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लोक लेखा समितिः कृत्य और उपलब्धियाँ - भारतीय राजव्यवस्था | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

संविधान के अनुच्छेद 265 में किये गये उपबंधों के अनुसार कोई कर विधि के प्राधिकार से ही आरोपित किया जायेगा, अन्यथा नहीं। इसके अतिरिक्त संविधान के अनुच्छेद 266 (3) में यह उपबंध भी किया गया है कि भारत की संचित निधि या राज्य की संचित निधि में से कोई धनराशि विधि के अनुसार तथा संविधान में उपबंधित प्रयोजनों के लिये और रीति से ही विनियोजित की जायेंगी अन्यथा नहीं। अन्य शब्दों में केन्द्र सरकार द्वारा किसी भी प्रकार की धनराशि संसद की पूर्व स्वीकृति और प्राधिकार के बिना निकाली अथवा खर्च नहीं की जा सकती। 
संसद प्रत्येक वर्ष सरकार के विभिन्न विभागों के व्यय को पूरा करने के लिए करोड़ों रुपये स्वीकृत करती है और विभिन्न शीर्षों के अंतर्गत इस उद्देश्य के लिए विशिष्ट विनियोजन करती है। वित्तीय स्वीकृतियों में मंत्रालयों द्वारा सरकारी निधियों के वितरण पर नियंत्रण रखे जाने का प्रावधान होता है और यह देखना संसद का विशेषाधिकार है कि स्वीकृत धनराशि बुद्धिमानी, मितव्ययिता ओर विवेकपूर्ण तर्क से खर्च की गई है अथवा किसी प्रकार का उल्लंघन किया गया है ओर क्या धनराशि उसी प्रयोजनार्थ खर्च की गई है जिसके लिए स्वीकृत की गई थीं। तथापि, देश में होने वाली गतिविधियों की विभिन्नता, जटिलता, आयाम और समय की कमी को देखते हुए संसद यह नियंत्रण स्वयं नहीं रख सकती। अतः इसने सरकारी व्यय की संमीक्षा करने तथा उस पर नियंत्रण के कार्य को तीन वित्तीय समतियों उपक्रमों संबंधी समिति को सौंप दिया है। लोक लेखा समिति इन तीनों वित्तीय समितियों में सबसे पुरानी है। 

लोक लेखा समिति का उद्भव
लोक लेखा समिति भारत में सर्वप्रथम सन् 1921 में स्थापित की गई थी यद्यपि ब्रिटिश पार्लियामैंट में अपनाई गई प्रणाली पर आधारित थी, 1950 तक यह लगभग वित्त विभाग के सहायक के रूप में कार्य करती रही। वित्त सदस्य अथवा मंत्री इसका सभापति होता था और उनका कार्यालय समिति के सचिवालय का काम करता था।
संविधान लागू हो जाने के बाद लोक लेखा समिति की संरचना में आमूलचूल परिवर्तन आया और यह अध्यक्ष द्वारा नियुक्त एक गैर.सरकारी व्यक्ति की अध्यक्षता वाली पूर्णरूपेण संसदीय समिति बन गई और सचिवालीय सहायता भी लोक सभा सचिवालय द्वारा प्रदान की गई।
अब समिति में 22 से अधिक सदस्य होते हैं जिसमें 15 सदस्य ऐसे होते हैं जोकि लोक सभा में एकल हस्तांतरणीय मत द्वारा अनुपातिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत के आधार पर इसके सदस्यों में से प्रति वर्ष चुने जायेंगे और राज्य सभा से 7 से अधिक सदस्य होंगे जो उस सदन द्वारा समिति में सहयोजित होने के लिए मनोनीत किये जायेंगे। समिति का सभापति अध्यक्ष द्वारा उसके सदस्यों में से नियुक्त किया जाता है। वर्ष 1967 - 68 में अध्यक्ष ने पहली बार विपक्ष के एक सदस्य को समिति का सभापति बनाया। तभी से यह प्रथा अपनाई जा रही है। पहली समिति के कार्यकाल के समाप्त होने से पहले प्रतिवर्ष नई समिति का चुनाव कर लिया जाता है परन्तु इसका कार्यकाल पहली समिति के कार्यकाल के समाप्त होने के बाद ही आरम्भ होता है। परम्परा के अनुसार कोई भी सदस्य सामान्यतः लगातार दो से अधिक बार समिति का सदस्य निर्वाचित नहीं किया जाता है। 

समिति का कार्यक्षेत्र एवं कृत्य
संविधान के अनुच्छेद 151 में नियंत्रक महालेखा परीक्षक द्वारा संघ एवं राज्य सरकारों के लेखाओं संबंधी अपने प्रतिवेदनों को राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल जैसा भी मामला हो, के समक्ष प्रस्तुत किया जाना अपेक्षित है, जो उनको संसद/विधान मंडल के समक्ष रखवायेगा। लेखा परीक्षा प्रतिवेदनों, वित्त लेखाओं और विनियोजन लेखाओं को विधान मंडलों में प्रस्तुत करने के पश्चात् लोक लेखा समिति को भेजा जाता है। अतः लोक लेखा समिति मूलरूप से नियंत्रक महालेखा.परीक्षक के प्रतिवेदनों पर विचार करती है। परन्तु राष्ट्र की वित्त व्यवस्था के प्रबंधन संबंधी किसी भी मद की जाँच करने का इसको स्वतः अधिकार प्राप्त है। 
समिति का कार्यक्षेत्र और उसके कृत्य लोक सभा के प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियमों के नियम 308 में दिये गये हैं। समिति के मुख्य कृत्य भारत सरकार के व्यय के लिए संसद द्वारा मंजूर की गई राशियों के विनियोजन को दर्शाने वाले लेखाओं, भारत सरकार के वार्षिक वित्तीय लेखाओं तथा सभा के समक्ष रखे गये ऐसे अन्य लेखाओं की जाँच करना है जिन्हें समिति उपयुक्त समझे। भारत सरकार के विनियोजन लेखाओं तथा इस सम्बन्ध में नियंत्रक और महालेखा परीक्षक के प्रतिवेदनों की संमीक्षा करने हेतु समिति को निम्नलिखित तथ्यों के प्रति अपनी संतुष्टि करनी होती है।
(क) कि लेखाओं में दर्शाई गई धनराशियों का जो वितरण हुआ है वे कानूनी तौर पर उपलब्ध थी तथा उस कार्य अथवा प्रयोजना के लिए उपभोज्य थी जिसके लिए वे मांगी गई थी अथवा वसूल की गर्ठ थी;
(ख) कि व्यय उस प्राधिकार के अनुरूप है जो इसका संचालन करता है; तथा 
(ग) कि प्रत्येक पुनवनियोजन सक्षम प्राधिकारी द्वारा बनाये गये नियमों के अधीन इस संबंध में तैयार किये प्रावधानों के अनुरूप है। 
लोक लेखा समिति का एक महत्वपूर्ण कार्य यह पता लगाना है कि क्या संसद द्वारा अनुदत्त धन सरकार ने 'मांग  के अनुसार' खर्च किया है। समिति का कार्य विस्तार में जाकर लेखाओं की जांच करना नहीं है अपितु इस प्रकार के लेखों के संबंध में नियत्रक महालेखा परीक्ष के प्रतिवेदनों से अवगत होगा, घाटे के विशिष्ट मामलों, निरर्थक व्यय, वित्तीय अनियमितताओं के मामलों की जांच करना तथा यह देखना है कि क्या संसद द्वारा स्वीकृति नीतियों का सरकार तथा इसकी एजेंसियों द्वारा मितव्ययिता तथा कुशलता से तथा ईमानदारी से पालन किया जा रहा है। 

स्वतंत्रता के बाद अर्थव्यवस्था में तेजी से विकास प्राप्त करने के लिए येाजना प्रक्रिया आरम्भ करके देश में सरकार के विभिन्न विकास तथा कल्याण संबंधी कार्य कलापों में वृद्धि हुई है। राजस्व प्राप्तियों तथा सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों द्वारा लिये गये ऋणों में भी वर्ष दर वर्ष काफी वृद्धि हुई है। इससे लोक लेखा समिति के उत्तरदायित्व और अधिक बढ़ गये हैं। बढ़ते हुए सार्वजनिक व्यय तथा तदन्तर सरकारी व्यय तथा संसद की निगरानी रखने की अधिक आवश्यकता के कारण लोक लेखा समिति में व्यय का 'मात्र औपचारिक' और 'विदिक अध्ययन' करने के स्थान पर बुद्धिमता, वफादारी तथा मितव्ययिताश् से अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया है। यह इस बात की भी जांच करती है कि विभिन्न योजनाओं के संबंध में सरकार अपने वित दायित्व किस बखूबी से निभाती है और पता लगाती है कि क्या इन योजनाओं को निष्पादित किया जा रहा है और उनका संचालन कुशलता तथा मितव्ययिता से किया जा रहा है तथा क्या उनके अपेक्षित परिणाम प्राप्त हुए हैं। चूकों के वैयक्तिक मामलों पर विचार करते समय समिति प्रणाली तथा प्रक्रिया सुधार हेतु उपयुक्त सिफारिश करती है।
प्रशासनिक सुविधा और जाँच हेतु लेखा परीक्षा पैराओं को समिति ने तीन श्रेणियों में विभाजित किया है अर्थात् श्रेणी श्कश् -अत्यंत महत्वपूर्ण पैरा, श्रेणी ”ख“ कृ महत्वपूर्ण पैरा और श्रेणी  ”ग“ में शेष पैरे शामिल हैं। श्रेणी ”क“ पैराओं में मौखिक साक्ष्य लिये जाते हैं, श्रेणी ”ख“ के संबंध में लिखित जानकारी माँगी जाती है और श्रेणी ”ग“ के पैराओं के संबंध में मंत्रालयों/विभागों से अपेक्षा की जाती है कि वे संबंधित लेखा परीक्षा प्रतिवेदनों के सभा पटल पर रखे जाने से तीन महीनों की अवधि के भीतर की गई अथवा की जाने वाली सुधारात्मक कार्यवाही की सूचना वित्त मंत्रालय के माध्यम से समिति को दे।
जैसा कि पूर्व में बताया गया है कि भारत के नियंत्रक और महालेखापरीक्षक के प्रतिवेदना समिति की चर्चा का आधार होते हैं। लेकिन समिति की जाँच मात्र लेखा परीक्षा प्रतिवेदनों से उत्पन्न मामलों तक ही सीमित नहीं होती है। समिति ने स्वयं कई अवसरों पर उन विभिन्न अनियमितताओं/मामालें की जाँच प्रारंभ की है जो कि सार्वजनिक  बन गये हैं, जब कि उस विषय से संबंधित कोई औपचारिक लेखा परीक्षा रिपोर्ट संसद में प्रस्तुत नहीं की गई थी।
समिति ने हाल के वर्षों में जाँच के लिए नये क्षेत्रों को लिया है। समिति ने अर्थव्यवस्था के कुछ मुख्य क्षेत्रों जैसे गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के बारे में विस्तार से जाँच की थी। समिति ने सरकार के कार्यक्षेत्र में आने वाले मामलों का सावधानीपूर्वक चयन किया जो उस समय अत्यन्त लोक महत्व के थे। लेखा परीक्षा रिपोर्टों में ध्यान में लाए गए विभिन्न पहलुओं के बारे में तथ्यात्मक दृष्टिकोण अपनाने तथा रचनात्मक सुझाव देने के प्रयास किये गये है। कार्य.निष्पादन में आई कमी के संबंध में समिति के निष्कर्ष तथा वित्तीय और प्रशासनिक प्रणालियों में सुधार के लिए दिये गये सुझाव काफी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि समिति के निष्कर्षों से यह स्पष्ट पता चलता है कि प्रणालियों तथा प्रक्रियाओं में किस प्रकार सुधार लाये जा सकते हैं ताकि विभिन्न कार्यक्रमों/योजनाओं के लिए आवंटित किये गये धन का अधिक से अधिक सदुपयोग किया जा सके।
इस प्रकार समिति का संबंध नीति संबंधी प्रश्नों से नहीं है। तथापि जब समिति को साक्ष्य में यह पता चलता है कि किसी विशेष नीति से वांछित परिणाम सामने नहीं आ रहे हैं अथवा यह व्यर्थ सिद्ध हो रही है तो समिति को अधिकार है कि वह सभा को सूचित करे कि नीति में परिवर्तन किया जाना चाहिये।

स्वीकृत अनुदानों से अधिक व्यय
नियमों के अंतर्गत समिति का एक कार्य स्वीकृत अनुदानों से अधिक व्यय के मामलों की जाँच करना और उनकी सूचना देना है। अगर किसी कार्य के लिए संसद द्वारा स्वीकृत राशि से अधिक राशि खर्च की गई है तो समिति प्रत्येक मामले की तथ्यों के संदर्भ में इस बात की जाँच करती है कि किन परिस्थितियों में अधिक व्यय हुआ। और उस पर अपनी उपयुक्त सिफारिश देती है। इस प्रकार के मामले, सभा के समक्ष सरकार द्वारा संविधान के अनुच्छेद 115 में उल्लिखित ढंग से मंजूरी के लिए लाये जाते हैं। इस बात पर जोर देते हुए कि अधिक व्यय श्अनाधिकृत व्ययश् है  जो गलत वित्तीय प्राक्कलन को प्रदर्शित करता है, समिति ने यह निर्धारित किया है कि ऐसे व्यय केवल उस आकस्मिक स्थिति में किया जा सकता है जब इस प्रकार के अपरिहार्य व्यय की अचानक जरूरत पड़ जाये जिसका अनुमान अथवा जिसकी आशा पहले से न की जा सकी हो तथा जिसके लिए संबद्ध मंत्रालय के पास इतना समय न हो कि वह उसके लिए पूरक अनुदान/विनियोग प्राप्त करने के लिए संसद से संपर्क कर सके। इस प्रकार के मामलों में भी भारत की आकस्मिक निधि में से पैसा लिया जाना चाहिये।

राजस्व प्राप्तियों की जाँच
परंपरागत रूप से, राजस्व पर संसदीय नियंत्रण को सरकार द्वारा प्रस्तावित करों पर मतदान करने के संसद के विशेषाधिकार के समान समझा गया है। सातवें दशक के प्रारंभ तक संसद के पास सरकार की राजस्व प्राप्तियों की विस्तृत जाँच के लिए आवश्यक साधन नहीं थे। 1962 से नियंत्रक और महालेखा परीक्षक संसद के समक्ष राजस्व प्राप्तियों पर वार्षिक लेखा परीक्षा रिपोर्ट प्रस्तुत करता आ रहा है। तदनुसार, समिति राजस्व प्राप्तियों से संबंधित लेखा परीक्षा रिपोर्टों की भी जाँच कर रही है। केन्द्र सरकार की राजस्व प्राप्तियोें में अत्यधिक वृद्धि को देखते हुए, कर वसूली की पूर्ण जाँच के महत्व की अवहेलना नहीं की जा सकती। स्पष्ट है कि वित्तीय प्रशासन में किसी तरह की ढिलाई या अकुशलता से राजस्व वसूली में काफी कमी हो सकती है जिनके गंभीर परिणाम निकल सकते हैं। अतः उनका शीर्घता से पता लगाकर उन्हें दूर किया जाना चाहिये। इसीलिए इस मत के अनुरूप समिति प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों से संबंधित राजस्व प्राप्तियों से संबंधित नियंत्रक और महालेखा परीक्षक के प्रतिवेदनों की जाँच करने के लिए काफी समय देती है। राजस्व प्राप्तियों संबंधी रिपोर्टों की जाँच करते समय समिति यह देखती है है कि क्या प्रशासन में काई ढील, अकुशलता या फिजूल खर्च तो नहीं है विशेष तौर पर क्या प्रचलित कर संबंधी कानूनी या प्रक्रियाओं में कोई त्रुटियाँ अथवा कमियाँ तो नहीं हैं जिनका कर बचाने के लिए बेईमानी ततव फायदे उठा रहे हैं या उठा सकते हैं। समिति यह भी देखती है कि सरकार द्वारा दी गई कर संबंधी विभिन्न रियायतों/छूटों- जिनमें सरकार को अपने बहुत अधिक राजस्व से वंचित होना पड़ता है- से उन प्रयोजनों की प्राप्ति हो रही है है अथवा नहीं जिनकी वजह से ये दी गई हैं। समिति की राजस्व प्राप्तियों संबंधी प्रतिवेदनों से कर प्रशासन की बहुत.सी कमियों को दूर करने में सहायता मिली है। 

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FAQs on लोक लेखा समितिः कृत्य और उपलब्धियाँ - भारतीय राजव्यवस्था - भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi

1. लोक लेखा समिति क्या होती है?
उत्तर: लोक लेखा समिति एक संविधानिक निकाय है जो भारतीय राज्यों के लिए लोक लेखाओं की मान्यता और उनकी जांच करती है। यह समिति सरकारी खर्च, गणना, खाता और वित्तीय प्रबंधन की जांच करके सरकारी नियमों और विनियमों का पालन करती है।
2. लोक लेखा समिति क्या कार्य करती है?
उत्तर: लोक लेखा समिति के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं: - सरकारी खर्चों की मान्यता और जांच करना। - सरकारी खातों की गणना करना। - सरकारी वित्तीय प्रबंधन की जांच करना। - सरकारी नियमों और विनियमों का पालन करना। - लोक लेखाओं की जाँच करना और उनकी मान्यता करना।
3. भारतीय राज्यों के लिए लोक लेखा समिति क्यों महत्वपूर्ण है?
उत्तर: लोक लेखा समिति भारतीय राज्यों के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सरकारी खर्चों की मान्यता और जांच करके सुनिश्चित करती है कि धनराशि सही तरीके से खर्च की जा रही है। यह समिति सरकारी नियमों और विनियमों का पालन करने के लिए जिम्मेदार होती है और सरकारी वित्तीय प्रबंधन में पारदर्शिता लाती है।
4. UPSC क्या है?
उत्तर: UPSC (यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन) भारतीय संघ लोक सेवा आयोग है जो भारतीय राज्यों में संघ लोक सेवा परीक्षाओं का आयोजन करता है। इस आयोग के द्वारा भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) और अन्य संघ लोक सेवाओं के लिए योग्य उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया का आयोजन किया जाता है।
5. लोक लेखा समिति क्या सदस्यों का चयन कैसे होता है?
उत्तर: लोक लेखा समिति के सदस्यों का चयन भारतीय राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है। समिति के सदस्यों में अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और अन्य सदस्य शामिल होते हैं। उनका चयन उनकी विशेषज्ञता, अनुभव और सम्बंधित क्षेत्र में योग्यता के आधार पर होता है।
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