Table of contents |
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लेखक परिचय |
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पाठ का सार |
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कहानी से शिक्षा |
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शब्दावली |
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यात्रा साहित्य के प्रसिद्ध लेखक राहुल सांकृत्यायन इस पाठ के लेखक हैं। उन्हें ‘यात्रा साहित्य का पिता’ कहा जाता है। उनका जीवन घुमक्कड़ी और ज्ञान की खोज में लगा हुआ था। उन्होंने अपनी यात्राओं में अनेक भाषाओं, संस्कृतियों और परंपराओं का अध्ययन किया। ‘ल्हासा की ओर‘ राहुल सांकृत्यायन की यात्रा साहित्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसमें उन्होंने तिब्बत की संस्कृति और बौद्ध धर्म के महत्व के बारे में अपने अनुभवों का उल्लेख किया है। यह पाठ उनके घुमक्कड़ी के स्वभाव और साहस से भरे जीवन को बताता है। इसमें उन्होंने तिब्बत की संस्कृति, भौगोलिक स्थिति, लोगों के जीवन जीने का तरीका, और बौद्ध धर्म के केंद्र ल्हासा की ओर अपने सफर का विस्तार से वर्णन किया है। इसके साथ ही, पाठ में उनके अन्य कार्यों का भी उल्लेख किया गया है, जैसे कि अन्य प्रसिद्ध यात्रा लेखन।
इस पाठ में राहुल जी ने अपनी पहली तिब्बत यात्रा का वर्णन किया है, जो उन्होंने सन 1929-30 में नेपाल के रास्ते की थी। चूँकि उस समय भारतीयों को तिब्बत यात्रा की अनुमति नहीं थी, इसलिए उन्होंने यह यात्रा एक भिखारियों के छद्म वेश में की थी।
लेखक की यात्रा बहुत वर्ष पहले जब फ्री-कलिंपोंग का रास्ता नहीं बना था, तो नेपाल से तिब्बत जाने का एक ही रास्ता था। इस रास्ते पर नेपाल के लोग के साथ-साथ भारत की लोग भी जाते थे। यह रास्ता व्यापारिक और सैनिक रास्ता भी था, इसीलिए इसे लेखक ने मुख्य रास्ता बताया है। तिब्बत में जाति-पाँति, छुआछूत का सवाल नहीं उठता और वहाँ औरतें परदा नहीं डालती है। चोरी की आशंका के कारण भिखमंगो को कोई घर में घुसने नही देता नही तो अपरिचित होने पर भी आप घर के अंदर जा सकते हैं और जरुरत अनुसार अपनी झोली से चाय दे सकते हैं, घर की बहु अथवा सास उसे आपके लिए पका देगी।
परित्यक्त चीनी किले से जब वह चले तो एक व्यक्ति को दो चिट्ठियाँ राहदारी देकर थोङ्ला के पहले के आखिरी गाँव में पहुँच गए। यहाँ सुमति (मंगोल भिक्षु, राहुल का दोस्त) पहचान तथा भिखारी होने के कारण रहने को अच्छी जगह मिली। पांच साल बाद वे लोग इसी रास्ते से लौटे थे तब उन्हें रहने की जगह नही मिली थी और गरीब के झोपड़े में ठहरना पड़ा था क्योंकि वे भिखारी नही बल्कि भद्र यात्री के वेश में थे।
अगले दिन राहुल जी एवं सुमति जी को एक विकट डाँडा थोङ्ला पार करना था। डाँडा तिब्बत में सबसे खतरे की जगह थी। सोलह-सत्रह हजार फीट उंची होने के कारण दोनों ओर गाँव का नामोनिशान न था। डाकुओं के छिपने की जगह तथा सरकार की नरमी के कारण यहाँ अक्सर खून हो जाते थे। चूँकि वे लोग भिखारी के वेश में थे इसलिए हत्या की उन्हें परवाह नही थी परन्तु उंचाई का डर बना था।
दूसरे दिन उन्होंने डाँडे की चढ़ाई घोड़े से की जिसमें उन्हें दक्षिण-पूरब ओर बिना बर्फ और हरियाली के नंगे पहाड़ दिखे तथा उत्तर की पर पहाड़ों पे कुछ बर्फ दिखी। उतरते समय लेखक का घोड़ा थोड़ा पीछे चलने लगा और वे बाईं की ओर डेढ़ मील आगे चल दिए। बाद में पूछ कर पता चला लङ्कोर का रास्ता दाहिने की तरफ तथा जिससे लेखक को देर हो गयी तथा सुमति नाराज हो गए परंतु जल्द ही गुस्सा ठंडा हो गई और वे लंकोर में एक अच्छी जगह पर ठहरे।
वे अब तिङरी के मैदान में थे जो कि पहाड़ों से घिरा टापू था सामने एक छोटी सी पहाड़ी दिखाई पड़ती थी जिसका नाम तिङरी-समाधि-गिरी था। आसपास के गाँवों में सुमति के बहुत परिचित थे वे उनसे जाकर मिलना चाहते थे परन्तु लेखक ने उन्हें मना कर दिया और ल्हासा पहुंचकर पैसे देने का वादा किया। सुमति मान गए और उन्होंने आगे बढ़ना शुरू किया। उन्होंने सुबह चलना शुरू नहीं किया था इसीलिए उन्हें कड़ी धूप में आगे बढ़ना पड़ रहा था, वे पीठ पर अपनी चीजें लादे और हाथ में डंडा लिए चल रहे थे। सुमति एक ओर यजमान से मिलना चाहते थे इसलिए उन्होंने बहाना कर शेकर विहार की ओर चलने को कहा। तिब्बत की जमीन छोटे-बड़े जागीरदारों के हाथों में बंटी है। इन जागीरों का बड़ा हिस्सा मठों के हाथ में है।
अपनी-अपनी जागीर में हर जागीरदार कुछ खेती खुद भी करता है जिसके लिए मज़दूर उन्हें बेगार में मिल जाते हैं। लेखक शेखर की खेती के मुखिया भिक्षु से मिले। वहां एक अच्छा मंदिर था जिसमें बुद्ध वचन की हस्तलिखित 103 पोथियां रखी थीं जिसे लेखक पढ़ने में लग गए इसी दौरान सुमति ने आसपास अपने यजमानों से मिलकर आने के लिए लेखक से पूछा जिसे लेखक ने मान लिया, दोपहर तक सुमति वापस आ गए। चूंकि तिङरी वहां से ज्यादा दूर नहीं था इसीलिए उन्होंने अपना सामान पीठ पर उठाया और उनसे विदा लेकर चल दिए।
इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि घुमक्कड़ी और यात्रा सिर्फ एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचने का तरीका नहीं है, बल्कि यह एक व्यक्ति के जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझने, नई संस्कृतियों से मिलने और स्वयं को पहचानने का अवसर है। राहुल सांस्कृत्यायन ने अपनी यात्रा के माध्यम से साहस, संघर्ष और जीवन के वास्तविक अनुभवों को अपनाने की प्रेरणा दी है। इसके अलावा, यह भी सिखाया गया है कि किसी भी समाज में विभिन्न संस्कृतियों और परंपराओं को समझना महत्वपूर्ण है, और व्यक्ति को अपनी यात्रा में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, लेकिन वह उसे अपने ज्ञान और अनुभव को बढ़ाने का अवसर मानकर स्वीकार करता है।
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