♦ भारत राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से पहली बार एक अन्य देश का पुछल्ला बनता है
भारत पहले भी विदेशी आक्रमणकारियों दवारा जीता जा चुका था, पर उन आक्रमणकारियों ने स्वयं को यहाँ के जीवन में शामिल कर लिया। भारत ने तब अपनी स्वाधीनता नहीं खोई थी। वह गुलाम नहीं बना था।अंग्रेजी शासन में भारत ऐसी राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में बँध गया था] जिसका संचालन विदेशी धरती से हो रहा था। अंग्रेज भारत में रहकर हुकूमत चलाते थे जबकि शासन इंग्लैंड का था। इस तरह वे अपने मूल और चरित्र दोनों से ही विदेशी थे।
नए पूँजीवाद से विश्व में जो बाज़ार तैयार हुआ उसने भारतीय समाज के आर्थिक और संरचनात्मक ढाँचे का विघटन कर दिया। ऐसे में भारत ब्रिटिश का औपनिविशक और खेतिहर पुछल्ला बनकर रह गया। अंग्रेज भारतीय किसानों से वही फसलें तैयार कराते थे, जिनसे उनको भरपूर लाभ हो। इसके अलावा अंग्रेजो ने ज़मीदारों को नियुक्त किया जिससे वे अधिकाधिक लगान वसूल कर के लाभ उठा सके। उन्होंने अपने लाभ के लिए ज़मींदार, राजा, पटवारी आदि तैयार किए। मालगुजारी तथा पुलिस दो विशेष विभाग थे।
भारत की गरीब जनता को ब्रिटेन के अनेक खर्च उठाने पड़ते थे। उनमें सेना पर कि, जानेवाले खर्च का कुछ भाग, जिसे ‘कैपिटेशन चार्ज’ कहा जाता था, देना होता था। भारत में अंग्रेजी राज के इतिहास को पढक़र हर कोई मायूस और क्रोधित होगा।
♦ भारत में ब्रिटिश शासन के अंतर्विरोध -
राममोहन राय—बंगाल में अंग्रेजी शिक्षा और समाचार-पत्र
पाश्चात्य संस्कृति को भारत में लाने का महक्रवपूर्ण कार्य अंग्रेज शिक्षाविद, पत्रकार, मिशनरी आदि लोगों ने किया।अंग्रेजी चिंतनऔर साहित्य से भारतीयों को परिचित कराने के लिए उन्होंने शिक्षा को माध्यम बनाया। यद्यपि अंग्रेज भारत में शिक्षा का प्रचार-प्रसार नापसंद करते थे] परंतु अपनी ज़रूरतों को पूरा करने कह्य लिए शिक्षण-प्रशिक्षण के माध्यम से क्लर्क तैयार किए ताकि कम वेतन पर उनसे काम कराया जा सके। शिक्षा के माध्यम से शिक्षित वर्ग में नयी चेतना जाग उठी। वे गुलामी से छुटकारा पाने के लिए चिंतित हो उठे।
अंग्रेजो ने अपनी भलाई तथा अधिकाधिक लाभ कमाने के लिए नयी तकनीक, रेलगाड़ी, छापाखाना, दूसरी मशीनें,युद्ध के अधिक कारगर तरीके आदि का प्रचार किया, पर इन सभी से भारतीय जुड़े थे। इनके माध्यम से शिक्षित वर्ग एक-दूसरे के निकट आया। उनके विचारों में व्यापक परिवर्तन हुआ। सबसे अधिक दिखनेवाला तथा व्यापक परिवर्तन यह हुआ कि खेतिहर व्यवस्था टूट गई। ज़मीदारीं की व्यवस्था मज़बूत हुई। मुद्रा का अधिक प्रचार-प्रसार हुआ और ज़मीन बिकाऊ हो गई। बंगाल इस परिवर्तन को देख चुका था क्योंकि ब्रिटिश शासन वहाँ पचास साल पहले आ चुका था।
अठारवीं शताब्दी में पश्चिमी बंगाल में महान समाज-सुधारक राजा राममोहन राय का उदय हुआ। वहाँ पचास वर्षों से अंग्रेजो का शासन था। वे अरबी, शाशन तथा संस्कृत के विद्वान थे। पश्चिमी सभ्यता के विज्ञान और तकनीकी पक्षों ने उन्हें आकर्षित किया। उन्होंने शिक्षा को आधुनिक ढाँचे में ढालकर पुरानी पंडिताऊ पद्धति से मुक्त कराने में उत्सुकता दिखाई। उन्होंने गणित, भौतिक-विज्ञान, रसायनशास्त्र, जीव-विज्ञान की शिक्षा हेतु गवर्नर-जनरल को लिखा। वे समाज-सुधारक थे। उन पर इस्लाम का प्रभाव पड़ा।उन्होनोंए धर्म को कुरीतियों से अलग करने का प्रयास किया। उनके प्रयास के कारण ही अंग्रेजी सरकार ने सती-प्रथा पर रोक लगाई।
राममोहन राय भारतीय पत्रकारिता के प्रवर्तक थे। वे समाचार-पत्र तथा पत्रिकाओं को मनुष्य में जागरूकता फैलाने का सशक्त माध्यम मानते थे। भारतीयों के स्वामित्व तथा संपादन वाला पहला अंग्रेजी समाचार पत्र 1818 में निकला। इसके बाद अनेक समाचार पत्र और पत्रिकाएँ निकलने लगीं। वे भारत में पुनर्जागरण लाना चाहते थे। उनका समन्वयवादी विचार कट्टर लोगों को पसंद नहीं था। वे उनके सुधारों के विरोधी थे। बहुत-से लोगों के साथ टैगोर परिवार उनका समर्थक था। दिल्ली सम्राट की ओर से वे इंग्लैंड गए। उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में उनकी मृत्यु हो गई।
♦ सन 1857 की महान क्रांति—जातीयतावाद
भारत में ब्रिटिश सरकार के सौ वर्ष होने को थे। अकाल से पीडि़त बंगाल किसी मदद के लिए ब्रिटिश सरकार से अब भी उम्मीद लगाए था। दक्षिण और पश्चिमी प्रदेशों की भी यही स्थिति थी। इसके विपरीत, उक्रह्म्री भारत की जनता में विद्रोह की भावना पनप रही थी।
सन 1857 के विद्रोह के लिए योजनाबध तरीके से एक तिथि तय की गई, पर समय से पहले ही विद्रोह हो जाने के कारण योजना सफल न हो सकी। यह सैनिक विद्रोह के अलावा जनांदोलन के रूप में फैल गया। इस आंदोलन में हिंदू-मुसलमानों ने बढ़-चढक़र भाग लिया। उधर दिल्ली में मुगल वंश अशक्त और कमज़ोर हो चुका था। अंग्रेजो ने इसका दमन भारतीय सहायता से किया। इस आंदोलन में ताँत्या टोपे और रानी लक्ष्मीबाई ने बढ़-चढक़र भाग लिया।
विद्रोह और दमन का झूठा इतिहास लिखा गया। इसी विषय पर सावरकर द्वारा लिखी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑ.फ द वार ऑ.फ इंडिपेंडेंस’ तत्काल ज़ब्त कर ली गई, जो अब भी जब्त है। इस आंदोलन से ब्रिटिश शासन हिल गया। इधर भारतीय संगठित होकर विद्रोह की योजना के बारे में विचार करने लगे।
♦ हिंदुओं और मुसलमानों में सुधारवादी और दूसरे आंदोलन
उन्नीसवीं शताब्दी तक देश में शिक्षा का प्रसार और तकनीकी विकास हो चुका था। अंग्रेजी पढ़े-लिखे वर्ग में हर पश्चिमी चीज़ के प्रति प्रशंसा का भाव था। इसके विपरीत, कुछ में देश के प्रति लगाव तथा यहाँ की वस्तुओं से प्यार था। इस समय तक कुछ लोगों ने हिंदू धर्म के सामाजिक रीति-रिवाज़ों से खिन्न होकर धर्म-परिवर्तन कर लिया। राजा राममोहन राय ने ब्रह्म समाज’ की स्थापना की। केशवचंद्र ने उसे ईसाई रूप दे दिया। बंगाल के उभरते मध्य वर्ग पर ब्रह्म समाज’ का आंशिक प्रभाव पड़ा। भारत के अन्य भागों में भी यही स्थिति पैदा हो रही थी। हिंदू धर्म के कठोर सामाजिक ढाँचे के खिलाफ स्वर उठने लगे। स्वामी दयानंद सरस्वती ने सुधार आंदोलन शुरू किया, पर यह पंजाब तक ही सीमित रहा। इसका नारा था-‘‘वेदों की ओर लौटो।’’ इससे लडक़े-लड़कियों में शिक्षा की समानता, स्त्रियों की स्थिति में सुधार, दलितों का स्तर सुधारने की दिशा में अच्छा काम हुआ।
लगभग इसी समय बंगाल में ‘श्री रामकृष्ण परमहंस’ नाम के एक नए व्यक्तित्व का उदय हुआ। वे धार्मिक तथा उदार व्यक्ति थे। उन्होंने धार्मिक विश्वास की बुनियादी बातों पर बल दिया। वे हर तरह की सांप्रदायिकता के विरोधी थे। उनकी जीवनी उनके शिष्य विवेकानंद ने लिखी।
विवेकानंद ने अपने गुरु-भाइयों की मदद से रामकृष्ण-मिशन* की स्थापना की, जिसमें सांप्रदायिकता नहीं थी। उन्हें भारत की विरासत पर गर्व था। वे प्राचीन भारत और वर्तमान के बीच सेतु का कार्य कर रहे थे।
वे अंग्रेजी और बँगला के वक्ता तथा गद्दे एवं पद्य के लेखक भी थे। वह्य रोबीले, शालीन और गरिमावान व्यक्ति थे। उन्होंने उदास तथा पतित हिंदू समाज के लिए संजीवनी का काम किया। उन्होंने शिकागो में हुए अंतर्रांष्ट्रीय धर्म-सम्मेलन में भाग लिया तथा मिस्र, चीन और जापान की भी यात्रा की। उन्होंने अद्वैत दर्शन के एकेश्वरवाद का उपदेश दिया। उनहोंने कर्म-कांड को निरर्थक तात्विक विवेचनों तथा तर्कों, विशेषत: जातीय छुआछूत की निंदा की। उन्होंने अपने लेखों, भाषणों में ‘अभय’ अर्थात निडर रहने को कहा। उन्होंने दुर्बलता से बचने तथा सत्य को अपनाने की सलाह दी। उनकी मृत्यु 1902 में उनतालीस वर्ष की आयु में हुई।
रवींद्रनाथ टैगोर, विवेकानंद के समकालीन थे। वे राजनीतिज्ञ न होकर भी देश के लिए समर्पित व्यक्ति होने के अलावा सुप्रसिद्ध कवि एवं लेखक थे। उन्होंने बंगाल के स्वदेशी आंदोलन में भाग लिया और अमृतसर हत्याकांड के विरोध में अपनी ‘सर’ की उपाधि वापस कर दी। शांति के क्षेत्र में उन्होंने शांति-निकेतन की स्थापना की जो भारतीय संस्कृति का प्रधान केंद्र था। वे भारत के सर्वोक्रह्म्म अंतर्रांष्ट्रीयतावादी थे। वे अपने देश का संदेश विदेशों में लेकर जाते तथा विदेशों का संदेश भारत में लाते थे। टैगोर ने भारत की उसी तरह सेवा की जैसे दूसरे स्तर पर गाँधी जी ने की थी।
बीसवीं शताब्दी के उक्रह्म्रार्ध में टैगोर और गाँधी अत्यंत प्रभावशाली और विशिष्ट व्यक्तित्व थे। एक ओर टैगोर संभ्राड्डत कलाकार थे जो सर्वहारा वर्ग के प्रति सहानुभूति रखते थे तो दूसरी ओर गाँधी जी आम जनता के आदमी तथा भारतीय किसान का दूसरा रूप थे। वे भारतीय परंपरा का प्रतिनिधित्व करते थे। टैगोर मूलत: विचारक थे और गाँधी जी अनवरत कर्मठता के प्रतीक थे।
राष्ट्रीय विरासत में हिंदू मध्य वर्ग की आस्था बढ़ाने में एनी बेसेंट का ज़बरदस्त प्रभाव पड़ा। इस समय उदीयमान वर्ग का झुकाव राजनीतिक था। वह किसी धर्म की तलाश में न था। उसे ऐसा सांस्कृतिक आधार चाहिए था, जो उसमें आत्मविश्वास पैदा करे तथा नैराश्य और अपमान बोध से बचाए रखे। ऐसे समय में श्रीमती एनी बेसेंट ने होमरूल आंदोलन चलाया और भारत के लिए आंतरिक स्वतंत्रता की माँग की।
गदर के बाद मुसलमान यह तय नहीं कर पा रहे थे कि वे किधर जाएँ। अंग्रेजो ने उनके साथ ज़्यादा दमनपूर्ण रवैया अपनाया था। सन 1870 के बाद संतुलन बनाने के लिए अंग्रेज सरकार अनुकूल हो गई। इसमें सर सैयद अहमद ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्हें यह विश्वास था कि ब्रिटिश सत्ता के सहयोग से वे मुसलमानों की स्थिति को बेहतर बना सकते हैं। उत्साही नेता सर सैयद ,चाहते थे की मुसलमान अंग्रेजी अपना लें। उन्होंने मुसलमानों में ब्रिटिश-विरोधी भावना कम करने की कोशिश की। वे अंग्रेजो को यह दिखाने का प्रयास करते रहे कि मुसलमानों ने गदर में हिस्सा नहीं लिया था। वे ब्रिटिश सत्ता के विरोधी नहीं हैं। उन्होंने अलीगढ़ में मुस्लिम विशविद्यालया की स्थापना की जिसका उद्देश्य था—भारत के मुसलमानों को ब्रिटिश द्भाज के योग्य और उपयोगी प्रजा बनाना। इनका प्रभाव उच्च वर्ग में अधिक तथा ग्रामीण क्षेत्रों में कम था।
सन 1912 के बाद मुसलमान की जागरूकता में विशेष प्रगति हुई। इसका श्रेय अबुल कलाम आज़ाद को जाता है। उन्होंने ‘अलहिलाल’ नामक साप्ताहिक निकालना शुरू किया। अबुल कलाम अत्यंत प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। उन्होंने अरबी ,फ़ारसी का ज्ञान कम उम्र में प्राप्त कर लिया स्नद्मद्म। उनका दृष्टिकोण अधिक उदार तथा तर्कसंगत था। वे पुराने नेताओं के सामंती संकीर्ण धार्मिकता और अलगाववादी दृष्टिकोण से दूर थे। इसी दृष्टिकोण के कारण वे अनिवार्यत: सच्चे भारतीय माने जाते हैं।
अलीगढ़ कॉलेज की परंपरा राजनीतिक और सामाजिक दृष्टियों से रूढि़वादी थी। उसका लक्ष्य मुसलमानो को निचले दर्जे की नौकरियों में प्रवेश दिलाना भर था। अबुल कलाम ने पुरातनपंथी और राष्ट्र-विरोधी भावना के गढ़ पर हमला किया जिससे बुजुर्ग नाराज़ हुए, पर युवा पीढ़ी में उत्तेजना भर चुकी थी।
♦ तिलक और गोखले
ए. ओ. द्दयूम ने 1885 में जिस कांग्रेस की स्थापना की थी, वह अपनी प्रौढ़ावस्था में नए कलेवर में थी। इसका नेतृत्व करनेवाले अधिक आक्रामक, अवज्ञाकारी थे। इसमें निम्न-मध्य वर्ग,विद्यार्थी, युवा वर्ग के प्रतिनिधि थे। बंगाल विभाजन के बाद जो नेता उभरकर सामने आए, उनमें बाल गंगाधर तिलक और गोखले प्रमुख थे। संघर्ष का वातावरण बन गया था, जिसे बचाने के लिए दादाभाई नौरोजी लाए गए। 1907 में हुए संघर्ष में उदार दल की जीत हुई, पर बहुसंख्यक जनता तिलक के पक्ष में थी। इस समय बंगाल में हिंसक घटनाएँ हो रही थीं।
शब्दार्थ—
पृष्ठ ; गुलाम—दास। संचालन—चलाना। विघटन—खंडों में बँट जाना। पुछल्ला—पीछे रहनेवाला। अनुसरण—किसी अन्य के कह काम करना। अभिन्न—एक समान।
पृष्ठ ; सुदृढ़—मज़बूत। महकमा—विभाग। पटवारी—ज़मीन का हिसाब-किताब रखनेवाला। मायूसी—निराशा। शिक्षाविद—शिक्षा के विद्वान। पाश्चात्य—पश्चिमी। सीमित—कम मात्रा में। चेतना—जागृति, जागरूकता।
पृष्ठ ; आघात—चोट। कारगर—प्रभावी। वैयक्तिक—निजी। दृढ़ता—मजबूती। मुक्त—आज़ाद।
पृष्ठ ; प्रवर्तक—संस्थापक। स्वामित्व—मालिकाना अधिकार। विश्वजनीन—विश्व में मशहूर। पुनर्जागरण—नड्र्ढं चेतना का प्रसार। आरंभिक—शुरुआती। उपरांत—बाद में। अकाल—सूखा। बोधिजीवी—पढ़ा-लिखा वर्ग।
पृष्ठ ; बगावत—विद्रोह। नियत—निश्चित। संयुक्त प्रांत—वर्तमान में उत्तर प्रदेश तथा उत्तराखंड। अवशेष—बचा हुआ। सार्वजनिक—सारी जनता का। हित—भलाई। विशिष्ट—विशेष। स्मरण—याद।
पृष्ठ ; ज़ब्त—अपने कब्जे में कर लेना। संगठित—एकत्रित। अल्पसंख्यक—जिनकी संख्या कम हो। खिन्न—नाराज। आस्था—विश्वास,।
पृष्ठ ; निषेध —मना करने का भाव। दलित जातियाँ—अत्यंत पिछड़ी तथा दबी जातियाँ। धर्मप्राण—धर्म में गहरा विश्वास रखनेवाले। आत्म-साक्षात्कार—खुद को जाँचना-परखना। विविध—अनेक। बहुरंगी—अनेक रंगों से युक्त। गुरु भाइयों—साथ में पढऩेवाले।
पृष्ठ ; सेतु—पुल, जोडऩेवाला। वक्ता—बोलनेवाला। संजीवनी—प्राणदायनि औषधि। जीवंतता—जीने की चाहत। समभाव—समान दृष्टि से देखना। बलवती—मज़बूत। निरर्थक—बेमतलब। अभय—बिना डर के। दुर्बलता—कमज़ोरी। आध्यात्मिक—ईश्वरीय।
पृष्ठ ; नास्तिक—ईश्वर को न माननेवाला। क्षीण—कमज़ोर। बर्दाश्त—सहन। खिताब—उपाधि। ओत-प्रोत—लबरेज, भरा हुआ।
पृष्ठ ; संकीर्ण—संकुचित। मिजाज़—स्वभाव। सर्वहारा—जो सबकुछ हार चुका हो। अनवरत—लगातार। कर्मठता—काम की लगन। उदीयमान—उभरता हुआ। नैराश्य—निराशा।
पृष्ठ ; बोध—ज्ञान। साझी—मिली-जुली, जिसमें सभी का हिस्सा हो। वंचित—प्राप्त न होना।। सांत्वना—धैर्य बँधाना। मनीषी—ज्ञानी। मुनासिब—उचित।
पृष्ठ ; उद्देश्य—लक्ष्य। अलगाववादी—अलग रहने को प्राथमिकता देनेवाला।
पृष्ठ ; परंपरागत—रीति-रिवाज़ के अनुसार। प्रतिभाशाली—विशेष योग्यतावाल|।उत्तेजना—उग्रता। तेजस्विता—ओजपूर्ण। गुंजाइश—संभावना।
पृष्ठ ; पुरातनपंथी—पुरानी विचारधाराएँ रखनेवाला। भौहैं चढ़ाना—नाराज़ होना। प्रौढ़—अधेड़ उम्र का, युवावस्था के बाद का समय। आक्रामक—उग्र विचारधारावाला। अवज्ञाकारी—सरकारी नीतियों का उल्लंघन करनेवाला। सजग—जागरूक। बहुसंख्यक—अधिकाधिक संख्यावाला।
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1. अंतिम दौर क्या है? |
2. अंतिम दौर के दौरान पशुओं को कैसे फायदा होता है? |
3. अंतिम दौर की महत्त्वपूर्ण बातें क्या हैं? |
4. अंतिम दौर के दौरान पशुओं को कैसे तैयार किया जाता है? |
5. अंतिम दौर क्यों महत्वपूर्ण है? |
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