राष्ट्रपति के पद में रिक्ति
- भारतीय राष्ट्रपति का पद निम्न रीति से रिक्त हो सकता है-
(i) पाँच वर्ष की अवधि समाप्त होने पर;
(ii) पद पर आसीन राष्ट्रपति की मृत्यु;
(iii) राष्ट्रपति द्वारा स्वेच्छा से पद त्याग देने पर;
(iv) महाभियोग द्वारा हटाये जाने पर;
(v) राष्ट्रपति का निर्वाचन रद्द किये जाने।
- उपर्युक्त कारणों से हुई रिक्त को भरने के लिए संविधान के अनुच्छेद 62 में प्रावधान दिये गये है।
- संविधान के अनुच्छेद 62(1) के अनुसार-जब राष्ट्रपति पद पदावधि समाप्त हो जाने से रिक्त होना हो तब अगले राष्ट्रपति का निर्वाचन पदावधि की समाप्ति के पूर्व ही कर लिया जाए। लेकिन यदि किसी कारण वश यह सम्भव नहीं हो पाए तब नये राष्ट्रपति के निर्वाचित होने तक पूर्व राष्ट्रपति ही उस पद पर बना रहेगा। इस स्थिति में उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति पद पर कार्य नहीं करता है।
- जब रिक्ति पदावधि के समाप्त होने के अतिरिक्त अन्य किसी कारण से हो तो उस स्थिति में राष्ट्रपति का निर्वाचन पद रिक्त होने की तारीख के पश्चात् यथाशीघ्र प्रत्येक दशा में छह माह बीतने से पूर्व कर लिया जाना चाहिए।
- उपर्युक्त विधि के अतिरिक्त किसी अन्य विधि द्वारा अगर राष्ट्रपति पद रिक्त हो तो उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति के रूप में कार्य करेगा। उपराष्ट्रपति की अनुपस्थिति में यह कार्य उच्चतम न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश करेगा।
- इन प्रावधानों, के अतिरिक्त यदि राष्ट्रपति अस्थायी रूप से अपने कार्य संभालने में असमर्थ है या वह भारत से बाहर गया हो, अथवा बीमार है या अन्य किसी कारण से अवकाश पर है, तब अवकाश की तारीख से उपराष्ट्रपति उसके कार्यों का निर्वहन करेगा।
- डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद एवं श्री नीलम संजीव रेड्डी दोनों ही दो बार राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। इनके अतिरिक्त 3 मई, 1969 से 20 जुलाई, 1969 तक श्री वी. वी. गिरि एवं 20 जुलाई, 1969 से 24 अगस्त, 1969 तक न्यायमूर्ति मो. हिदायतुल्ला एवं 11 फरवरी, 1977 से 25 जुलाई, 1977 तक श्री बी. डी. जत्ती भारत के कार्यवाहक राष्ट्रपति रहे।
राष्ट्रपति की शक्तियाँ
- संविधान के अनुच्छेद 53 के अनुसार ”संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी, जिनका प्रयोग वह स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करेगा।“
(a) कार्यपालिका शक्तियाँ
- संविधान के अनुच्छेद 53 के साथ अनुच्छेद 77 (1) में भी कहा गया है कि भारत सरकार कार्यपालिका संबंधी सभी कार्य राष्ट्रपति के नाम से सम्पादित करेगी।
- अनुच्छेद 74 (1) के अनुसार भारत के राष्ट्रपति की कार्यपालिका शक्तियों का प्रयोग मंत्रिपरिषद् की सलाह के अनुसार ही किया जा सकेगा।
- यह अनुच्छेद 42वें संशोधन 1976 से इस प्रकार है-”राष्ट्रपति को उसके कार्यों में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद् होगी जिसका प्रधान प्रधानमंत्राी होगा और राष्ट्रपति अपने कृत्यों का प्रयोग करने में इनकी सलाह के अनुसार कार्य करेगा।
- राष्ट्रपति ही भारत सरकार के कार्य संचालन के लिए नियम बनाता है। (अनुच्छेद 77 (3))
- राष्ट्रपति को यह अधिकार प्राप्त है कि वह प्रधानमंत्राी से संघ के प्रशासनिक कार्यों के संबंध में एवं मंत्रिपरिषद् एवं मंत्राीमण्डल के निर्णयों से संबंधित सूचना माँग सकता है तथा किन्हीं निर्णयों को संसद में रखने हेतु कह सकता है।
- संविधान द्वारा राष्ट्रपति को निम्न नियुक्तियाँ करने की शक्ति दी गई है-
(i) प्रधानमंत्राी, (ii) संघ के अन्य मंत्रियों, (iii) भारत के महान्यायवादी,(iv) नियन्त्राक एवं महालेखा परीक्षक, (v) सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधीश,(vi) राज्यों के उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, (vii) राज्यों के राज्यपालों, (viii) जल प्रदाय में हस्तक्षेप की जाँच करने के लिए आयोग,(ix) वित्त आयोग, (x) संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों,(xi) अन्तर्राज्यीय लोक सेवा आयोग, (xii) मुख्य निर्वाचक आयुक्त एवं निर्वाचन आयोग के अन्य सदस्यों, (xiii) अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए विशेष अधिकारियों की नियुक्ति,(xiv) केन्द्र शासित राज्यों के प्रशासन के लिए चीफ-कमिश्नर, (xv) अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन पर प्रतिवेदन देने के लिए आयोग,(xvi) पिछड़े वर्गों की दशाओं की जाँच हेतु आयोग, (xvii) अन्य जाँचों हेतु आयोग, (xviii) राजभाषा आयोग, (xix) भाषायी अल्पसंख्यक आयोग इत्यादि की नियुक्ति की जाती है।
- राष्ट्रपति अन्य देशों में भारतीय राजदूतों एवं उच्चायुक्तों एवं वाणिज्य दूतों की नियुक्ति करता है। इसके साथ ही वह विदेशों के द्वारा भारत में नियुक्त राजदूतों, उच्चायुक्तों (हाई कमिश्नर) एवं वाणिज्य दूतों एवं अन्य अधिकारियों के परिचय पत्रा प्राप्त करता है।
- इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति अन्तर्राष्ट्रीय कार्यों में भारत का प्रतिनिधित्व करता है।
- भारतीय राष्ट्रपति भारतीय सेना का सर्वोच्च सेनापति होता है। वह तीनों सेनाओं जल सेना (नौ सेना), थल सेना एवं वायुसेना के अध्यक्षों की नियुक्ति करता है।
- राष्ट्रपति निम्न पदाधिकारियों को पद से हटा सकता है - किसी मंत्राी को, राज्य के राज्यपाल, भारत के महान्यायवादी, संसद द्वारा महाभियोग पारित कर देने वाले समावेदन पर उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को एवं उच्चतम न्यायालय के प्रतिवेदन पर संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष या अन्य सदस्यों को।
- यद्यपि राष्ट्रपति की कार्यपालिका संबंधी अधिकार विस्तृत है, लेकिन भारत में संसदीय प्रणाली लागू होने से वह अपनी सभी शक्तियों का प्रयोग मंत्रिमण्डल की सलाह से ही कर सकता है।
(b) विधायी शक्तियाँ
- भारत के राष्ट्रपति भारतीय संसद का एक अंग है।
- भारतीय संसद में - लोकसभा + राज्यसभा + राष्ट्रपति शामिल माने जाते है।
- संविधान के अनुच्छेद 85(1) के अनुसार राष्ट्रपति को समय-समय पर संसद के प्रत्येक सदन की बैठक या सत्र अथवा अधिवेशन बुलाने या आहूत करने का अधिकार है। इस प्रकार के सत्र की अन्तिम बैठक और आगामी सत्रा की प्रथम बैठक की नियत तारीख से छः माह के अन्तराल पर कम-से-कम एक बार अवश्य बुलाई जाएगी।
- अनुच्छेद 85(2) के अधीन वह संसद के दोनों सदनों या किसी एक सदन का सत्रावसान कर सकेगा अर्थात् सत्रा को स्थगित या समाप्त घोषित कर सकता है। इसी उपबंध के अधीन वह लोकसभा को विघटित भी कर सकता है।
- इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 108 के अधीन वह दोनों सदनों में किसी विषय पर गतिरोध हो जाने पर संयुक्त अधिवेशन भी बुला सकता है।
- संविधान के अनुच्छेद 87 में कहा गया है कि राष्ट्रपति लोकसभा के प्रत्येक साधारण निर्वाचन के पश्चात् प्रथम अधिवेशन में एवं प्रत्येक वर्ष के प्रथम सत्रा (अधिवेशन) के आरम्भ में दोनों सदनों में पृथक-पृथक या संयुक्त सत्रा में अभिभाषण देगा।
- इस अभिभाषण में वह सत्रा के लिए मंत्रिमण्डल के कार्यक्रम की घोषणा और राजनीतिक एवं सामान्य नीति की घोषणा करता है, प्रशासनिक विषयो पर चर्चा का सूत्रापात करता है तथा वह संसद को उसके आह्नान का कारण भी बताता है।
- प्रत्येक अधिवेशन के आरम्भ पर राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों में अलग-अलग या किसी एक सदन में या दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में अभिभाषण कर सकता है और बैठक में उपस्थित होने के लिए सदस्यों से उपस्थिति की अपेक्षा भी कर सकता है। (अनुच्छेद 86 (1))
- संविधान के अनुच्छेद 86(2) के अनुसार - राष्ट्रपति संसद में किसी विधेयक लम्बित (Pending) के सम्बंध में या अन्य किसी विषय के संबंध में संदेश किसी भी सदन को भेज सकता है। राष्ट्रपति द्वारा भेजे गये संदेश पर सम्बन्धित सदन सुविधानुसार शीघ्र ही विचार करेगा।
- अनुच्छेद 80 (1) के अनुसार राष्ट्रपति राज्य सभा में ऐेसे 12 सदस्यों को मनोनीत (नामांकित) करेगा जिन्हें साहित्य, विज्ञान, कला और सामाजिक विषयों का विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव प्राप्त है।
- अनुच्छेद 331 के अधीन राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वह यदि यह समझे कि लोक-सभा में एंग्लो-इण्डियन समुदाय को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है तो वह लोकसभा में उस समुदाय के 2 सदस्य मनोनीत कर सकता है।
- भारत के राष्ट्रपति की अनुमति से ही निम्न प्रतिवेदन संसद के समक्ष रखे जा सकते हैं -
(1) वार्षिक वित्तीय विवरण (बजट) एवं अनुपूरक बजट।
(2) भारत सरकार के लेखाओं के संबंध में भारत के नियन्त्राक एवं महालेखा परीक्षक का प्रतिवेदन।
(3) वित्त आयोग की सिफारिशें एवं उसके साथ उन पर की गई कार्यवाहियों से संबंधित स्पष्टीकरण ज्ञापन प्रस्तुत करना।
(4) संघ लोक सेवा आयोग का प्रतिवेदन एवं जहाँ आयोग की सलाह स्वीकार नहीं की गई वहाँ उसके कारण।
(5) अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के विशेष अधिकारी का प्रतिवेदन।
(6) पिछड़ा वर्ग आयोग का प्रतिवेदन।
(7)भाषाई - अल्पसंख्यकों के विशेष अधिकारियों का प्रतिवेदन।
- संविधान में यह अपेक्षा की गई है कि कुछ विषयों से संबंधित विधेयकों को संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत करने से पूर्व राष्ट्रपति की अनुमति लेना आवश्यक है। ये विषय निम्न है -
(i) अनुच्छेद 3 के अधीन नये राज्यों के निर्माण अथवा वर्तमान राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन सम्बन्धी विषय।
(ii) अनुच्छेद 31 (क) (1) में निर्दिष्ट विषयों से सम्बन्धित (राज्य द्वारा सम्पत्ति के अधिकार के अर्जन से सम्बन्धित प्रावधान) उपबन्ध के लिए विधेयक प्रस्तुत करना।
(iii) धन विधेयका के सम्बन्ध में (अनु. 117 (1))
(vi) कोई विधेयक जो वास्तव में धन विधेयक नहीं है, पर जो भारत की संचित निधि में से व्यय करने से संबंधित है। (अनुच्छेद 117 (3))
(v) कोई विधेयक जो कर सम्बन्धी प्रावधानों से सम्बन्धित है एवं इस सम्बन्ध में वह राज्यों से जुड़ा है या फिर ये उन सिद्धान्तों को प्रभावित करते है जिनसे राज्यों को धन का वितरण किया जाता है। ‘कृषि आय’ से सम्बन्धित विषय जो कि आय-कर से संबंधित हों।
(vi) व्यापार की स्वतंत्राता पर यदि राज्यों द्वारा कोई प्रतिबन्ध लगाने संबंधी विधेयक हो तो उसे सदन में प्रस्तावित करने से पूर्व इस हेतु राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति आवश्यक है।
- संविधान के अनुच्छेद 111 के अनुसार दोनों सदनों द्वारा पारित किये जाने के पश्चात् कोई भी विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के लिए प्रस्तुत किया जाएगा और राष्ट्रपति निम्न तीन में से एक निर्णय कर सकता है
(i) वह यह घोषित कर सकता है कि वह विधेयक पर अनुमति प्रदान करता है।
(ii) वह यह घोषित कर सकता है कि वह विधेयक पर अनुमति रोकता है।
(iii) यदि विधेयक धन विधेयक नहीं हो तो उसे सदनों को पुनर्विचार के लिए लौटा सकता है। धन विधेयक पुनर्विचार के लिए नहीं लौटाया जा सकता।
- यदि राष्ट्रपति द्वारा पुनर्विचार के लिए लौटाये गये विधेयक को संसद के दोनों सदन संशोधन सहित या बगैर किसी संशोधन के पुनः पारित कर दे तो राष्ट्रपति उस पर अपनी अनुमति देने के लिये अथवा उस पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य होगा।
निलम्बनकारी वीटो - यदि राष्ट्रपति किसी विधेयक को अनुमति देने से स्पष्ट रूप से इंकार कर देने के स्थान पर विधेयक को कुछ संशोधनों एवं संदेश के साथ अथवा इनके बिना दोनों सदनों को पुनर्विचार करने के लिए लौटा देता है तो इसे राष्ट्रपति का निलंबनकारी वीटो माना जाता है। इसका उद्देश्य केवल विधेयक को थोड़े समय के लिए रोकना या उसके कानून बनने में थोड़ी देर लगाना है। यदि संसद के दोनों सदन उस विधेयक को संशोधनों के साथ या बिना किसी संशोधन के पूर्व स्वरूप में ही पुनः साधारण बहुमत से पारित कर दे तो राष्ट्रपति उस पर स्वीकृति देने के लिए बाध्य है।
- जेबी वीटो - भारतीय संविधान में ऐसी कोई समय-सीमा नहीं दी गई है कि जिसके भीतर राष्ट्रपति किसी विधेयक को जो उसकी अनुमति के लिए भेजा गया है को स्वीकृत करे, इंकार करे या वापस करे। अनुच्छेद 111 में केवल यही कहा गया है कि वह विधेयक को प्रस्तुत किये जाने के बाद यथाशीघ्र लौटा दे। इस प्रकार समय-सीमा के अभाव में भारत का राष्ट्रपति जेबी वीटो का प्रयोग कर सकता है। जेबी वीटो तब कहा जाता है जबकि राष्ट्रपति किसी विधेयक पर न तो अनुमति प्रदान करे और न ही उसे सदन में पुनर्विचार के लिए लौटाये। वह केवल विधेयक को अपने पास रोके रखेगा इस स्थिति में हम कह सकते है कि विधेयक राष्ट्रपति की ‘जेब’ में ही है। इसका एक उदाहरण हैµसन् 1986 में भारतीय संसद द्वारा (राजीव गांधी सरकार) ‘भारतीय डाकघर (संशोधन) विधेयक’ पारित किया था। इसके कुछ उपबन्धों पर प्रेस ने प्रेस स्वातंत्रा्य के विरुद्ध होने का आक्षेप लगाया था। तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने इस विधेयक को न तो अनुमति दी और न ही इस पर अनुमति देने से इंकार ही किया। यह विधेयक दिसम्बर 1989 तक राष्ट्रपति के पास ही (जेब में ही) पड़ा रहा। 7 जनवरी 1990 में राष्ट्रपति वेंकटरमन ने इसके खण्ड 16 पर पुनर्विचार हेतु इसे सदन में भेजा।
- भारत के संविधान में एक व्यवस्था यह भी की गई है कि किसी राज्य का राज्यपाल अपने विवेक के आधार पर राज्य विधानमण्डल के द्वारा पारित किसी विधेयक को यदि वह आवश्यक समझे तो राष्ट्रपति की स्वीकृति अथवा अनुमति के लिए भेज सकता है। इस प्रकार के विधेयकों में राज्य के उच्च न्यायालय की शक्तियों से सम्बन्धित विधेयकों पर राष्ट्रपति की स्वीकृति लेना आवश्यक है। ((अनुच्छेद 200))
- राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वह राज्यपाल द्वारा भेजे गए कसी विधेयक पर अपनी अनुमति दे या उसे पुनर्विचार के लिए लौटा दे अथवा उसे अनिश्चित काल के लिए अपने पास रोके रखे।
- राष्ट्रपति द्वारा पुनर्विचार के लिए भेजे गये विधेयक को यदि राज्य विधानमण्डल सामान्य बहुमत से पुनः पारित कर दे तो भी राष्ट्रपति उस पर अनुमति देने के लिए बाध्य नहीं है। ऐसी स्थिति में विधेयक मृत समझा जाता है।
- संविधान के अनुच्छेद 123 के अनुसार- जब संसद का सत्रा या अधिवेशन नहीं चल रहा हो और राष्ट्रपति यह महसूस करे कि परिस्थितियों के अनुरूप किसी विषय पर तुरन्त कानून निर्माण अथवा कार्यवाही अपेक्षित है तो वह उस परिस्थिति से निबटने के लिए ‘अध्यादेश’ जारी कर सकता है।
- इस प्रकार का राष्ट्रपति द्वारा जारी किया गया अध्यादेश संसदीय कानूनों की भाँति ही प्रभावशील रहता है।
- ये अध्यादेश केवल उसी स्थिति में निकाले जा सकते है जबकि संसद के दोनों में से किसी भी एक सदन का सत्रावसान हो गया हो और संसद द्वारा उस सम्बन्ध में विधि या कानून बनाया जाना संभव न हो।
- राष्ट्रपति अपनी इस शक्ति का प्रयोग मंत्राीपरिषद् की सलाह पर ही करेगा।
- ये अध्यादेश संसद का अगला अधिवेशन प्रारम्भ होने के छः सप्ताह पश्चात् समाप्त समझे जाएँगे।
- संसद चाहे तो इस अवधि के पूर्व भी इन्हें समाप्त कर सकती है |
(c) वित्तीय शक्तियाँ
- देश का वार्षिक बजट वित्त मंत्राी द्वारा राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से उसी के नाम से प्रस्तावित किया जाता है।
- राष्ट्रपति ही लेखा परीक्षक की रिपोर्ट एवं वित्त आयोग की सिफारिशें संसद के समक्ष रखवाता है।
- देश की आकस्मिक निधि पर राष्ट्रपति का नियंत्राण होता है। आकस्मिक जरूरत पड़ने पर वह संसद की अनुमति के बिना भी सरकार को इसमें से धन दे सकता है।
- देश में पूरक एवं अनुपूरक बजट भी राष्ट्रपति के नाम से ही संसद में रखा जाता है।
- राष्ट्रपति राज्यों को अनुदान देने सम्बन्धी आज्ञाप्ति जारी करता है।
- वित्त आयोग की नियुक्ति भी राष्ट्रपति ही करता है।
- राजकीय आय के राज्यों के मध्य वितरण का निर्धारण भी राष्ट्रपति के नाम से ही किया जाता है।
- राष्ट्रपति की अनुमति के बिना नये कर लगाने अथवा करों में बढ़ोतरी करने सम्बन्धी विधेयक संसद में प्रस्तुत नहीं किये जा सकते।
(d) न्यायिक शक्तियाँ
- राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है। इसके साथ ही वह सर्वोच्च न्यायालय के अधिकारियों एवं कर्मचारियों की नियुक्ति के सम्बंध में नियमों का निर्धारण भी करता है।
- राष्ट्रपति किसी अपराधी को क्षमा कर सकता है। इस क्षमा से अपराधी अपने समस्त दण्डों एवं दोषों से मुक्त हो जाता है। (अनुच्छेद 72))
- राष्ट्रपति किसी अपराधी के दण्ड को कम भी कर सकता है, जैसे मृत्यु दण्ड को आजीवन कारावास में बदल देना, अथवा कठोर कारावास के स्थान पर सादा कारावास दे सकता है। राष्ट्रपति की इस शक्ति को लघुकरण कहा जाता है।
- राष्ट्रपति किसी अपराधी के दण्ड की अवधि घटा भी सकता है, जैसे एक वर्ष के कारावास को छः मास का किया जा सकता है। इस शक्ति को परिहार कहा जाता है।
- राष्ट्रपति किसी विशेष परिस्थिति अथवा तथ्य को देखते हुए दण्ड को कुछ समय के लिए स्थगित भी कर सकता है। इसे विराम कहा जाता है।
- राष्ट्रपति किसी दण्डादेश पर विचार करने तक के समय के लिए उक्त दण्डादेश के कार्यान्वयन को रोक सकता है। राष्ट्रपति की यह शक्ति प्रतिलम्बन कही जाती है।
- राष्ट्रपति क्षमादान सम्बन्धी उक्त शक्तियों का प्रयोग निम्न स्थिति में ही कर सकता है -
(i) सैनिक न्यायालयों द्वारा दिये गये दण्डों पर।
(ii) केन्द्रीय कार्यपालिका के क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत दिये गये दण्डों पर, अर्थात् संघ एवं समवर्ती सूची के अधीन बनाये गये कानूनों के अधीन किये गये अपराधों पर।
(iii)किसी अपराधी को यदि मृत्यु दण्ड दिया गया हो।
- व्यवहार में उपर्युक्त परिस्थितियों में भी राष्ट्रपति अपने क्षमादान के अधिकार का प्रयोग मंत्रिमण्डल के परामर्श से ही करता है।
- संविधान 143 के अनुसार भारत का राष्ट्रपति सार्वजनिक हित से सम्बन्धित किसी भी प्रश्न पर यदि वह स्वयं आवश्यक समझे तो सर्वोच्च न्यायालय से सम्बन्धित विषय पर कानूनी परामर्श ले सकता है।
- सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रदान किया गया परामर्श बाध्यकारी नहीं है। राष्ट्रपति उसे स्वीकार अथवा अस्वीकार कर सकता है।