बौद्ध धर्म
- ईसा पूर्व छठी शताब्दी में उत्तर भारत के मध्य गंगा घाटी क्षेत्रा में अनेक धार्मिक सम्प्रदायों का उदय हुआ। इन अनेक मतों एवं दर्शनों के प्रादुर्भाव ने बौद्धिक क्रांति का रूप ग्रहण किया। ये धार्मिक-बौद्धिक आन्दोलन पुरातन जीवन दर्शन के विरोध में चल रहे थे।
- इन आन्दोलनों के अनेक सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं वैचारिक कारण थे। इनकी मूल दिशा वैदिक परम्परा की धार्मिक तथा सामाजिक मान्यताओं तथा जीवन प्रणाली के अनेक तत्वों जो केवल रूढ़ि बनकर रह गये थे और सामाजिक विकास में बाधक सिद्ध होने लगे थे, के विरोध की ओर उन्मुख थी।
- इन धार्मिक सम्प्रदायों ने पुरातन वैदिक-ब्राह्मण धर्म के अनेक दोषों पर प्रहार किया, इसीलिए इनको सुधारवादी आन्दोलन भी कहा गया।
- इन आन्दोलनों के सूत्राधार क्षत्रिय थे जबकि इनको व्यापक समर्थन वैश्यों ने दिया। इनके अनुगामी सभी वर्णों के लोग रहे।
- इन धार्मिक आन्दोलनों की वैधानिक पृष्ठभूमि ‘उपनिषदों’ ने पूर्णतया तैयार कर दी थी।
- इन विभिन्न आन्दोलनों में बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म ही व्यापक जनाधार बना पाया।
- बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध (सिद्धार्थ) थे।
- गौतम बुद्ध का जन्म 563 ई. पू. के लगभग कपिलवस्तु के निकट ‘लुम्बिनी’ वन में शाक्यों के एक गणतंत्रा के प्रमुख शुद्धोदन के यहाँ हुआ था। माता का नाम महामाया था।
- जन्म के 7वें दिन माता का देहान्त हो जाने से पालन पोषण मौसी महाप्रजापति गौतमी ने किया था।
- गौतम ने 29 वर्ष की आयु में गृह परित्याग किया जिसे ‘महाभिनिष्क्रमण’ कहा जाता है। सांसारिक दुख उन्मूलन के लिए ज्ञान की खोज की उत्कट् इच्छा से सिद्धार्थ अनेक आचार्यों के पास गए। इन आचार्यों में प्रमुख थे ‘आलार कालाम’ तथा ‘रुद्रक रामपुत्रा’।
- गौतम उरुबेला में कौडिण्य आदि 5 ब्राह्मणों के साथ घोर तपस्या की परन्तु तपस्या की निरर्थकता का आभास कर ‘सुजाता’ नामक कन्या से भोजन ग्रहण किया, परिणामतः ब्राह्मणों ने साथ छोड़ दिया।
- गौतम ने एक वट वृक्ष के नीचे समाधि लगाया और आठवें दिन उन्हें ज्ञान (बोधि) प्राप्त हुआ और अब वे ‘बुद्ध’ कहलाने लगे।
- ‘सारनाथ’ में उन्हीं ब्राह्मणों को जो कि ‘उरुवेला’ में छूट गए थे, बुद्ध ने अपने ज्ञान का प्रथम उपदेश दिया जो कि ”धर्म चक्र प्रवर्तन“ के नाम से विख्यात है।
स्मरणीय तथ्य
• धर्म-शास्त्रः मूल ग्रंथों का बहृत् विश्लेषण। बाद के काल में बने इन ग्रंथों में मनु (मानव धर्मशास्त्र या मनु स्मृति दूसरी या तीसरी सदी ई. में रचे गए) का शास्त्र एवं अन्य प्रमुख शास्त्र याज्ञवल्क्य, विष्णु तथा नारद के थे। ये गुप्त काल से मध्य युग तक संकलित किए गए।
• विष्णु का धर्मशास्त्र गद्य में है, जबकि अन्य सभी पद्य में हैं।
• ब्रह्मावर्तः सरस्वती तथा दृषद्वती के बीच का क्षेत्र।
• ब्रह्मर्षिदेशः कुरूक्षेत्र, पांचाल, मत्स्य एवं सूरसेन को मिलाकर।
• मध्यदेशः हिमालय, विन्ध्य एवं सरस्वती तथा प्रयाग के मध्य के भाग।
• आर्यावर्तः दो पर्वतों तथा दो समुद्रों के बीच का स्थल।
- 80 वर्ष की आयु में (483 ई. पूर्व) गौतम बुद्ध का महापरिनिर्वाण कुशीनगर में हुआ।
- बौद्ध धर्म के त्रिरत्न हैं: बुद्ध, धर्म तथा संघ।
- बौद्ध धर्म के मूलाधार ‘चार आर्य सत्य’ है। धर्म के सारे सिद्धान्त तथा बाद में विकसित विभिन्न दार्शनिक मत-वादों के ये ही आधार हैंः
1. दुःख (संसार दुःखमय है)
2. दुःख समुदाय (दुःख का कारण है: इच्छा, तृष्णा)
3. दुःख निरोध (दुःख का निरोध सम्भव है, तृष्णा उन्मूलन)
4. दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा (दुःख निवारक मार्ग)
- दुःखों के निवारण हेतु 8 मार्गों को इसने प्रस्तुत किया, जो ‘अष्टांगिक मार्ग’ के नाम से प्रचलित है:
1. सम्यक् दृष्टि 2. सम्यक् संकल्प
3. सम्यक् वाणी 4. सम्यक् कर्म
5. सम्यक् जीवन 6. सम्यक् व्यायाम
7. सम्यक् स्मृति 8. सम्यक् समाधि
- जीवन का अन्तिम लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति है और अष्टांगिक मार्ग के अनुशीलन से व्यक्ति निर्वाण की ओर अग्रसर होता है।
- अष्टांगिक मार्ग के अन्तर्गत अधिक सुख-पूर्ण जीवन यापन अथवा अत्यधिक काया-क्लेश दोनों की वर्जना की गयी है और मध्यम प्रतिपदा (मार्ग) अपनाने हेतु उपदेशित किया गया है।
- बौद्ध धर्म मूलतः अनीश्वरवादी है। इसके अनुसार संसार का रचयिता ईश्वर नहीं है। बुद्ध ने ईश्वर के स्थान पर मानव प्रतिष्ठा पर बल दिया है।
- बौद्ध धर्म में आत्मा की परिकल्पना भी नहीं है। आत्मा शाश्वत या चिरस्थायी तत्व नहीं है। मनुष्य के अवसान के साथ ही व्यक्ति की आत्मा भी समाप्त हो जाती है।
- बौद्ध धर्म में पुनर्जन्म की मान्यता है, फलतः कर्म-फल का सिद्धान्त भी मान्य है। परन्तु कर्म-फल को अगले जन्म में ले जाने वाला माध्यम आत्मा नहीं है। कर्म फल चेतना के रूप में पुनर्जन्म का कारण होता है।
- जिस तरह दुःख समुदाय का कारण जन्म है, उसी तरह ‘जन्म’ का कारण अज्ञानता का चक्र है। यही अज्ञानता कर्म फल को उत्पन्न करती है। इस ‘अज्ञानरूपी चक्र’ को ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ कहा जाता है। ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ का अर्थ है: ”इसके होने से यह उत्पन्न होता है।“
- इस अज्ञान चक्र (प्रतीत्यसमुत्पाद) के 12 क्रम है जो एक दूसरे को उत्पन्न करने का कारण है। ये हैं: 1. अविद्या 2. संस्कार 3. विज्ञान 4. नामरूप 5. षडायतन 6. स्पर्श 7. वेदना 8. तृष्णा 9. उपादान 10. भय 11. जाति 12. जरा-मरण।
- जीवन चक्र के इन 12 कारणों में से प्रथम दो (अविद्या, संस्कार) पूर्व जन्म से सम्बन्धित है तथा अन्तिम दो (जाति, जरा-मरण) भावी जीवन से और शेष वर्तमान जीवन से।
- जीवन-मरण का चक्र मृत्यु के साथ समाप्त नहीं होता वरन् मृत्यु तो केवल नवीन जीवन के प्रारम्भ होने का कारण मात्रा है।
- इस अज्ञान चक्र (प्रतीत्यसमुत्पाद) का अंत अविद्या के अंत से ही सम्भव है और ‘ज्ञान’ ही अविद्या का उच्छेद करके व्यक्ति को निर्वाण की ओर ले जा सकता है।
- बौद्ध दर्शन ‘क्षण-भंग-वाद’ (प्रतीत्यसमुत्पाद पर ही आधारित) के सिद्धान्त को प्रस्तुत करता है। संसार की प्रत्येक वस्तुओं की उपस्थिति एवं अस्तित्व विशिष्ट परिस्थितियों एवं कारणों पर निर्भर है, इसीलिए सभी वस्तुएं अस्थायी है (कारण विशेष के रहते ही समाप्त)। इसी सिद्धान्त से आत्मा की क्षण- भंगुरता भी सिद्ध होती है।
बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित 5 महाचिन्र्ही अथवा प्रतीक
घटना चिन्ह/प्रतीक ज्ञान पीपल (बोधिवृक्ष)
जन्म कमल व सांड़ निर्वाण पद चिन्र्ही
गृहत्याग घोड़ा मृत्यु स्तूप
- निर्वाण की प्राप्ति मनुष्य को जरा-मरण के चक्र से छुटकारा देती है।
- बौद्ध दर्शन अनेक पेचीदे प्रश्न जैसे संसार नित्य तथा शाश्वत है अथवा नहीं, आत्मा तथा परलोक जैसे अनेक मुद्दों पर मौन रहा है।
- निर्वाण प्राप्ति के लिए सदाचार तथा नैतिक जीवन पर बुद्ध ने अत्यधिक बल दिया है। नैतिक जीवन के आधार के रूप में 10 शीलों का प्रणयन किया है-1. अहिंसा, 2. सत्य, 3. अस्तेय (चोरी न करना), 4. अपरिग्रह, 5. ब्रह्मचर्य, 6. सुगन्धित वस्तुओं का त्याग, 7. असमय भोजन का त्याग, 8. आरामदायक शय्या का त्याग, 9. नृत्य, संगीत इत्यादि का त्याग, 10. स्वर्ण एवं स्त्रियों का त्याग।
- निर्वाण जीवन काल में ही प्राप्त किया जा सकता है जबकि महापरिनिर्वाण मृत्यु के बाद ही सम्भव है।
- बौद्ध संघ का संगठन गणतांत्रिक प्रणाली पर आधारित था जहाँ विनय एवं नीति के आधार पर संचालन होता था तथा कोई ऊंच-नीच का भाव न था। संघ में प्रविष्ट होने को ‘उपसम्पदा’ कहा जाता था। चोर, हत्यारे, ऋणी व्यक्ति, राजा के सेवक, दास तथा रोगी व्यक्ति का संघ में प्रवेश वर्जित था।
- आनंद के बहुत आग्रह पर नारियों को संघ में प्रवेश मिल सका था।
- गृहस्थ जीवन में रहकर धर्म को मानने वाले को ‘उपासक’ कहा जाता था, जबकि गृहस्थ जीवन से परे रहने वाले ‘भिक्षु’ कहलाए।
- बौद्ध धर्म के सम्पूर्ण विचार पालि भाषा में त्रिपिटक में संगृहीत है-
पहला भाग-सुत्तपिटक (बुद्ध के उपदेशों का संकलन)
दूसरा भाग-विनयपिटक (भिक्षु संघ के लिए नियम)
तीसरा भाग-अभिधम्मपिटक (धम्म सम्बन्धी दार्शनिक विवेचन)
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1. बौद्ध धर्म का इतिहास क्या है? |
2. बौद्ध धर्म के सिद्धांत क्या हैं? |
3. बौद्ध धर्म की मुख्य शाखाएं कौन-कौन सी हैं? |
4. बौद्ध धर्म के प्रमुख स्थल कौन-कौन से हैं? |
5. बौद्ध धर्म का महत्व क्या है? |
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