुनकर बड़ा घबरा गया। उसने हडबड़ा कर अपनी बहन देवकी को जान से मारने के लिए तलवार खींच ली। तब वासुदेव जी ने ध्रय देते हुए समझाया की जब इसके ही पुत्र से आपकी मृत्यु होगी, तो आप इसे बन्दी बना लीजिए और इसका जो भी पुत्र होगा, उसे यह आपको एक एक करके दे दिया करेंगी। उसके पश्चात आप जो चाहे वह कीजिएगा। कंस ने वासुदेव की बातें मान ली और देवकी तथा वसुदेव को जेल में डाल दिया। इन पर कड़ी निगरानी रखने का सख्त आदेश भी दे दिया। कहा जाता है कि कंस ने देवकी के एक एक करके सात पुत्रों को पटक-पटक कर मार डाला।

आठवें पुत्र कृष्ण की जगह पर वासुदेव ने अपने मित्र नन्द की पुत्री को आकाशवाणी के अनुसार कंस को दे दिया। कंस ने पुत्र या पुत्री का विचार न करके क्रोध ओर भय के फलस्वरुप उस कन्या को जैसे ही पटकने के लिए प्रयास किया, वैसे ही वह कन्या उसके हाथ से छूटकर आकाशवाणी कर गई। उस कन्या ने कहा की हे कंस जिसके भय से तुमने मुझे मारना चाहा है वह जन्म ले चुका है और गोकुल पहुंच चुका है। कंस इस आकाशवाणी को सुनकर सहम गया। कर्तव्य विमुख हो  कर वह क्रोध से विक्षिप्त हो उठा। उसने आदेश दे दिया कि आज के दिन जो भी बच्चे पैदा हुए हैं उन्हें मार डालो।

और ऐसा ही किया गया, उसने गोकुल में भी अपने प्रतिनिधियों और पूतना जैसी राक्षसी को भेजकर कृष्ण को मार डालने की कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन कृष्ण तो परमब्रह्म परमेश्वर के अवतार थे, इसलिए उनका कुछ भी बाल बांका ना हो सका। इसके विपरित ना केवल कंस के प्रतिनिधि मारे गए, अपितु कंस की ही जीवन लीला समाप्त हो गयी। भगवान श्री कृष्ण की इस परम लीला की झांकी और प्रदर्शनी जन्माष्टमी के दिन प्रातः में प्रत्येक श्रद्धालुओं द्वारा जन्माष्टमी के पावन समय पर प्रस्तुत की जाती है। भगवान श्री कृष्ण के इस चरित्र और जीवन झांकी की रूप रेखा के द्वारा हमें उनके स्वरूप के विभिन्न दर्शन और ज्ञान प्राप्त होता हैं।

इसमें मुख्य रूप से श्री कृष्ण का योगी, गृहस्थ, कूटनीतिज्ञ, कलाकार, तपस्वी, महान पुरुषार्थी, दार्शनिक, प्रशासक, मनस्वी आदि स्वरूप है। इनके साथ ही साथ श्री कृष्ण के लोक रंजक, लोक संस्थापक ओर लोक प्रतिनिधित्व स्वरूप का भी हमें ज्ञान और दर्शन जन्माष्टमी के त्यौहार से सहज ही प्राप्त हो जाता है। भगवान धर्मसंस्थानार्थ, पापियों के विध्वंस और साधुओ के रक्षक हैं, यह भी प्रबोध हमें मन और आत्मा से बार-बार हो जाता है।

जन्माष्टमी के त्योहार को मनाने का ढंग बड़ा ही सहज ओर रोचक है। इस त्योहार को मनाने के लिए सभी श्रद्धालु सवेरे सवेरे से अपने घरों और आवासों की सफाई करके उसे धार्मिक चिन्हों के द्वारा सजाते हैं। विभिन्न प्रकार के धार्मिक कृत्यों को करते हैं और व्रत रखते हुए श्री कृष्ण लीला गान और श्री कृष्ण कीर्तन करते रहते हैं। बड़े बड़े नगरों में तो इस त्योहार को बड़े पैमाने पर सम्पन्न ओर आयोजित करने के लिए, कई दिन पहले से ही तैयारियां आरंभ हो जाती हैं। नगर की गलियां, गलियांरे विविध प्रकार की साज सज्जा से झूम उठते हैं। मिठाइयों की दुकान, कपड़ों की दुकान, खिलौनों की दुकान, मंदिर और अन्य धार्मिक संस्थानों सहित कई प्रकार के सामाजिक प्रतिष्ठान भी सज धज कर चमक उठते हैं। सबसे अधिक उत्साह बच्चों में होता है। अन्य भक्त गण तो इस त्योहार को सबसे बड़ा आनंददायक और उत्साहवर्धक समझ कर अपने तन मन को निछावर करने के लिए प्रस्तुत रहा करते हैं।

सवेरे से श्री कृष्ण का मन ही मन स्मरण ओर समर्पण भाव से नाम जपते हुए जन्माष्टमी के त्यौहार को कुछ पूजा पाठ करके दान पूर्ण उपरांत व्रत को धारण करते हैं। भगवान की मूर्ति या चित्र पर अर्ध्य दीप, फल आदी को चढ़ाकर दिनभर व्रत को रखा जाता है। व्रत रात को भी धारण किया जाता हैं। कुछ लोग तो अखंड भाव से कम से कम जलपान करते हुए व्रत रखते हैं। प्राय: सभी भक्तगण दिनभर प्रसाद व स्वच्छ फल या पेय पदार्थ का सेवन करते है और अर्धरात्रि के समय चंद्रदर्शन उपरांत ठीक मध्य रात्रि 12:00 बजे श्री कृष्ण के जन्मोत्सव का आनंद लेते हुए, कथा श्रवण करके प्रसाद लेते हैं। इसके बाद व्रत को समाप्त किया जाता हैं। इसके बाद फिर श्री कृष्ण का जप, जाप, पूजा करके ध्यान करते हुए निद्रा का आनंद लेते हैं। वही कुछ लोग रातभर जागरण किया करते हैं।

जन्माष्टमी की पूजा करते वक्त सबसे पहले भगवान का ध्यान ओर जाप मन ही मन सुबह से ही करते है। रात में कृष्ण जी का जन्म हुआ था, कहा जाता है की कृष्ण जी ही एकमात्र है जिनका जन्म धरती पर रात को 12 बजे हुआ। क्युकी पूरी प्रथ्वी पर आज तक ठीक 12 बजे किसी का भी जन्म नहीं हुआ है। कृष्ण जी की पूजा करने से पहले कुछ तैयारी आवश्यक होती है। सबसे पहले आप चौकी पर लाल वस्त्र बिछाये और भगवान श्री कृष्ण के पात्र को रखें। फिर बाल गोपाल को पंचामृत और गंगाजल से स्नान कराएं। लड्डू गोपाल को वस्त्र पहनाए उनका पूरे तरीके से साज सिंगार करें। अब भगवान श्री कृष्ण को रोली ओर अक्षत से तिलक करे। अब लड्डू गोपाल को तुलसी अर्पित करें और माखन और मिश्री का भोग लगाएं।

भोग लगाने के बाद श्रीकृष्ण को गंगाजल भी अर्पित करें। अब श्री कृष्ण जी की आरती करें। हाथ जोड़कर अपने आराध्य देवता का ध्यान करें। आरती के बाद नारियल फोड़कर सभी में प्रसाद वितरण करें। बाल्यावस्था से ही श्री कृष्ण जी बहुत ही नटखट ओर शरारती थे। गोपियों को सताना, उनकी मटकी फोड़ देना, ग्वालों के साथ गायो को चराना ओर मक्खन खाना भगवन कृष्ण का सबसे पसंदीदा काम था। जब श्री कृष्ण जी घर में मक्खन चुराते थे, तो कृष्ण जी दूसरो के घर से भी मक्खन चुरा कर खाते थे। जब कृष्ण जी की शिकायत की जाती थी, तो बड़े भोलेपन से अपनी मा यशोदा जी से कहते थे “मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो”।

इसलिए माता यशोदा ओर सभी अपने अपने मक्खन की मटकी को उचे स्थान पर लटका देते थे। श्री कृष्ण ओर उनकी टोलियां एक के उप्पर एक चड़कर मक्खन को चुरा कर खा लेते थे। आज भी दही हांडी के दौरान कई युवा एक साथ दल बना कर इसमें हिस्सा लेते है। इस उत्सव के दौरान एक ऊंचाई पर दही से भरी हांडी लगा दी जाती है। जिसे विभिन्न युवाओं के दल तोड़ने का प्रयास करते है। यह एक खेल के रूप में होता है, जिसके लिए इनाम भी दिया जाता है। दही हांडी आमतौर पर अगस्त माह में ही पड़ती है। जिसे हम सभी बड़े उल्लास ओर खुशियों के साथ मनाते है।

जन्माष्टमी का त्योहार आर्थिक और कृषि की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इस दृष्टि से गोपालन और गोलछा की भावना पुष्ट होती है। हमारे मन और अंतःकरण में श्री कृष्ण की समस्त जीवन की झांकी झलकने लगती है। हम आध्यात्मिक और धार्मिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से बल और पुष्ट होने के लिए नए नए संकल्प को दोहराने लगते हैं। इस त्यौहार को मनाने से हमें नई स्फूर्ति, प्रेरणा, नया उत्साह ओर नयी आशाओं के प्रति जागृति होती है। इस त्योहार को मनाने में बच्चो का ओर युवाओं का उत्साह देखते ही बनता हैं। हर जगह चहल पहल और रोनक दिखाई देती है। अतएव हमें जन्माष्टमी के इस पावन त्यौहार को पवित्रता के साथ मनाना चाहिए।

रक्षाबंधन का त्यौहार

रक्षाबंधन भारत देश में एक प्रमुख त्यौहार है। यह त्यौहार भारत के अलावा आसपास के भारत सीमा में बसे हुए देशों में भी मनाया जाता है। रक्षाबंधन भाई बहनों का त्यौहार है, यह त्यौहार भारत में हर जाति के लोग मनाते हैं। यह त्योहार भाई बहनों का मुख्य त्योहार है। इस दिन बहनें अपने भाइयों को राखी बांधती है और भाई उनकी रक्षा करने का वचन देता है। इस त्यौहार को धार्मिक दृष्टि से भी देखा जाता है, क्योंकि इस दिन बहने भगवान को भी राखी बांधती है। कहा जाता है कि भगवान गणेश जी की दो बहने थी जिन्होंने इस त्यौहार को बहुत ही प्यार के साथ मनाया था। यह त्यौहार सावन के महीने में आता है, इसके अलावा बहुत से कथाओ मे इस त्यौहार का वर्णन किया गया है।

हर साल वर्षा ऋतु का महीना आता है जिसे सावन का महीना कहते हैं। यह पूरे देश में एक खुशी का महीना होता है। इस महीने के अंदर रक्षाबंधन का त्यौहार आता है, जो कि श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रक्षाबंधन को सावन मास की पूर्णिमा के दिन मनाते है, जिसके कारण इसे श्रावणी पर्व भी कहते हैं। पुराने समय से आश्रमों में रहने वाली ऋषि-मुनियों ने सावन के महीने में तपस्या की थी और पूर्णिमा के दिन एक बहुत बड़ा यज्ञ किया था और इस यज्ञ के अंत में एक रक्षा सूत्र बांधा था। जिसके बाद शिक्षा देने वाले गुरु जन ने पीले रंग का रक्षा सूत्र बांधना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे यह रक्षाबंधन में बदलता गया।

राखी शब्द को संस्कृत भाषा में रक्षा शब्द से जोड़ा गया है और बंधन को बांधने से जोड़ा गया है। जिसके कारण एक रक्षा बंधन सूत्र बना, यह रक्षा करने से संबंध रखा है। रक्षाबंधन की कथाएं पौराणिक व ऐतिहासिक कथाओं से जुड़ी हुई है। पौराणिक कथाओं के हिसाब से माना जाता है कि देव और दानवों के बीच में युद्ध के समय दानव बहुत ही शक्तिशाली थे। जिसके कारण भगवान परेशान रहते थे। उसके बाद युद्ध में विजय पाने के लिए इंद्र की पत्नी सच्ची ने युद्ध में विजय पाने के लिए हाथों में रक्षा सूत्र बांधा था। जिसके बाद में इंद्र विजय पा लेते हैं।

राजपूत जब लड़ाई में जाते थे, तो उनके माथे पर कुमकुम का तिलक लगाया जाता था और साथ ही साथ हाथों में एक रेशमी धागा बांध दीया जाता था। यह धागा विश्वास का संदेश होता था, जो उन्हें युद्ध से वापस लौटने के लिए बांधा जाता था रक्षाबंधन के साथ में एक कहानी जुड़ी हुई है, कहा जाता है कि मेवाड़ की रानी कर्मावती को बहादुर शाह द्वारा जब मेवाड़ राज्य पर हमले करने की सूचना दी गई तो रानी लड़ने में असमर्थ थी।

तब उसने मुगल बादशाह हुमायूं को राखी भेजी थी और रक्षा करने की याचना की थी। हिमायू ने मुसलमान होने के बावजूद भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुंच गए, मेवाड़ पहुंचकर उन्होंने बहादुर शाह के साथ उनके विरुद्ध युद्ध लड़ा था और कर्मावती और उसके राज्य की रक्षा की थी। इस तरह हिमायू ने अपनी बहन के राज्य की रक्षा करके रक्षाबंधन का मान बढ़ाया। इसी तरह से सिकंदर की पत्नी ने अपने पति को हिंदू सूत्र प्रवास को राखी बांधा और उन्हें मुंह बोला भाई बनाया। फिर युद्ध के समय उसने सिकंदर को ना मारने का वचन लिया। सिकंदर की पत्नी ने पुरू वास को राखी बांधी तो उसने भाई होने के नाते सिकंदर को जीवनदान दे दिया।

एक और कथा जो बहुत ही प्रचलित है वह है महाभारत की कथा। जिसके अंदर पांडव में युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से एक बात पूछी थी कि सभी संकट को कैसे पार किया जा सकता है। तब भगवान कृष्ण ने उनको और उनकी सेना की रक्षा करने के लिए राखी का त्यौहार मनाने को कहा था। भगवान कृष्ण कहते थे कि राखी के इस धागे में एक अपार शक्ति है जो आने वाली आपदा से मुक्ति दिलाएगी। उस समय द्रोपदी ने कृष्ण को और शकुंतला ने अभिमन्यु को राखी बांधी थी और रक्षाबंधन का उल्लेख किया था। जब भगवान कृष्ण शिशुपाल का वध कर रहे थे तब उनके हाथ पर चोट लग गई। तब जो द्रोपदी ने अपनी साड़ी फाड़कर उनके हाथ पर बांधी थी यह श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन हुआ था। इस के उपहार के बदले में भगवान कृष्ण ने द्रोपदी के चीर हरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर अपना कर्तव्य निभाया था।

बहुत सी साहित्य ग्रंथों में रक्षाबंधन का उल्लेख किया गया है। 1991 में अट्ठारहवा संस्करण में रक्षाबंधन के लिए हरि कृष्ण प्रेमी के एक ऐतिहासिक नाटक को दर्शाया गया है। 50 और 60 के दशक में रक्षाबंधन लोकप्रिय विषय बन चुका था और फिल्मी दुनिया में आ चुका था। ना ही राखी नाम से बल्कि रक्षाबंधन नाम से भी वह सारी फिल्में बनाई गई। यहां तक कि राखी नाम की दो बार फिल्म बनी, एक बार 1949 में बनी थी और दूसरी बार 1962 में बनी थी।

एक फिल्म इसका नाम ए भीम सिंह था, उसके अंदर राजेंद्र कृष्ण ने एक गीत लिखा था जिसका नाम राखी धागों का त्यौहार है। 1972 में एसएम सागर ने फिल्म बनाई थी राखी और हथकड़ी। फिर 1976 में राधा कांत शर्मा ने एक फिल्म बनाई जिसका नाम रखा गया था राखी और राइफल। साहित्य की दुनिया में 1976 में शांतिलाल सोनी ने एक फिल्म बनाई जिसका नाम था रक्षाबंधन।

रक्षाबंधन के दिन बहनें अपने भाइयों को राखी बांधती है और उनकी लंबी उम्र की कामना करती है। इसके बदले में भाई अपनी बहन को रक्षा करने का वचन देता है। जिस प्रकार महाभारत में बताया गया है कि जब द्रोपदी का चीर हरण हो रहा था तब भगवान कृष्ण ने भाई होने के नाते साड़ी को लंबी करके अपना कर्तव्य निभाया था। क्योंकि जो एक बार भगवान कृष्ण युद्ध कर रहे थे तब उनकी तर्जनी पर चोट आ गई थी, तो द्रोपदी ने अपनी साड़ी फाड़ कर उनकी तर्जनी पर बांधी थी। इस बात का कर्ज भगवान कृष्ण ने भाई के नाते पूरा किया था। महाभारत में द्रोपदी ने भगवान कृष्ण को और शकुंतला ने अभिमन्यु को राखी बांधी थी।

आज के समय में रक्षाबंधन का त्यौहार वैसेही महत्वपूर्ण है जैसे पुराने समय में हुआ करता था, परंतु आजकल कुछ बदलाव आ गया है। पुराने समय में रक्षाबंधन के दिन बहने अपने भाइयों को राखी बांधती थी और भाई अपनी बहनों को रक्षा करने का वचन देता था। परंतु आज के समय में बहनें अपने भाइयों को राखी बांधती है और भाई उसे कुछ उपहार देता है और साथ-साथ उसे रक्षा करने का वचन भी देता है। इस दिन बहने अच्छा मुहूर्त देखकर अपने भाई को राखी बांधती है और मुंह मीठा करती है।दूर देश में रहने वाली बहने अपने भाइयों को राखी बांधने के लिए उनके घर आती है। कुछ बहने और भाई बहुत दूर रहते हैं, जिसके कारण वह एक दूसरे के पास नहीं जा पाते इसके लिए आज राखी को पोस्ट के माध्यम से भेजी जाती है।

रक्षाबंधन का त्यौहार कब शुरू हुआ था किसी को नहीं पता। परंतु पुरानी कथाओं में बताया गया है कि जब देवता और दानव में युद्ध होता था तो इंद्र की पत्नी ने उन्हें अपने हाथ पर एक रेशमी धागा बांधा था। जो उनके विजय का कारण बना, उनका मानना था कि रेशमी धागे में वह शक्ति थी जिसके कारण वे विजयी हुए। इस पौराणिक कथा के आधार पर आज भी देश में रक्षाबंधन का त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। आज भारत में आसपास के देश जैसे नेपाल के सीमा पर लगने वाले सभी देश के लोग आज भी भारत देश की बहनों से राखी बंधवाते हैं और उनकी रक्षा करने का वचन देते है।रक्षाबंधन को सावन मास का सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार भी मानते हैं। यह आज साहित्य, पौराणिक, ऐतिहासिक कथाओं में लिखा गया है।

गणेश चतुर्थी पर निबंध

गणेश चतुर्थी के दिन व्रत रखा जाता है ओर उत्सव भी बड़े धूमधाम के साथ ओर हर्षो उल्लास के साथ मनाया जाता है। हमारे देश भारत में इसकी धूम कई दिनों की होती है। जिसे हमारे देश में लोग खुशियो के साथ मनाते है। पुराणों के अनुसार आज के दिन ही गणेश जी का जन्म हुआ था। जब हम अपने जन्म दिन को धूमधाम से मनाते है, तो वो तो भगवान है। हम सब भगवान की उपासना करने के लिए उसे एक उत्सव का रूप प्रदान करते है ओर उसे बड़े ही धूमधाम से मनाते है।

गणेश चतुर्थी या गणेश उत्सव भाद्रपक्ष मास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी से गणेश जी की प्रतिमा के स्थापना के बाद से ही शुरू होता है। साथ ही लगातार दस दिन तक यह उत्सव चलता है।गणेश जी के प्रतिमा को घर में रखने के साथ ही बड़े रूप में भी स्थापना करके अनंत चतुदर्शी के दिन गणेश जी की विदाई की जाती है। गणेश जी के विसर्जन के साथ ही इस उत्सव का अन्त होता है। जो एक प्यारी सी यादे देकर अगले साल आने का एक इंतजार देकर संपन्न होता है।

पौराणिक कथाओ के अनुसार शिव जी ओर माता पार्वती जी का एक पुत्र कार्तिक था। एक समय की बात है, शंकर जी भृमण ध्यान करने कहि गए हुए थे। तब माता पार्वती जी स्नान कक्ष में स्नान करने गयी थी। तो बार-बार कक्ष में कोई प्रवेश द्वार से आ धमकता था, जिससे पार्वती जी परेशान हो गयी। इसके लिए उन्होंने एक उपाय सोचा, उन्होंने अपनी त्वचा के मल से एक सुंदर तंदुरुस्त बालक की मूर्ति बनाई ओर उसे सजीव कर दिया। वह सजीव बालक माता पार्वती जी ने बनाया और उसका नाम उन्होंने गणेश रखा। उसके बाद गणेश जी माता पार्वती के कक्ष के बाहर पहरा देने लगे। फिर एक दिन कई सालो बाद भगवान शंकर आये, तो शंकर जी का प्यारा नन्दी कक्ष के समीप जाने लगा। यह गणेश जी को पसन्द नही आया, दोनों में युद्ध होने लगा। गणेश जी ने नंदी को हरा दिया और उसके बाद शिव जी के बहुत से सेवक को भी गणेश जी ने हरा दिया।

उसके बाद गणेश जी से कई देवतागण युद्ध करने गए, पर गणेश जी ने उन्हें भी हरा दिया। उन सब को गणेश जी ने बुरी तरह पराजित कर दिया और ये सब देखकर शंकर जी को बहुत क्रोध आया ओर वो स्वयं गणेश जी के साथ युद्ध करने गए। तब शंकर जी ने पूछा तुम कोन हो तब गणेश जी ने कहा में माता पार्वती जी का पुत्र हूँ। तब शिव जी ने प्यार से कहा की मुझे कक्ष में जाने दो। तब गणेश जी ने कहा की अभी माता स्नान कर रही है ओर मैं किसी को भी अन्दर नही जाने दे सकता। तब शिव जी को गुस्सा आया ओर उन्होंने गणेश जी की गर्दन धड़ से अलग कर दी। उसके बाद पार्वती जी ने बाहर आकर देखा तो गणेश जी को मृत देख विलाप करने लगी। तब उन्होंने शिव जी को सब बताया ओर कहा की ये हमारा ही पुत्र है और शिव जी से गणेश जी को जीवित करने को कहने लगी।

उस वक़्त ब्रह्मा जी, विष्णु जी ओर सभी देवताओ ने ओर शिव जी ने कहा की जो भी पहला प्राणी मिले उसकी गर्दन काटकर अगर गणेश जी की गर्दन से जोड़ दिया जाए तो वो फिर से जीवित हो जाएंगे। इस प्रकार सभी देवतागण गर्दन की तलाश में निकल गए। सबसे पहले देवताओ को हाथी दिखा, तो वे हाथी की गर्दन काट कर ले आए। फिर उस हाथी के गर्दन को गणेश जी के गर्दन पर लगा दिया गया ओर गणेश जी जीवित हो गए। उनके जीवित होते ही शिव जी ने उन्हें प्यार किया ओर आशीर्वाद दिया की सबसे पहले धरती पर ओर सभी जगह तुम्हारी ही पूजा की जाएंगी ओर यदि ऐसा नही हुआ तो कोई भी पूजा सम्पूर्ण नही कहलाएंगी। तब से ही सर्वप्रथम पूज्नीय गणेश जी बन गए है ओर तब से ही गणेश जी का नाम गजानन विनायक रखा गया। आज भी हम कोई पूजा करते है तो सबसे पहले गणेश जी के पूजा से ही पूजा का आरंभ करते है।

गणेश जी के अनेक नाम है, जैसे एकदंत, लम्बोदर, वक्रतुण्ड, कर्षनपिंगये, विकटमेवाय, गणाध्यक्ष,भालचन्द्र, गजानन, विघ्ननाश, कपिल, गजकर्णक, धूम्रकेतु। इस प्रकार गणेश जी के 108 नाम है, जिनका जाप ओर प्रतिदिन इनके नामो की उपासना करने से सभी प्रकार की विपत्ति ओर दुख दर्द का नाश होता है। जब माँ पार्वती ने गणेश जी को अपनी शक्ति से जन्म दिया तब सभी देवताओ ने गणेश जी को आशीर्वाद के रूप में कई शक्तियां प्रदान की थी। महादेव जी ओर अन्य देवताओ ने ये भी कहा की कोई भी शुभकार्य में सर्वप्रथम गणेश जी की उपासना की जाएगी तभी पूजा सम्पन मानी जाएगी। इसी वरदान स्वरूप हम सर्वप्रथम गणेश जी की पूजा किसी भी पूजापाठ से पहले करते है।

गणेश उत्सव की तैयारी बहुत समय पहले से ही शुरू कर दी जाती है। मिट्टी के गणेश जी की प्रतिमा को बनाने वाले कारीगर अपने कार्य में लग जाते है। छोटे से बड़े सभी तरह की प्रतिमा कारीगर बनाते है। साथी ही अलग-अलग मुद्राओ की खूबसूरत मुर्तिया बनाई जाती है ओर इनकी स्थापना की जाती है।

गणेश उत्सव की तैयारी बहुत जोर शोर से की जाती है। जगह-जगह झांकी बनाई जाती है, बड़ी-बड़ी झांकी के लिए दूर-दूर से कारीगर आते है ओर बड़ी-बड़ी झांकी बनाई जाती है। यह काफी सुंदर-सुंदर झांकिया होती है और इनकी रंग बिरंगी चीजो से सजावट होती है। मंदिरो के अनुसार ही किसी-किसी झांकी को प्रतिरूप दिया जाता है। टैंट, स्पीकर, रंग बिरंगे नकली-असली फूल से सजावट की जाती है। कभी-कभी तो किचन के समान जैसे बर्तन आदि का प्रयोग, ड्राय फ़ूड का उपयोग करके सभी अपने अनुसार अपनी-अपनी झांकी की सजावट करते है ओर गणेश जी की प्रतिमा बनवाते है। गणेश जी के दिनों में नाच-गाने जैसे कार्यक्रम रोज़ ही रखे जाते है और गणेश उत्सव को भव्य तरीके से मनाया जाता है।

सभी देवी देवताओ का वाहन होता है। गणेश जी का वाहन मूषक (चूहा) है जो पहले एक दानव था। उसका नाम गजमुखासुर था, वह एक असुर दानव था। वो सभी पर अत्याचार करता था। तब गणेश जी ने उसे दंड देने की सोची, पर वह गणेश जी के डर से एक मूषक (चूहा) बन गया ओर वह गणेश जी से कहने लगा की आप जो बोलोगे में वही करूँगा। तब गणेश जी ने उसे अपना वाहन बना लिया ओर उस पर बैठकर सवारी करने लगे, तब से गणेश जी का वाहन मूषक (चूहा) बन गया है।

गणेश उत्सव के दिन बाजार में रंग-बिरंगी मुर्तिया बेची जाती है। इन्हें ढक कर घर लाया जाता है ओर स्थापना वाली जगह पर ही इनके उप्पर से चुनरी हटाई जाती है। फिर पूजा अर्चना पूरी विधि-विधान से की जाती है। मन्त्र ओर श्लोक गणेश वंदना करके गणेश जी की एक जगह स्थापना की जाती है। सभी नए वस्त्र ओर साफ सुथरे वस्त्र को पहनते है। उसके बाद गणेश जी की आरती की जाती है। उसके उपरांत प्रसाद वितरित किया जाता है। माना जाता है की गणपति जी को मोदक ओर लड्डू अति प्रिय है। इसलिए इसी का गणपति महाराज को भोग लगाया जाता है।

फिर सभी में प्रसाद वितरित किया जाता है। ये परिक्रिया सभी घरो में प्रतिदिन की जाती है ओर घरो में भी सजावट की जाती है। नियम से पूजा पाठ ओर आरती करते है ओर साथ ही मोदक ओर लड्डू का प्रसाद खाया जाता है। इस प्रकार रोज दस दिनों तक गणपति महाराज की पूजा-अर्चना की जाती है। गणेश जी का श्रृंगार जनेऊ, हल्दी, कुमकुम माथे में लगा कर किया जाता है। अगरबत्ती, धूपबत्ती, फूल आदि का इस्तेमाल किया जाता है। पण्डित जी पूजा पाठ करवाते है। जहां झांकिया बनाई जाती है, वहां कई प्रकार के कार्यक्रम करवाये जाते है।

महिलाएं भजन और कीर्तन, बच्चे डांस, खेल, गीत ओर अन्य गतिविधिया करते है। गणेश उत्सव से जो चन्दा एकत्रित किया जाता है, उससे मुर्तिया, प्रसाद ओर अन्य चीजे खरीदी जाती है। बड़ी झांकियो के लिए ज्यादा चन्दा एकत्रित किया जाता है, जिससे बड़ी झांकिया लगाई जाती है। गणेश उत्सव का सबसे अधिक महत्व महाराष्ट्र प्रान्त में है। महाराष्ट्र में गणेश जी की बहुत बड़ी-बड़ी मुर्तिया बनाई जाती है ओर डोल ग्यारस के दिन मूर्ति विसर्जन किया जाता है। गणेश चतुर्थी के मोके पर भक्त दर्शन के लिए दूर-दूर से महाराष्ट्र जाते है। कहते है यहां मौजूद मन्दिरो में गणपति जी का वास है। इसलिए यहां कोई भी मुराद मांगी जाए तो वह अवश्य ही पूरी होती है। महाराष्ट्र प्रान्त में गणेश उत्सव बड़े ही धूमधाम के साथ मनाया जाता है।

विसर्जन के दिन मूर्तियों की विधि विधान के साथ पूजा पाठ किया जाता है। गणपति बप्पा मोरया अगले बरष तू जल्दी आ कह कर गणेश जी को तलाब में विसर्जन किया जाता है।महाराष्ट्र में तो समुद्र में मूर्ति विसर्जन किया जाता है। वहां बहुत धूम धमाके के साथ पूजा की जाती है। सड़क गली मोहल्लों में भीड़ लग जाती है। वहा बहुत बड़ा उत्सव का माहौल रहता है। गणेश उत्सव पर झांकिया निकाली जाती है। छोटी-छोटी ओर बड़ी से बड़ी झांकिया भी बहुत सुंदर होती है। बाद में उन ख़ूबसूरत झांकियो में से किसी झांकी को बड़ा सा इनाम भी दिया जाता है। पूरे दस दिन ये चहल-पहल हर जगह देखने को मिलती है।बुद्धि -विद्या के देव जिनकी माता पार्वती ओर पिता महादेव है, जिन्होंने अपने माता पिता की पूरी परिक्रमा एक बार में ही करके सिद्ध किया की माता पिता ही सर्वक्षेष्ठ होते है। जिनका वाहन चूहा है ओर जिनको खाने में लड्डू पसंद है, ऐसे भगवान गणपति का उत्सव हम सब को खुशिया ओर हर्षोल्लास के साथ मनाना चाहिए।

दशहरा का त्यौहार

दशहरा का ये पर्व सितंबर और अक्तूबर के महीने में दीवाली के दो या तीन हफ्ते पहले पड़ता है। यह त्यौहार राक्षस रावण पर भगवान राम की विजय को याद करता है। इसलिए यह बुराई पर अच्छाई का प्रतीक है। भगवान राम सच्चाई के प्रतीक है और रावण बुराई की शक्ति का। देवी दुर्गा के पूजा के साथ हिन्दू लोगों के द्वारा ये महान धार्मिक उत्सव और दस्तूर मनाया जाता है। दशहरा हमें संदेश देता है कि सही और गलत की लड़ाई में धार्मिकता हमेशा विजयी होती है। ये पर्व बच्चों के मन में काफी खुशियां लाता है।

यह एक धार्मिक और सांस्कृतिक त्योहार है जिसके बारे में सभी को जानना चाहिए। दशहरा के त्यौहार को विजयादशमी भी कहा जाता है। दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द ‘दश- हर’ से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ दस बुराइयों से छुटकारा पाना है। दशहरा उत्सव, भगवान् श्रीराम का अपनी अपहृत पत्नी को रावण पर जीत प्राप्त कर छुड़ाने के उपलक्ष्य में तथा अच्छाई की बुराई पर विजय के प्रतीकात्मक रूप में मनाया जाता है। हिन्दू देवी माता दुर्गा की पूजा के द्वारा इस त्यौहार को मनाया जाता है, तथा इसमें प्रभु राम और देवी दुर्गा के भक्त पहले या आखिरी दिन, या फिर पूरे नौ दिन तक पूजा-पाठ करते है तथा व्रत रखते है।

दशहरे का उत्सव शक्ति और शक्ति का समन्वय बताने वाला उत्सव है। नवरात्रि के नौ दिन जगदम्बा की उपासना करके शक्तिशाली बना हुआ मनुष्य विजय प्राप्ति के लिए तत्पर रहता है। इस दृष्टि से दशहरे अर्थात विजय के लिए प्रस्थान का उत्सव का उत्सव आवश्यक भी है। रावण श्रीलंका का दस सिर वाला दानव राजा था, जिसने अपनी बहन सुपर्णखा का बदला लेने के लिए भगवान राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लिया था। तब से जिस दिन भगवान राम ने रावण का वध किया तब से उस दिन को दशहरा उत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। इन दिनों हर जगह रोशनी रहती है और पूरा वातावरण पटाखों की आवाज से भरा हुआ होता है। दशहरा का महत्व इस रूप में भी होता है कि मां दुर्गा ने दसवें दिन महिषासुर राक्षस का वध किया था।

महिषासुर असुरों को राजा था, जो लोगों पर अत्याचार करता था, उसके अत्याचारों को देखकर भगवान ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश ने शक्ति (माँ दुर्गा) का निर्माण किया। महिषासुर और शक्‍ति (माँ दुर्गा) के बीच 10 दिनों तक युद्ध हुआ और आखिरकार मां ने 10 वें दिन विजय हासिल कर ली। ऐसी मान्यता है कि नवरात्र में देवी मां अपने मायके आती हैं और उनकी विदाई हेतु लोग नवरात्र के दसवें दिन उन्हें पानी में विसर्जित करते हैं। एक मान्यता यह भी है कि श्री राम ने रावण के दसों सिर यानी दस बुराइयाँ को ख़त्म किया, जो हमारे अंदर पाप, काम, क्रोध, मोह, लोभ, घमंड, स्वार्थ, जलन, अहंकार, अमानवता और अन्‍याय के रूप में विराजमान है।

ऐसा लोगों का मानना है की मैसूर के राजा के द्वारा 17 वीं शताब्दी में मैसूर में दशहरा मनाई गयी थी। मलेशिया में दशहरा पर राष्ट्रीय अवकाश होता है, यह त्योहार सिर्फ भारत ही नहीं बांग्लादेश और नेपाल में भी मनाया जाता है। यह सीता माता के अपहरण, असुर राजा रावण, उसके पुत्र मेघनाथ और भाई कुंभकर्ण और राजा राम के विजय के अंत का पूरा इतिहास बताता है। अंत में, बुराई पर अच्छाई की जीत दिखाने के लिए रावण, मेघनाथ और कुंभकर्ण के पुतले जलाए जाते हैं और पटाखों के बीच इस त्योहार को और अधिक उत्साह के साथ मनाया जाता है।

 हिमाचल प्रदेश में कुल्लू का दशहरा बहुत प्रसिद्ध है। अन्य स्थानों की ही भाँति यहाँ भी दस दिन अथवा एक सप्ताह पूर्व इस पर्व की तैयारी आरंभ हो जाती है। स्त्रियाँ और पुरुष सभी सुंदर वस्त्रों से सज्जित होकर तुरही, बिगुल, ढोल, नगाड़े, बाँसुरी आदि जिसके पास जो वाद्य होता है, उसे लेकर बाहर निकलते हैं। पहाड़ी लोग अपने ग्रामीण देवता का धूम धाम से जुलूस निकाल कर पूजन करते हैं।

पंजाब में दशहरा नवरात्रि के नौ दिन का उपवास रखकर मनाते हैं। इस दौरान यहां आगंतुकों का स्वागत पारंपरिक मिठाई और उपहारों से किया जाता है। यहां भी रावण-दहन के आयोजन होते हैं व मैदानों में मेले लगते हैं। बस्तर में दशहरे के मुख्य कारण को राम की रावण पर विजय ना मानकर, लोग इसे मां दंतेश्वरी की आराधना को समर्पित एक पर्व मानते हैं। बंगाल, ओडिशा और असम में यह पर्व दुर्गा पूजा के रूप में ही मनाया जाता है। यह बंगालियों, ओडिआ और आसाम के लोगों का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है।

तमिल नाडु, आंध्र प्रदेश एवं कर्नाटक में दशहरा नौ दिनों तक चलता है, जिसमें तीन देवियां लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की पूजा करते हैं। गुजरात में मिट्टी सुशोभित रंगीन घड़ा देवी का प्रतीक माना जाता है और इसको कुंवारी लड़कियां सिर पर रखकर एक लोकप्रिय नृत्य करती हैं, जिसे गरबा कहा जाता है। गरबा नृत्य इस पर्व की शान है। महाराष्ट्र में नवरात्रि के नौ दिन मां दुर्गा को समर्पित रहते हैं, जबकि दसवें दिन ज्ञान की देवी सरस्वती की वंदना की जाती है। कश्मीर के अल्पसंख्यक हिन्दू नवरात्रि के पर्व को श्रद्धा से मनाते हैं। परिवार के सारे वयस्क सदस्य नौ दिनों तक सिर्फ पानी पीकर उपवास करते हैं।

दशहरे से दस दिन पहले से रामलीलाओं का प्रदर्शन किया जाता है। दशहरे का महत्त्व रामलीलाओं के कारण सुविख्यात है। भारत के हर शहर एवं गाँव में रामलीला दिखाई जाती है। दिल्ली में तो हर कॉलोनी में रामलीला आयोजित होती है। परंतु दिल्ली गेट के नज़दीक रामलीला ग्राउण्ड की रामलीला सर्वाधिक मशहूर है। वहाँ पर दशहरे वाले दिन प्रधानमंत्री स्वयं रामलीला देखने आते हैं। उनके साथ अन्य मंत्रीगण एवं अधिकारी भी होते हैं। दशहरे के दिन भव्य मेले का आयोजन होता है। मेले में कई शहरों से आतिशबाज आते हैं और जिसकी आतिशबाजी सबसे अच्छी होती है, उसे ईनाम दिया जाता है। उस दिन असली लोग राम, लक्ष्मण, सीता और हनुमान की भूमिका निभाते हैं। जबकि रावण, मेघनाथ और कुंभकर्ण के पुतले बनाए जाते हैं।

दरअसल अधिकांश लोग तो इन्हीं पुतलों को देखने आते हैं। रामलीला के अलावा दशहरे के दिन आतिशबाजी भी खूब होती है , जो दर्शकों का मन मोह लेती है। आतिशबाजी दिखाने के बाद रामचंद्र जी रावण का वध करते हैं। फिर बारी-बारी से पुतलों में आग लगाई जाती है। पहले कुंभकर्ण का पुतला जलाया जाता है। उसके बाद मेघनाद के पुतले में आग लगाई जाती है और सबसे बाद में रावण के पुतले में आग लगाई जाती है। रावण का पुतला सबसे बड़ा होता है। उसके दस सिर होते हैं और उसके दोनों हाथों में तलवार और ढाल होती है।

रावण के पुतले को श्रीराम अग्निबाण से जलाते हैं। ऐसे कई जगह है जहां दशहरा में मेला लगता है, कोटा में दशहरा का मेला, कोलकाता में दशहरा का मेला, वाराणसी में दशहरा का मेला लगता है। जिसमें कई दुकानें लगती है और खाने पीने का आयोजन होता है। इस दिन बच्चे मेला घूमने जाते है और मैदान में रावण का वध देखने जाते है। इस दिन सड़कों पर बहुत भीड़ होती है। लोग गाँवों से शहरों में दशहरा मेला देखने आते है। जिसे दशहरा मेला के नाम से जाना जाता है। इतिहास बताता है कि दशहरा का जश्न महारो दुर्जनशल सिंह हंडा के शासन काल में शुरू हुआ था। रावण के वध के बाद श्रद्धालु पंडाल घूमकर देवी माँ का दर्शन करते हुए मेले का आनंद उठाते है।

हिन्दू धर्मग्रंथ रामायण के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि देवी दुर्गा को प्रसन्न करने और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिये राजा राम ने चंडी होम कराया था। इसके अनुसार युद्ध के दसवें दिन रावण को मारने का राज जान कर उस पर विजय प्राप्त कर लिया था। अंततः रावण को मारने के बाद राम ने सीता को वापस पाया। दशहरा को दुर्गोत्सव भी कहा जाता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि उसी दसवें दिन माता दुर्गा ने भी महिषासुर नामक असुर का वध किया था। हर क्षेत्र के रामलीला मैदान में एक बहुत बड़ा मेला आयोजित किया जाता है, जहाँ दूसरे क्षेत्र के लोग इस मेले के साथ ही रामलीला का नाटकीय मंचन देखने आते हैं। ये 10 दिन लंबा उत्सव होता है, जिसमें से नौ दिन देवी दुर्गा की पूजा के लिये और दसवाँ दिन विजयादशमी के रुप में मनाया जाता है।

इसके आने से पहले ही लोगों द्वारा बड़ी तैयारी शुरु हो जाती है। ये 10 दिनों का या एक महीने का उत्सव या मेले के रुप में होता है। जिसमें एक क्षेत्र के लोग दूसरे क्षेत्रों में जाकर दुकान और स्टॉल लगाते है। हमारे हिन्दू समाज में दशहरे का दिन अत्यंत शुभ दिन माना जाता है। इस दिन मजदूर लोग अपने-अपने काम के यंत्रों की पूजा करते हैं और लड्डू बाँटकर खुशी जाहिर करते हैं।दशहरे का पर्व असत्य पर सत्य एवं बुराई पर अच्छाई की विजय को दर्शाता है। इस दिन श्री राम ने बुराई के प्रतीक रावण का वध किया था। अतः हमें भी अपनी बुराइयों को त्यागकर अच्छाइयों को ग्रहण करना चाहिए तभी यह दिन सार्थक सिद्ध होगा।

क्रिसमस का त्यौहार

भारत में हर धर्म के लोग रहते है, जैसे की हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि और सभी धर्म के लोगों के अपने अपने त्योहार होते हैं। हर धर्म के लोग अपने अपने त्योहारों को बड़े धूमधाम से मनाते हैं। क्रिसमस त्यौहार हर साल में एक बार आता है, जैसे हिंदू धर्म का होली, दिवाली, रक्षाबंधन, जन्माष्टमी आदि साल में एक बार आते है। इसी प्रकार ईद भी आती है जो मुस्लिम धर्म के लोगों का त्योहार है। ऐसा ही ईसाई धर्म के लोगों का एक दिन आता है जिसे हम सभी क्रिसमस डे के नाम से जानते हैं।

क्रिसमस ईसाई धर्म का एक महत्वपूर्ण त्यौहार है। जिस तरह हर धर्म के लोग अपने अपने इष्ट देवताओं की पूजा करते हैं, उसी प्रकार ईसाई धर्म के लोग अपने यीशु की पूजा करते हैं। क्रिसमस डे 25 दिसंबर को आता है। इस दिन ईसाई धर्म के लोगों के अलावा हिंदुस्तान के सभी लोग बड़े सम्मान के साथ इस त्यौहार को मनाते हैं। क्रिसमस हमें ईसा मसीह के बलिदानों के बारे में बताता है और उनके द्वारा दिए गए उद्देश्य को बताता है।

क्रिसमस 25 दिसंबर को आता है, ईसाई धर्म के लोग इस दिन का बहुत बेसब्री से इंतजार करते हैं। यह साल के अंत में आता है, इस दिन की शुरुआत 12 दिन पहले से हो जाती है। 12 दिन पहले क्रिसमस को क्रिसमस टाइम कहते हैं। क्रिसमस के आने पर चर्च को बड़े साज सज्जा के साथ सजाया जाता है। क्रिसमस के दिन छुट्टी रखी जाती है क्योंकि सभी लोग यीशु का जन्म दिन मनाते हैं। क्रिसमस के 1 दिन पहले से ही चर्च को बदला जाता है और वहां पर क्रिसमस ट्री को लाइटिंग के साथ सजाया जाता है।

माना जाता है कि ईसा मसीह का जन्म 7 से 2 ईसा पूर्व में हुआ था। परंतु यह भी माना जाता है कि 25 दिसंबर ईसा मसीह की जन्म दिनांक नहीं है, क्योंकि वास्तविक दिनांक पता नहीं है। फिर भी इस तिथि के दिन रोमन पर्व के आधार पर क्रिसमस डे मनाया जाता है। क्रिसमस के दिन सभी लोग चर्च के अंदर जाते हैं और यीशु मसीह को याद करते हैं। चर्च के अंदर यीशु मसीह की प्रतिमा होती है। जैसा कि 1 प्लस चिन्ह पर उन्हें लटकाया गया हो। उस दिन ईसा मसीह के बताए गए उपदेश को चर्च में पादरी द्वारा बताया जाता है और उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की जाती है। आजकल क्रिसमस के दिन एक दूसरे को उपहार देना चर्च के अंदर समारोह करना और बहुत से कार्यक्रम करना शामिल होता हैं। क्रिसमस डे के दिन क्रिसमस ट्री को सजाया जाता है। चारों तरफ रंगने की रोशनी होती है।

यीशु की झांकी निकाली जाती है, बहुत से लोग सैंटा क्लॉस बनते हैं और बच्चों को गिफ्ट बाटते हैं। सैंटा क्लॉस को क्रिसमस का पिता भी कहा जाता है। इस खुशी में सैंटा क्लॉस बच्चों को चॉकलेट और छोटे-मोटे उपहार बांटते हैं। क्रिसमस के दिन सभी लोग एक दूसरे को उपहार देते हैं। घरों में खुशी का माहौल होता है, मिठाईयां और बहुत सी चीजें बनाई जाती है। अपने रिश्तेदारों को दावत पर बुलाया जाता है और उनके लिए गिफ्ट भी मंगवाए जाते हैं। जब लोग एक दूसरे के घर जाते हैं तो एक दूसरे को उपहार देकर क्रिसमस डे विश करते हैं। जिस तरह ईद मनाई जाती है और हिंदू धर्म दिवाली उसी प्रकार क्रिसमस डे के दिन भी लोग आपस में एक दूसरे के घर जाते हैं और एक-दूसरे को क्रिसमस डे की शुभकामनाएं देते हैं।

क्रिसमस ईसाई धर्म के लोगों का त्योहार है। आज सभी जाति धर्म के लोग जिस तरह अपना त्योहार मिलजुलकर मनाते हैं, उसी तरह से ईसाई धर्म के लोग क्रिसमस के त्योहार को बड़े ही उत्साह के साथ मनाते हैं। यह एक बड़ा दिन होता है इस दिन ईसाई धर्म के प्रभु ईसा मसीह का जन्म हुआ था और इस दिन ईसा मसीह के जन्म की कथा को बताया जाता है। साथ ही साथ ईसा मसीह के उपदेशों को भी बताया जाता है। माना जाता है कि आज के लगभग 2000 साल पहले गैलरी के एक छोटे से कस्बे नजरथ में एक जोड़ा हुआ करता था।

यह खूबसूरत जोड़ा जोसेफ और मेरी का था। माना जाता है कि एक रात गेबरियल नामक देवदूत ने मेरी से कहा कि उन्हें ईश्वर के बेटे की मां बन्ने के लिए चुना गया है। तब मेरी और जोसेफ बेथलेहम के लिए निकलना पड़ा। जब दोनों वहां पहुंचे तब एक बच्चे का जन्म होने का समय आ चुका था। यह दोनों रात में किसी भेड़ों के बाड़े में रुके थे और उस समय भगवान यीशु का जन्म हुआ था। भगवान यीशु भी बच्चों की तरह ही बड़े हुए थे जैसे सामान्य बच्चे होते हैं। परंतु इनमें पैगंबर की दिव्य गुण थे और कुछु गुण ऐसे थे कि जिसके कारण लोगों को यह प्रभावित करते थे। धीरे-धीरे उन्होंने लोगों को प्रभावित किया और बाद में एक ईसाई धर्म की स्थापना करने में लग गए।

इन्होंने जल्द ही ईसाई धर्म की स्थापना की और तब से इन्हें ईसाई धर्म के प्रभु कहा जाता है और हर साल उनके जन्मदिन के अवसर पर क्रिसमस डे मनाया जाता है। क्रिसमस के दिन हम सभी एक ऐसे युवा को देखते हैं जो लाल रंग की पोशाक पहना हुआ होता है। सर पर लाल टोपी होती है, बड़ी सी सफेद दाढ़ी होती है, उसे हम सैंटा क्लॉस कहते हैं। हम सभी मानते हैं कि यह भगवान का दूत है जो बच्चों के लिए उपहार लेकर आता है। सैंटा क्लॉस बच्चों के लिए उपहार लेकर आता है और साथ ही साथ बहुत सारी खुशियां लेकर आता है। सैंटा क्लॉस को क्रिसमस का फादर कहा जाता है। क्रिसमस के दिन बस अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और एक याक से बनी रथ में आता है और बच्चों को हसाता है और चॉकलेट, गिफ्ट देता है। बच्चे बहुत खुश हो जाते है, यह सैंटा क्लॉस क्रिसमस की खुशी में ऐसा करता है।

सेंटा क्लोज को आमतौर पर एक मोटा सा हंसमुख सफेद दाढ़ी वाला आदमी के रूप में दिखाया जाता है। इसकी ड्रेस पर सफेद कलर और लाल कोट होता है और यह साथ में चमड़े की काली बेल्ट और जूते पहने हुए रहता है। लोक कथा के अनुसार माना जाता है कि सैंटा क्लॉस उत्तर में बर्फीले देशों में रहता है और बर्फीले ध्रुव में इनके घर बने होते हैं। बच्चों को सैंटा क्लॉस क्रिसमस डे के दिन घर घर जाकर उपहार देते हैं। यह ट्रॉली में बैठ कर आते हैं और झूमते हुए, नाचते हुए, गाते हुए आते हैं। इनका पसंदीदा गाना जिंगल बेल जिंगल बेल जिंगल ऑल द वेल होता है।

क्रिसमस के दिन क्रिसमस ट्री का बहुत महत्व होता है यह एक सदाबहार पेड़ होता है, जिसे डग्लस और बलसम या फर का पौधा कहा जाता है। क्रिसमस के दिन इसे सजाया जाता है। क्रिसमस ट्री को सजाना प्राचीन काल से चला आ रहा है। प्राचीन काल से ही चीनी लोग, मिश्र वासी और हिबुर के लोग ऐसा करते थे। यूरोप में रहने वाले लोग इस सदाबहार पेड़ को घर में सजाते हैं। इस दिन इस पेड़ को मालाओं फूलों और लाइटों से सजाते हैं और माना जाता है कि यह निरंतरता का प्रतीक है। उनका विश्वास था कि ऐसा करने से बुरी आत्माओं को घर से दूर रखा जाता है।

क्रिसमस की शुरुआत पश्चिमी जर्मनी में हुई थी, तब एक लोकप्रिय नाटक के मंच के समय इसे गार्डन में दिखाया गया था और इस पेड़ को स्वर्ग का पेड़ भी बताया गया। उसके बाद से ही जर्मनी में 24 दिसंबर से इस पेड़ को घर में सजाया जाने लगा। इसे बहुत सारी रंगीन पत्रिकाओं से और लकड़ी के छोटे-मोटे खिलौनों से और पेड़ की टहनियों पर चॉकलेट, मोमबत्तियां, रिबेल, कागज की पट्टियां बहुत सी चीजें बांधी जाती है। भारत देश त्योहारों का देश है, यहां पर हर साल बहुत से त्यौहार ईद, दिवाली, राखी, जन्माष्टमी, शिवरात्रि, होली, क्रिसमस डे मनाया जाता है। यह भारत देश के अलावा अन्य देशों में मनाया जाता है क्योंकि ईसाई धर्म के लोग यूरोप, अमेरिका, चाइना, जापान सब जगह है और इस दिन इन सभी देशों में रहने वाले ईसाई धर्म के लोग इस त्यौहार को बड़े ही धूमधाम से मनाते हैं। क्योंकि यह इनके यीशु भगवान का त्यौहार होता है।

ईसाई धर्म की स्थापना यीशु भगवान ने की थी। जिस के उपलक्ष में यह क्रिसमस डे बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। हर साल आने वाला यह त्यौहार चर्च मैं मनाया जाता है जिस प्रकार से हिंदू धर्म का मंदिर होता है, मुस्लिम धर्म का मस्जिद होता है उसी प्रकार ईसाई धर्म का चर्च होता है।

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