UPSC Exam  >  UPSC Notes  >  भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi  >  भारत में सामाजिक एवं आर्थिक न्याय - भारतीय राजव्यवस्था

भारत में सामाजिक एवं आर्थिक न्याय - भारतीय राजव्यवस्था | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

I.     सामाजिक एवं आर्थिक न्याय क्या है?
 II.    भारत में सामाजिक-आर्थिक न्याय; संवैधानिक संकल्पना
 III.     भारत में सामाजिक-आर्थिक न्याय; न्यायपालिका की भूमिका  
 IV.    व्यावहारिक स्थिति


सामाजिक एवं आर्थिक न्याय क्या है?

भारत में सामाजिक एवं आर्थिक न्याय - भारतीय राजव्यवस्था | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi

न्यायव्यवस्था

  •  न्याय के तीन व्यापक आयाम है - राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक। लोकतंत्रा के अन्तर्वेक्षण से, न्याय के अर्थ का इतना विस्तार हो गया है कि अब इसके अन्तर्गत मानव जीवन के सभी क्षेत्रा आ जाते है ।
  • सामाजिक न्याय का सम्बन्ध व्यक्ति के अधिकारों - और सामाजिक नियंत्राण के मध्य संतुलन से है, ताकि मौजूदा कानूनों के अधीन व्यक्ति की आशाओं - की पूर्ति को सुनिश्चित किया जा सके। सतही धरातल पर देखने से यह लग सकता है कि सामाजिक न्याय व्यक्ति के कुछ अधिकारों - को समाज की बलिवेदी पर न्यौछावर करना चाहता है, परन्तु व्यापक परिप्रेक्ष्य में - सामाजिक न्याय के विचार का उद्देश्य न केवल व्यक्ति और समाज के उद्देश्यों के मध्य  उपयुक्त सामंजस्य बैठाना है या इनमें विरोध की स्थिति में समाज के हित को अधिमान्यता प्रदान करना है, बल्कि यह सामाजिक परिवर्तन के महायज्ञ का एक आवश्यक अंग है जिसके लिए ‘बहुजन समाज’ के हित की खातिर किसी वस्तु की कुर्बानी देनी पड़ेगी।
  • परन्तु एफ. ए. हायक Law, Legislation and Liberty, Chicago, 1976)  जैसे विद्वान इसे अवसरों की समानता (Equality of Opportunities)  के सिद्धान्त के विरुद्ध मानते है। हायक का विचार है कि जब राज्य द्वारा सभी को समान सुविधाएं प्रदान की जाती है तो सामाजिक न्याय के नाम पर जो कुछ किया जाता है, वह न केवल अन्यायपूर्ण है, वरन् शब्द के वास्तविक अर्थों में अत्यधिक गैर सामाजिक भी है। हायक का मानना है कि सामाजिक न्याय के सारे मामलों में सबसे बड़ा खतरा यह है कि यदि इसका हठपूर्ण ढंग से अनुसरण किया गया तो सर्वाधिकार की स्थिति आ जाएगी, क्योंकि यह अपेक्षा करता है कि लोगों के सामाजिक और आर्थिक जीवन में राज्य की अधिकाधिक जबरदस्ती हो।
  • आर्थिक न्याय (Economic Justice) सामाजिक न्याय का ही सहगामी तत्व है। आर्थिक न्याय की संकल्पना के रूप में स्वतंत्राता का समस्त विचार ही राजनीति के क्षेत्रा को व्यापक बना करके आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में पदार्पण करता है। यह कहा जाता है कि यदि स्वतंत्राता आर्थिक न्याय प्राप्त करने में बाधक है तो यह निरर्थक है। एक भूखे अथवा ऐसे व्यक्ति के लिए जिसे मानव-गरिमा से वंचित रखा गया है राजनीतिक स्वतंत्राता एक खोखला शब्द है।
  • सरल शब्दों में, आर्थिक न्याय की संकल्पना का मूल मंतव्य यह है कि आर्थिक मूल्यों के आधार पर लोगों के मध्य कोई विभेद न किया जाए। सकारात्मक शब्दों में, इसका यह अभिप्राय है कि किसी कृत्रिम आधार पर किए गए भेदभाव के बिना काम करने पर उपयुक्त भुगतान किया जाए। यह सामान्य कल्याण की परिस्थितियों के अधीन उत्पादन और वितरण के क्षेत्रों में सबके लिए स्वतंत्राता की अपेक्षा करता है। साथ ही यह, यह भी माँग करता है कि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को इस प्रकार का स्वरूप प्रदान किया जाए कि जन सामान्य को इससे अधिकाधिक लाभ प्राप्त हो। इस रूप में आर्थिक न्याय के विचार का निहितार्थ ‘समाज का समतावादी ढाँचा’ (Social Structure Based on Equality) हो जाता है। इस नजरिए से देखने पर विज्ञान और औद्योगीकरण के आधुनिक युग में आर्थिक न्याय एक महत्वपूर्ण संकल्पना बन जाती है। चूँकि नियोजन के माध्यम से सामाजिक हित में वृद्धि का सामान्य प्रयास किया जा रहा है, अतएव राज्य का यह दायित्व है कि वह विकासशील समाज की माँगों तथा कानून एवं न्याय के परम्परागत मानकों के मध्य सामंजस्य स्थापित करे। इस प्रकार, लोकहित में निजी सम्पत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण और निजी क्षेत्रा की वृद्धि व भूमिका पर उपयुक्त सीमाएं आरोपित करने जैसे महत्वपूर्ण विषय उभरकर सामने आते है।

भारत में सामाजिक-आर्थिक न्याय; संवैधानिक संकल्पना

  •  भारतीय संविधान की प्रस्तावना सुस्पष्ट शब्दों में घोषित करती है कि संविधान के माध्यम से ‘भारत के लोग’ अन्य चीजों के अतिरिक्त सामाजिक और आर्थिक न्याय प्राप्त करने के लिए कृतसंकल्प है। संविधान सभा में प्रस्तुत जिस मूल प्रस्ताव में सामाजिक-आर्थिक न्याय की चर्चा की गई, उसके बारे में - संविधान सभा के सदस्यों - में - दो प्रकार के दृष्टिकोण थे।
  •  पहला दृष्टिकोण यह था कि ‘सामाजिक-आर्थिक न्याय’ वाक्यांश को इस प्रकार से विनिर्मित किया जाना चाहिए कि इससे समाजवाद के सिद्धान्त को स्पष्ट रूप से अंगीकार किए जाने का बोध हो।
  •  इस दृष्टिकोण को व्यक्त करते हुए डाॅ. भीमराव अम्बेडकर ने कहा, ”यदि यह प्रस्ताव यथार्थ है और ईमानदारी के भाव से युक्त है जिसके द्वारा राज्य सामाजिक और आर्थिक न्याय की प्रतिस्थापना करने में - सक्षम हो सके तो प्रस्ताव में यह स्पष्ट रूप से उल्लिखित होना चाहिए कि सामाजिक और आर्थिक न्याय की स्थापना के लिए भूमि और उद्योगों - का राष्ट्रीयकरण किया जाएगा . . . . मेरी समझ में - नहीं आता समाजवादी अर्थव्यवस्था के अभाव में - कोई भी भावी सरकार किस प्रकार सामाजिक आर्थिक न्याय की स्थापना कर पाएगी।“
  •  दूसरे दृष्टिकोण के समर्थकों - का मानना था कि संविधान सभा को विचारधारा के स्तर पर किसी आर्थिक नीति को संविधान का हिस्सा बनाने का अधिकार ही नहीं प्राप्त है। उनका सोचना यह था कि संवैधानिक ढाँचे में - किसी आर्थिक नीति का समावेशन पूरे ढाँचे को कठोरता प्रदान कर सकता है और इसे अव्यावहारिक बना सकता है। अल्लादि कृष्णस्वामी अय्यर का विचार था कि संविधान में - किसी आर्थिक नीति का नहीं, वरन् किसी प्रगतिशील समाज के लिए आवश्यक विकास और सामंजस्य के तत्वों - का समावेश होना चाहिए।
  •  ‘सामाजिक-आर्थिक न्याय’ वाक्यांश पर चर्चा करते हुए प्रस्ताव के प्रस्तोता पं. नेहरू ने कहा, ”. . . . . यदि हम स्पष्ट रूप से यह कहें - कि हम एक समाजवादी राज्य की स्थापना करना चाहते है तो यह कुछ लोगों - को तो स्वीकार हो सकता है, परन्तु कुछ को अस्वीकार और हम इस प्रस्ताव को विवादास्पद नहीं बनाना चाहते। अतएव हमने सैद्धान्तिक शब्द और फार्मूले को प्राथमिकता न देकर, मन्तव्य को प्राथमिकता दी है“।
  •  नेहरू की उपर्युक्त सामाजिक-आर्थिक न्याय से सम्बन्धित वाक्यांश को बिना किसी संशोधन के पारित कर दिया गया।
  •  इस प्रकार यह सहज ही स्पष्ट है कि भारतीय संविधान के निर्माताओं - द्वारा सामाजिक-आर्थिक न्याय की अवधारणा को एक लक्ष्य के रूप में - अपनाया गया है। संविधान का भाग-3, जिसमें - मौलिक अधिकारों - की चर्चा की गई है तथा भाग-4, जिसमें - नीति-निर्देशक तत्वों - का उल्लेख है, इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है। दोनों - की आधार-भूमि एक ही है। ये दोनों - ही अध्याय व्यक्ति के न्यूनतम् अधिकारों - और स्वतंत्राताओं, विशेष रूप से उन वर्गों की जो वंचित रहे है, की रक्षा के लिए राज्य को उत्प्रेरित करते है। यथार्थ में - इन दोनों - का लक्ष्य एक ही है। उदाहरण के लिए संविधान का अनु. 14, प्रत्येक व्यक्ति को ‘विधि के समक्ष समानता’ और ‘विधि के समान संरक्षण’ (Equal protection of law )  प्रदान करता है, परन्तु इस अधिकार का समाज के उस तबके के लिए कोई ज्यादा अर्थ नहीं है जिसका वर्षों से शोषण होता रहा है। इसी प्रकार 
  • अनु. 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्राता के अधिकार की चर्चा करता है। परन्तु भूखमरी का शिकार कोई व्यक्ति इस बहुमूल्य स्वतंत्राता का कैसे प्रयोग कर सकता है अनु. 19 तमाम व्यक्तिगत  स्वतंत्राताओं की चर्चा करता है, परन्तु रोटी, कपड़ा और मकान से वंचित व्यक्ति के लिए इसका कोई अर्थ नहीं है। इसी प्रकार अनु. 17 अस्पृश्यता का निषेध करता है, परन्तु जातिग्रस्त समाज (Caste-ridden Society)  में इसका कोई अर्थ नहीं है। इसी प्रकार अनु. 23 एवं 24, जिनका सम्बन्ध शोषण के विरुद्ध अधिकार (Right against Exploitation)से है, को व्यवहार में लागू करने के लिए समुचित विधियाँ चाहिए।
  •  कहने का अभिप्राय यह है कि भाग-3 में दिए गए मौलिक अधिकारों के न्याय-योग्य (Justiciable)   होने के बावजूद, कोई भी व्यक्ति इनकी प्राप्ति तभी कर सकता है जब उसके पास न्यूनतम् भौतिक संसाधन उपलब्ध हों, श्रेष्ठता का प्रश्न अस्तित्व बनाए रखने के बाद ही उठता है। यह सोच हमें सहज ही सामाजिक-आर्थिक अधिकारों के कहीं विस्तृत प्रतिमान की ओर उन्मुख करती है जिनकी विस्तृत चर्चा संविधान के भाग-4 में की गई है।
  •  अनु. 38 स्पष्ट रूप से राज्य पर यथासम्भव प्रभावशाली ढंग से जनमानस के कल्याण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था के निर्माण का दायित्व आरोपित करता है जिससे जीवन के सभी क्षेत्रों में न्याय की स्थापना हो सके।
  •  अनु. 39 इसकी विधिवत व्याख्या करता है तथा उन सिद्धान्तों की विवेचना करता है जिनका अनुसरण राज्य द्वारा किया जाना चाहिए। अनु. 39-क द्वारा राज्य को समाज के कमजोर वर्गों को कानूनी सहायता उपलब्ध कराने हेतु निर्देशित किया गया है। अनु. 39 (ख) और (ग) के तहत् राज्य को यह निर्दिष्ट है कि आर्थिक नीतियों का निर्धारण इस प्रकार से हो कि पूँजी का संकेन्द्रण कुछ ही हाथों में न हो जाए।
  • अनु. 41 द्वारा राज्य को ”काम के अधिकार“ को व्यावहारिक रूप देने के निमित्त समुचित प्रावधान करने हेतु निर्देशित किया गया है।
  • अनु. 42 के तहत् राज्य का यह दायित्व है कि वह कार्य की उचित एवं मानवीय स्थितियों का निर्माण करे और मातृत्व काल में समुचित सुविधाएं उपलब्ध कराए। अनु. 43 के अन्तर्गत राज्य नागरिकों को जीविकोपार्जन हेतु समुचित वेतन उपलब्ध कराने हेतु कृतसंकल्प है।
  • संविधान निर्माता भारत में नागरिकों के प्रति उत्तरदायी और कर्तव्यपरायण राज्य की स्थापना करना चाहते थे जिसके माध्यम से सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन (Socio-economic Change) का मार्ग प्रशस्त हो। नीति निर्देशक तत्वों जैसी व्यवस्था को संविधान में समाहित करने के पीछे उनकी दृष्टि यही थी कि एक सामंती तथा वर्गीय हितों पर Class-interests) आधारित सामाजिक व्यवस्था को समाप्त कर सामाजिक-आर्थिक न्याय पर अवलम्बित नए समाज का निर्माण किया जाए। यथास्थिति को भेदकर वे शोषणरहित समाज की स्थापना के पक्षधर थे।

भारत में सामाजिक-आर्थिक न्याय; न्यायपालिका की भूमिका 

  • भारतीय संविधान के समग्र ढाँचे के अन्तर्गत न्यायपालिका को सिर्फ विवादों के निबटारे का ही नहीं, वरन् सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन का भी वाहक माना गया है। इसे मूलभूत मानवाधिकारों की रक्षा तो करनी ही होती है साथ ही कमजोर वर्गों तथा आम आदमी को सामाजिक-आर्थिक न्याय उपलब्ध कराने के उद्देश्य से निर्मित विधियों और कार्यपालकीय परियोजनाओं के क्रियान्वयन को रक्षित करके सामाजिक- आर्थिक क्रांति का मार्ग प्रशस्त करना भी इसका दायित्व है।
  •  उल्लेखनीय है कि सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन लाने के उद्देश्य से निर्मित प्रत्येक विधि का विद्यमान सामाजिक व्यवस्था (Existing Social System)  के प्रतिमानों और निहित स्वार्थों से संघर्ष होता है। दूसरे शब्दों में, लोकतांत्रिक सरकार द्वारा वर्गों के मध्य निरंतर चैड़ी होती खाई को भरने के लिए जो सामाजिक-आर्थिक उपाय किए जाते है (वे चाहे विधियों के रूप में हों या सरकार द्वारा प्रारम्भ की गई योजनाओं के रूप में), उनसे अक्सर समाज के कमजोर वर्गों के लिए किए जा रहे विशेष प्रयासों और व्यक्ति के मौलिक अधिकारों के मध्य संघर्ष की स्थिति पैदा होती है। ऐसी स्थिति में, मामलों को न्यायालय के समक्ष लाया जाता है और सम्पूर्ण स्थितियों पर विचार-विमर्श करने के उपरान्त न्यायालय को यह अधिनिर्णीत करना होता है कि इनमें से किसको प्राथमिकता मिलेगी, अर्थात् बृहत् रूप से समाज के दावे और व्यक्ति के दावे में से किसे वैध माना जाए।
  •  भारत में जब भी राज्य द्वारा सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन लाने के उद्देश्य से विधियों का निर्माण किया गया, उन्हें इस आधार पर न्यायालय में चुनौती दी जाती रही है कि वे नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते है। सामाजिक और आर्थिक न्याय की स्थापना में न्यायपालिका की भूमिका से सम्बन्धित पहला मामला ‘मद्रास राज्य बनाम चम्पाकम दोरईराजन्’ का था। मद्रास उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ द्वारा तमिलनाडु सरकार के एक फैसले को इस आधार पर अवैध घोषित कर दिया गया कि अनु. 46 (नीति निर्देशक तत्व) को अनु. 15 (1) तथा अनु. 29 (2) (मूल अधिकार) पर प्राथमिकता नहीं दी जा सकती। मद्रास सरकार ने उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की।
  •  सर्वोच्च न्यायालय ने इस आधार पर अपील को रद्द कर दिया कि मौलिक अधिकारों को न्याय-योग्य (Justiciable) होने के कारण स्पष्ट रूप से नीति निर्देशित तत्वों पर श्रेष्ठता प्राप्त है। न्यायालय का स्पष्ट विचार था कि मौलिक अधिकार वाला अध्याय पवित्रा है और इसे स्वयं भाग-3 में वर्णित प्रावधानों की सीमा तक छोड़कर किसी भी विधि या कार्यपालकीय आदेश द्वारा परिसीमित नहीं किया जा सकता।
  • कुछ अन्य मामलों में भी न्यायपालिका द्वारा ऐसे निर्णय दिए गए जो संविधान निर्माताओं के मनोभावों के अनुकूल नहीं थे। कामेश्वर सिंह बनाम बिहार राज्य के मामले में पटना उच्च न्यायालय ने बिहार भूमि सुधार अधिनियम, 1950 को इस आधार पर अवैध घोषित कर दिया कि इससे संविधान के अनु. 14, जिसके तहत् विधि के समक्ष समानता प्रावधानित है, का उल्लंघन होता है। इसी प्रकार सूर्यपाल सिंह बनाम उ. प्र. सरकार के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा उ. प्र. भूमि सुधार अधिनियम, 1950 को अवैध घोषित कर दिया गया।
  •  उपर्युक्त मामलों में न्यायपालिका द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण की काटस्वरूप संसद ने सन् 1951 में संविधान में पहला संशोधन किया। इसके द्वारा, तमाम अन्य बातों के अतिरिक्त, नवीं अनुसूची के रूप में एक नई अनुसूची जोड़ी गई और यह प्रावधानित किया गया कि इस सूची में रखे गए अधिनियमों को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकेगी कि इससे नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन होता है। भूमि सुधार विषयक अधिनियमों को इसी अनुसूची में रख दिया गया। 
  •  सन् 1955 में कांग्रेस में समतावादी समाज की स्थापना को अपना लक्ष्य घोषित किया। कांग्रेस सरकार द्वारा घोषित औद्योगिक नीति प्रस्ताव (1956) में विकास को बढ़ावा देने के निमित्त राज्य की भूमिका और उत्तरदायित्व पर बल देते हुए यह कहा गया कि सार्वजनिक क्षेत्रा का विस्तार करते हुए इसमें मूलभूत और सामाजिक महत्व के तथा जनहित से प्रत्यक्षतः सम्बन्धित सभी उद्योगों को सम्मिलित किया जाए। इन दोनों ही तत्वों को दूसरी पंचवर्षीय योजना में स्थान दिया गया। यह दूसरी पंचवर्षीय योजना के घोषित लक्ष्य थे।
  •  1967 से 1970 के मध्य सर्वोच्च न्यायालय के कुछ निर्णयों ने गम्भीर वाद-विवाद की स्थिति उत्पन्न कर दी। ऐसा पहला मामला ”गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य“ का था जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्व काल में स्वयं द्वारा दिए गए निर्णयों से भिन्न दृष्टिकोण अपनाते हुए कहा कि संसद को मूल अधिकारों में संशोधन का अधिकार नहीं है। अभी यह विवाद चल ही रहा था कि सर्वोच्च न्यायालय ने बैंको राष्ट्रीयकरण तथा प्रिवी पर्स की समाप्ति के सरकार के निर्णय को अवैध घोषित कर दिया।
  •  सर्वोच्च न्यायालय के इस दृष्टिकोण की खुलकर आलोचना की गई। सत्तारूढ़ दल की ओर से यह कहा गया कि सर्वोच्च न्यायालय देश में समतावादी ढाँचे के निर्माण में बाधक है। सर्वोच्च न्यायालय पर यह आरोप लगाया गया कि इसके न्यायाधीश रूढ़िवादी है और वे देश की बदलती हुई परिस्थितियों के अनुकूल किए जाने वाले परिवर्तनों में बाधा पैदा कर रहे है। यह भी भय प्रकट किया गया कि न्यायपालिका जनमानस द्वारा निर्वाचित संसद सदस्यों की इच्छा का तिरस्कार करके स्वयं व्यवस्थापिका की भूमिका ग्रहण करने का प्रयास कर रही है। यह सम्भवतः पहला अवसर था जब संसद एवं उच्चतम न्यायालय के मध्य विवाद की स्थिति पैदा हुई। संसद द्वारा संविधान के उन भागों में संशोधन का निश्चय किया गया जिनके आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार के उपर्युक्त निर्णयों को असंवैधानिक घोषित किया था।
  •  1971 के मध्यावधि चुनावों में कांग्रेस को भारी सफलता मिली। कांग्रेसी सरकार ने यह दावा करते हुए कि जनसाधारण ने उसकी समाजवादी नीति और कार्यक्रमों का अनुमोदन कर दिया है, चुनाव के बाद संविधान में दो महत्वपूर्ण संशोधन किए। संविधान के 24वें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई कि संसद संविधान के भाग-3 (मौलिक अधिकार) सहित किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है। 25वें संशोधन द्वारा यह प्रावधानित किया गया कि अनु. 39-(बी) एवं (सी) (अर्थात् भौतिक साधनों के स्वामित्व एवं नियंत्राण तथा धन के उत्पादन के साधनों के केन्द्रीकरण को रोकना) को लागू करने के उद्देश्य से संसद द्वारा बनाए गए किसी कानून को इस आधार पर अवैध नहीं घोषित किया जा सकेगा कि इससे अनु. 14, 19 तथा 31 (अनिरस्त) द्वारा नागरिकों को प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है।
  • 24वें और 25वें संविधान संशोधनों की वैधानिकता को ‘केशवानन्द भारती बनाम मद्रास राज्य’ के वाद में चुनौती दी गई। सामाजिक आर्थिक न्याय की प्रतिस्थापना की दृष्टि से इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय पर्याप्त समुत्रत था। अपने निर्णय में न्यायालय ने यह स्वीकार किया कि संविधान के अनु. 368 के अन्तर्गत संसद को संविधान के किसी भी भाग (मूल अधिकार सहित) में संशोधन का अधिकार प्राप्त है, शर्त यह है कि इससे ‘संविधान के बुनियादी ढाँचे’ (Basic structure of the Constitution)  का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। बाद में 42वें संविधान संशोधन द्वारा सामाजिक - आर्थिक न्याय को व्यावहारिक धरातल पर लागू करने के उद्देश्य से, नीति निर्देशक तत्वों के पूरे अध्याय को मौलिक अधिकारों पर प्राथमिकता प्रदान कर दी गई, परन्तु ‘मिनर्वा मिल्स लि. बनाम भारत संघ’ में निर्णय देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने 42वें संविधान संशोधन की उपर्युक्त व्यवस्था को रद्द करते हुए यह प्रावधानित किया कि मात्रा अनु.39-ए और बी में वर्णित निर्देशक तत्वों को लागू करने के लिए निर्मित विधियों को ही मौलिक अधिकारों पर प्राथमिकता प्राप्त होगी।
  •  उपर्युक्त विवरण के आधार पर यह स्पष्ट है कि न्यायपालिका सामाजिक-आर्थिक न्याय (जिनका प्रतिनिधित्व नीति निर्देशक सिद्धान्तों द्वारा किया जाता है) और नागरिकों के पवित्रा मौलिक अधिकारों के मध्य सामंजस्य स्थापन में असफल रही है। इस पूरी समस्या के जड़ में संविधान का अनु. 37 है जिसके तहत् यह स्पष्ट रूप से घोषित है कि नीति निर्देशक तत्व न्याय-योग्य नहीं है। इसके कारण ही न्यायपालिका का यह मानना रहा है कि नीति निर्देशक तत्व मौलिक अधिकारों की तुलना में अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण है।
    सामाजिक-आर्थिक न्याय की स्थापना राज्य की कार्यवाही पर आधारित है न कि न्यायिक प्रक्रिया पर। यथार्थ में नीति निर्देशक तत्व वह मार्ग इंगित करते है जिसके आधार पर सामाजिक-आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए राज्य को विधियों का निर्माण करना चाहिए।

व्यावहारिक स्थिति

  •  स्वतंत्राता के बाद भारत के नीति निर्धारकों ने नियोजित विकास का मार्ग अपनाया जिसका बृहत् लक्ष्य भारत में समतावादी समाज (Socialistic Pattern of Society) की स्थापना करना था।
    भारत में सामाजिक एवं आर्थिक न्याय - भारतीय राजव्यवस्था | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindiसमतावादी समाज के लिए युवा समावेश
  • ऐसा प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में अलग-अलग शब्दों में कहा गया। इसके लिए स्वतंत्रा भारत की सभी सरकारों ने अपनी नीतियों और तदनुकूल निर्मित कार्यक्रमों का आधार संविधान के भाग-4 में वर्णित नीति निर्देशक सिद्धान्तों को बनाया। इस सन्दर्भ में संविधान के अनु. 38 को आधार माना जा सकता है जिसमें संविधान की प्रस्तावना के अनुरूप एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था के निर्माण का दायित्व राज्य को सौंपा गया है जिससे जनमानस को न्याय उपलब्ध कराया जा सके। यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या सत्तारूढ़ अभिजन (Ruling Elite)  ने संविधायकों की इन अभिलाषाओं के अनुकूल सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का आधार तैयार किया अथवा इसे संविधान के उपबंधों तक ही सीमित रहने दिया?
  •  सैद्धान्तिक और वैधानिक धरातल पर, सत्तासीन अभिजन ने निस्संदेह कुछ कारगर कदम उठाए है। इनमें हम जमींदारी उन्मूलन अधिनियम (Zamindari Abolition Act),औद्योगिक अधिनियम (Industrial Acts),  भूमि सुधार कानून (Land Reform Acts), हिन्दू कोड बिल (Hindu Code Bill), बैंको का राष्ट्रीयकरण (Nationalization of Banks), शहरी भूमि सीमारोपण अधिनियम (Urban Land Ceiling Act)।बजद्ध आदि को सम्मिलित कर सकते है। समाज में विद्यमान शोषण की समाप्ति के लिए दास प्रथा, देवदासी प्रथा, बंधुआ मजदूरी की समाप्ति तथा अस्पृश्यता उन्मूलन के लिए जो कदम उठाए गए है, उन्हें भी अनदेखा नहीं किया जा सकता।
  •  सामाजिक असमानता और शोषण की समाप्ति की दृष्टि से सम्पत्ति के अधिकार में किए गए संशोधन और अन्ततः उसकी समाप्ति भी सत्तासीन अभिजन के बदलाव के मानस को प्रतिबिम्बित करती है। कमजोर वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए शिक्षण संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था को भी सामाजिक-आर्थिक न्याय की दिशा में सार्थक प्रयास माना जा सकता है। सत्ता के विकेन्द्रीकरण के लिए 72वें एवं 73वें संविधान संशोधनों के माध्यम से कारगर उपाय किए गए है। इस प्रकार स्वतंत्रायोत्तर भारत में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन के लिए पारित विधियों पर दृष्टि डालें तो कहना होगा कि भारतीय संसद ने सिद्धान्तों को वैधानिक जामा पहनाने में क्रान्तिकारी कदम उठाए है।
  •  संसद और राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधियों के अतिरिक्त उन्हें व्यवहृत करने के जो प्रयत्न हुए है, उन्हें अनदेखा करना भी मूल्यांकन की दृष्टि से अन्याय होगा। पंचवर्षीय योजनाएं, ग्रामीण विकास के विभिन्न उपक्रम, बीससूत्राी कार्यक्रमों के अन्तर्गत उठाए गए कदम और पिछड़े वर्ग के उत्थान से सम्बन्धित बहु-आयामी (Multi-dimensional) प्रयत्नों ने निश्चय ही देश में सामाजिक-आर्थिक बदलाव की प्रक्रिया को जन्म दिया है।
  •  जागीरदारी और जमींदारी उन्मूलन ने एक परम्परागत सामंती ढाँचे के स्थान पर, समतावादी व्यवस्था न सही, उसकी सम्भावना के दरवाजे अवश्य खोल दिए है। पंचायती राज को संवैधानिक कलेवर दिए जाने के कदम ने एक नवीन राजनीतिक चेतना को जन्म दिया है। इसी प्रकार कमजोर वर्गों के लिए शिक्षण संस्थाओं, सरकारी नौकरियों तथा अन्य प्रतिष्ठानों में समुचित स्थान दिलाने सम्बन्धी प्रयत्न भी एक सीमा तक सराहनीय है।
  •  ले देकर अगर यह कहें कि शिक्षा, उद्योग, व्यापार-वाणिज्य, कृषि तथा सामाजिक क्षेत्रा में बदलाव की दृष्टि से जो कदम उठाए गए है वे सामाजिक-आर्थिक न्याय की अभिलाषा के प्रतीक है तो अनुचित न होगा।
  • परन्तु यथार्थवादी नजरिए से देखने पर तस्वीर का एक दूसरा पहलू उभरता है। उपर्युक्त प्रयत्नों के बावजूद, भारत की जनसंख्या का एक बड़ा भाग असमानता, भूखमरी, कुपोषण और शोषण में आकण्ठ डूबा है। हमारी महत्वाकांक्षी योजनाएं और विकास के अथक प्रयत्न, देश के करोड़ों लोगों के लिए सामाजिक-आर्थिक न्याय की बात तो दूर, दो वक्त की रोटी का भी प्रबन्ध नहीं कर पाए है। यदि सरकारी आँकड़ों को भी मूल्यांकन का आधार बनाया जाए तो छठी पंचवर्षीय योजना के प्रारम्भ में 48.3 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी-रेखा के नीचे जीवनयापन कर रही थी और आठवीं पंचवर्षीय योजना के शुरू होने के समय भी यह प्रतिशत 36.9 था।
      : हमारे देश के समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री  और अन्य विचारक इस बात पर सहमत है कि स्वतंत्राता के बाद की विकास-प्रक्रिया (Development-process) का सर्वाधिक लाभ एक छोटे वर्ग को ही मिला। जो लोग जमीन-जायदाद, उद्योग-धन्धे और अन्य सम्पदा के स्वामी थे, वे ही विकास कार्यक्रमों और योजनाओं के अन्तर्गत मुहैया साधनों का दोहन करने में समर्थ हुए है।
  •  वयस्क मताधिकार से राजनीतिक धरातल भले ही विस्तृत हुआ हो, किन्तु शासक और शासितों के बीच खाई बढ़ी ही है, घटी नहीं। पंचायती राज संस्थाएं भी इस खाई को पाटने में असफल रही है। आर्थिक और सामाजिक सत्ता पर बैठे लोग ही समय के साथ इन संस्थाओं पर हावी होते गए है। सत्तासीन (Ruling Elite)  की आधुनिकीकरण की भाषा, समतावादी समाज की घोषणाएं, लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण और जनभागीदारी (People's Participation)  की सारी बातें पारम्परिक सामाजिक-आर्थिक ढाँचे के बोझ से दब गई सी लगती हैं। एक पारम्परिक सामंती ढाँचा तो समाप्त हुआ, परन्तु उसके स्थान पर प्रति-स्थापित नए अभिजन के चरित्रा में भी बहुत परिवर्तन नहीं दिखाई देता। वह स्वयं भी यथास्थिति (Status-Quo)  के पक्षधर के रूप में उभर कर सामने आया है। जमींदार, धनाढ्य किसान, उद्योगपति, नौकरशाह और राजनीतिज्ञ इस व्यवस्था के कर्णधार है और यही तबका व्यवस्था के लाभ का दोहनकर्ता है। इन सबकी कार्य-शैली, पारम्परिक चरित्रा तथा संस्कार, जन-भागीदारी के मूल सिद्धान्त के विरुद्ध है। अतः ऐसी स्थिति में, सामान्य जन विकास के लाभ से वंचित रहा तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
  •  संविधान-निर्माताओं ने यह लक्ष्य निर्धारित किया था कि राज्य, संविधान लागू होने के 10 वर्ष की अवधि के भीतर 14 वर्ष के सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराने का प्रयास करेगा (अनु. 45)। यह सत्य है कि पिछले चार दशकों में पाठशालाओं की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। परन्तु हकीकत यह है कि नवीनतम् उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार 9 प्रतिशत स्कूलों में इमारत ही नहीं है। 58.5 प्रतिशत स्कूलों में ब्लैक बोर्ड नहीं है, 72 प्रतिशत स्कूलों में पुस्तकालय जैसी कोई चीज नहीं है; 53.4 प्रतिशत स्कूलों में खेल के मैदान नहीं है। यही नहीं सामाजिक और आर्थिक धरातल पर जो विषमता विद्यमान है, उसे शैक्षणिक क्षेत्रा में भी देखा जा सकता है। सरकारी स्कूलों और पब्लिक स्कूलों के बीच सुविधाओं का जो अन्तर है, उसे सहज ही देखा जा सकता है।
  •  शैक्षणिक और सामाजिक धरातल पर समाज के पिछड़े वर्गों विशेष रूप से अनुसूचित जातियों और जनजातियों को सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से मुक्ति दिलाने का दावा भी गप्प अधिक, यथार्थ कम है। व्यवस्थापिकाओं, नौकरशाही तथा शैक्षणिक प्रतिष्ठानों में भागीदारी के उपरान्त भी यह समुदाय सामाजिक-सांस्कृतिक मुख्यधारा से पूर्णतया नहीं जुड़ पाया है, आरक्षण व्यवस्था के बावजूद भी दलित वर्ग को अपेक्षित सामाजिक और आर्थिक न्याय नहीं प्राप्त हो सका है।
  •  सामान्यतया, इनके पास न उपजाऊ भूमि है और न ही अन्य जायदाद। इस कारण, ग्रामीण क्षेत्रों में इसी वर्ग के लोग भूपतियों, धनाढ्य किसानों और साहूकारों के शोषण तंत्रा के शिकार होते रहे है। सवर्णपरस्त सामाजिक संरचना की किलेबंदी और धर्मशास्त्रो द्वारा खींची गई लक्ष्मण रेखा को पार करना इन वर्गों के लिए शताब्दी के इस अन्तिम पहर में भी कठिन है। हम आधुनिक और प्रगतिशील होने का चाहे जितना भी दावा करें, सच्चाई यही है कि दलित वर्ग के प्रति हमारा दृष्टिकोण और मानसिकता वैसी ही है, जैसी पहले थी।
  •  निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि भारत में ‘सामाजिक-आर्थिक न्याय का वैधानिक स्वरूप’ (Legislative Brand of Socio-Economic Justice) विकसित हुआ है। सामाजिक-आर्थिक न्याय के बिन्दु पर भारत की तस्वीर सुन्दर तो है, परन्तु यह निर्जीव है। यह सुन्दर है, क्योंकि संवैधानिक और वैधानिक उपबंध उद्देश्य की ईमानदारी के प्रतीक है; यह निर्जीव है, क्योंकि इन्हें व्यवहार में लागू करने के लिए वांछनीय व्यावहारिक गतिविधि का अभाव है।
The document भारत में सामाजिक एवं आर्थिक न्याय - भारतीय राजव्यवस्था | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi is a part of the UPSC Course भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi.
All you need of UPSC at this link: UPSC
184 videos|557 docs|199 tests

Top Courses for UPSC

FAQs on भारत में सामाजिक एवं आर्थिक न्याय - भारतीय राजव्यवस्था - भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi

1. क्या भारत में सामाजिक एवं आर्थिक न्याय की क्षमता का अधिकारी कौन होता है?
उत्तर. भारतीय राजव्यवस्था में सामाजिक एवं आर्थिक न्याय की क्षमता का अधिकारी अधिकारियों का संगठन, जैसे कि न्यायिक प्रणाली, न्यायालय, न्यायमूर्ति, और आर्थिक न्याय की क्षमता के लिए आर्थिक नियंत्रण और मार्गदर्शन करने वाले अधिकारी, जैसे कि आर्थिक नियंत्रण और मार्गदर्शन बोर्ड, जिम्मेदार होते हैं।
2. सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय के बीच क्या अंतर है?
उत्तर. सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय दो अलग-अलग पहलुओं को संकेत करते हैं। सामाजिक न्याय समाज के विभिन्न वर्गों, जातियों, धर्मों, लिंगों, और क्षेत्रों के बीच समानता और न्याय की मांग करता है, जबकि आर्थिक न्याय आर्थिक संसाधनों की वितरण में समानता और न्याय की मांग करता है। इन दोनों अस्पृश्यों के बीच संबंधित पॉलिसी और कानून बनाए गए हैं ताकि एक न्यायपूर्ण समाज का निर्माण हो सके।
3. क्या भारतीय राजव्यवस्था में सामाजिक एवं आर्थिक न्याय की क्षमता वास्तविकता में मौजूद है?
उत्तर. भारतीय राजव्यवस्था में सामाजिक एवं आर्थिक न्याय की क्षमता वास्तविकता में मौजूद होनी चाहिए, लेकिन वास्तविकता में काफी कारणों से इसका पूरा उपयोग नहीं हो पा रहा है। कई सामाजिक और आर्थिक असमानताएं और विभाजन के कारण, न्यायपूर्ण समाज का कार्यकारीकरण अभी भी एक लंबी प्रक्रिया है। इसलिए, भारतीय राजव्यवस्था में सामाजिक एवं आर्थिक न्याय की क्षमता को सुधारने के लिए नियमों, नीतियों, और कार्यक्रमों का निर्माण और कार्यान्वयन किया जाना चाहिए।
4. सामाजिक एवं आर्थिक न्याय की क्षमता को सुधारने के लिए सरकार क्या कदम उठा रही है?
उत्तर. सरकार सामाजिक एवं आर्थिक न्याय की क्षमता को सुधारने के लिए कई कदम उठा रही है। इनमें से कुछ मुख्य कदम निम्नलिखित हैं: - गरीबी उन्मूलन के लिए सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों के लागू करना। - आर्थिक विकास और समानता के लिए व्यापार नीतियों और कानूनों का सुधार करना। - सामाजिक न्याय के लिए न्यायिक प्रणाली में सुधार करना। - शिक्षा, स्वास्थ्य, और आवास के लिए सरकारी सुविधाओं का प्रदान करना।
5. सामाजिक एवं आर्थिक न्याय के बारे में अधिक जानने के लिए कौनसी साइट्स या संस्थाएं उपयोगी हो सकती हैं?
उत्तर. सामाजिक एवं आर्थिक न्याय के बारे में अधिक जानने के लिए निम्नलिखित साइट्स या संस्थाएं उपयोगी हो सकती हैं: - राष्ट्रीय सामाज
184 videos|557 docs|199 tests
Download as PDF
Explore Courses for UPSC exam

Top Courses for UPSC

Signup for Free!
Signup to see your scores go up within 7 days! Learn & Practice with 1000+ FREE Notes, Videos & Tests.
10M+ students study on EduRev
Related Searches

ppt

,

भारत में सामाजिक एवं आर्थिक न्याय - भारतीय राजव्यवस्था | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi

,

Sample Paper

,

Summary

,

practice quizzes

,

study material

,

MCQs

,

Viva Questions

,

Important questions

,

Semester Notes

,

Exam

,

भारत में सामाजिक एवं आर्थिक न्याय - भारतीय राजव्यवस्था | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi

,

shortcuts and tricks

,

Free

,

Objective type Questions

,

mock tests for examination

,

Extra Questions

,

pdf

,

past year papers

,

Previous Year Questions with Solutions

,

video lectures

,

भारत में सामाजिक एवं आर्थिक न्याय - भारतीय राजव्यवस्था | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi

;