उच्चतम न्यायालय की स्थिति
- उच्चतम न्यायालय की अधिकारिता और शक्तियां उनकी प्रकृति और विस्तार को देखते हए किसी भी अन्य देश के सर्वोच्च न्यायालय की तलना में अधिक है। यह परिसंघ न्यायालय भी है, अपील न्यायालय भी है और संविधान का संरक्षक भी तथा उसके द्वारा संविधान के अधीन अपनी अधिकारिता के प्रयोग में घोषित विधि, भारत के राज्यक्षेत्रा में अन्य सभी न्यायालयोंपर आबद्धकर है। [अनुच्छेद 141]
- हमारे उच्चतम न्यायालय को अमरीकी उच्चतम न्यायालय की तुलना में कई बातों में व्यापक शक्तियां है-
- पहला, अमरीकी उच्चतम न्यायालय की अपीलीय अधिकारिता परिसंघीय संबंधों से उत्पन्न होने वाले या विधियों और संधियों की सांविधानिक विधिमान्यता से संबंधित मामलों तक ही सीमित है। किंत हमारा उच्चतम न्यायालय परिसंघीय न्यायालय भी है, संविधान का संरक्षक भी है और संविधान के निर्वचन के संबंध में उत्पन्न होने वाले मामलों के अतिरिक्त सिविल और दाण्डिक मामलोंके संबंध मेंदेश का सर्वोच्च अपीलीय न्यायालय है। अनच्छेद [133-134]
- दूसरा, हमारे उच्चतम न्यायालय को भारत के राज्यक्षेत्रा में किसी भी न्यायालय या अधिकरण के विनिश्चय से अपील ग्रहण करने की असाधारण शक्ति है। इस विवेकाधिकार की कोई सीमा नहीं है [अनच्छेद136]। अमरीकी उच्चतम न्यायालय को इस प्रकार की कोई शक्ति नहीं है।
- तीसरा, अमरीकी उच्चतम न्यायालय ने सरकार को सलाह देने की शक्ति ग्रहण करने से इंकार कर दिया और किसी भी विषय के पक्षकारों के बीच वास्तविक विवाद को निपटाने तक ही अपने को सीमित रखा है। संविधान ने हमारे उच्चतम न्यायालय को राष्ट्रपति द्वारा उसे निर्दिष्ट किसी तथ्य या विधि के प्रश्न पर सलाह के रूप में राय देने की शक्ति दी है [अनच्छेद 143]
न्यायाधीशों की नियक्ति
- संविधान के अनच्छेद 124(2) के अनसार सर्वोच्च न्यायालय के मख्य न्यायाधीश की नियक्ति राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्राी एवं मंत्राीपरिषद् के परामर्श से की जाती है। भारत के मख्य न्यायाधीश की दशा में राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करेगा जो वह आवश्यक समझे।
- उच्चतम न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियक्ति भी राष्ट्रपति द्वारा मख्य न्यायाधीश के परामर्श पर की जाती है।
न्यायाधीशों की योग्यताएँ
- संविधान के अनच्छेद 124(3) में सर्वोच्च न्यायालय के मख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधीशों के लिए निम्न योग्यताएँ निर्धारित की गई है -
(क) वह भारत का नागरिक हो,
(ख) किसी उच्च न्यायालय या ऐसे दो या अधिक न्यायालयों में लगातार कम से कम 5 वर्ष तक न्यायाधीश रहा हो, या
(ग) किसी उच्च न्यायालय या ऐसे दो या अधिक न्यायालयों में लगातार कम से कम 10 वर्ष तक अधिवक्ता रहा हो, या
(घ) राष्ट्रपति की राय में वह पारंगत विधिवेत्ता हो।
- इस अन्तिम उपबन्ध को शामिल करने का उद्देश्य न्यायाधीशों की नियक्ति का दायरा विस्तृत करना था। इस प्रावधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति ऐसे किसी विधिशास्त्री को जो कि किसी विश्वविद्यालय में विधिशास्त्र का अध्यापन कर रहा हो न्यायाधीश पद पर नियक्त कर सकता है।
न्यायाधीशों का कार्यकाल
- सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की पदावधि अथवा कार्यकाल का निर्धारण संविधान के अनच्छेद 124(2) में उल्लिखत है। इसके अनसार सर्वोच्च न्यायालय का कोई भी न्यायाधीश 65 वर्ष की आय तक अपने पद पर बना हआ रह सकता है।
- संविधान के अनच्छेद 124;2) के अनसार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद में रिक्ति निम्न प्रकार से ही हो सकेगी-
(क) 65 वर्ष की आय पूर्ण कर चुकने पर।
(ख) न्यायाधीश स्वयं राष्ट्रपति को संबोधित कर अपने हस्ताक्षर सहित लिखित पत्रा द्वारा अपना पद त्याग सकता है।
(ग) संसद द्वारा महाभियोग लगाकर उसे पद से हटाया जा सकता है।
न्यायाधीशों को पद से हटाने की महाभियोग प्रक्रिया
- संविधान के अनच्छेद 124 के खण्ड (4) में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को पद से हटाने के लिये प्रक्रिया निर्धारित की गई है।
- संसद अपने प्रत्येक सदन की कल सदस्य संख्या के बहमत तथा सदनों में उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम दो तिहाई बहमत से पारित प्रस्ताव द्वारा न्यायाधीशों को पदच्यत कर सकती है। लेकिन ऐसा वह केवल राष्ट्रपति की अनमति से ही कर सकती है।
- इसके साथ ही ऐसा प्रस्ताव संसद के उसी सत्रा में पारित होना चाहिए जिस सत्रा में कि वह प्रस्तत किया गया है।
- ऐसा प्रस्ताव केवल दो ही स्थितियों में रखा जा सकता है-
- प्रमाणित कदाचार (दव्र्यवहार) के आधार पर- इसका तात्पर्य है कि यदि संसद यह महसूस करे कि न्यायाधीश द्वारा अपने पद का दरपयोग किया गया है अथवा उसने संविधान के विरद्ध आचरण किया है, तब ऐसी स्थिति में वह प्रस्तत प्रकरणों के आधार पर राष्ट्रपति की अनमति से महाभियोग प्रस्ताव रख सकती है।
- अक्षमता के आधार पर संसद यदि यह महसूस करे कि न्यायाधीश अपने पद पर कार्य करते रहने में असमर्थ अथवा अक्षम है तब वह इस आशय का प्रस्ताव राष्ट्रपति की अनमति से सदस्यों के समक्ष रख सकती है।
- इस प्रकार के किसी भी प्रस्ताव के संसद में पेश होने पर संबंधित न्यायाधीश को अपना पक्ष प्रस्तत करने तथा अपनी पैरवी करने का पूरा अवसर प्रदान किया जाएगा।
- इस प्रकार महाभियोग प्रस्ताव पारित होने पर ही राष्ट्रपति न्यायाधीश को पद से हटाने की घोषणा करेगा।
कार्यकारी तथा तदर्थ न्यायाधीशों की नियक्ति
- संविधान के अनच्छेद 126 के अधीन राष्ट्रपति को मख्य न्यायाधीश की अनपस्थिति में अथवा अन्य किसी कारण से उसके अपने पद के कत्र्तव्यों के पालन करने में असमर्थ रहने पर न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों में से किसी एक को जिसे वह उचित समझे नये मख्य न्यायाधीश की नियक्ति होने तक कार्यकारी मख्य न्यायाधीश नियक्त करने का अधिकार प्राप्त है।
- इसी प्रकार अनच्छेद 127 के अनसार किसी समय यदि न्यायालय के सत्रा (बैठक) को आयोजित करने अथवा चालू रखने के लिये आवश्यक गणपूर्ति नहीं हो तो ऐसी स्थिति में भारत का मख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति की सहमति से तथा उस उच्च न्यायालय के मख्य न्यायाधीश से परामर्श करने के पश्चात् जिसके कि किसी न्यायाधीश को वह उच्चतम न्यायालय का तदर्थ न्यायाधीश उस समय की अवधि तक के लिए जब तक कि गणपूर्ति न हो नियक्त करने का अधिकार रखता है।
- एक तदर्थ न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की सभी अधिकारिता, शक्तियाँ और विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं।
न्यायाधीशों की उन्मक्तियाँ एवं विशेषाधिकार
- भारत में सर्वोच्च न्यायालय को संविधान का संरक्षक बनाया गया है। न्यायाधीश अपना कार्य निष्पक्षता एवं स्वतंत्राता के साथ सम्पन्न करें, इस हेत उन्हें कछ विशेषाधिकार एवं उन्मक्तियाँ प्रदान की गयी हैं। इन्हें हम न्यायाधीशों की स्वतंत्राता निश्चित करने के साधन भी कह सकते हैं। ये निम्न हैं-
(i) किसी भी न्यायाधीश को केवल साबित कदाचार या असमर्थता के आधार पर संविधान द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनरूप ही पदच्यत किया जा सकता है अन्यथा नहीं।
(ii) किसी भी न्यायाधीश के वेतन, भत्तों, छट्टियों या अन्य सविधाओं में उसके कार्यकाल में कटौती नहीं की जा सकती। कटौती केवल अनच्छेद 360 के अधीन राष्ट्रपति द्वारा घोषित वित्तीय आपातकाल के दौरान ही की जा सकती है।
(iii न्यायाधीशों का वेतन भारत की संचित निधि पर भारित व्यय के अन्तर्गत आता है। इस पर संसद में मतदान नहीं किया जा सकता।
(iv) किसी भी न्यायाधीश के आचरण एवं कार्यों के संबंध में संसद में महाभियोग प्रस्ताव के अतिरिक्त किसी भी स्थिति में कोई चर्चा नहीं की जा सकती।
(v) न्यायाधीश अपनी सेवा निवृत्ति के पश्चात् भारत राज्यक्षेत्रा के किसी भी न्यायालय में अथवा किसी भी सरकारी अधिकारी के समक्ष वकालत नहीं कर सकते।
(vi) सर्वोच्च न्यायालय को अपने कार्यों को सचारू रूप से चलाने के लिये कर्मचारियों की नियक्ति में पूर्ण स्वतंत्राता प्रदान की गई है। इनकी सेवा-शर्तें भी इसी न्यायालय द्वारा निर्धारित की जाती हैं।
सर्वोच्च न्यायालय की कार्यविधि
- सर्वोच्च न्यायालय अपना कार्य किस प्रक्रिया के अनरूप करेगा, इस हेत कछ उपबन्ध तो संविधान में ही निर्धारित किये गये है तथा समय की आवश्यकतानसार संसद एवं न्यायालय को स्वयं ही अपनी प्रक्रिया संबंधी नियम निर्धारण की शक्ति भी प्रदान की गई है। सामान्यतः सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपनी कार्यवाही निम्न विधि द्वारा संचालित की जाती है-
संविधान में अनच्छेद 145 के अनसार-
(i) ऐसे विषय जिनका संबंध संविधान की व्यवस्था से हो या जिसमें संविधान की विधि के अभिप्राय (अर्थ) को समझने या उसकी व्याख्या करने संबंधी प्रावधान हो, एवं यदि इसमें कोई ऐसा विषय शामिल हो जिस पर विचार या निर्णय करने केे लिए राष्ट्रपति ने निर्देश दिये हों, ये संबंधित सनवाई सर्वोच्च न्यायालय के कम से कम 5 न्यायाधीशों की उपस्थिति में ही की जा सकेगी।
(ii) ऐसे विषयों या निर्णयों से संबंधित अपील सर्वोच्च न्यायालय के 5 से कम न्यायाधीशों के समक्ष उपस्थित नहीं की जा सकती है जिनमें कि सनवाई के पश्चात् यह विचार किया जाए कि उसमें संविधान की व्याख्या करने संबंधी या कानून के तात्विक रूप को स्पष्ट करने संबंधी प्रावधान है।
(iii) सर्वोच्च न्यायालय के सभी निर्णय खले न्यायालय में ही सनाये जाएंगे एवं प्रत्येक रिपोर्ट खले न्यायालय में सनाई गई राय के अनसार ही दी जाएगी।
(iv) सर्वोच्च न्यायालय के प्रत्येक निर्णय बहमत के आधार पर ही लिये जाएंगे। बहमत के निर्णय से असहमत उसी खण्ड के न्यायाधीश अपना पृथक निर्णय या राय दे सकते है लेकिन इससे बहमत के निर्णय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। बहमत का निर्णय ही प्रभावी माना जाएगा।
- लोकहित एवं राष्ट्रीय सरक्षा की दृष्टि से न्यायालय को अपने निर्णय सरक्षित रखने का भी अधिकार प्राप्त है। वह ऐसा प्रायः राष्ट्रपति की सहमति एवं परामर्श से ही करता है।
सर्वोच्च न्यायालय का प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार
- संविधान के अनच्छेद 131 में सर्वोच्च न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार का उल्लेख मिलता है। अध्ययन की सविधा की दृष्टि से इसे दो वर्गों में रखा जा सकता है-
(क) एकमेव प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार (ख) समवर्ती प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार।
(क) एकमेव प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार
- इस क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आने वाले विवादों के निराकरण की एकमात्रा शक्ति सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त है। इसके अन्तर्गत निम्न विषय आते है -
(i) भारत सरकार और एक या एक से अधिक राज्यों के बीच के विवाद [अनुच्छेद 131(5)]
(ii) एक ओर भारत सरकार और एक या अधिक राज्यों एवं दूसरी ओर एक राज्य या अधिक राज्यों के मध्य विवाद {अन. 131(ख)}; एवं
(iii) दो या दो से अधिक राज्यों के मध्य - ऐसे विवाद जिसमें कोई कानूनी (विधिक) अथवा तथ्य संबंधी कोई प्रश्न अन्तर्निहित हो तथा जिसके ऊपर किसी भी वैध अधिकार का अस्तित्व एवं विस्तार निर्भर हो और उसके संबंध में न्यायालय से निर्णय की याचना की गई है।
- उपर्यक्त विवाद केवल सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष ही उपस्थित किये जा सकते है, किसी भी अन्य न्यायालय के समक्ष नहीं।
(ख) समवर्ती प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार
- इस वर्ग में सर्वोच्च न्यायालय की वह शक्तियाँ शामिल हैजो उसे संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिकों के मौलिक अधिकारों को लागू करने के संबंध में प्राप्त है। इन शक्तियों का प्रयोग सर्वोच्च न्यायालय के साथ-साथ राज्यों के उच्च न्यायालयों द्वारा भी किया जा सकता है।
- संविधान के अनच्छेद 32(1) में सर्वोच्च न्यायालय को नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा का उत्तरदायित्व सौंपा गया है कि ”वह नागरिकों के मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिये समचित कार्यवाही करे।“
- इस हेत वह बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-प्रेच्छा आदि याचिकाएँ (रिटें) जारी कर सकता है।
- मूल अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में कोई भी नागरिक अपनी याचिका के साथ सर्वोच्च न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय में जा सकता है।
विशेष इजाजत से अपील
- अनच्छेद 136 के अधीन उच्चतम न्यायालय अपनी प्रेरणा से भारत के किसी न्यायालय या अधिकरण द्वारा किसी वाद या मामले में पारित किए गए या दिए किसी निर्णय, डिक्री, अवधारण, दण्डादेश या आदेश के विरद्ध अपील के लिए विशेष इजाजत दे सकता है। इसका केवल एक ही अपवाद है, वह यह कि इसे सशस्त्र बलों से सम्बद्ध किसी विधि के अधीन गठित किसी न्यायालय के निर्णय आदि से अपील की विशेष इजाजत नहीं दी जा सकती है।
- यह अनच्छेद उच्चतम न्यायालय को बड़ी विस्तृत शक्ति प्रदान करता है। इसके अन्तर्गत प्रदान की गयी शक्तियाँ उन विशिष्ट या अवशिष्ट शक्तियों की प्रकृति की है जो साधारण कानून (अन. 132 से 135) के अन्तर्गत साधारण अपील अधिकारिता से सम्बन्धित है, के बाहर प्रयक्त करने के लायक है, अर्थात् ऐसे मामलों में, जिनमें कानून की आवश्यकताएँ देश के उच्चतम न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप की माँग करती है।
अन. 136 और अन. 132 से 134 में अन्तर
- अन. 136 के अधीन उच्चतम न्यायालय उन परिसीमाओं में नहीं बँधा है जो अन. 132 से लेकर 134 तक के अनच्छेदों में उल्लिखित है।
- अनच्छेद 132-134 के अधीन-
(i) उच्च न्यायालय के केवल ‘अन्तिम आदेशो' के विरद्ध ही उच्चतम न्यायाल में अपील की जा सकती है, जबकि अनु. 136 के अधीन ‘आदेश’ शब्द के पहले ‘अन्तिम’ विशेषण छोड़कर यह ष्ट कर दिया गया है कि उच्चतम न्यायालय मामलों के बीच में दिये गये किसी अस्थायी आदेश ;प्दजमतसवबनजवतल व्तकमतद्ध के विरुद्ध भी अपील करने की विशेष इजाजत प्रदान कर सकता है।
(ii) उपर्युक्त अनुच्छेदों के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय में अपील केवल उच्च न्यायालयों के अन्तिम आदेश के विरुद्ध की जा सकती है जबकि अनु. 136 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय किसी भी न्यायालय या न्यायाधिकरण के निर्णय, आज्ञप्ति, निर्धारण, दंडादेश या आदेश के विरुद्ध अपील करने की विशेष इजाजत प्रदान कर सकता है; चाहे उस विवाद पर लागू होने वाला कानून उच्चतम न्यायालय में अपील करने की व्यवस्था करता हो या नहीं।
(iii) उपर्युक्त अनुच्छेदों के अधीन निर्णय आदि किन्हीं वाद में दिये होने चाहिये किन्तु अनु. 136 के अधीन किसी ‘वाद या विवाद’ में हो सकता है। इसके लिए यह भी आवश्यक नहीं कि अधीनस्थ न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की गयी हो। साधारण अपील-प्रक्रिया के अनुसार सर्वप्रथम अपील उच्च न्यायालय में करने के पश्चात् ही उच्चतम न्यायालय में की जा सकती है। किन्तु इसके अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय उच्च न्यायालय की उपेक्षा करके अधीनस्थ न्यायालय से सीधे अपील सुनने की विशेष इजाजत प्रदान कर सकता है। - उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि उच्चतम न्यायालय को विशद एवं अत्यन्त व्यापक स्वविवेकीय शक्ति प्रदान की गयी है। देश के सर्वोच्च न्यायालय को ऐसी शक्तियों का दिया जाना सर्वथा उचित है।
- अनु. 136 के अधीन उच्चतम न्यायालय किसी पक्षकार को साम्या ;मुनपजलद्ध के आधार पर अनुतोष प्रदान कर सकता है भले ही वह विधि के अधीन उनका हकदार न हो क्योंकि उच्चतम न्यायालय केवल विधि न्यायालय ही नहीं वरन् साम्या न्यायालय भी है। सामान्यतः इस अनुच्छेद के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय तथ्य के ‘समवर्ती निष्कर्षों’ में हस्तक्षेप नहीं करता है जब तक कि इसके लिए पर्याप्त कारण न हो।
- अनुच्छेद 136 द्वारा प्रदत्त शक्ति का प्रयोग उच्चतम न्यायालय को अधिकांशतः दांडिक विधियों में करना पड़ता है। दाण्डिक विषयों में उच्चतम न्यायालय तभी हस्तक्षेप करता है जब विशेष और आपवादिक परिस्थितियाँ मौजूद हों या यदि यह साबित हो गया हो कि पक्षकारों के साथ घोर अन्याय किये जाने की सम्भावना हो।
- अनुच्छेद 136 की शब्दावली अत्यन्त व्यापक है। इसके द्वारा प्रदत्त शक्ति के प्रयोग को किन्हीं तकनीकी नियमों से अवरुद्ध नहीं किया गया है। यह एक अभिभावी ;वअमततपकपदहद्ध और विशिष्ट शक्ति है जिसका प्रयोग बहुत कम करना चाहिये और केवल न्याय को बढ़ावा देने के लिए प्रयुक्त करना चाहिये।
- यह अनुच्छेद न्यायालय को वैवेकिक ;कपेबतमजपवदंतलद्ध शक्ति प्रदान करता है जिससे वह विशेष परिस्थितियों में भी साक्ष्य की जाँच कर सके और यह देख सके कि मामले में घोर अन्याय तो नहीं हो रहा है। अनुच्छेद 136 के अधीन प्राप्त न्यायालय की शक्ति व्यापक और पूर्ण है और उस पर अनुच्छेद 132, 133, 134 और 134 (क) का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
अभिलेख न्यायालय के रूप में सर्वोच्च न्यायालय
- संविधान के अनुच्छेद 129 में कहा गया है कि ”उच्चतम न्यायालय अभिलेख न्यायालय होगा और उसको अपने अवमानना के लिए दण्ड देने की शक्ति होगी।“
- अभिलेख न्यायालय उस न्यायालय को कहा जाता है जिसके कि अभिलेखों का साक्ष्य की दृष्टि से मूल्य हो और जब किसी अन्य न्यायालय में उन्हें पेश किया जाए तो उन पर कोई सन्देह नहीं किया जा सकता, न ही उसके निर्णयों पर एतराज ही किया जा सकता है।
- भारत में सर्वोच्च न्यायालय के अभिलेख न्यायालय होने के दो आशय है -
(i) इस न्यायालय के सभी अभिलेख साक्ष्य रूप में सब जगह स्वीकार्य होंगे तथा उनकी प्रामाणिकता के संदर्भ में कहीं भी किसी प्रकार का संदेह व्यक्त नहीं किया जाएगा।
(ii) इस न्यायालय द्वारा ”न्यायालय अवमानना“Contempt of Court) के लिए दण्ड दिया जा सकता है।
न्यायिक पुनर्विलोकन का अधिकार
- न्यायिक पुनर्विलोकन का सिद्धान्त भारत में अमेरिकी संविधान से ग्रहण किया गया है।
- न्यायिक पुनर्विलोकन से अभिप्राय है-
- न्यायालय द्वारा व्यवस्थापिका (संसद) और कार्यपालिका (मंत्राीपरिषद्) के कार्यों की वैधता की जाँच करना, अर्थात् यदि इनके द्वारा कोई ऐसा कानून बनाया गया अथवा लागू किया गया है जो संवैधानिक विधियों के विरुद्ध है तो उसे न्यायालय अवैध अथवा असंवैधानिक घोषित कर सकता है।
- यद्यपि संविधान में कहीं भी इस आशय का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है फिर भी अनेक ऐसे उपबन्ध है जिससे अप्रत्यक्ष रूप से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि संविधान द्वारा न्यायिक पुनर्विलोकन का अधिकार सर्वाेच्च न्यायालय को दिया गया है। संक्षेप में ये उपबन्ध निम्न है-
(i) संविधान के अध्याय 3 के मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत अनुच्छेद 13 में यह प्रावधान किया गया है कि यदि राज्य का कोई कानून मूल अधिकारों का उल्लंघन या अतिक्रमण करता है तो ह उसे अवैध घोषित कर सकता है। इसी अध्याय के अनुच्छेद 32 द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी नागरिक द्वारा अपने मूल अधिकारों के हनन हो जाने की स्थिति में न्यायालय की शरण लेने पर याचिकाएं निकालने एवं आदेश देने का भी अधिकार दिया गया है। इसी के तहत सर्वोच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों के संरक्षण के लिये कार्यपालिका और संसद द्वारा निर्मित कानूनों का भी पुनर्विलोकन कर सकता है।
(ii) संविधान के अनुच्छेद 246 के अन्तर्गत संघ एवं राज्यों की विधायी सीमाओं अर्थात् कानून निर्माण की सीमाओं का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। इस संबंध में न्यायालय अपने क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत संघ या राज्यों द्वारा निर्मित ऐसे कानूनों को जिसमें कि उनके द्वारा अपने अधिकारों की सीमाओं को तोड़ा गया है अवैध घोषित कर सकता है।
(iii) संविधान में यदि कोई संशोधन अनुच्छेद 368 में निर्धारित प्रक्रिया के अनुरूप न किया जाए तो भी न्यायालय उसे अवैध करार दे सकता है।
(पअ) ऐसे मामले जिनमें संविधान के किसी उपबन्ध या उसकी व्याख्या का प्रश्न निहित हो तब ऐसी स्थिति में उसे संवैधानिक मामलों पर निर्णय देने की अन्तिम शक्ति प्राप्त है।
- कहा जा सकता है कि न्यायिक पुनर्विलोकन की व्यवस्था द्वारा भारत में ब्रिटेन की भाँति संसदीय सर्वोच्चता स्थापित न करके संविधान की सर्वोच्चता स्थापित की गई है।
- गोपालन बनाम मद्रास राज्य विवाद, गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य विवाद, केशवानन्द भारती की याचिका, मिनर्वा मिल्स विवाद आदि में न्यायालय के निर्णय इसी सिद्धान्त पर आधारित थे।
उच्च न्यायालय का गठन, न्यायाधीशों की नियुक्ति, पदावधि, पद में रिक्ति, पद के लिए योग्यताएं
- भारत के सभी राज्यों के उच्च न्यायालयों का गठन एक ही प्रकार से होता है। संविधान के अनुच्छेद 216 के अनुसार प्रत्येक राज्य का उच्च न्यायालय मुख्य न्यायमूर्ति तथा अन्य न्यायाधीशों से मिलकर बनेगा। इनके अतिरिक्त राष्ट्रपति को न्यायालय के लिए निम्नलिखित नियुक्तियां करने का भी अधिकार प्राप्त है -
(i) उच्च न्यायालय के बकाया ;च्मदकपदहद्ध कार्य को निपटाने हेतु 2 वर्ष के लिए अतिरिक्त अस्थायी न्यायाधीश की नियुक्ति।
(i) मुख्य न्यायाधीश या किसी अन्य न्यायाधीश की अनुपस्थिति में अथवा किसी अन्य न्यायाधीश के मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्य सम्भालने पर अस्थायी तौर पर कार्यकारी न्यायाधीश की नियुक्ति का अधिकार।
न्यायाधीशों की नियुक्ति
- संविधान के अनुच्छेद 216 के अधीन उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
- इस प्रकार की नियुक्तियों में राष्ट्रपति भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से तथा संबंधित राज्य के राज्यपाल से और राज्यों के मुख्य न्यायाधीशों से भिन्न अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में राज्य के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श लेता है अनुछेद 217,।
पदावधि - उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु पूर्ण करने तक अपने पद पर बने रह सकते है। यह व्यवस्था संविधान के 15वें संशोधन अधिनियम, 1963 द्वारा की गई है। इससे पूर्व यह आयु 60 वर्ष निर्धारित थी। ख्अनुच्छेद 217, कार्यकारी न्यायाधीश तभी तक अपने पद पर रह सकते है जब तक कि स्थायी न्यायाधीश अपना कार्यभार पुनः न सम्भाल लें।
पद में रिक्ति
- संविधान के अनुच्छेद 217 के अधीन उच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश निम्न रीति से अपना पद रिक्त करेंगे -
(क) राष्ट्रपति को सम्बोधित अपने हस्ताक्षर-सहित लिखित त्याग पत्रा द्वारा,
(ख) राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त कर दिये जाने पर या किसी अन्य उच्च न्यायालय में स्थानान्तरित कर दिये जाने पर,
(ग) संविधान के अनुच्छेद 124 के अधीन उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने के लिए निर्धारित प्रक्रिया के अनुरूप अर्थात् साबित कदाचार या असमर्थता के आधार पर संसद के दोनों सदनों द्वारा उपस्थित सदस्यों के दो तिहाई बहुमत द्वारा पारित प्रस्ताव के पश्चात् राष्ट्रपति द्वारा।
पद के लिए योग्यताएँ
- संविधान के अनुच्छेद 217(2) में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में अर्हत (योग्य) होने के लिए निम्न योग्यताएँ होना आवश्यक है -
(क) वह भारत का नागरिक हो;
(ख) 62 वर्ष से कम आयु का हो;
(ग) भारत राज्य क्षेत्रा में कम से कम 10 वर्ष तक किसी न्यायिक पद पर कार्य किया हो।
(घ) किसी भी उच्च न्यायालय का या दो से अधिक न्यायालयों का कम से कम लगातार 10 वर्षों तक अधिवक्ता रहा हो।
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की स्वतंत्राता बनाए रखने हेतु संवैधानिक उपबंध
- सर्वोच्च न्यायालय की भांति ही उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी अपना कार्य ईमानदारी एवं स्वतंत्रातापूर्वक करें, इस हेतु संविधान द्वारा न्यायाधीशों की स्वतंत्राता बनाये रखने हेतु निम्न उपबन्ध किये गये है -
(i) किसी भी न्यायाधीश को अनुच्छेद 124 के अधीन निर्धारित प्रक्रिया के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार से पदच्युत नहीं किया जा सकता।
(ii) न्यायाधीशों के वेतन एवं भत्ते राज्य की संचित निधि पर भारित होंगे।
(iii) न्यायाधीशों के सेवाकाल के दौरान इनके वेतन, भत्तों, सुविधाओं तथा अवकाश प्रावधानों में किसी भी प्रकार से अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता। ऐसा केवल वित्तीय
पातकाल के दौरान ही किया जा सकता है।
(iv) सेवानिवृत्ति के पश्चात् वह उच्चतम न्यायालय के अतिरिक्त भारत में अन्य किसी भी न्यायालय या प्राधिकारी के समक्ष वकालत नहीं कर सकता।
(v) न्यायाधीशों की उनके निर्णयों एवं कार्यों के लिये संसद में या सार्वजनिक रूप से आलोचना करना न्यायालय की अवमानना समझा जाएगा।
उच्च न्यायालय के अधिकार
- प्रत्येक उच्च न्यायालय को संसद द्वारा उसके अधिकार क्षेत्रा में निर्धारित क्षेत्रों की सीमाओं के भीतर विवादों के निर्णय का अधिकार होेगा।
- इसके अन्तर्गत उच्च न्यायालय राज्य विधान मण्डल की विधि द्वारा निर्धारित अपनी शक्तियों का प्रयोग करेगा। सामान्यतः उच्च न्यायालयों द्वारा निम्न मामलों में निर्णय दिया जा सकता है -
(i) दीवानी एवं फौज़दारी के ऐसे मामले जिनसे संबंधित अपील उच्च न्यायालय में की गई हो।
(ii) फौज़दारी (दाण्डिक) के ऐसे मामले जहाँ अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा 7 वर्ष से अधिक का कारावास दण्ड दिया गया हो।
(iii) अपने अधीनस्थ जिला न्यायाधीशों के निर्णयों के विरुद्ध अपील ।
(iv) मौलिक अधिकारों को लागू कराने के लिये आदेश, निर्देश या रिटें जारी करना, जैसे - बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, अधिकार प्रेच्छा, प्रतिषेध तथा उत्प्रेषण।
(v) अधीनस्थ न्यायालयों का अधीक्षण करना अर्थात् उनके कार्यों की देखभाल करना।
(vi) अपने कर्मचारियों व अधीनस्थ न्यायालयों की पद्धति एवं कार्यवाहियों के विनियमन के लिए साधारण नियम बनाना एवं उन्हें जारी करना।
(viii) यदि उसे यह समाधान हो जाए कि किसी अधीनस्थ न्यायालय में लम्बित या विचाराधीन किसी मुकदमे में विधि का कोई सारवान प्रश्न निहित है तो वह ऐसे मामले स्वयं के विचारार्थ बुलवा सकता है और उसे स्वयं निपटा सकता है। - इस प्रकार उच्च न्यायालय राज्यों के शीर्ष न्यायालय है। लेकिन ये सर्वोच्च न्यायालय के अधीन रहकर ही कार्य करते है ।
उच्च न्यायालयों पर संघ का नियंत्राण एवं उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की तुलना में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की स्वाधीनता पर प्रभाव डालने वाले उपबंध
- संविधान ने कुछ महत्वपूर्ण मामलों में उच्च न्यायालय को संघ के नियंत्राण में रखा है जिससे कि वे प्रान्तीय राजनीति की परिधि से बाहर रहें। इसलिए यद्यपि उच्च न्यायालय राज्य की न्यायपालिका के शीर्ष पर है फिर भी वह राज्य सरकार से उतना ही विलग है जितना किसी अमरीकी राज्य का उच्च न्यायालय (जिसे वहां राज्य का उच्चतम न्यायालय कहते है )। भारत में उच्च न्यायालय पर संघ का नियंत्राण निम्नलिखित रूप से रखा जाता है -
(क) नियुक्ति अनुच्छेद 217),, एक उच्च न्यायालय से दूसरे को अन्तरण [ अनुछेद 222, और हटाया जाना ख्अनुच्छेद 217(1), परन्तुक], और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के रे में आयु का निर्धारण अनुछेद 217 (3),।
(ख) उच्च न्यायालयों की संरचना और गठन और दो या अधिक राज्यों के लिए एक ही उच्च न्यायालय स्थापित करने की शक्ति तथा उच्च न्यायालय की अधिकारिता का किसी संघ राज्यक्षेत्रा पर विस्तार करने या किसी संघ राज्यक्षेत्रा को उसकी अधिकारिता से अपवर्जित करने की शक्ति आदि सभी संघ की संसद् की अनन्य शक्तियां है । - मूल संविधान में पश्चात्वर्ती संशोधनों द्वारा कुछ उपबन्ध अन्तर्विष्ट किए गए है जो उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की तुलना में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की स्वाधीनता पर प्रभाव डालते है :
(क) 1956 में विद्यमान अनुच्छेद 224 के स्थान पर नया अनुच्छेद 224 लाया गया। इसमें यह उपबन्ध किया गया कि उच्च न्यायालय के कार्य में अस्थायी वृद्धि के कारण अपर न्यायाधीशों की नियुक्ति की जा सकेगी। इस प्रकार नियुक्त प्रत्येक न्यायाधीश दो वर्ष तक पद धारण करता है किंतु उक्त अवधि की समाप्ति के पहले उसे स्थायी किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय के लिए इसके समान कोई उपबन्ध नहीं है। यह उपबन्ध उच्च न्यायालयों के लिए इसलिए बनाया गया कि कार्य के बकाया की समस्या थी और यह आशा थी कि निकट भविष्य में यह समस्या समाप्त हो जाएगी। अब बकाया की समस्या स्थायी हो गई है और इसके लिए अनेकों अपर न्यायाधीश नियुक्त किए जा रहे है। अतएव अपर न्यायाधीशों की नियुक्ति की तत्कालीन व्यवस्था को बनाए रखने का कोई औचित्य नहीं है। इस युक्ति का दोष यह है कि अपर न्यायाधीश परिवीक्षाधीन तो होता ही है वह मुख्य न्यायमूर्ति और सरकार के दबाव में भी होता है क्योंकि वह यह नहीं जानता कि दो वर्ष बाद उसे स्थायी किया जाएगा या नहीं। जहां तक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की न्यायिक शक्ति का प्रश्न है प्रत्येक न्यायाधीश पीठ के दूसरे सदस्यों के समान पंक्ति में ही रहता है। यदि उसके ज्ञान, चेतना या प्रज्ञा के अनुसार मुख्य न्यायमूर्ति या पीठ के किसी अन्य ज्येष्ठ सदस्य से उसे सहमत नहीं होना चाहिए तो न्यायिक प्रशासन से संबंधित किसी सिद्धांत के अनुसार यह आशा नहीं की जा सकती कि वह सहमत हो। इसी प्रकार उससे यह आशा नहीं है कि यदि मामले के गुणागुण के आधार पर सरकार के विरुद्ध निर्णय देने की अपेक्षा हो तो वह न दे। दो वर्ष की समाप्ति के पश्चात् अपनी नौकरी खो देने का भय अपर न्यायाधीश पर प्रच्छन्न रूप से दबाव का काम करता है।
(ख) इसी प्रकार 1963 में अनुच्छेद 217 में खंड (3) अन्तःस्थापित किया गया था जिससे राष्ट्रपति को यह शक्ति दी गई कि यदि किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की आयु के बारे में कोई व्यक्ति कोई प्रश्न उपस्थित करता है तो राष्ट्रपति भारत के न्यायमूर्ति से परामर्श के पश्चात् उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की आयु अवधारित करेगा। 1963 के उसी संशोधन द्वारा (15वां संशोधन) अनुच्छेद 129 में खंड (2क) अन्तःस्थापित किया गया है जिसमें यह अधिकथित किया गया कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की आयु के बारे में इसी प्रकार के प्रश्न का अवधारण ऐसी रीति से किया जाएगा जो संसद् विधि द्वारा अवधारित करे। इस प्रकार उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की स्थिति उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश से अनावश्यक रूप से नीची हो गई है। यही नहीं वह अधीनस्थ न्यायिक अधिकारियों से भी नीची हो गई है क्योंकि यदि अधीनस्थ न्यायिक अधिकारी की आयु का अवधारण प्रशासन द्वारा होता है तो वह उस पर न्यायालय में आक्षेप कर सकता है किंतु उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की दशा में संविधान ने उसे अन्तिम कर दिया है। प्रकटतः ऐसा कोई कारण दिखाई नहीं देता कि अनुच्छेद 124 के खंड (2क) के समान कोई उपबन्ध अनुच्छेद 217 में प्रश्नगत खंड (3) के स्थान पर अन्तर्विष्ट नहीं किया जा सकता।