प्रस्तुत पाठ संक्षिप्त बुद्धचरित पुस्तक से लिया गया है. इस अध्याय में सिद्धार्थ के ज्ञान प्राप्ति के पश्चात काशी गमन का वर्णन किया गया है. प्रस्तुत अध्याय के अनुसार बुद्धत्व को प्राप्त करने के बाद शाक्य मुनि को शांति की शक्ति का अनुभव हुआ. बुद्ध बनकर वे अकेले ही चल पड़े थे, परन्तु ऐसा लग रहा था, जैसे कि उनके पीछे-पीछे बड़ा जनसमूह चला आ रहा हो. शाक्य मुनि धीरे-धीरे काशी की ओर अग्रसर होने लगे. उन्होंने दूर से ही काशी को देखा जहाँ वरुणा और गंगा ऐसे मिल रही थीं जैसे दो सखियाँ मिल रही हों. वे वहां से मृगदाव मन (सारनाथ) गए, जहाँ सघन वृक्षों पर मोर बैठे हुए थे. मृगदाव वन में वे पाँच भिक्षु रहते थे, जिन्होंने शाक्य मुनि को तप-भ्रष्ट भिक्षु मानकर उनका संग छोड़ दिया था. पाँचों भिक्षुओं ने जब शाक्य मुनि को आते हुए देखा, तो वो आपस में बातें करने लगे. उन्होंने निश्चय कि वे इस तप-भ्रष्ट का अभिवादन नहीं करेंगे. यदि यह पहले हमसे बोलेगा तभी हम इससे बात करेंगे. लेकिन जब भगवान बुद्ध उनके समीप आ गए तो पाँचों भिक्षु अपने पूर्व निश्चय के विपरीत एकदम खड़े हो गए. उन्होंने विनयपूर्वक उनका अभिवादन किया. किसी ने उनका भिक्षापात्र लिया, किसी ने उनका चीवर उठाया, किसी ने चरण धोने के लिए जल दिया और किसी ने बैठने के लिए आसन बिछाया.
तत्पश्चात, बुद्ध ने उन भिक्षुओं को समझाते हुए कहा कि – जैसे विषयों में आसक्त लोग अज्ञानी हैं, वैसे ही अपने आपको क्लेश देने वाले लोग भी अज्ञानी हैं. क्यूंकि क्लेश द्वारा अमरत्व प्राप्त नहीं किया जा सकता. मेरी दृष्टि में मध्य मार्ग के जो चार मूलभूत सत्य हैं, वे हैं – दुःख, दुःख का कारण, दुःख का निरोध और दुःख के निरोध के उपाय. मैंने दिव्य दृष्टि से ये आर्य सत्य जान लिए हैं और उनका अनुभव किया. दुःख है, यह मैंने पहचाना और उसके कारणों को छोड़ा. इसी तरह दुःख के निरोध का अनुभव किया और उसके उपायों के रूप में इस मार्ग की उद्भावना की है. मैंने इसी ज्ञान के आधार पर निर्वाण प्राप्त किया है. मैं अब बुद्ध हूँ. महात्मा बुद्ध के इन करुणायुक्त वचनों को प्रथम बार कौंडिल्य आदि पाँचों भिक्षुओं ने सुना और दिव्यज्ञान प्राप्त किया. अपने प्रथम प्रवचन के बाद सर्वज्ञ शाक्य मुनि ने पूछा – हे नरोत्तमो ! क्या तुम्हें ज्ञान हुआ ? तो कौंडिल्य ने कहा – हाँ भंते. इसलिए सभी भिक्षुओं में कौंडिल्य को ही प्रधान धर्मवेत्ता माना जता है. पर्वतों पर उपस्थित यक्षों ने सिंहनाद किया और घोषणा की कि जन-जन के सुख के लिए शाक्य मुनि ने धर्मचक्र प्रवर्तित कर दिया है. धर्मचक्र प्रवर्तन का उद्घोष धीरे-धीरे मृत्युलोक और देवलोक में व्याप्त हो गया. सर्वत्र सुख-शांति छा गई. निरभ्र आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी.
सद्धर्म के प्रचार के लिए अपने शिष्यों को विभिन्न दिशाओं में विदा करके तथागत ख़ुद भी महाऋषियों की नगरी गया के लिए चल पड़े. कुछ समय बाद भगवान् बुद्ध वहां पहुंचे. वे वहां से सीधे काश्यप मुनि के आश्रम में गए. काश्यप मुनि ने उनका स्वागत तो किया, परन्तु ईर्ष्यावश उन्हें मारने की इच्छा से एक ऐसी अग्निशाला में रहने के लिए कहा, जिसमें एक भयंकर सांप रहता था. तथागत निर्विकार भाव से अग्निशाला में गए और शांतिपूर्वक एक वेदी पर बैठ गए. जब सर्प ने फुत्कार मारी तो सारी अग्निशाला जलने लगी परन्तु महात्मा बुद्ध विर्विकार भाव से बैठे रहे. उन्हें विष की अग्नि ने स्पर्श भी नहीं किया. जब सुबह ही तो भगवान बुद्ध ने उस महासर्प को अपने भिक्षापात्र में रखा और उसे लेकर काश्यप मुनि के पास गए. भिक्षापात्र में उस भयंकर महासर्प को विनीत भाव मिएँ बैठा देखकर काश्यप मुनि समझ गए कि यह मुझसे बहुत बड़ा है. अतः उन्होंने तथागत को प्रणाम किया और उनका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया. काश्यप मुनि के साथ-साथ उनके शिष्यों ने भी बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया.
तत्पश्चात भगवान बुद्ध को याद आया कि उन्होंने मगधराज बिम्बिसार को वचन दिया था कि जब उन्हें बुद्धत्व प्राप्त हो जाएगा तो वे उन्हें नए धर्म में दीक्षित करेंगे और उपदेश देंगे. इसलिए उन्होंने सभी काश्यपों को साथ लिया और मगध की राजधानी राजगृह की ओर प्रस्थान किया. भगवान बुद्ध ने जिज्ञासु मगधराज को अनात्मवाद का उपदेश दिया. उनको बताया जैसे सूर्यकांत मणि और ईंधन के संयोग से चेतना का जन्म होता है. बीज से उत्पन्न होने वाला अंकुर जैसे बीज से भिन्न भी है और अभिन्न भी, वैसे ही शरीर इंद्रिय और चेतना परस्पर भिन्न भी है और अभिन्न भी. भगवान बुद्ध के उपदेशों से मगधराज बिम्बिसार ने परमार्थ ज्ञान और पूर्ण धर्म दृष्टि प्राप्त की. उनके साथ आए मगध के अन्य व्यक्ति भी कृतकृत्य हो गए. भगवान बुद्ध काफी समय तक राजगृह में निवास करते रहे. एक दिन उन्हें याद आया कि उन्होंने अपने पिता के मंत्रियों को वचन दिया था कि ज्ञान प्राप्त करके वे कपिलवस्तु लौटेंगे. इसलिए उन्होंने अपने पिता शुद्धोदन के राज्य में जाने का विचार किया और अनेक शिष्यों के साथ राजगृह से कपिलवस्तु के लिए प्रस्थान किया.
भगवान बुद्ध ने अपने पिता को समझाया – यह सारा संसार कर्म से बंधा हुआ है, अतः आप कर्म का स्वभाव, कर्म का कारण, कर्म का विपाक (फल) और कर्म का आश्रय, इन चारों के रहस्यों को समझिये, क्योंकि कर्म ही है, जो मृत्यु के बाद भी मनुष्य का अनुगमन करता है. आप इस सारे जगत को जलता हुआ समझकर उस पथ की खोज कीजिए जो शांत है और ध्रुव है, जहाँ न जन्म है, न मृत्यु है, न श्रम है और न दुःख. तथागत के चमत्कारों को देखकर और उनके उपदेशों को सुनकर राजा शुद्धोदन का चित्त शुद्ध हो गया, वे रोमांचित हो गए. उन्होंने हाथ जोड़कर तथागत से निवेदन किया – हे आर्य ! आज मैं धन्य हूँ. अपने आपने कृपाकर मुझे मोह से मुक्त किया है. हे तात ! आपका जन्म सफल है. अब मैं सचमुच पुत्रवान हूँ. आपने राजलक्ष्मी और स्वजनों का त्याग किया, दुष्कर तप किया और मुझ पर कृपा की, यह सब उचित है है. आप चक्रवर्ती राजा होकर भी हम सब लोगों को उतना सुख नहीं दे सकते थे, जितना आप आज दे रहे हैं. आपने अपने ज्ञान और सिद्धियों से भव-चक्र को जीत लिया है. बिना राज्य के ही आप सम्पूर्ण लोकों के सम्राट की भांति सुशोभित हैं. यह कहकर राजा ने भगवान बुद्ध को सादर प्रणाम किया.
राजगृह से तथागत गांधार देश गए. वहां पुष्कर नाम का राजा राज करता था. पुष्कर ने भगवान से ज्ञान प्राप्त किया. परिणामस्वरुप उसमें वैराग्य भाव का उदय हुआ. उसने अपना राज-पात त्याग दिया और संन्यास ग्रहण कर लिया. गांधार देश से वे विपुल पर्वत पर आए और वहां हेमवत और साताग्र नाम के यक्षों को उपदेश दिए. वहां से वे जीवक के आम्रवन में आए और विश्राम किया. कुछ समय बाद तथागत राजगृह से पाटलिपुत्र आए. उस समय मगधराज के मंत्री वर्षाकार लिच्छिवियों को शांत करने के लिए एक दृढ दुर्ग बनवा रहे थे. तथागत ने देखा कि उस दुर्ग के निर्माण के लिए अपार धनराशि आ रही है तो उन्होंने भविष्यवाणी की – शीघ्र ही यह नगर विश्व का महत्वपूर्ण नगर होगा और सर्वत्र ख्याति प्राप्त करेगा. तब मगधराज के मंत्री वर्षाकार ने भगवान बुद्ध की पूजा की और उनसे आशीर्वाद प्राप्त किए. जब तथागत अपने शिष्यों को इस प्रकार उद्बोधित कर रहे थे, तभी आम्रपाली हाथ जोड़कर उनके उपस्थित हो गई. श्रद्धा तथा शांत भाव से उसने बुद्ध को प्रणाम किया. फिर मुनि की आज्ञा प्राप्त कर वह उनके सामने बैठ गई. भगवान बुद्ध ने आम्रपाली को उपदेश देते हुए कहा – हे सुन्दरी, तुम्हारा आशय पवित्र है, क्योंकि तुम्हारा मन शुद्ध है. तुम्हारा चित्त धर्म की ओर प्रवृत्त है. यही तुम्हारा सच्चा धन है, क्योंकि इस अनित्य संसार में धर्म ही नित्य है. देखो आयु यौवन का नाश करती है, रोग शरीर का नाश करता है और मृत्यु जीवन का नाश करती है, परन्तु धर्म का नाश कोई नहीं कर सकता. आम्रपाली के मन की समस्त वासनाएं समाप्त हो गई और उसे अपनी वृत्ति से घृणा होने लगी. वह तथागत के चरणों में गिर पड़ी और धर्म की भावना से उसने भगवान बुद्ध से निवेदन किया – हे देव, आपने अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है. आपने संसार को पार कर लिया है. हे साधो, आप मुझ पर दया करें और धर्म लाभ के लिए मेरी भिक्षा स्वीकार करें, मेरे जीवन को सफल करें. भगवान बुद्ध ने आम्रपाली की सच्ची भक्ति-भावना को जानकर उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली...||
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