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भारत का संविधान - भारतीय राजव्यवस्था | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

भारतीय संविधान की विशिष्टताएं

भारत का संविधान - भारतीय राजव्यवस्था | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindiभारतीय संविधान की उद्देशिका

  • भारतीय संविधान पूर्णतया निर्मित एवं लिखित तथा विश्व का सबसे बड़ा संविधान है।
  • इसमें विश्व के विभिन्न संविधानों के संचित अनुभवों का समावेश किया गया है।
  • भारतीय संविधान के माध्यम से भारत में प्रभुत्व-सम्पन्न, लोकतंत्रात्मक, धर्म-निरपेक्ष एवं समाजवादी गणराज्य की स्थापना की गयी है।
  • भारत में संविधान द्वारा संसदीय प्रणाली की स्थापना की गई है।
  • संविधान में प्रवर्तनीय और अप्रवर्तनीय दोनों प्रकार के अधिकार सम्मिलित किये गये हैं, यथा- मौलिक अधिकार, राज्य के नीति निर्देशक तत्व तथा मौलिक कत्र्तव्य।
  • भारतीय संविधान में लचीलापन एवं कठोरता का सुसंगत मेल विद्यमान है।
  • सामान्य परिस्थिति में भारतीय संविधान की प्रकृति संघात्मक है, जबकि विशेष, यथा-आपातकालीन, परिस्थितियों में यह एकात्मक है।
  • हमारे संविधान में संसदीय सर्वोच्चता एवं न्यायिक पुनर्विलोकन के बीच समन्वय स्थापित किया गया है।
  • भारतीय संविधान में एकल नागरिकता का प्रावधान किया गया है।
  • संविधान के तहत स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना की गई है। भारत का सर्वोच्च न्यायालय संविधान का अंतिम विवाचक है तथा उसका निर्णय अंतिम होता है।
  • देश में सामाजिक समानता संविधान द्वारा प्रत्याभूत की गई है।

भारतीय संविधान कठोरता और लचीलापन का समन्वय

  • भारतीय संविधान में कठोरता और लचीलापन के लक्षण एक साथ विद्यमान है। लेकिन सैद्धांतिक रूप में भारतीय संविधान कठोर है, क्योंकि भारतीय संविधान की अधिकांश धाराओं को संशोधित करने के लिए संसद के सभी सदस्यों के बहुमत के अतिरिक्त उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत की भी आवश्यकता होती है।
  • अनुच्छेद 368 के अनुसार कुछ विषयों में संशोधन के लिए संसद के समस्त सदस्यों के बहुमत और उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत के अतिरिक्त कम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों का अनुसमर्थन भी अवश्यक है, जैसे- राष्ट्रपति के निर्वाचन की विधि, संघ और इकाइयों के बीच शक्ति विभाजन, राज्यों का संसद में प्रतिनिधित्व आदि। संशोधन की उपर्युक्त प्रणाली निश्चित रूप से कठोर है।
  • लेकिन संविधान निर्माताओं द्वारा पारिभाषिक दृष्टि से एक कठोर संविधान का निर्माण किए जाने पर भी इस बात को ध्यान मरखा गया कि तेजी से बदलती हुई परिस्थितियों के कारण भारतीय संविधान में बहुत जल्दी किसी प्रकार के परिवर्तन की आवश्यकता हो सकती है। इसलिए व्यावहारिक दृष्टि से भारतीय संविधान के संशोधन की पद्धति उतनी जटिल नहीं है जितनी कि अमरीका या अन्य संघ राज्यों के संविधान की संशोधन पद्धति। कुछ विषयों में तो साधारण बहुमत से भी संशोधन हो जाता है। उदाहरणस्वरूप, नवीन राज्यों के निर्माण, वर्तमान राज्यों के पुनर्गठन और भारतीय नागरिकता के अर्थ परिवर्तन आदि कार्य संसद साधारण बहुमत से कर सकती है।
  • इस प्रकार भारतीय संविधान न तो ब्रिटिश संविधान की तरह लचीला है और न ही अमरीकी संविधान की भांति अत्यधिक कठोर। इस संबंध में भारतीय संविधान में मध्यम मार्ग अपनाया गया है। भारतीय संविधान की यह प्रकृति इसके 47 साल की यात्रा में लगभग 80 बार से अधिक हुए संशोधनों से स्वतः स्पष्ट हो जाती है।

संविधान के आधारिक लक्षण

  • संविधान का कुछ आधारिक लक्षण है जिनका अनुच्छेद 368 के अधीन शक्ति के प्रयोग में संशोधन नहीं किया जा सकता। ये आधारिक लक्षण है-  भारत की प्रभुता और अखंडता, परिसंघीय प्रणाली, न्यायिक पुनर्विलोकन, संसदीय पद्धति की सरकार। यह सूची सर्वग्राही नहीं है।
  • यदि संविधान संशोधन अधिनियम संविधान की आधारिक संरचना या ढांचे में परिवर्तन करने के लिए है तो न्यायालय उसे ”शक्ति बाह्य“ के आधार पर शून्य करार देने का हकदार होगा। कारण है कि अनुच्छेद 368 में ”संशोधन“ का अर्थ है ऐसा परिवर्तन जो संविधान की संरचना को प्रभावित नहीं करता है। ऐसा करना तो नया संविधान बनाना होगा।
  • 44वें संविधान संशोधन द्वारा कुछ आधारिक लक्षणों की चर्चा की गई। ये है- भारत का धर्मनिरपेक्ष और प्रजातांत्रिक स्वरूप, मौलिक अधिकार, निष्पक्ष चुनाव, वयस्क मताधिकार, न्यायपालिका की स्वतंत्राता आदि।
  • 1973 में उच्चतम न्यायालय ने केशवानंद भारती मामले में यह अभिनिर्धारित किया कि संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन कर सकती है, लेकिन यह संविधान के मूल ढांचे में परिवर्तन नहीं कर सकती। 1980 में मिनर्वा मिल मामले में भी उच्चतम न्यायालय का यही मत था। परिणामस्वरूप उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णयों के अनुसार अनुच्छेद 368 से यह प्रस्थापनाएं निकलेंगी।
    (i) अनुच्छेद 368 में अधिकथित प्रक्रिया का अनुसरण करके संविधान के किसी भी भाग का संशोधन किया जा सकता है।
    (ii) संविधान के किसी भी उपबंध का संशोधन करने के लिए जनमत संग्रह या संविधान सभा को निर्देश करना आवश्यक नहीं है।
    (iii) यदि कोई संशोधन संविधान के ”आधारिक लक्षणों“ को मिटाता है या नष्ट करता है तो संविधान के किसी उपबंध या किसी भाग का इस प्रकार संशोधन नहीं किया जा सकता। इस प्रकार, अनुच्छेद 368 में अभिव्यक्त रूप से अधिकथित प्रक्रिया संबंधी मर्यादाओं के अतिरिक्त आधारिक लक्षणों के सिद्धांत पर आधारित अधिष्ठायी मर्यादा हमारे संविधान में न्यायालयों ने जोड़ी है।

संविधान का दर्शन

  • प्रत्येक संविधान का अपना एक दर्शन होता है। वस्तुतः भारतीय संविधान का दर्शन पंडित नेहरू के उस ऐतिहासिक उद्देश्य प्रस्ताव से प्रेरित है जिसे 22 जनवरी, 1947 को संविधान सभा ने अंगीकार किया था तथा जिससे आगे के सभी चरणों में संविधान को रूप देने में प्रेरणा मिली है।
    यह उद्देश्य प्रस्ताव निम्नलिखित है -
    (i) संविधान सभा यह घोषणा करती है कि इसका उद्देश्य और संकल्प भारत को एक स्वतंत्रा प्रभुतासंपन्न गणराज्य बनाना है, जिसके भावी शासन के लिए संविधान का निर्माण करना है।
    (ii) ब्रिटिश भारत के सभी क्षेत्रों और देशी रियासतों तथा ब्रिटिश भारत एवं देशी रियासतों के बाहर के सभी क्षेत्रों जो स्वतंत्रा तथा प्रभुसत्ता संपन्न भारत में मिलना चाहते है। को मिलाकर भारत संघ का गठन किया जायेगा।
    (iii) उक्त सभी क्षेत्रों की वर्तमान सीमाओं सहित- संविधान सभा द्वारा निर्धारित की गयी सीमा में या भविष्य में निर्धारित एवं परिवर्तित सीमा में एक स्वायत्त इकाई होंगे तथा इन इकाइयों को अवशिष्ट अधिकार प्राप्त होंगे तथा केन्द्र को सौंपे गए कार्यों के अतिरिक्त ये इकाइयां अन्य कार्यों का अनुपालन करेंगी।
    (iv) भारतीय संघ, इसकी इकाइयों तथा सरकार एवं सरकार के अंगों की स्वतंत्राता तथा प्रभुत्व संपन्नता का समस्त सत्रोत भारत की जनता है।
    (v) भारत के सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, प्रतिष्ठा, विधि के समक्ष समता, अवसरों की समानता, न्याय तथा सार्वजनिक सदाचार की सीमा में विचार तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता, धर्म, उपासना, विश्वास और कार्य की स्वतंत्राता होगी।
    (vi) भारत के अल्पसंख्यकों के लिए, पिछड़े और जनजाति क्षेत्रों के लिए और दलित तथा अन्य पिछड़े हुए वर्गों के लिए पर्याप्त रक्षोपाय किए जायेंगे।
    (vii) भारतीय गणतंत्र के राज्यक्षेत्र की अखंडता और जल, स्थल एवं वायु क्षेत्रा पर उसका प्रभुत्वसंपन्न अधिकार सभ्य राष्टों की विधि के अनुसार बनाये रखे जायेंगे।
    (viii) यह प्राचीन भूमि विश्व में अपना समुचित और गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त करेगी और विश्व शांति तथा मानव कल्याण के लिए अपनी इच्छा से अपना पूरा सहयोग प्रदान करेगी
    उक्त संकल्प में जिन आदर्शों को रखा गया है वे संविधान की प्रस्तावना में दिखाई पड़ते है।

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय

  • सामाजिक न्याय का तात्पर्य यह है कि समाज में व्यक्ति को स्वतंत्रा नागरिक के नाते महत्व दिया जाना चाहिए और जाति, धर्म, वर्ण, लिंग, सपत्ति या अन्य किसी आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिए। सामाजिक न्याय की स्थिति के अन्तर्गत अस्पृश्यता या छुआछूत जैसी कृत्रिम सामाजिक दीवारों के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। सामाजिक न्याय का तात्पर्य सभी नागरिकों को स्वतंत्राता के साथ समानता प्रदान करना है।

रंग की समानतारंग की समानता

  • आर्थिक न्याय सामाजिक न्याय का पूरक है और इसका तात्पर्य यह है कि ऐसी व्यवस्था का अंत कर दिया जाना चाहिए जिसमें कुछ साधनसंपन्न व्यक्तियों द्वारा बहुसंख्यक साधनहीन व्यक्तियों का शोषण किया जाता हो। आर्थिक न्याय के इस लक्ष्य की प्राप्ति तभी संभव है जबकि उत्पादन और वितरण के साधनों पर समस्त समाज का अधिकार हो और उनका प्रयोग समस्त समाज के हितों की दृष्टि से ही किया जाए। इसमें सभी व्यक्तियों के लिए उनकी क्षमता और योग्यता अनुसार रोजगार, रोजगार के बदले में भरण-पोषण के लिए पर्याप्त वेतन और गंभीर आर्थिक विषमताओं का अंत आदि बातें निहित है।
  • राजनीतिक न्याय का तात्पर्य यह है कि सभी व्यक्तियों को राजनीतिक क्षेत्रा में स्वतंत्रा और समान रूप से भाग लेने का अवसर प्राप्त होना चाहिए। धर्म, जाति, वर्ण, लिंग आदि के आधार पर राजनीतिक क्षेत्रा में किसी भी भेदभाव का निषेध राजनीतिक न्याय की प्राप्ति के साधन है।
  • भारतीय संविधान के द्वारा प्रजातांत्रिक व्यवस्था और वयस्क मताधिकार को अपनाकर राजनीतिक न्याय को तो तत्काल ही प्राप्त किया गया है। सामाजिक न्याय को प्राप्त करने के लिए मौलिक अधिकारों विशेषतया समानता के अधिकारों की व्यवस्था की गयी है। धर्मनिरपेक्षता भी इसी दिशा में एक चरण है।
  • लेकिन न्याय के संदर्भ में सबसे अधिक महत्वपूर्ण ‘आर्थिक न्याय’ है। हमारे संविधान निर्माता इस तथ्य से परिचित थे कि आर्थिक न्याय के लक्ष्य की प्राप्ति तत्काल ही नहीं की जा सकती। अतः उनके द्वारा आर्थिक न्याय से संबंधित प्रावधानों को मौलिक अधिकारों में नहीं वरन् नीति-निर्देशक तत्वों में स्थान दिया गया।
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FAQs on भारत का संविधान - भारतीय राजव्यवस्था - भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi

1. भारतीय संविधान की विशिष्टताएं क्या हैं?
उत्तर: भारतीय संविधान की विशिष्टताएं इसके कठोरता और लचीलापन का समन्वय हैं। यह संविधान एक बहुमत प्राप्त संस्थान है जिसमें संविधानिक सभा के सदस्यों द्वारा लिखित निर्णय लेने की क्षमता होती है। इसके अलावा, भारतीय संविधान में नागरिकों के मूलभूत अधिकारों का संरक्षण किया जाता है और इसे संविधानीय न्यायालय द्वारा संरक्षित भी किया जाता है।
2. संविधान के आधारिक लक्षण क्या हैं?
उत्तर: संविधान के आधारिक लक्षणों में शामिल हैं - सीमित सरकारी शक्ति, स्वतंत्र न्यायपालिका, मूलभूत अधिकारों का संरक्षण, नागरिकों के सामान्य अधिकारों का संरक्षण, संविधानीय न्यायालय की स्थापना, संविधान संशोधन की प्रक्रिया आदि। ये लक्षण संविधान के मूल्यों और सिद्धांतों को प्रदर्शित करते हैं।
3. संविधान का दर्शन क्या है?
उत्तर: संविधान का दर्शन एक महत्वपूर्ण विषय है जो संविधान के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह संविधान के पीछे स्वतंत्रता, न्याय, समानता, भागीदारी, मानवाधिकार आदि के मूल आदर्शों और सिद्धांतों का परिचय करता है। संविधान का दर्शन भारतीय संविधान के मूल्यों और उद्देश्यों को सार्थक ढंग से प्रस्तुत करता है।
4. सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्यायभारत का संविधान क्या है?
उत्तर: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्यायभारत का संविधान भारतीय संविधान के एक महत्वपूर्ण पहलू है। यह संविधान न्यायपालिका को स्वतंत्रता और अधिकारिता प्रदान करने के साथ-साथ समाजी और आर्थिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिए भी बनाया गया है। इसके माध्यम से, संविधान ने गरीबी, अन्याय, विचारशीलता, सामाजिक उत्थान, आर्थिक समानता आदि के मुद्दों का समाधान किया है।
5. भारतीय राजव्यवस्था में संविधान की क्या भूमिका है?
उत्तर: भारतीय राजव्यवस्था में संविधान एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह देश के संविधानिक न्यायपालिका को स्वतंत्रता और अधिकारिता प्रदान करता है और नागरिकों के अधिकारों का संरक्षण करने के लिए जिम्मेदार होता है। संविधान की महत्वपूर्ण भूमिका है भारतीय राजव्यवस्था को न्याय, समानता, अधिकार और भागीदारी के मूल आदर्शों के प्रति संपन्न करना।
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