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सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियाँ

  • भारत के संविधान तथा उसके संघात्मक स्वरूप का एवं नागरिकों के मौलिक अधिकार के संरक्षक के रूप में भारत के सर्वोच्च न्यायालय को व्यापक शक्तियाँ प्रदान की गई है।
  • इसके अधिकार क्षेत्रा को तीन शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है-

I. प्राथमिक अथवा प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार 
II. अपीलीय क्षेत्राधिकार
III. परामर्शदात्राी क्षेत्राधिकार

प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार

  • संविधान के अनुच्छेद 131 में सर्वोच्च न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार का उल्लेख मिलता है। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से इसे दो वर्गों में रखा जा सकता है-

(क) प्रारम्भिक एकमेव क्षेत्राधिकार, (ख) समवर्ती प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार।

(क) एकमेव प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार 

  • इस क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आने वाले विवादों के निराकरण की एकमात्रा शक्ति सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त है। इसके अन्तर्गत निम्न विषय आते है

(i)  भारत सरकार और एक या एक से अधिक राज्यों के बीच के विवाद। (अनुच्छेद 131 (5))
(ii) एक ओर भारत सरकार और एक राज्य या अधिक राज्यों एवं दूसरी ओर एक राज्य या अधिक राज्यों के मध्य विवाद (अनु 131(ख))
एवं
(iii) दो या दो से अधिक राज्यों के मध्य ऐसे विवाद जिसमें कोई कानूनी (विधिक) अथवा तथ्य संबंधी कोई प्रश्न अन्तर्निहित हो तथा जिसके ऊपर किसी भी वैध अधिकार का अस्तित्व एवं विस्तार निर्भर हो और उसके संबंध में न्यायालय से निर्णय की याचना की गई है।

  • उपर्युक्त विवाद केवल सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष ही उपस्थित किये जा सकते है, किसी भी अन्य न्यायालय के समक्ष नहीं।

(ख) समवर्ती प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार

  • इस वर्ग में सर्वोच्च न्यायालय की वे शक्तियाँ शामिल है जो उसे संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिकों के मौलिक अधिकारों को लागू करने के संबंध में प्राप्त हैं। इन शक्तियों का प्रयोग सर्वोच्च न्यायालय के साथ-साथ राज्यों के उच्च न्यायालयों द्वारा भी किया जा सकता है।
  • संविधान के अनुच्छेद 32 (1) में सर्वोच्च न्यायालय को नागरिको के मौलिक अधिकारों की रक्षा का उत्तरदायित्व सौंपा गया है कि "वह नागरिक के मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिये समुचित कार्यवाही करे।"
  • इस हेतु वह बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा आदि याचिकाएँ (रिटें) जारी कर सकता है।
  • मूल अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में कोई भी नागरिक अपनी याचिका के साथ सर्वोच्च न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय में जा सकता है।

अपीलीय क्षेत्राधिकार
संविधान के अनुच्छेद 132 के अधीन सर्वोच्च न्यायालय को अपीलीय अधिकारिता भी प्रदान की गई है। इसके अनुसार सर्वोच्च न्यायालय को समस्त राज्यों के उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुनने का अधिकार भी प्राप्त है। इस अधिकार क्षेत्रा को 4 वर्गों में बाँटा गया है-
(i) संवैधानिक
(ii) दीवानी
(iii) फौजदारी
(iv) विशिष्ट

(i) संवैधानिक

  • संविधान के अनुच्छेद 132 के अनुसार यदि उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि विवाद में कोई संवैधानिक प्रश्न निहित है तो भारत क्षेत्रा के किसी भी उच्च न्यायालय के निर्णयों की अपील सर्वोच्च न्यायालय में की जा सकती है, चाहे वह विवाद दीवानी, फौज़दारी या अन्य कार्यवाहियों के बारे में ही क्यों न हो।
  • ऐसी स्थिति में जबकि उच्च न्यायालय ऐसा प्रमाणपत्रा न दे कि विवाद किसी संवैधानिक प्रश्न से संबंधित है तब भी सर्वोच्च न्यायालय यदि यह महसूस करे कि उच्च न्यायालय में विचाराधीन कोई विवाद में संविधान संबंधी कोई प्रश्न सन्निहित है तो इस स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय स्वयं ही ऐसा प्रमाण पत्रा देकर अपील की विशेष आज्ञा प्रदान कर सकता है। इस अधिकार से यह न्यायालय संविधान का अन्तिम संरक्षक और व्याख्याकर्ता बन गया है।

(ii) दीवानी

  • मूल संविधान में यह व्यवस्था की गई थी सर्वोच्च न्यायालय ऐसे विवादों की अपीलें सुन सकता है जिनकी धनराशि 20,000 रु. से अधिक हो।
  • संविधान के 30वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 133 को संशोधित करते हुए अब धनराशि की सीमा हटा दी गई है।
  • अब सर्वोच्च न्यायालय ऐसे विवादों की अपीलें सुन सकता है जिसमें उच्च न्यायालय अपने निर्णयों में यह प्रमाण दे कि संबंधित विवाद में कानून की व्याख्या से संबंधित प्रश्न अन्तर्निहित है।

(iii) फौज़दारी

  • संविधान के अनुच्छेद 134 में फौज़दारी मुकदमों में उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरोध में निम्न स्थितियों में सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है-

(क) उच्च न्यायालय ने अपने अधीनस्थ न्यायालय द्वारा मुक्त किये गये किसी अभियुक्त को जब मृत्यु-दण्ड दिया हो;
(ख) यदि उच्च न्यायालय ने अपने अधीनस्थ न्यायालय से किसी मुकदमे को अपने यहाँ मँगाकर किसी अभियुक्त को मृत्यु-दण्ड दिया हो;
(ग) यदि उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि विवाद सर्वोच्च न्यायालय के विचार करने योग्य है।

(iv) विशिष्ट अपील (Special appeals)

  • संविधान के अनुच्छेद 136 द्वारा साधारण कानूनों से भिन्न अपील संबंधी विशिष्ट अधिकार भी सर्वोच्च न्यायालय को प्रदान किये गये है।
  • इस अनुच्छेद के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय स्वविवेक से अध्याय 4 के किसी भी उपबन्ध के अधीन भारत राज्य क्षेत्रा के किसी भी न्यायालय अथवा न्यायाधिकरण (tribunal) द्वारा किसी मामले में दिये हुए किसी भी निर्णय अथवा आदेश के विरुद्ध अपील सुनने की अनुमति दे सकता है।
  • इस संबंध में संविधान के अनुच्छेद 136 (2) के अनुसार इसमेंभारत के सशत्र सेना से संबंधित किसी भी न्यायाधिकरण द्वारा पारित या उसके द्वारा दिये गये निर्णय या आदेश पर यह लागू नहीं होगी।
  • इसी प्रकार सर्वोच्च न्यायालय को अनुच्छेद 138 के अधीन संघ सूची के विषयों में से किसी के संबंध में भी अपील सुनने का अधिकार होगा यदि यह शक्ति उसे संसद विधि द्वारा प्रदान करे।
  • मूल संविधान एवं 44वें संशोधन के पश्चात् सर्वोच्च न्यायालय को कतिपय अधिकारियों जैसे-राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, प्रधानमंत्राी के चुनाव संबंधी विवादों की सुनवाई का भी अधिकार प्राप्त है।

परामर्शदात्राी क्षेत्राधिकार

  • संविधान के अनुच्छेद 143 द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को परामर्शीय क्षेत्राधिकार भी प्रदान किया गया है। इसके अन्तर्गत राष्ट्रपति को यदि ऐसा प्रतीत हो कि किसी कानून अथवा तथ्य के प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय की राय जानना उचित है तो ऐसे प्रश्न पर वह सर्वोच्च न्यायालय से उसका परामर्श माँग सकता है।    
  • न्यायालय उस पर उचित सुनवाई के पश्चात् अपनी रिपोर्ट या परामर्श राष्ट्रपति को देता है लेकिन इसका परामर्श मानना या न मानना राष्ट्रपति की इच्छा पर निर्भर करता है।

अन्य अधिकार
 अभिलेख न्यायालय

  • संविधान के अनुच्छेद 129 में कहा गया है कि ”उच्चतम न्यायालय अभिलेख न्यायालय होगा और उसको अपने अवमानना के लिए दण्ड देने की शक्ति होगी।“
  • अभिलेख न्यायालय उस न्यायालय को कहा जाता है जिसके कि अभिलेखों का साक्ष्य की दृष्टि से मूल्य हो और जब किसी अन्य न्यायालय में उन्हें पेश किया जाए तो उन पर कोई सन्देह नहीं किया जा सकता न ही उसके निर्णयों पर एतराज ही किया जा सकता है।
  • भारत में सर्वोच्च न्यायालय के अभिलेख न्यायालय होने के दो आशय है -

    (i) इस न्यायालय के सभी अभिलेख साक्ष्य रूप मेंसब जगह स्वीकार्य होंगे तथा उनकी प्रमाणिकता के संदर्भ में कहीं भी किसी प्रकार का संदेह व्यक्त नहीं किया जाएगा।
    (ii) इस न्यायालय द्वारा ”न्यायालय अवमानना“ (contempt of the court) के लिए दण्ड दिया जा सकता है।

न्यायिक पुनर्विलोकन

  • न्यायिक पुनर्विलोकन का सिद्धान्त भारत मेंअमेरिकी संविधान से ग्रहण किया गया है।
  • न्यायिक पुनर्विलोकन से अभिप्राय है-
    न्यायालय द्वारा व्यवस्थापिका (संसद) और कार्यपालिका (मंत्रीपरिषद्) के कार्यों की वैधता की जाँच करना अर्थात् यदि इनके द्वारा कोई ऐसा कानून बनाया गया अथवा लागू किया गया है जो कि संवैधानिक विधियों के विरुद्ध है तो उसे न्यायालय अवैध अथवा असंवैधानिक घोषित कर सकता है। 
  • यद्यपि संविधान में कहीं भी इस आशय का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है लेकिन फिर भी अनेक ऐसे उपबन्ध है जिससे अप्रत्यक्ष रूप से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि संविधान द्वारा न्यायिक पुनर्विलोकन का अधिकार सर्वाेच्च न्यायालय का दिया गया है। संक्षेप में ये उपबन्ध निम्न है - 
    (i) संविधान के अध्याय 3 के मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत अनुच्छेद 13 में यह प्रावधान किया गया है कि यदि राज्य का कोई कानून मूल अधिकारों को उल्लंघन या अतिक्रमण करता है तो यह उसे अवैध घोषित कर सकता है।
  • इसी अध्याय के अनुच्छेद 32 द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी नागरिक द्वारा अपने मूल अधिकारोंके हनन हो जाने की स्थिति में न्यायालय की शरण लेने पर याचिकाएं निकालने एवं आदेश देने का भी अधिकार दिया गया है। इसी के तहत सर्वोच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों के संरक्षण के लिये कार्यपालिका और संसद द्वारा निर्मित कानूनों का भी पुनर्विलोकन कर सकता है।
    (ii)संविधान के अनुच्छेद 246 के अन्तर्गत संघ एवं राज्योंकी विधायी सीमाओं अर्थात् कानून निर्माण की सीमाओं का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। इस संबंध में न्यायालय अपने क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत संघ या राज्यों द्वारा निर्मित ऐसे कानूनों को जिसमें कि उनके द्वारा अपने अधिकारों की सीमाओं को तोड़ा गया है, अवैध घोषित कर सकता है।
    (iii) संविधान में यदि कोई संशोधन अनुच्छेद 368 में निर्धारित प्रक्रिया के अनुरूप न किया जाए तो भी न्यायालय उसे अवैध करार दे सकता है।
    (iv) ऐसे मामले जिनमें संविधान के किसी उपबन्ध या उसकी व्याख्या का प्रश्न निहित हो तब ऐसी स्थिति में उसे संवैधानिक मामलों पर निर्णय देने की अन्तिम शक्ति प्राप्त है।
  • कहा जा सकता है कि न्यायिक पुनर्विलोकन की व्यवस्था द्वारा भारत में ब्रिटेन की भांति संसदीय सर्वोच्चता स्थापित न करके संविधान को सर्वोच्चता स्थापित की गई है।
  • गोपालन बनाम मद्रास राज्य विवाद, गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य विवाद, केशवानन्द भारती की याचिका, मिनर्वा मिल्स विवाद आदि में न्यायालय के निर्णय इसी सिद्धान्त पर आधारित थे।

                                                           भारत का महान्यायवादी

  • भारतीय संविधान में महान्यायवादी के पद को विशेष रूप से स्थान दिया गया है। भारत का महान्यायवादी भारत सरकार का सर्वप्रथम विधि अधिकारी होता है। महान्यायवादी भारत सरकार का कानूनी सलाहकार होता है। संविधान के अनुच्छेद 76 में महान्यायवादी के संबंध में प्रावधान दिया गया है।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 76 में कहा गया है कि - भारत के महान्यायवादी की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 76 में ही कहा गया है कि राष्ट्रपति किसी भी ऐसे व्यक्ति को महान्यायवादी नियुक्त कर सकता है जो कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने की योग्यताएँ रखता हो अर्थात्- 
    • वह भारत का नागरिक हो;
    • किसी एक या एक से अधिक उच्च न्यायालय में 5 वर्ष तक न्यायाधीश रहा हो, या उच्च न्यायालय में 10 वर्ष तक अधिवक्ता रहा हो।
    • राष्ट्रपति की नजर में प्रसिद्ध विधिवेत्ता हो (अथवा कानून का ज्ञाता हो)।
  • भारत का महान्यायवादी राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त (अर्थात् जब तक राष्ट्रपति चाहे) अपने पद पर बना रह सकता है। (अनु 76 (4))
  • भारत के महान्यायवादी के वेतन के निर्धारण का अधिकार भी राष्ट्रपति को दिया गया है। वर्तमान में राष्ट्रपति द्वारा महान्यायवादी का वेतन 9000 रु. प्रतिमास निश्चित किया है।
  • भारत के महान्यायवादी का यह कत्र्तव्य है कि वह भारत सरकार को कानूनी मामलों में सलाह या परामर्श दे।
  • समय-समय पर राष्ट्रपति द्वारा निर्देशित अथवा सौंपे  गये कानून संबंधी कार्यों का पालन करना।
  • महान्यायवादी उन कत्र्तव्यों का भी निर्वहन (पालन) करता है जो कि उसे संविधान द्वारा अथवा समय-समय पर प्रवृत (बनायी गई) किसी अन्य विधि (कानून) द्वारा उसे प्रदान किये गये है।
  • महान्यायवादी को अपने कत्र्तव्यों के उचित ढंग से पालन करने के लिए संसद के दोनों सदनों में या किसी एक सदन में या संसद की समितियों की बैठकों में भाग लेने एवं बोलने का अधिकार दिया गया है।
  • साथ ही उसे यह अधिकार भी है कि वह भारत राज्य क्षेत्रा के सभी न्यायालयों में सुनवाई कर सकता है।
  • संसद की बैठकों में भाग लेने के दौरान उसे मत देने का अधिकार प्राप्त नहीं होता और न ही वह मंत्रिमण्डल या मंत्रिपरिषद् का सदस्य ही हो सकता है।

 

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FAQs on सर्वोच्च न्यायालय (भाग - 2) - भारतीय राजव्यवस्था - भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi

1. सर्वोच्च न्यायालय क्या है?
उत्तर: सर्वोच्च न्यायालय भारतीय न्यायपालिका का सर्वोच्च न्यायिक संस्थान है जो भारतीय राजव्यवस्था में न्यायपालिका का सबसे ऊचा संगठन है। यह अपील और न्यायिक विवादों के निर्णय करने के लिए अंतिम अवरोध होता है।
2. सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना कब हुई थी?
उत्तर: सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना 28 जनवरी 1950 को हुई थी, जब भारतीय संविधान के प्रारूप में न्यायपालिका की स्थापना का प्रावधान था।
3. सर्वोच्च न्यायालय का कार्यकाल क्या होता है?
उत्तर: सर्वोच्च न्यायालय का कार्यकाल एक साल से अधिक नहीं हो सकता है। न्यायिक अधिकारियों का कार्यकाल 65 वर्ष तक जारी रह सकता है, जिसमें उनकी न्यायिक सेवा के लिए उच्चतम आयु सीमा 62 वर्ष होती है।
4. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश कैसे नियुक्त होते हैं?
उत्तर: सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश भारतीय राष्ट्रपति की अनुमति के साथ नियुक्त होते हैं। उनकी नियुक्ति न्यायपालिका की आयोगिक संरचना के माध्यम से की जाती है, जिसमें राष्ट्रपति, प्रधान न्यायाधीश और एक वरिष्ठतम न्यायमूर्ति शामिल होते हैं।
5. सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों का पालन कैसे होता है?
उत्तर: सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों का पालन अनिवार्य होता है और सभी न्यायिक और कार्यालयिक संरचनाएं उनका पालन करने के लिए दायित्वपूर्ण होती हैं। अगर कोई संरचना या व्यक्ति निर्णयों का पालन नहीं करता है, तो उसे न्यायालय द्वारा सजा का सामना करना पड़ सकता है।
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