Table of contents |
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पाठ का परिचय |
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मुख्य बिंदु |
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पाठ का सारांश |
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कहानी से शिक्षा |
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शब्दार्थ |
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यह कहानी "इस जल प्रलय में" प्रसिद्ध लेखक फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने लिखी है। इसमें उन्होंने बाढ़ के अनुभवों को बहुत ही भावनात्मक और थोड़ा हास्यभरे तरीके से बताया है। लेखक ने बिहार में बार-बार आने वाली बाढ़ की भयानक स्थिति को अपनी यादों, अनुभवों और समाज की बातें बताकर समझाया है। उन्होंने पटना में आई बाढ़ के समय लोगों की तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं, सरकार की तैयारी, और लोगों का व्यवहार बहुत ध्यान से देखा और उसे लिखा है। यह कहानी सिर्फ बाढ़ की समस्या नहीं बताती, बल्कि लोगों के सोचने के तरीके, भावनाओं की कमी, और हास्य के साथ समाज की सच्चाई भी दिखाती है।
फणीश्वरनाथ ‘रेणु’
‘इस जल प्रलय में’ एक रिपोर्ताज है, जिसे लेखक फणीश्वरनाथ 'रेणु' ने लिखा है। वर्ष 1967 में जब बिहार की राजधानी पटना और आसपास के क्षेत्रों में लगातार 18 घंटे की बारिश हुई, तब वहाँ भीषण बाढ़ आ गई। इस भयानक त्रासदी का अनुभव लेखक ने स्वयं किया था, जिसे उन्होंने इस रचना में वर्णित किया है। लेखक बताते हैं कि उनका गाँव एक बड़े और समतल परती क्षेत्र में था, जहाँ आसपास से बहने वाली नदियाँ — कोसी, पनार, महानंदा और गंगा — हर साल बाढ़ लाती थीं। इस कारण से बाढ़ से पीड़ित इंसान और जानवर वहाँ आकर शरण लेते थे। परती ज़मीन पर जन्म लेने के कारण लेखक को तैरना नहीं आता था।
आगे लेखक बताते हैं कि सन् 1967 में पटना में लगातार 18 घंटे की बारिश के कारण पुनपुन नदी का पानी राजेंद्रनगर, कंकड़बाग और दूसरे निचले इलाकों में भी घुस गया था। लेखक कहते हैं कि जब पटना का पश्चिमी भाग लगभग छाती तक डूब गया, तो वे घर पर ईंधन, आलू, मोमबत्ती, माचिस, पीने का पानी, सिगरेट, कंपोज की गोलियाँ आदि इकट्ठा करके बैठ गए थे।
सुबह उन्हें पता चला कि राजभवन और मुख्यमंत्री निवास बाढ़ में डूब गए हैं। दोपहर में खबर मिली कि गोलघर भी डूब गया है। शाम को लेखक अपने एक कवि मित्र के साथ कॉफी हाउस की ओर बाढ़ का हाल जानने निकल पड़े। रास्ते में उन्होंने देखा कि लोग आते-जाते आपस में बाढ़ की जानकारी बाँट रहे थे। जब वे कॉफी हाउस पहुँचे तो वह बंद था। फिर वे 'अप्सरा सिनेमा हॉल' के पास से होते हुए गांधी मैदान की ओर बढ़े। गांधी मैदान और आसपास की जगहें पूरी तरह बाढ़ की चपेट में थीं — सब कुछ पानी में डूब चुका था।
शाम के साढ़े सात बजे पटना के आकाशवाणी केंद्र से स्थानीय समाचार प्रसारित हो रहा था — "बाढ़ का पानी हमारे स्टूडियो की सीढ़ियों तक पहुँच चुका है और किसी भी वक्त स्टूडियो में प्रवेश कर सकता है..." यह समाचार सुनकर लेखक और उनके कवि मित्र गंभीर हो गए। लेकिन बाढ़ से लौटकर आ रहे लोग पान की दुकानों पर खड़े होकर हँसते-बोलते हुए समाचार का मज़ा ले रहे थे। कुछ लोग तो बाढ़ जैसी गंभीर स्थिति से ध्यान हटाकर ताश खेलने की तैयारी में लगे थे।
राजेंद्रनगर चौराहे पर ‘मैगज़ीन कॉर्नर’ पर हमेशा की तरह पत्र-पत्रिकाएँ बिछी हुई थीं। वहाँ से लेखक हिंदी-बांग्ला और अंग्रेज़ी की फ़िल्मी पत्रिकाएँ लेकर घर लौट आए। इसके बाद, कवि मित्र से विदा लेते समय लेखक ने कहा — "पता नहीं कल हम कितने पानी में रहेंगे, लेकिन जो कम पानी में रहेगा, वह ज्यादा पानी में फंसे दोस्त की खबर रखेगा।" लेखक जैसे ही अपने फ्लैट में पहुँचे, उन्हें जनसंपर्क विभाग की गाड़ी में लगे लाउडस्पीकर से बाढ़ के खतरे की चेतावनी सुनाई दी। लेखक बताते हैं कि पूरे राजेंद्रनगर में कुछ देर तक ‘सावधान-सावधान’ की आवाज़ गूंजती रही। दुकानों से सामान हटाया जाने लगा।
लेखक बताते हैं कि रात में उन्हें नींद नहीं आ रही थी। वे कुछ लिखना चाहते थे, तभी उनकी कुछ पुरानी यादें उनके मन में उभरने लगीं। सन् 1947 में, जब मनिहारी (जो तब पूर्णिया ज़िले में था और अब कटिहार ज़िले में है) में बाढ़ आई थी, तब लेखक अपने गुरुजी स्वर्गीय सतीनाथ भादुड़ी के साथ नाव पर दवा, मिट्टी का तेल, पके हुए घाव की दवा, माचिस आदि लेकर बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए वहाँ गए थे। इसके बाद लेखक याद करते हैं कि सन् 1949 में महानंदा नदी में भी बाढ़ आई थी। वे बापसी थाना के एक गाँव में बीमार लोगों को नाव से कैंप ले जा रहे थे, तभी एक बीमार व्यक्ति के साथ उसका पालतू कुत्ता भी नाव में चढ़ गया। जब वे अपने साथियों के साथ एक टीले के पास पहुँचे, तो देखा कि वहाँ एक ऊँची मचान बनाकर ‘बलवाही’ लोकनृत्य हो रहा था। लोग मछली तलकर खा रहे थे और एक नटुआ कलाकार लाल साड़ी पहनकर दुल्हन की तरह अभिनय कर रहा था।
लेखक बताते हैं कि सन् 1967 में जब पुनपुन नदी का पानी राजेंद्रनगर में घुस आया था, तब कुछ अच्छे कपड़े पहने युवक-युवतियों का एक समूह नाव पर सैर करने निकला था। उनके साथ स्टोव, केतली और बिस्कुट भी थे। नाव पर स्टोव जल रहा था, केतली चढ़ी हुई थी और बिस्कुट के पैकेट खुले थे। पास में ट्रांजिस्टर बज रहा था जिस पर एक गाना आ रहा था – "हवा में उड़ता जाए, मोरा लाल दुपट्टा मलमल का..." जैसे ही उनकी नाव गोलंबर के पास पहुँची, तो ब्लॉकों की छतों पर खड़े कुछ लड़कों ने शरारत करते हुए उनका मजाक उड़ाना शुरू कर दिया। लेकिन बाद में उन लड़कों की सारी शरारतें बंद हो गईं।
लेखक बताते हैं कि रात के करीब ढाई बज चुके थे, लेकिन अब तक बाढ़ का पानी नहीं आया था। उन्हें लगा कि शायद इंजीनियरों ने बाँध को ठीक कर दिया होगा या फिर कोई चमत्कार हो गया हो। सारे फ्लैटों की लाइटें जल-बुझ रही थीं, जिससे पता चलता था कि सब लोग जाग रहे थे। इसी बीच लेखक को अपने उन दोस्तों की याद आ गई जो पाटलिपुत्र कॉलोनी, श्रीकृष्णपुरी और बोरिंग रोड जैसे इलाकों में पानी में फँसे हुए थे। लेखक ने करवट बदलते हुए सोचा कि कुछ लिखा जाए, पर फिर उन्हें समझ नहीं आया कि क्या लिखें। उन्हें लगा कि यादें ही बेहतर हैं, इसलिए वे फिर एक पुरानी घटना याद करते हैं — जब पिछले साल अगस्त में नरपतगंज थाना क्षेत्र के चकरदाहा गाँव के पास एक गर्भवती महिला छाती तक पानी में खड़ी थी और गाय की तरह शांत आँखों से उन्हें देख रही थी। आखिरकार, इधर-उधर की बातें सोचते हुए लेखक को नींद आ जाती है।
सुबह के साढ़े पाँच बजे लोगों ने लेखक को जगाया। उन्होंने आँखें मलते हुए देखा कि सभी लोग जाग चुके हैं और मोहल्ले में पानी घुस आया है। चारों ओर शोर, चीख-पुकार और पानी की आवाजें सुनाई दे रही थीं। सब कुछ पानी में डूब चुका था।
हर दिशा में सिर्फ पानी ही दिखाई दे रहा था। पानी बहुत तेज़ी से आगे बढ़ रहा था। सामने की ईंट की दीवार धीरे-धीरे डूब रही थी और बिजली के खंभे का काला हिस्सा भी पानी में समा गया था। लेखक बताते हैं कि उन्होंने बचपन में भी बाढ़ देखी थी, लेकिन इस तरह अचानक पानी आते पहली बार देखा। वे सोचते हैं कि अच्छा हुआ यह बाढ़ रात को नहीं आई। कुछ ही देर में गोल पार्क भी डूब गया। वहाँ की सारी हरियाली गायब हो गई थी। जहाँ भी नज़र डालते, बस पानी ही पानी दिखाई देता था।
इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि बाढ़ जैसी बड़ी मुसीबत आने पर भी लोग अलग-अलग तरीके से सोचते और व्यवहार करते हैं। कुछ लोग डरते हैं, कुछ मज़ाक उड़ाते हैं, तो कुछ लोग दूसरों की मदद करने में लग जाते हैं। यह कहानी हमें बताती है कि कठिन समय में हमें एक-दूसरे का साथ देना चाहिए, मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए। इसके अलावा यह भी समझ आता है कि हम चाहे कितना भी विकास कर लें, लेकिन प्रकृति के सामने हम कमजोर हैं। इसलिए हमें सावधानी रखनी चाहिए और समय रहते तैयारी करनी चाहिए। साथ ही, संकट के समय इंसान की असली सोच, भावनाएँ और समाज की सच्चाई सामने आती है।
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