मौलिक अधिकार
- भारतीय संविधान के अध्याय III में अनुच्छेद 12 से 35 तक मौलिक अधिकारों का वर्णन है।
प्रमुख मौलिक अधिकार
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 से 32 तक निम्नलिखित मौलिक अधिकारों का उल्लेख है-
- समता का अधिकार (अनुच्छेद 14.18)
- स्वंतत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19.22)
- शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
- धार्मिक स्वंतत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)
- सांस्कृतिक एवं शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29-30)
- संवैधानिक उपचार का अधिकार (अनुच्छेद 32)
- मूल संविधान में सात मौलिक अधिकार थे, किंतु 1978 में 44वें संशोधन के तहत संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार से हटा दिया गया। संपत्ति का अधिकार अब केवल साधारण विधिक अधिकार है।
मौलिक अधिकार - सर्वप्रथम 1789 में फ्रांस की राज्यक्रान्ति के पश्चात् नवीन संविधान में ‘मानवीय अधिकारों के घोषणा-पत्र’ के जरिये नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किये गये थे।
- भारतीय संविधान के अध्याय तीन में अनुच्छेद 13 से 35 तक मौलिक अधिकारों का उल्लेख है।
- मूल संविधान द्वारा नागरिकों को कुल 7 अधिकार प्रदान किये गये थे।
- 44वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 31 सम्पत्ति का अधिकार मौलिक अधिकारों की सूची में से निकाल दिया गया।
- अनुच्छेद 14 से 18 तक समानता का अधिकार उल्लिखित है।
- संविधान का अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता के निषेध से संबंधित है।
- अनुच्छेद 19 स्वतंत्रता के अधिकार से संबधित है।
- मौलिक अधिकारों के हनन की स्थिति में व्यक्ति सर्वोच्च या उच्च न्यायालय की शरण ले सकता है।
- बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका अनुच्छेद 21 में वर्णित दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षार्थ जारी की जाती है।
- प्रतिषेध लेख सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालयों द्वारा अपने अधीनस्थ न्यायालयों को अपने अधिकार क्षेत्र में रहने के लिए दिया जाने वाला आदेश है।
- उत्प्रेषण लेख भी केवल सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालयों द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों के लिए जारी किया जाता है।
- व्यक्ति के ‘अवसर की समानता’ के अधिकार की रक्षा अधिकार पृच्छा रिट द्वारा की जाती है।
- सर्वोच्च या उच्च न्यायालयों द्वारा याचिकाएँ अपील करने पर ही जारी की जा सकती है।
- भारत में मौलिक अधिकारों का आधार संवैधानिक है।
- भारत में मौलिक अधिकारों पर औचित्यपूर्ण प्रतिबन्ध की व्यवस्था है।
- राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान अनुच्छेद 21 स्थगित नहीं होता।
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समता का अधिकार
- अनुच्छेद 14 से 18 तक समता का अधिकार अन्तर्विष्ट है, जो निम्न प्रकार है:
- प्रत्येक व्यक्ति विधि के समक्ष समान है।
- सभी व्यक्तियों को विधि का समान संरक्षण प्राप्त है।
- राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति-लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा। लेकिन राज्य स्त्रियों और बालकों के लिए और सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए कोई विशेष कानून बना सकेगा।
- कोई नागरिक केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान के आधार पर दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश या पूर्णतः या अंशतः राज्य द्वारा पोषित सर्वसाधारण के लिए कुओं, तालाबों, स्नानघरों, सार्वजनिक समागम के स्थानों या सड़कों के उपयोग के अयोग्य नहीं समझा जाएगा।
- सभी नागरिकों के लिए राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में समानता होगी। परंतु इ प्रावधान के दो अपवाद है |
- (i) संसद किसी राज्य के अधीन निश्चित नियुक्तियों के संबंध में राज्य क्षेत्र के भीतर निवा के विषय में शर्त लगा सकती है, तथा ;(ii) नागरिकों के पिछड़े वर्गों के लिए राज्य की नियुक्तियों में स्थान आरक्षित किया जा सकता है।
- कोई भी व्यक्ति अस्पृश्य नहीं माना जाएगा तथा अस्पृश्यता का प्रयोग करने वाला व्यक्ति विधि के अनुसार दंडित किया जाएगा।
- सेना या विद्या संबंधी उपाधि के सिवाय राज्य और कोई उपाधि नहीं देगा। भारतीय नागरिक विदेशों से उपाधि नहीं ले सकता तथा भारत सरकार के नियोजन में कार्यरत विदेशी भी राष्ट्रपति के बिना अनुमति के विदेशी उपाधि नहीं ग्रहण कर सकते।
गैर-नागरिकों के मौलिक अधिकार |
अनुच्छेद 14 | विधि के समक्ष समानता |
अनुच्छेद 20 | अपराधों के लिए दोष सिद्धि के सम्बन्ध में संरक्षण |
अनुच्छेद 21 | प्राण और दैहिक स्वंतत्रता |
अनुच्छेद 23 | मानव के और बलात् -श्रम का प्रतिषेध |
अनुच्छेद 24 | कारखानों आदि में बालकों के नियोजन का प्रतिषेध |
अनुच्छेद 25 | अन्तःकरण की और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता |
अनुच्छेद 26 | धार्मिक कार्यों के प्रबन्ध की स्वंतत्रता |
अनुच्छेद 27 | किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि की स्वंतत्रता |
अनुच्छेद 28 | कुछ शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के बारे |
स्वंतत्रता का अधिकार
अनुच्छेद 19 से 22 तक स्वतंत्राता का अधिकार अंतर्विष्ट है जो निम्न है-
- वाक् स्वंतत्रता आदि विषयक अधिकार
(i) विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता
(ii) अस्त्र -शस्त्र रहित तथा शांतिपूर्वक सम्मेलन की स्वतंत्राता
(iii) संस्था एवं संघ बनाने का अधिकार
(iv) भ्रमण की स्वतंत्राता
(v) निवा की स्वतंत्राता
(vi) व्यापार वृद्धि या उपाजीविका की स्वतंत्राता
(vii) उपर्युक्त स्वतंत्राता पर निम्नलिखित आधार पर प्रतिबंध लगाए जा सकते है-
- राज्य की सुरक्षा
- विदेशी राज्यों से मित्रातापूर्ण संबंधों को संरक्षित करने के लिए
- सार्वजनिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए
- शिष्टाचार या सदाचार बनाए रखने के लिए
- न्यायालय अवमानना के लिए
- किसी व्यक्ति के मान-हानि के लिए
- अपराधों के दुष्प्रेरण के संबंध में
- राज्य की संप्रभुता एवं अखंडता के संबंध में
दैहिक स्वतंत्राता है:
(i) अपराधी को दोष सिद्धि के विषय में संरक्षण:
- कोई व्यक्ति केवल किसी प्रचलित कानून के अंतर्गत ही निहित अपराध के लिए दोषी ठहराया जा सकता है। अन्य अपराध के लिए नहीं।
- कोई भी व्यक्ति एक ही अपराध के लिए एक बार में अधिक अभियोजित तथा दंडित नहीं किया जाएगा।
- किसी अपराध में अभियुक्त कोई व्यक्ति स्वयं अपने विरुद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।
(ii) व्यक्तिगत स्वतंत्राता एवं जीवन की सुरक्षा
(iii) बंदीकरण तथा नजरबंदी के विरुद्ध अधिकार:
- किसी भी गिरफ्तार व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के कारण से यथाशीघ्र अवगत करवाए बिना बंदी बनाकर नहीं रखा जा सकेगा।
- उसे अपनी इच्छा के वकील से परामर्श करने तथा उसके अपने पक्ष की सफाई दिलवाने के अधिकार से वंचित नहीं किया जाएगा।
- उसे न्यायालय की आज्ञा के बिना 24 घंटे से अधिक हिरासत में नहीं रखा जाएगा।
निवारक निरोध
- संविधान में ही विधानमंडल को निवारक निरोध का उपबंध करने वाली विधि बनाने हेतु प्राधिकृत किया गया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22 के खण्ड 3, 4, 5 तथा 6 में तत्संबंधी प्रावधानों का उल्लेख किया गया है।
- निवारक निरोध कानून के अंतर्गत किसी व्यक्ति को अपराध करने से पूर्व ही गिरफ्तार किया जाता है।
- निवारक निरोध ऐसी परिस्थितियों में किया जाता है जिनमें प्राधिकारी के पा उपलब्ध साक्ष्य आरोप साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है| या निरुद्ध व्यक्ति को दोष सिद्ध नहीं ठहराया जा सकता किन्तु इ संदेह पर उसका निरोध करने का पर्याप्त औचित्य है कि यदि निरोध नहीं किया गया तो वह दोषपूर्ण कार्य करेगा।
- वस्तुतः यह निवारक निरोध राज्य की सुरक्षा, लोक-व्यवस्था बनाए रखने, समुदाय के लिए आवश्यक प्रदायों और सेवाओं को बनाए रखने या रक्षा, विदेश कार्य या भारत की सुरक्षा संबंधी कारणों से हो सकता है।
- जब किसी व्यक्ति को निवारक निरोध की किसी विधि के अधीन गिरफ्तार किया जाता है तो-
- सरकार ऐसे व्यक्ति को केवल 3 माह तक अभिरक्षा में निरुद्ध कर सकती है। यदि गिरफ्तार व्यक्ति को 3 माह से अधिक समय के लिए निरुद्ध करना होता है, तो इसके लिए सलाहकार बोर्ड का प्रतिवेदन प्राप्त करना पड़ता है। सलाहकार बोर्ड का गठन ऐसे व्यक्तियों से होगा, जो या तो उच्च न्यायालय के न्यायाधीश हैं या उच्च न्यायालय के न्यायाधीश होने की योग्यता रखते हैं।
- इ प्रकार निरुद्ध व्यक्ति को यथाशीघ्र निरोध के आधार सूचित किए जाएंगे, किन्तु जिन तथ्यों को प्रकट करना लोकहित के विरुद्ध समझा जाएगा उसे प्रकट करना आवश्यक नहीं है।
- निरुद्ध व्यक्ति को निरोध आदेश के विरुद्ध अभ्यावेदन करने के लिए शीघ्रातिशीघ्र अवसर दिया जाना चाहिए।
- संविधान के ये उपबंध स्वयमेव लागू नहीं होते, बल्कि इसके लिए विधि बनाई जाती है तथा यह विधि अनुच्छेद में अधिकथित शर्तों के अनुरूप होनी चाहिए। सर्वप्रथम भारतीय संसद ने निवारक निरोध अधिनियम, 1950 (Preventive Detention Act, 1950) पारित किया था, जो निवारक निरोध की विधि गठित करता था। यह एक अस्थायी अधिनियम था जो प्रारम्भ में केवल एक वर्ष के लिए ही था। लेकिन 1969 तक इसकी अवधि बार-बार बढ़ाई गई।
- 1971 में आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम (Maintenance of Internal Security Act—MISA) के नाम से एक नया अधिनियम बनाया गया।
- आर्थिक अपराधों के लिए अनुपूरक के रूप में संसद ने विदेशी मुद्रा संरक्षण और तस्करी निवारक अधिनियम, 1974 पारित किया। 1978 में आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था |
संवैधानिक उपचारों का अधिकार (1) बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus)-अंग्रेजी शब्द ”हैबिय काॅर्पस“ का शाब्दिक अर्थ है ‘शरीर प्राप्त करना’। बन्दी प्रत्यक्षीकरण की याचिका (रिट) एक आदेश के रूप में होती है। इसमें उस व्यक्ति को आदेश दिया जाता है जिसने किसी व्यक्ति को बन्दी बनाया अथवा नजरबन्द किया है। इ रिट द्वारा न्यायालय उ व्यक्ति को सशरीर अपने सामने निश्चित समय और स्थान पर उपस्थित करने का आदेश देता है जिसे बन्दी बनाया गया है। वह दोनों पक्षों का तर्क सुनकर इ बात का निर्णय देता है कि उसका बन्दीकरण अथवा नजरबन्दी वैध है अथवा अवैध। यदि न्यायालय को यह लगे कि व्यक्ति को बन्दी बनाने का कोई औचित्य नहीं है तो वह उसे मुक्त करने का आदेश देता है। इस रिट का उद्देश्य मूल अधिकारों में दिये गये दैहिक स्वतंत्रता के संरक्षण के अधिकार की व्यवस्था करना है। इससे व्यक्ति राज्य अथवा उसके अधिकारियों द्वारा मनमानी या जबरदस्ती गिरफ्तारी से स्वयं को बचाता है। (2) परमादेश लेख (Mandamus)-इसका शब्दार्थ है ‘हम आज्ञा देते है। इससे जि व्यक्ति या निकाय को यह आदेश दिया जाता है उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह किसी कत्र्तव्य को करे। इसका तात्पर्य यह है कि जब कोई पदाधिकारी अपने सार्वजनिक कत्र्तव्य का पालन नहीं करता है तो इ आदेश द्वारा न्यायालय उसे उ काम को करने का आदेश देता है। उदाहरण के लिए यदि किसी कर्मचारी को उचित कारणों के आधार पर नौकरी से निकाल दिया जाता है तो भी कानून के अनुसार वह तीन माह का वेतन पाने का अधिकारी होता है। यदि उसे वेतन नहीं दिया जाए तो न्यायालय ‘परमादेश’ द्वारा इ संस्था को तीन माह का वेतन देने का आदेश देती है। (3) प्रतिषेध लेख (Prohibition)-इसका अर्थ है निषेध अर्थात् किसी काम के लिए मना करना। इसका उद्देश्य अधीनस्थ न्यायालयों को अपनी अधिकार सीमा में रहने का आदेश दिया जाता है। यह आज्ञापत्र सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालयों द्वारा अपने अधीनस्थ (अवर) न्यायालयों की उन्हें किसी काम को करने से रोकने के लिए दिया जाता है। उदाहरण के लिए उच्च न्यायालय जिला न्यायालय को यह आदेश देता है कि यह विवाद आपकी अधिकार सीमा में नहीं है, इनकी सुनवाई न की जाए। यह आदेश अर्द्ध-न्यायिक संस्थाओं को भी दिये जा सकते है। (4) उत्प्रेषण लेख(Writ of Certiorari)-इसका शब्दार्थ है ‘पूर्णतया सूचित होना’। इ रिट द्वारा उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय अपने अधीनस्थ न्यायालयों को यह आदेश देते हैं कि अमुक विवाद के संबंध में वे ‘पूर्णतया सूचित होना’ चाहते हैं। अधीनस्थ न्यायालयों से उच्च न्यायालय कोई विवाद, स्वयं के निर्णय के लिए अपने पा बुला सकता है। (5) अधिकार पृच्छा Quo-Warranto)-इसका शब्दार्थ है ‘कि अधिकार से’। जब कोई व्यक्ति किसी सार्वजनिक पद पर पदाधिकारी के रूप में कार्य करता है जिसके रूप में उसे वैधानिक अथवा कानूनी रूप से कार्य करने का अधिकार नहीं है तो न्यायालय इ आदेश द्वारा उससे यह पूछता है कि संबंधित कार्य वह कि अधिकार से कर रहा है। व्यक्ति से संतोषजनक उत्तर प्राप्त न होने पर वह उसे पद त्याग करने के लिए कह सकता है। यह आदेश निजी संस्थाओं पर लागू नहीं होता। इ अधिकार पृच्छा रिट द्वारा व्यक्ति के अवसर की समानता के अधिकार की रक्षा करता है। |
- अधिनियम को निरस्त कर दिया गया, किन्तु 1974 का अधिनियम अभी भी विद्यमान है।
- राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 तथा चोर बाजारी निवारण व आवश्यक वस्तु प्रदान अधिनियम, 1980 बनाकर केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को यह शक्ति सी पी गई कि वे देश की सुरक्षा के लिए उपाय करें तथा लोक व्यवस्था एवं आवश्यक प्रदाय और सेवाएं बनाए रखें ।
शोषण के विरुद्ध अधिकार
अनुच्छेद 23.24 में शोषण के विरुद्ध अधिकार अंतर्विष्ट है, जो निम्न है :
- बलात श्रम निषिद्ध ठहराया गया है लेकिन राज्य लोक सेवाओं के लिए अनिवार्य सेवा नागरिकों से ले सकता है और राज्य ऐसी सेवा लेने में धर्म, मूलवंश जाति का भेदभाव नहीं करेगी।
- 14 वर्ष से कम आयु के किसी बालक को कारखाने या खान में या संकटपूर्ण कार्य के लिए नियोजित नहीं किया जाएगा।
धार्मिक स्वतंत्राता का अधिकार
- अनुच्छेद 25 से 28 तक धार्मिक स्वतंत्राता का अधिकार प्रदान किया गया है।
- सार्वजनिक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इ भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए सभी व्यक्तियों को अन्तःकरण की स्वतंत्राता तथा किसी भी धर्म को अंगीकार करने का अधिकार है।
- धार्मिक संस्थाओं तथा दान से स्थापित सार्वजनिक सेवा संस्थाओं की स्थापना तथा उसके पोषण का अधिकार।
- राज्य किसी भी शक्ति को ऐसे कर देने के लिए बाध्य नहीं कर सकता जिसकी आय किसी विशेष धर्म अथवा धार्मिक संप्रदाय के उन्नति में व्यय होता हो।
- राजकीय निधि से संचालित किसी भी शिक्षण संस्था में किसी प्रकार की धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।
संस्कृति एवं शिक्षा संबंधी अधिकार
- अनुच्छेद 29 व 30 में इसका विवरण हैः
- भारत के राज्य-क्षेत्रा नागरिकों की जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है उसे बनाए रखने का अधिकार।
- धर्म या भाषा पर आधारित सब अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार प्राप्त है।
- शिक्षा संस्थाओं में सहायता देने में राज्य धर्म, मूल वंश, जाति, भाषा आदि का भेदभाव नहीं करेगी।
संवैधानिक उपचारों का अधिकार
संविधान के अनुच्छेद 32 और 228 द्वारा किसी व्यक्ति जिसके मूलाधिकार का उल्लंघन किया जाता है, को यह अधिकार प्रदान किया गया है कि वह अपने मूलाधिकार के प्रवर्तन के लिए उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर करें।
मौलिक अधिकारों की विशेषताएं
(i) सामान्यतया सभी मूल अधिकार केवल राज्यों के विरुद्ध व्यक्तियों को प्रदान किये गये है लेकिन कुछ अधिकार ऐसे है , जो व्यक्तियों के विरुद्ध भी प्रदान किये गये है । व्यक्तियों के विरुद्ध प्रदान किये गये मूल अधिकार है-
- धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर सार्वजनिक स्थानों में विभेद का प्रतिषेध, अनुच्छेद 15(2)
- अस्पृश्यता के चलन का प्रतिषेध, अनुच्छेद 17
- मानव के दुव्र्यापार तथा बलात् श्रम का प्रतिषेध, अनुच्छेद 23
- कारखानों आदि में बालकों के नियोजन का प्रतिषेध, अनुच्छेद 24
(ii) कुछ मूल अधिकार केवल नागरिकों को दिये गये है , ये हैं-
- नागरिकों के मध्य केवल मूल वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेधए अनुच्छेद 15
- राज्य के अधीन सेवाओं में अवसर की समता का अधिकार, अनुच्छेद 16
- वाक् स्वतान्त्र्त्रा्य आदि विषयक कुछ अधिकार, अनुच्छेद 19
- अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण, अनुच्छेद 29
- शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार, अनुच्छेद 30
उक्त पाँचों के अतिरिक्त भारत में निवा करने वाले व्यक्तियों को, जो भारत के नागरिक न हों, संविधान में अन्तर्विष्ट सभी मूलाधिकार प्राप्त है।
(iii) मूल अधिकारों पर युक्तियुक्त निर्बन्धन लगाये जा सकते है , ताकि व्यक्तिगत अधिकारों को जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए सीमित किया जा सके। निर्बन्धन युक्तियुक्त है या नहीं, इसका निर्णय न्यायालय करता है।
(iv)अनुच्छेद 20 तथा 21 में अन्तर्विष्ट मूलाधिकारों (अपराधों के लिए दोषसिद्धि के सम्बन्ध में संरक्षण तथा प्राण और दैहिक स्वतन्त्राता का संरक्षण) को छोड़कर सभी मूलाधिकार राष्ट्रीय आपातकाल में निलम्बित हो जाते है। राष्ट्रीय आपातकाल में अनुच्छेद 19 में अन्तर्विष्ट मूलाधिकार (वाक् स्वातन्त्र्य आदि विषयक कुछ अधिकार) स्वतः निलम्बित हो जाते है , जबकि अन्य मूलाधिकार राष्ट्रपति के आदेश से निलम्बित होते है।
(v) मूल अधिकारों का निलम्बन किया जा सकता है लेकिन संविधान से इन्हें निकाला नहीं जा सकता।
(vi) संविधान में अन्तर्विष्ट मूलाधिकारों में से कुछ नकारात्मक है क्योंकि ये राज्य की शक्ति को सीमित करते है , जैसे अनुच्छेद 15 में वर्णित मूलाधिकार जबकि कुछ मूलाधिकार सकारात्मक है , जो नागरिकों को स्वतन्त्रातायें प्रदान करते है , जैसे अनुच्छेद 19 में उल्लिखित मूलाधिकार।
(vii) मूल अधिकारों का अल्पीकरण नहीं किया जा सकता। इसे अल्पीकरण करने वाली विधियाँ अल्पीकरण करने की सीमा तक शून्य होती है।
(viii) मूल अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर अनुतोष प्राप्त किया जा सकता है।
(ix) जिन व्यक्तियों को मूलाधिकार प्रदान किया गया है, वे उनका अधित्याग नहीं कर सकते।
मौलिक अधिकारों के उपांतरण की संसद की शक्ति
संसद को यह अधिकार है कि वह निम्नलिखित व्यक्तियों के संबंध में मूलाधिकारों को उपांतरित करके यह व्यवस्था कर सकती है कि मूलाधिकार किस सीमा तक उन व्यक्तियों के लिए लागू हो।
(i) सशत्र बलों के सदस्यों को,
(ii) लोक व्यवस्था बनाए रखने के लिए उत्तरदायी सुरक्षा बलों के सदस्यों को,
(iii) आसूचना या प्रति आसूचना के उद्देश्य के लिए राज्य द्वारा स्थापित किसी ब्यूरो या अन्य संगठन में नियोजित व्यक्तियों को तथा
(iv) उक्त तीनों प्रयोजनों के लिए स्थापित दूर संचार प्रणाली या उसके संबंध में नियोजित व्यक्तियों को।
मौलिक अधिकार का संशोधन
- संविधान के अनुच्छेद 13 में स्पष्ट रूप से प्रावधान किया गया है कि संसद कोई ऐसा कानून नहीं बनाएगी जो संविधान द्वारा प्रत्याभूत मूलाधिकारों को संक्षिप्त करे या उनका उल्लंघन करे।
- गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा अवधारित किया गया था कि संसद अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधान के मूल अधिकार को परिवर्तित करने के लिए कोई संशोधन नहीं कर सकती है।
- इस निर्णय के प्रभाव को समाप्त करने के उद्देश्य से संसद ने 1971 में 24वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 18 में खंड (4) को जोड़कर यह प्रावधान कर दिया कि ”संवैधानिक संशोधन अनुच्छेद 13 में वर्णित विधि के अंतर्गत नहीं आता।“
- केशवानन्द भारती बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने 24वें संविधान संशोधन द्वारा संसद को प्रदत्त संशोधन के अधिकार पर निर्बन्धन लगा दिया जिसके अनुसार संसद मूलाधिकार में संशोधन कर सकती है लेकिन संविधान के मूल ढांचे को परिवर्तित नहीं कर सकती।
- इस मामले के निर्णय के प्रभाव को समाप्त करने के उद्देश्य से 1976 में 42वां संविधान संशोधन करके यह प्रावधान किया गया कि संसद की संविधान संशोधन की शक्ति असीमित है और संविधान संशोधन को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।
- मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने 42वां संविधान संशोधन को असंवैधानिक करार दिया और धारित किया कि संसद संविधान के मूल ढांचे में परिवर्तन नहीं कर सकती।