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राज्य की कार्यपालिका - भारतीय राजव्यवस्था | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

राज्यपाल के संबंध में सरकारिया आयोग की सिफारिश

  • राज्यपाल के रूप में नियक्त किये जाने वाले व्यक्ति को राज्य, जिसमें वह नियक्त किया जाये, के बाहर का व्यक्ति होना चाहिए तथा उसे राज्य की राजनीति में रचि नहीं रखना चाहिए।
  •  उसे ऐसा व्यक्ति होना चाहिए, जो सामान्य रूप से या वशेष रूप से नियक्त किये जाने के पहले राजनीति में सक्रिय भाग न ले रहा हो।
  •  राज्यपाल का चयन करते समय अल्पसंख्यक वर्ग के व्यक्तियों को समचित अवसर दिया जाना चाहिए।
  •  राज्यपाल के रूप में किसी व्यक्ति का चयन करते समय राज्य के मख्यमंत्राी से प्रभावी सलाह लेने की प्रक्रिया को संविधान में शामिल किया जाना चाहिए।
  • यदि राजनीतिक कारणों से किसी राज्य की संवैधानिक व्यवस्था टूट रही हो, तो राज्यपाल को यह देखना चाहिए कि क्या उस समय में विधानसभा में बहमत वाली सरकार का गठन हो सकता है।
  • यदि नीति सम्बन्धी किसी प्रश्न पर राज्य की सरकार विधानसभा में पराजित हो जाती है, तो शीघ्र चनाव कराये जा सकने की स्थिति में राज्यपाल को चनाव तक पराने मंत्रिमण्डल को कार्यकारी सरकार के रूप में कार्य करते रहने देना चाहिए।
  • यदि राज्य सरकार विधानसभा में अपना बहमत खो देती है, तो राज्यपाल को सबसे बड़े विरोधी दल को सरकार बनाने का आमंत्राण देना चाहिए और उसे विधानसभा में बहमत साबित करने का निर्देश देना चाहिए। यदि सबसे बड़ा दल सरकार गठित करने की स्थिति में न हो, तो राज्यपाल को राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश करनी चाहिए।

नियुक्त राज्यपाल क्यों?

  •  प्रारूप संविधान में योजना थी कि राज्यपाल निर्वाचित हो। किन्त संविधान सभा में इसके स्थान पर राष्ट्रपति द्वारा नियक्ति की व्यवस्था की गई जिसके लिए यह तर्क दिए गए: 

      (क) इससे देश को ऐसे निर्वाचन के दष्परिणामों से बचाया जा सकेगा जो व्यक्तिगत मद्दों के आधार पर हों। करोड़ों मतदाताओंवाले प्रांतों को व्यक्तिगत आधार पर लड़े जाने वाले निर्वाचनों में ढकेलने से देश की प्रगति पर बरा असर पड़ेगा।
     (ख) यदि राज्यपाल प्रत्यक्ष मत द्वारा निर्वाचित होगा तो वह अपने आपको मख्यमंत्राी से वरिष्ठ समझेगा क्योंकि मख्यमंत्राी तो एक ही निर्वाचन क्षेत्रा से चना जाता है। इसके कारण राज्यपाल और मख्यमंत्राी के बीच अनेकों बार संघर्ष होगा। संविधान द्वारा विहित संसदीय शासन प्रणाली के अधीन राज्यपाल सांविधानिक प्रधान होगा। वास्तविक कार्यपालिका शक्ति मंत्रिमंडल में निहित होगी जो विधान मंडल के प्रति उत्तरदायी होगा।
    (ग) निर्वाचन में जो धन व्यय होगा और जो तंत्रा लगेगा उसका राज्यपाल में निहित शक्तियों के साथ कोई अनपात नहीं होगा। राज्यपाल तो केवल सांविधानिक प्रधान है।
   (घ) वयस्क मत के आधार पर राज्य के राजनीतिक जीवन में सर्वोच्च पद पर निर्वाचित राज्यपाल चाहेगा कि वह वास्तविक शक्ति धारण करने वाला मख्यमंत्राी या मंत्राी बन जाये। सत्तारूढ़ दल स्वभावतः राज्यपाल के पद के लिए ऐसे व्यक्ति को खड़ा करेगा जो भावी मख्यमंत्राी की तलना में श्रेष्ठतर नहीं है। इसके फलस्वरूप राज्य को दल का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति नहीं मिल पाएगा। निर्वाचन की पूरी प्रक्रिया केवल इसलिए होगी कि दल में एक दूसरे दर्जे के व्यक्ति को राज्यपाल निर्वाचित किया जाए।
    (ङ) राष्ट्रपति द्वारा नियक्ति के माध्यम से संघ सरकार राज्यों पर अपना नियंत्राण बनाए रख सकेगी।
    (च) निर्वाचन की पद्धति से पृथकतावाद को बढ़ावा मिलेगा। देश के शासन तंत्रा की स्थिरता और एकता तभी रखी जा सकेगी जब हम नामनिर्देशन की प्रणाली स्वीकार करें।

राज्यपाल की विधायी शक्तियां

  • जिस प्रकार केन्द्र में राष्ट्रपति संसद का अंग होता है उसी प्रकार राज्यपाल राज्य विधान मण्डल का एक अविभाज्य अंग होता है।
  • संविधान के अनच्छेद 333 के अधीन राज्यपाल राज्य विधान सभा मेंआंग्ल भारतीय (एंग्लो इण्डियन) समदाय के सदस्यों को, यदि उन्हें विधानसभा में उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला हो तो, मनोनीत कर सकता है।
  • 23वेंसंविधान संशोधन अधिनियम 1969 द्वारा वह ऐसे केवल एक ही सदस्य को मनोनीत कर सकता है।
  • इसी प्रकार जिन राज्यों में  द्विसदनात्मक विधानमण्डल है वहां विधान परिषद् (राज्य विधानमण्डल का उच्च सदन) में राज्यपाल को सदस्यों को मनोनीत करने की शक्ति उसी प्रकार प्राप्त है जैसी कि राज्यसभा के संबंध में राष्ट्रपति को प्राप्त है।
  • वह ऐसे व्यक्तियों को, जो कि साहित्य, कला, विज्ञान, सहकारी आन्दोलनों एवं समाज सेवा में व्यावहारिक अनभव रखते हों, विधान परिषद् के सदस्य मनोनीत कर सकता है।
    यहां यह ध्यान देने योग्य है कि राज्यसभा के लिए निर्धारित विषयों में ‘सहकारी आन्दोलन’ विषय नहीं है।
  • राज्यपाल किसी भी सदस्य को अनच्छेद 181 में उल्लेखित शर्तों को पूरा न कर सकने की स्थिति में चनाव आयोग से सलाह करके सदन की सदस्यता के लिए अयोग्य घोषित कर सकता है।
  • राज्यपाल ही राज्य विधानमण्डल के सदस्यों, विधानसभा के अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष तथा विधान परिषद् के अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष को शपथ दिलवाता है तथा स्थायी अध्यक्ष की अनपस्थिति में कार्यकारी अध्यक्ष को मनोनीत करता है।
  • राज्यपाल राज्य व्यवस्थापिका के अधिवेशन बलाता है तथा स्थगित करता है।
  • राज्यपाल नई विधानसभा गठित होने के पश्चात् उसकी पहली बैठक मेंएक या दोनों सदनों  को सम्बोधित करता है अथवा आरंभिक भाषण देता है।
  • राज्यपाल को राज्य के निम्न सदन को विघटित करने की शक्ति प्राप्त है। ऐसा वह मख्यमंत्राी के परामर्श से कर सकता है।
  • राज्य विधानमण्डल द्वारा पारित कोई भी विधेयक तब तक कानून नहीं बन सकता जब तक कि उसे राज्यपाल की अनमति प्राप्त न हो जाए।
  • राज्यपाल विधेयकों को स्वीकृति देता है, स्वीकृति देने से इंकार भी कर सकता है तथा वह उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त करने के लिए सरक्षित भी रख सकता है।
  • वह किसी भी विधेयक को सझावों सहित विधान मण्डल को लौटा भी सकता है। परन्त यदि विधानमण्डल उन्हें पनः उसी रूप में पारित कर दे तो राज्यपाल को उन पर अपनी स्वीकृति प्रदान करनी ही पड़ती है।
  • कोई भी धन विधेयक उस समय तक विधानसभा में प्रस्तत नहीं किया जा सकता जब तक कि उसे पारित करने की अभ्यर्थना ((अनरोध) पर राज्यपाल के हस्ताक्षर न हों। इस प्रकार धन विधेयक राज्यपाल की अनमति से ही सदन में प्रस्तत किए जा सकते है।
  •  जब विधानमण्डल का अधिवेशन न चल रहा हो तब राज्यपाल को अध्यादेश जारी करने का अधिकार भी प्राप्त है। इन अध्यादेशोंका वही प्रभाव रहता है जैसा कि राज्य विधानमण्डल द्वारा पारित अधिनियमों का होता है।
  •  ये अध्यादेश विधानमण्डल के अधिवेशन प्रारम्भ होने के छः सप्ताह पश्चात् केवल उसी स्थिति में प्रभावशील रह सकेंगे जब कि विधानसभा उन्हें स्वीकृत कर दे।

राज्यपाल की स्वविवेकी शक्तियां

  • राज्यपाल को संविधान के अनच्छेद 166(3) के अधीन विवेकानसार कार्य करने की भी शक्ति प्राप्त है।
  • ऐसी स्थिति में जबकि विधानसभा में किसी भी दल को स्पष्ट बहमत प्राप्त न हो तब राज्यपाल अपने विवेक से किसी ऐसे व्यक्ति को, जो उसकी नजर में स्थायी सरकार का गठन कर सकता है, मख्यमंत्राी नियक्त कर सकता है।
  • ऐसे संघ क्षेत्रों का प्रशासन जिसके लिए राष्ट्रपति द्वारा उसे नियक्त किया गया है अपने अधिकारोंका प्रयोग वह मंत्रिपरिषद् की सलाह के वगैर स्वविवेक से करता है।
  • संविधान की छठी अनसूची के उपबंध 9(2) के अनसार असम का राज्यपाल अपने विवेक के अनसार असम राज्य के खनिजों की अनकूलता से उत्पन्न होने वाले स्वामित्व के लिए रकम निर्धारित कर जिला परिषद् को देगा।
  • अनच्छेद 317(2) के अधीन राष्ट्रपति आदेश दे सकता है कि महाराष्ट्र एवं गजरात के राज्यपाल अपने राज्यों के किन्हीं विशेष क्षेत्रों के विकास के लिए कोई विशेष कदम उठाएं।
  • अनच्छेद 317(1)(क), जिसे कि 1962 के संविधान संशोधन द्वारा शामिल किया गया, के अनसार राष्ट्रपति द्वारा नागालैण्ड के राज्यपाल को उस समय तक के लिए जब तक कि उस राज्य में विद्रोही नागाओं के कारण आन्तरिक अशान्ति बनी है अपने स्वविवेक से उसके लिए विधि या व्यवस्था निर्धारित करने का अधिकार दिया गया है।
  • इसी प्रकार 1971 में अनच्छेद 317(1)(ग) में शामिल प्रावधान के अधीन राष्ट्रपति द्वारा मणिपर के राज्यपाल को उस राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों से निर्वाचित सदस्यों से मिलकर बनने वाली राज्य की विधानसभा की सूची का उचित कार्यकरण सनिश्चित करने का दायित्व भी सौंपा गया है।
  • इसी प्रकार 36वें संशोधन अधिनियम द्वारा सिक्किम के राज्यपाल को दायित्व दिया गया है कि ”शान्ति के लिए और सिक्किम राज्य की जनता के विभिन्न विभागोंकी सामाजिक और आर्थिक उन्नति सनिश्चित करने के लिए“ कार्य करें।

राज्यपाल की अध्यादेश जारी करने की शक्ति

  • अनच्छेद 213 के अंतर्गत राज्यपाल को भी राष्ट्रपति की ही भाँति अध्यादेश जारी करने की शक्ति प्राप्त है।
  • अनच्छेद 213 यह उपबंधित करता है कि जब राज्य का विधान मण्डल सत्रा में नहीं है और राज्यपाल को इस बात का समाधान हो जाता है कि ऐसी परिस्थितियाँ विद्यमान है जिनमें तरन्त कार्यवाही अपेक्षित है, तो वह ऐसे अध्यादेश जारी कर सकेगा जो उन परिस्थितियों में आवश्यक प्रतीत होते हों। जिन राज्यों में दो सदन है, वहाँ दोनों सदनों को सत्रा मेंनहीं होना चाहिए।
  •  अध्यादेश जारी करने के लिए परिस्थितियाँ है या नहीं, इस बात का अन्तिम निर्णय राज्यपाल का होता है। न्यायालय मेंइसको चनौती नहीं दी जा सकती है कि इसके लिए समचित आधार थे या नहीं। परन्त राज्यपाल अपनी इस शक्ति का प्रयोग मंत्रिपरिषद की सहायता और परामर्श से करता है, अपने विवेक से नहीं। इसके अतिरिक्त भी राज्यपाल की इस शक्ति पर कछ सीमाएँ है -
    (i) जब दोनों सदनों की बैठक हो तो अध्यादेश उनके समक्ष रखा जाना चाहिए, अन्यथा सत्रा आरम्भ होने के 6 सप्ताह पश्चात् अध्यादेश निष्प्रभावी हो जाएगा। यदि इसे सदन स्वीकृति दे दे तो यह प्रभावी रहेगा। राज्यपाल किसी भी समय अध्यादेश वापस ले सकता है।
    (ii) राज्यपाल की अध्यादेश जारी करने की शक्ति राज्य विधान मण्डल की शक्ति की सह-विस्तारी है। राज्यपाल केवल उन्हीं विषयोंपर अध्यादेश जारी कर सकता है जिन पर विधान-मण्डल विधि-निर्माण कर सकता है; जैसे- (क) राज्य-सूची, (ख) समवर्ती-सूची के विषय। समवर्ती-सूची पर राज्य एवं केन्द्र दोनोंको विधि-निर्माण का अधिकार है, किन्त केन्द्र द्वारा उस विषय पर बनाये गये कानून की परिधि के अंतर्गत ही राज्य के कानून की मान्यता होगी।
  •  अन. 213(3) के अनसार एक अध्यादेश उस सीमा तक अवैध होगा जिस सीमा तक राज्य के विधानमण्डल द्वारा विधि-निर्माण अवैध हो जाता है। किन्त यदि अध्यादेश राष्ट्रपति के निर्देशों के अनसार राज्यपाल द्वारा जारी किया गया है, तो वैध होगा।
  •  यद्यपि राज्यपाल को राष्ट्रपति की ही भांति अध्यादेशों के जारी करने की शक्ति प्राप्त है, किन्त इस संबंध मेंराज्यपाल की इस शक्ति पर कछ ऐसी सीमाएँ लगाई गई है जो राष्ट्रपति की शक्ति पर नहीं है। निम्न मामलोंमेंराज्यपाल राष्ट्रपति के निर्देश के बिना कोई भी अध्यादेश जारी नहीं करेगा- 

(अ) जिस विधेयक को विधानमण्डल में पेश करने से पूर्व राष्ट्रपति की स्वीकृति लेनी पड़ती है, उस विषय पर अध्यादेश जारी करने से पूर्व राज्यपाल को राष्ट्रपति से निर्देश लेना पड़ता है।
(ब) राज्यपाल जिन विषयोंपर राष्ट्रपति का विचार लेना आवश्यक समझता है, उस विषय पर अध्यादेश जारी करने के पूर्व वह राष्ट्रपति से परामर्श करेगा।
(स) राज्य के विधानमण्डल द्वारा पारित अधिनियम जिसमेंवही प्रावधान होते जिस पर राष्ट्रपति की स्वीकृति की अनपस्थिति में अवैध हो जाता, यदि उसे राज्यपाल द्वारा आरक्षित न किया गया होता। इस प्रकार जारी किये गये अध्यादेश का वही बल और प्रभाव होगा जो राज्य के विधानमण्डल द्वारा पारित एक अधिनियम का होता है।

  •  राज्यपाल द्वारा जारी किया गया अध्यादेश अन. 226 के अंतर्गत उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये किसी भी निर्णय पर अभिभावी (over-ride) कर सकता है।

राष्ट्रपति और राज्यपाल की क्षमादान शक्ति की तुलना

  •  भारत के संविधान में क्रमशः अनच्छेद 72 और 161 क
  • मख्यमंत्राी ही राज्य नीति का प्रवक्ता एवं राज्य का मख्य शासन संचालक होता है।
  • समस्त राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था का निरीक्षण करता है।

 

 मंत्रिपरिषद और राज्यपाल के संबंधों की समीक्षा

  • सामान्यतया राज्यों में मन्त्रिापरिषद् और राज्यपाल के सम्बन्ध वही है जो केन्द्र में केन्द्रीय मन्त्रिामण्डल तथा राष्ट्रपति के है। किन्त राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियोंमेंएक महत्वपूर्ण अन्तर है और वह यह कि संविधान में राष्ट्रपति को अपने ‘विवेक’ (discretion) से कछ करने की शक्ति नहीं प्रदान की गयी है जबकि कछ परिस्थितियों में राज्यपाल अपने स्वविवेक से कछ कार्य कर सकता है।
  •  अन. 173 यह उपबन्धित करता है कि जिन बातों में उससे संविधान के उपबन्धों के अनसार या अपने विवेक से कार्य करने की अपेक्षा की जाती है, उसको छोड़कर राज्यपाल को अपने कृत्योंका निर्वहन करने में सहायता और मन्त्राणा देने के लिए मन्त्रिापरिषद् होगी, जिसका प्रधान मख्यमन्त्राी होगा। इस प्रश्न की किसी न्यायालय मेंजाँच नहीं की जाएगी कि क्या मन्त्रिायों ने राज्यपाल को कोई सलाह दी और यदि दी तो क्या दी।
  • उपर्यक्त उपबन्ध से यह स्पष्ट है कि जहाँ पर राज्यपाल को अपने विवेकानुसार निर्णय देना है, वहाँ पर वह मन्त्रिापरिषद् के परामर्श के अनुसार कार्य करने को बाध्य नहीं है तथा मन्त्रिापरिषद् के परामर्श की कोई आवश्यकता नहीं है। खण्ड (2) में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि यदि कोई प्रश्न उठता है कि क्या कोई विषय ऐसा है जिस पर राज्यपाल को संविधान के अनुसार विवेक से कार्य करना है, तो इस प्रश्न पर राज्यपाल का निर्णय ही अन्तिम होगा। राज्यपाल द्वारा किये गये किसी कृत्य की वैधता पर इस आधार पर कोई आपत्ति नहीं की जायेगी कि उसे स्वविवेक का उपयोग करना चाहिये था अथवा नहीं।
  • संविधान राज्यपाल के विवेकाधिकार की कहीं पर व्याख्या नहीं करता है। इससे एक प्रश्न यह उठता है कि क्या वास्तव में राष्ट्रपति की तरह ही राज्यपाल भी मात्रा सांविधानिक प्रधान है, जिसे मन्त्रिापरिषद् के परामर्श से ही सारे कार्य करनेहै और उसके पास कोई वास्तविक शक्ति नहीं है या वास्तविक कार्यपालिका-शक्ति उसी में निहित है?
  • संसदीय प्रणाली में मन्त्रिापरिषद् अपने कार्यों के लिए राज्य विधान सभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है तथा गवर्नर उसके परामर्श के अनुससार कार्य करने के लिए बाध्य होता है। इस स्थिति में यह आशंका निर्मूल हो जाती है कि राज्यपाल मन्त्रिापरिषद् के परामर्शों की अवहेलना कर सकेगा।
  • उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि जहाँ कहीं संविधान में राष्ट्रपति और राज्यपाल के ‘व्यक्तिगत समाधान’ शब्दावली का प्रयोग किया गया है - उनका वास्तविक अर्थ है, मन्त्रिापरिषद् का समाधान। यह राष्ट्रपति और राज्यपाल का वैयक्तिक समाधान नहीं है।
  • राज्यपाल अपने ‘विवेक’ के अनुसार केवल उन्हीं विषयों में कार्य कर सकता है जिनमें उससे संविधान द्वारा या उसके अन्तर्गत ऐसा करने को स्पष्ट रूप से कहा गया है।
  • संविधान की अनुसूची 6 के अनुच्छेद 9 (2) तथा 18 (3), अनु. 371 । (i) (b) और (d) तथा (2) (b) और (f), अनु. 239 के अधीन असम की जनजातियों के प्रशासन के सम्बन्ध में राज्यपाल को अपने स्वविवेक का प्रयोग करने का स्पष्ट रूप से उल्लेख है।
  • सामान्यतया वह एक सांविधानिक प्रधान की हैसियत से मन्त्रिापरिषद् के परामर्शानुसार कार्य करेगा, किन्तऐसी परिस्थितियों में वह सांविधानिक एवं प्रभावी रूप से अपने विवेक का प्रयोग कर सकता है जहाँ पर मन्त्रिापरिषद् तथा उसके बीच किसी मामले पर मतभेद उठ खड़ा हुआ हो। इस बात में उसका निर्णय अन्तिम होना इस बात का द्योतक है कि राज्यपाल उन विषयों पर मन्त्रिापरिषद् की राय के बिना परिस्थितियों के अनुसार अपने विवेक से कार्य कर सकता है, भले ही उनका संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लेख न किया गया हो।
  • ऐसी परिस्थितियाँ, जिनमें राज्यपाल अपनी वैवेकिक शक्ति का प्रयोग कर सकता है, निम्नलिखितहै - 
     ( 1) मुख्यमन्त्राी की नियुक्ति,
    ( 2) मन्त्राी को अपदस्थ करना,
    (3) विधान सभा को भंग करना,
    ( 4) अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत राष्ट्रपति को संकटकालीन स्थिति की घोषणा करने की सिफारिश करना।

 

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FAQs on राज्य की कार्यपालिका - भारतीय राजव्यवस्था - भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi

1. भारतीय राजव्यवस्था में राज्य की कार्यपालिका क्या होती है?
उत्तर: भारतीय राजव्यवस्था में, राज्य की कार्यपालिका राज्य सरकार का सबसे उच्च निष्पादन संगठन होती है। इसमें राज्य के मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों का सम्मिलन होता है। यह संगठन राज्य के कानूनों और नीतियों के पालन के लिए जिम्मेदार होता है और राज्य के विभागों के प्रशासनिक और कार्यान्वयनिक कार्यों को निर्देशित करता है।
2. राज्य की कार्यपालिका के क्या कार्य होते हैं?
उत्तर: राज्य की कार्यपालिका के प्रमुख कार्यों में नीतियों और कानूनों के निष्पादन का सुनिश्चय करना, राज्य के विभागों के बजट और संसाधनों का प्रबंधन करना, सार्वजनिक क्षेत्र में सेवाओं के प्रदान को सुनिश्चित करना, सार्वजनिक विपणन और विपणन नीतियों का प्रबंधन करना, और राज्य के विकास कार्यक्रमों का निर्माण और प्रबंधन करना शामिल होता है।
3. राज्य की कार्यपालिका किसे नियुक्त करती है?
उत्तर: राज्य की कार्यपालिका राज्य सरकार द्वारा नियुक्त की जाती है। राज्य के मुख्यमंत्री राज्य की कार्यपालिका के प्रमुख होते हैं और उनके मंत्रिमंडल के सदस्य भी इसमें शामिल होते हैं। यह संगठन चुनाव द्वारा चयनित नहीं होता है, बल्कि यह निर्वाचित नेताओं द्वारा नियुक्त की जाती है।
4. राज्य की कार्यपालिका का प्रमुख नियंत्रण कौन करता है?
उत्तर: राज्य की कार्यपालिका का प्रमुख नियंत्रण मुख्यमंत्री के पास होता है। मुख्यमंत्री को कानूनी और प्रशासनिक अधिकार होते हैं और वे कार्यपालिका के सभी निर्णयों को निर्देशित और नियंत्रित करते हैं। यह उनकी जिम्मेदारी होती है कि राज्य की कार्यपालिका नीतियों और कानूनों का पालन करे और संभावित अनुचितताओं को दूर करे।
5. भारतीय राजव्यवस्था में राज्य की कार्यपालिका का महत्व क्या है?
उत्तर: भारतीय राजव्यवस्था में राज्य की कार्यपालिका का महत्व बहुत अधिक होता है। यह संगठन राज्य के विकास और प्रगति के लिए जिम्मेदार होता है और राज्य के नागरिकों को सेवाएं प्रदान करने का कार्य संपादित करता है। यह सुनिश्चित करता है कि राज्य के कानूनों और नीतियों का पालन होगा और राज्य के संप्रभुत्व की रक्षा होगी।
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