वैदिक काल
समाज- वैदिक काल
- वैदिक काल का तादात्म्य वेदों एवं आर्यों से है।
- आर्य शब्द का अर्थ वैदिक काल में ”विदेशी“ अथवा अजनवी से था जिसका अभिप्राय नवागंतुकों से था। कालान्तर में आर्य शब्द श्रेष्ठता का द्योतक हो गया।
- आर्यों के द्वारा स्थापित संस्कृति का विभाजन दो कालों में किया गया है-
;पद्ध ऋग्वैदिक काल-ऋग्वेद से सम्बन्धित-1500 ई. पू. से 1000 ई. पू.
;पपद्ध उत्तर वैदिक काल-यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषदों से सम्बन्धित 1000 ई. पू. से 600 ई. पू.
- ऋग्वेद में आर्य एक भाषा-भाषी समुदाय का सूचक है।
- आर्य भारत के मूल निवासी रहे हों अथवा नवागन्तुक, उनके कार्य व्यापार का प्रथमतः क्षेत्रा ”सप्त सैन्धव“ प्रदेश था।
- आर्यों की अवस्थिति के सीमाकंन का प्रयास ऋग्वेद के अन्तःसाक्ष्यों पर आधारित नदियों एवं स्थलों के तादात्म्य से सम्भव हुआ।
- हिमालय का स्पष्ट उल्लेख मिलता है, जिसके मुजवन (सम्भवतः काश्मीर घाटी के दक्षिणी पश्चिमी भाग में स्थित) नामक चोटी से सोमरस की प्राप्ति का विवरण मिलता है।
- वैदिक साहित्य में 31 नदियों का उल्लेख मिलता है जिसमें से 25 ऋग्वेद में ही उल्लिखित है। नदी-स्तुति के रूप में उल्लिखित इन नदियों में अधिकांश सिंधु की सहायक नदियाँ है।ऋग्वेद में पंजाब की 5 नदियों-शतुद्रि, विपासा, परुष्णी, आस्किन, वितस्ता (जिनका आधुनिक नाम क्रमशः सतलज, व्यास, रावी, चिनाव एवं झेलम है। का कई बार उल्लेख मिलता है। सभी सिन्धु से बायीं ओर मिलती हैं।
- नदी-स्तुति में विपासा का उल्लेख नहीं है, उसकी जगह मलतबृधा (सम्भवतः कश्मीर का मरुवर्धन) का उल्लेख है।
- गंगा (1 बार, ) यमुना (3 बार), सरयू (1 बार) एवं सरस्वती (कई बार) आदि नदियों का उल्लेख सिन्धु पेटी से बाहर के रूप में हुआ है।
- सरस्वती जो कि यमुना व शतुद्रि के मध्य स्थित थी और अब रेगिस्तान में लुप्त हो चुकी है, सबसे चर्चित व पवित्रा नदी थी। यह अरब सागर में जा मिलती थी।
- सिन्धु से दायीं ओर मिलने वाली नदियों में कुर्म, गोमती, सुवास्तु (आधुनिक नाम क्रमशः काबुल, गोमुल एवं स्वात) प्रमुख थीं।
- ऋग्वैदिक सप्त सैन्धव का तादात्म्य क्षेत्रा विशेष से है जिसका समीकरण ”सात नदियों“ वाले क्षेत्रा में निहित है। मैक्स मूलर महोदय ने इन सात नदियों की पहचान शतुद्रि, विपासा, परुष्णी, आस्किन, वितस्ता, सरस्वती एवं सिन्धु से किया है।
- कीथ एवं कतिपय अन्य पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार ऋग्वेद में ”समुद्र“ का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता, सम्भवतः समुद्र की जानकारी नहीं थी, परन्तु मैक्समूलर, सीमर एवं लारोन आदि विद्वानों के अनुसार वैदिक आर्यों को समुद्र का ज्ञान था।
- ऋग्वैदिक आर्यों का भौगोलिक क्षेत्रा आधुनिक अफगानिस्तान, पश्चिमी सीमा प्रान्त, काश्मीर, सिन्ध का कुछ भाग, पूर्व में यमुना तक का क्षेत्रा (स्पष्टतया, गंगा का ज्ञान अवश्य था परन्तु पूर्व में आर्यों ने गंगा को शायद ही लांघा हो) और दक्षिण में सम्भवतः राजस्थान तक (राजस्थान के दक्षिण नहीं क्योंकि विंध्य श्रृंखला का उल्लेख नहीं) विस्तृत था।
- ऋग्वैदिक समाज ”पितृ सत्तात्मक“ व्यवस्था पर आधारित था।
- समाज दो वर्णों में विभक्त था, आर्य एवं दस्यु। इस वर्णीय विभाजन का आधार प्रजातीय एवं सांस्कृतिक था। प्रजातीय अन्तर के रूप में दस्यु वर्ण के लोग ”अनास-चपटी नाक वाले थे“ जबकि सांस्कृतिक अन्तर के रूप में दस्यु वर्ण ”शिश्नदेवाः अर्थात्“ लिंग पूजक थे।
हिन्दू विवाह के प्रकार
i) ब्रह्म विवाहः किसी कन्या का समान वर्ण या जाति के किसी पुरुष के साथ कन्या-मूल्य चुकाकर विधि-पूर्वक किया गया विवाह।
ii) दैव विवाहः इस प्रकार के विवाह में पिता किसी पुरोहित को उसके धार्मिक अनुष्ठान कार्य सम्पन्न किये जाने पर पारिश्रमिक के रूप में अपनी कन्या समर्पित करता था।
iii) आर्ष विवाहः इस प्रकार के विवाह में वर द्वारा कन्या-मूल्य के रूप में एक जोड़ी गाय व बैल, कन्या के पिता को प्रदान किया जाता था।
iv) प्रजापत्य विवाहः कन्या का पिता बिना दहेज और बिना किसी कन्या-मूल्य के अपनी पुत्री का विवाह योग्य वर के साथ करता था।
v) आसुर विवाहः इस विवाह में कन्या को उसके पिता से मूल्य चुकाकर खरीद लिया जाता था। सभी धार्मिक-ग्रंथों में इसे अनुचित बताया गया है।
vi) गान्धर्व विवाहः एक दूसरे से आपसी सहमति के आधार पर प्रेम-सम्बन्ध स्थापित करने वाले स्त्री-पुरुष द्वारा विवाह-बंधन में बंध जाना; इसके लिए सामाजिक मर्यादाओं तक का उल्लंघन श्लाघनीय समझा जाता था। आधुनिक युग में इसी का बदला हुआ स्वरूप ‘प्रेम विवाह’ है।
vii) राक्षस विवाहः पराजित राज्य की कन्या से या अपहरण की हुई कन्या से किया गया विवाह, जो विशेष कर योद्धा-वर्ग के लिए शक्ति-प्रदर्शन का द्योतक था। धार्मिक ग्रंथों द्वारा इसकी कड़ी निन्दा की गयी है।
viii) पैशाच विवाहः सोती हुई स्थिति में अथवा मानसिक रूप से असामान्य या विक्षिप्त कन्या को गुमराह कर अनुचित शारीरिक सम्पर्क स्थापित करना ‘पैशाच विवाह’ कहा जाता था। धर्म-ग्रंथों द्वारा इसकी भी भत्र्सना की गयी है।
- समाज में पुरुषों की प्रधानता थी फिर भी नारियों की स्थिति सम्मानजनक थी।
- पुत्रा के जन्म की कामना की जाती थी जबकि कन्या के जन्म की कामना नहीं की जाती थी परन्तु जन्म पर उचित सम्मान दिया जाता था।
- सामान्यतया ”एकपत्नीवाद“ अपनाया गया परन्तु बहुपत्नीवाद का उदाहरण अप्राप्य नहीं है। बहुपतिवाद का उदाहरण नहीं मिलता।
- स्त्रियों की शिक्षा की उचित व्यवस्था थी, वयस्क विवाह होता था, साथ ही वर के चयन की छूट थी। बाल विवाह का उल्लेख नहीं मिलता जबकि ”विधवा विवाह“ के बारे में अस्पष्टता है। सती प्रथा का प्रचलन नहीं था, जबकि नियोग प्रथा के प्रचलन का संकेत मिलता है।
- समाज में ”दास प्रथा“ का आविर्भाव हो चुका था पर दासत्व की प्रकृति भिन्न थी।
- ऋग्वेद के मंत्रों में कृषि तथा ”पशुपालन“ का उल्लेख मिलता है, परन्तु ”पशुपालन“ को प्राथमिकता दी गयी है और सर्वत्रा ”पशुधन वृद्धि“ की प्रार्थना की गयी है।
- गाय सबसे महत्वपूर्ण पशु थी जबकि बैल, भैंस से आर्यों का परिचय भारत की धरती पर ही हुआ।, भेड़, बकरी, गधा, घोड़ा, कुत्ता अन्य उल्लेखनीय पशु थे। भ®स से आर्यों का परिचय भारत की धरती पर ही हुआ।
- सम्पत्ति का आकलन पशुधन से होता था।
- ”जुते हुए खेत“ के लिए ”उर्वरा“ या ”क्षेत्र“ शब्द प्रयुक्त है।
- 6, 8, 12 बैलों से चलने वाले हलों का उल्लेख मिलता है।
- सिंचाई का भी उल्लेख है एवं सिंचाई का प्रमुख साधन कुंआ था, जबकि झील से भी सिंचाई होती थी।
- हानिकारक कीटों, अतिवृष्टि, अनावृष्टि की भी सूचना मिलती है।
- ”यव“ शब्द का प्रयोग ”अनाज“ के अर्थ में हुआ है, ”धान्य“ शब्द भी प्रयुक्त हुआ है।
- समाज में व्यापार व वाणिज्य भी प्रचलित था और व्यापार का माध्यम ”वस्तु विनिमय“ था। सिक्के नहीं चलते थे परन्तु ”गाय“ एक मौद्रिक इकाई के रूप में व्यापार का प्रमुख माध्यम थी।
- सामुद्रिक व्यापार की स्पष्ट जानकारी नहीं है पर ज्यादातर विद्वान इससे सहमत है।
- प्रमुख पेशेवर लोगों में रथकार (तत्क्षण), कर्मकार, हिरण्यकार (सुनार), जुलाहे, नाविक, वैद्य, अनाज पीसने वाले आदि प्रमुख थे।
- मुख्य रूप से दो तरह के वस्त्रो का प्रयोग होता था, अधोवó-नीवि एवं ऊपरी वó-अधिवास। ऊनी वस्त्र सर्वाधिक प्रचलित था, परन्तु सूती कपड़ों का भी प्रयोग होता था। कसीदा किए गये वर्णों का भी उल्लेख मिलता है।
- आभूषण पुरुष व स्त्री दोनों धारण करते थे। वे मणियों से परिचित थे। ऋग्वेद में ”मणिग्रीवा“ शब्द प्रयुक्त है। प्रमुख आभूषणों में कर्णशोधन (कान), निष्क-खादी (हाथ पैर), रुष्म (वक्ष) थे।
- खाद्य सामग्री में दूध व उससे बनी वस्तुओं की बहुलता थी। ”क्षीर, घृत एवं दधि“ का विस्तृत उल्लेख मिलता है। ”सोम“ एक पवित्रा पेय था। शहद (मधु) का भी प्रयोग होता था। ”सोम“ के साथ धार्मिक प्रवृत्ति जुड़ी प्रतीत होती है, जबकि ”मधु“ का प्रयोग सुरा (शराब) के अर्थ में भी मिलता है।
- गाय पूज्य व अवध्या थी जबकि भेड़ एवं बकरी का माँस व्यापक तौर पर प्रयोग किया जाता था। अश्वमेध यज्ञ में घोड़े के माँस को भी ग्रहण किया जाता था।
- राजनैतिक संस्थानों का विकास-क्रम ”कुल-ग्राम“, विश, जन-राष्ट्र (राज्य) के रूप में हुआ। परिवार सबसे छोटी इकाई थी जिसका प्रमुख ”गृहपति“ (मुखिया) होता था।
- राज्य का आधार भौगोलिक सीमा न थी।
- राज्य का प्रमुख ”राजन्“ (राजा) था-वह युद्ध के समय सेना का संचालन करता था, समस्त प्रशासन प्रमुख था, मुख्य न्यायाधीश था एवं स्वयं अदण्ड्य परन्तु अन्य लोगों के दण्ड का निर्धारक था।
- तत्कालीन राज्य का परिकेन्द्रण बड़ा सरल स्पष्ट होता है। अधिकारियों की संख्या कम थी और ”पुरोहित“, सेनानी तथा ”ग्रामिणी“ मुख्य अधिकारी थे।
- राजा स्वेच्छाचारी नहीं था, परन्तु उसका पद वंशानुगत होने लगा था।
- सभा एवं समिति नामक दो महत्वपूर्ण संस्थाओं द्वारा लोग ”राजा“ के ऊपर नियंत्राण रखते थे। ऋग्वेद में यह स्पष्ट उल्लिखित है कि राज्य की समृद्धि के लिए राजा व समिति के बीच सामंजस्य होना आवश्यक था।
- ”सभा“-संभ्रांत व श्रेष्ठ लोगों की सीमित संस्था थी।
- समिति-जन सामान्य की संस्था। इसका आधार व्यापक दिखाई पड़ता है, इसमें अधिक लोगों की भागीदारी दृष्टिगत होती है। राजा व समिति के मध्य अच्छे सम्बन्ध हेतु प्रार्थनाएं की जाती थी।
- तत्कालीन परिवेश में युद्ध एक अपरिहार्य आवश्यकता थी। आर्यों में भी परस्पर युद्ध होने लगे थे। इन युद्धों-का प्रमुख कारण ”पशु धन“ (विशेषकर गाय-) हुआ करते थे। परन्तु अपनी वर्चस्वता के लिए भी युद्ध होने लगे थे जिनमें-”दसराज्ञ“ युद्ध उल्लेखनीय है।
- राज्य द्वारा कोई ”कर“ आरोपित नहीं था, परन्तु जन सामान्यतया ”बलि“ नामक कर राजा को देती थी। यह कर अनाज के भाग के रूप में-या गाय के रूप में-पूर्णतया स्वैच्छिक था।
- ऋग्वैदिक धार्मिक विश्वासों-के बारे में ऋग्वेद में-विस्तृत विवरण भरा पड़ा है क्योंकि मूलतः ऋग्वेद ही ”स्तुतियों“ के रूप में-एक संहिता है।
- ऋग्वैदिक आर्यों की उपासना व धार्मिक विश्वास का आधार प्रकृति के विभिन्न तत्व व उनकी स्थिति थी। प्रकृति के विभिन्न शक्तियों-की ही पूजा की जाती थी जबकि मूर्ति पूजा एवं मंदिर का कोई संकेत नहीं मिलता है।
- ऋग्वैदिक आर्य अपने देवों-को मनुष्यों के हावभाव के तरह ही समझते थे परन्तु ऋग्वैदिक देवमण्डली आदर्शोन्मुख है।
- ऋग्वैदिक देव मण्डली में-पुरुष देवों-की प्रधानता है और देवमण्डली तीन वर्गों में-बंटी दिखाई देती है-
1. आकाश के देवता- सूर्य, वरुण
2. अन्तरिक्ष के देवता- इन्द्र, यम, रुद्र, मरुत
3. पृथ्वी के देवता-अग्नि, सोम
- देवियों की स्थिति देव-पत्नियों के रूप में ही प्रतीत होती है। ”ऊषा“ का देवियों में सर्वोपरि स्थान था। पृथ्वी, द्युति आदि अन्य देवियाँ थीं।
- देवमण्डली में देवताओं का वर्गीकरण दो रूपों में मिलता है-
1. प्रकृत्या भले व कल्याणकारी देव
2. सामान्यतया क्रुद्ध दिखने वाले एवं शीघ्र ही कुपित होने वाले देव
- वैदिक आर्य दोनों प्रकृति के देवताओं को प्रसन्न करने में प्रयत्नशील दिखता है-उदार देवताओं को खुश रखने की चेष्टा उनके कल्याणकारी कृत्यों के प्रत्युपकार की भावना से युक्त होकर यज्ञों के माध्यम से की जाती थी, जिसमें अग्नि से अपेक्षा की गयी कि वे सम्बन्धित देवता को उनका अंश पहुंचा देंगे। अनुदार देवताओं को प्रसन्न करने के लिए उनको दी जाने वाली भेंट अग्नि के माध्यम से न देकर वृक्षों व चैराहों पर खुले में ही रखकर समर्पित की जाती थी।
- ऋग्वैदिक धर्म में ”यज्ञ“ का महत्व तो परिलक्षित होता है, पर वह परवर्ती यज्ञों जैसा दूरुह न होकर कर्मकाण्डरहित व सहज था। यज्ञ गृहपति स्वयं कर लेता था, पेशेवर पुरोहितों की आवश्यकता नहीं थी।
- ऋग्वैदिक मंत्रों में इहलौकिक सुख के लिए ही प्रार्थना मिलती है, जिसमें पशुधन, पुत्रा-रत्न, दीर्घायु, उचित स्वास्थ्य हेतु प्रार्थनाएं है। पारलौकिक अस्तित्व के लिए स्तुति नहीं की गयी है और न ही आर्य मोक्ष के लिए चिंतित दिखते है।
- ऋग्वैदिक आर्यों को उनका प्रत्यक्ष संसार पसन्द था, अस्तु उनमें निराशावादी स्वरों का आगम नहीं दिखता। उनके धार्मिक चिन्तन व विश्वास में दार्शनिक बोझिलता का अभाव है।
- ऋग्वैदिक आर्य बहुदेववादी होकर भी अन्ततः सभी देवों को एक ही शक्ति के प्रतीक के रूप में मान्यता देते प्रतीत होते है।