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निजी कानून - भारतीय राजव्यवस्था | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

  • भारत में विभिन्न धर्मों और मतों के लोग रहते हैं। उनके पारिवारिक कार्यकलापों से संबंधित विषयों पर जैसे-विवाह, विवाह विच्छेद, उत्तराधिकार आदि के संबंध में उन पर निजी कानून लागू होते हैं।

विवाह

  • विवाह विषयक कानून को विभिन्न धर्मों के लोगों पर विभिन्न अधिनियमों से संहिताबद्ध किया गया है, वे हैं-

(i) संपरिवर्ती (कन्वर्ट) विवाह-विघटन अधिनियम, 1866
(ii) भारतीय विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1869
(iii) भारतीय क्रिश्चियन विवाह अधिनियमए 1872
(iv) काजी अधिनियम, 1880
(v) आनन्द विवाह अधिनियम, 1909
(vi) बाल-विवाह अवरोध अधिनियम, 1929
(vii) पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936
(viii) मुस्लिम विवाह-विघटन अधिनियम, 1939
(ix) विशेष विवाह अधिनियम, 1954
(x) हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955
(xi) विदेशी विवाह अधिनियम, 1969 और
(xii) मुस्लिम महिला (विवाह-विच्छेद संरक्षण) अधिकार अधिनियम, 1986

  • विशेष विवाह अधिनियम, 1954, जम्मू-कश्मीर राज्य के अतिरिक्त संपूर्ण भारत में लागू है, और यह भारत के उन नागरिकों पर भी लागू होता है, जो जम्मू और कश्मीर राज्य के रहने वाले हैं, किन्तु जिनका अधिनिवास उन क्षेत्रों में है, जिन तक इस अधिनियम का विस्तार है। जिन व्यक्तियों पर यह अधिनियम लागू होता है, वे इस अधिनियम के अधीन विनिर्दिष्ट तौर पर विवाह का पंजीकरण करवा सकते हैं, भले ही वे पृथक-पृथक धर्म को मानने वाले हों। अधिनियम में यह भी प्रावधान है कि यदि किसी अन्य रूप में संपन्न विवाह इस अधिनियम की अपेक्षाओं के अनुरुप है, तो उसे विशेष विवाह अधिनियम के अधीन पंजीकृत किया जा सकता है।
  • हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 को अधिनियमित करके हिन्दुओं में प्रचलित विवाह रीति को संहिताबद्ध करने का प्रयास किया गया है। हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 का विस्तार जम्मू और कश्मीर राज्य के सिवाय संपूर्ण भारत में है और यह उन हिन्दुओं पर भी लागू होता है जो उन राज्य क्षेत्रों में निवास करते हैं, जिन तक अधिनियम का विस्तार है, किन्तु उक्त राज्य क्षेत्रों के बाहर हैं।
  • इसके अतिरिक्त यह उन सब धर्मों तथा संप्रदायों के हिन्दुओं पर भी लागू होता है जो बौद्ध, सिख तथा जैन हैं। इनमें वे सब शामिल हैं, जो अपने आपको मुस्लिम, ईसाई, पारसी, यहूदी नहीं मानते, किंतु यह अधिनियम तब तक अनुसूचित जनजातियों के लोगों पर लागू नहीं होता, जब तक कि सरकार निर्देश न दे।
  • विवाह-विच्छेद संबंधी उपबंध हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 में और विशेष विवाह अधिनियम की धारा 27 में दिए गए हैं। इन अधिनियमों के अधीन पति या पत्नी द्वारा जिन सामान्य आचारों पर विवाह-विच्छेद की मांग की जा सकती है, वे इन प्रमुख शीर्षों के अंतर्गत आते हैं; जारकर्म, परित्याग, क्रूरता, विकृत चित्त रति रोग, कुष्ठ रोग, परस्पर सहमति और सात वर्ष से जीवित न सुना जाना।
  • जहां तक ईसाई समुदाय का संबंध है विवाह और विवाह-विच्छेद संबंधी उपबंध भारतीय क्रिश्चियन विवाह अधिनियम, 1872 और भारतीय विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1869 में दिए गए हैं
  • ईसाई समुदाय पर लागू विवाह-विच्छेद संबंधी उपबंध भारतीय विवाह विच्छेद अधिनियम की धारा 10 में दिए गए हैं। इस धारा के अनुसार, कोई पति इस आधार पर विवाह-विच्छेद की मांग कर सकता है कि पत्नी जारकर्म की दोषी है, किन्तु पत्नी इस आधार पर विवाह-विच्छेद की मांग कर सकती है कि उसका पति धर्म परिवर्तन करके दूसरे धर्म को मानने लगा है और उसने दूसरी  स्त्राी से विवाह कर लिया है या वह
    • सगोत्रा जारकर्म,
    • जारकर्म सहित द्विविवाह,
    • जारकर्म सहित किसी अन्य स्त्राी से विवाह,
    • बलात्कार, गुदामैथुन या पशुगमन,
    • जारकर्म से युक्त ऐसी क्रूरता जो जारकर्म के बिना भी उसे विवाह-विच्छेद के लिए हकदार बना देती है- ‘ए मेन्सा एट्टोरो’ (यह रोमन चर्च द्वारा बनाई गई विवाह-विच्छेद 
      की एक ऐसी पद्धति है जो जारकर्म, दोषपूर्ण आचरण, क्रूरता, धर्मद्रोह, धर्म-विमुखता के आधारों पर न्यायिक पृथक्करण के समकक्ष है) और
  • दो वर्ष या इससे अधिक समय से युक्ति-संगत कारण के बिना परित्याग सहित जारकर्म का दोषी है।
    • जहां तक मुसलमानों का संबंध है, उनके विवाह के बारे में प्रचलित मुस्लिम कानून लागू होता है। जहां तक तलाक (विवाह-विच्छेद) का संबंध है, मुस्लिम पत्नी को विवाह-विच्छेद के बहुत प्रतिबंधित अधिकार प्राप्त हैं। 
    • अलिखित और पारस्परिक कानूनों में निम्नलिखित रूपों में तलाक की मांग करने की इजाजत देकर उनकी स्थिति को बेहतर बनाने का प्रयास किया है-

(क) तलाक-ए ताफविद: यह प्रत्यायोजित तलाक का एक रूप है। इसके अनुसार पति विवाह संविदा में तलाक के अपने अधिकार को प्रत्यायोजित कर देता है। उस संविदा में अन्य बातों के साथ-साथ यह अनुबंध किया जा सकता है कि उसके द्वारा कोई दूसरी पत्नी ले आने पर प्रथम पत्नी को उससे तलाक लेने का अधिकार होगा

(ख) खुलाः यह विवाह के दोनों पक्षों में हुए करार के अनुसार विच्छेद है, जिसके लिए पत्नी को विवाह आदि के बंधन से मुक्त होने के लिए पति को कुछ प्रतिफल देना पड़ता है,उसकी शर्त आपस में तय कर ली जाती है और प्रायः पत्नी को अपना मोहर या उसका एक हिस्सा छोड़ना पड़ता है, और
(ग) मुवर्रतः यह आपसी सहमति द्वारा तलाक है। 

  • मुस्लिम विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1939 द्वारा मुस्लिम पत्नी  को निम्नलिखित आधारों पर तलाक का अधिकार दिया गया-
    (1) चार वर्ष से पति का कोई पता न हो,
    (2) पति दो वर्ष से उसका भरण-पोषण नहीं कर रहा हो,
    (3) पति को सात वर्ष या उससे अधिक का कारावास दे दिया गया हो,
    (4) किसी समुचित कारण के बिना तीन वर्ष से पति अपने वैवाहिक दायित्वों का निर्वाह न कर रहा हो,
    (5) पति नपुंसक हो,
    (6) दो वर्ष से पागल हो गया हो,
    (7) कुष्ठ रोग या उग्र रति रोग से पीड़ित हो,
    (8) अगर शादी, पत्नी की आयु 15 वर्ष की होने से पहले हो चुकी हो और वह पूर्णता तक न पहुंची हो, और
    (9) क्रूर बर्ताव रहा हो।
  • पारसियों के वैवाहिक संबंध, पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 के अनुसार होते हैं। अधिनियम में पारसी शब्द की परिभाषा जरथुस्टपंथी के रूप में की गई है। जरथुस्टपंथी वह होता है जो पारसी धर्म को मानता है। पारसी शब्द नस्ल का द्योतक है। इस अधिनियम के अंतर्गत प्रत्येक विवाह और विवाह-विच्छेद को अधिनियम में निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार पंजीकृत कराना आवश्यक है, लेकिन इस प्रक्रिया का पालन न करने से विवाह गैर-कानूनी नहीं होता।
  • अधिनियम में केवल एक विवाह की व्यवस्था है। पारसी विवाह और तलाक (संशोधन) अधिनियम, 1988 (1988 का 5वां) के अंतर्गत पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 के कुछ प्रावधानों का विस्तार कर उन्हें हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के समरूप बना दिया गया है।
  • जहां तक यहूदियों के विवाह-विषयक नियमों का संबंध है, भारत में इसकी कोई संहिताबद्ध विधि नहीं है। आज भी वे अपने धार्मिक नियमों के अनुसार चलते हैं। यहूदी लोग विवाह को सिविल संविदा न मानकर दो व्यक्तियों के बीच ऐसा संबंध मानते हैं, जिसमें अत्यंत पवित्रा कर्तव्यों का पालन करना होता है। उनमें पर-पुरुष या पर-स्त्राीगमन अथवा क्रूर बर्ताव किए जाने पर न्यायालय के माध्यम से तलाक दिया जा सकता है। उसमें भी एक विवाह का ही प्रचलन है।
  • जहां तक अल्पसंख्यक वर्ग के व्यक्तिगत कानूनों का संबंध है, सरकार की नीति यह रही है कि इन समुदायों के पहल करने पर ही उनमें सुधार किए जाएं।


बाल विवाह

  • सन् 1929 के विवाह अवरोध अधिनियम में 1978 में संशोधन करके विवाह के लिए पुरुष की न्यूनतम आयु 21 वर्ष और स्त्राी की न्यूनतम आयु 18 वर्ष निर्धारित की गई है। यह कानून देश के सभी लोगों पर लागू है और इसका उल्लंघन दंडनीय अपराध है। बाल विवाह के लिए जिम्मेदार 18 वर्ष से अधिक आयु के लड़के और ऐसा विवाह संपन्न कराने वाले व्यक्तियों के लिए दंड की व्यवस्था है। किन्तु इससे विवाह की वैधता पर कोई असर नहीं पडे़गा।

दत्तक ग्रहण

  • यद्यपि गोद लेने का कोई सामान्य कानून नहीं है, फिर भी हिन्दुओं में कानून द्वारा तथा कुछ अत्यंत अल्पसंख्यक लोगों में प्रथा द्वारा इसकी इजाजत दी गई। चूंकि बच्चे का दत्तक ग्रहण एक कानूनी संबंध है, अतः यह निजी कानूनों का विषय है।
  • मुस्लिम, ईसाई और पारसी कानूनों में कोई दत्तक ग्रहण  विधि नहीं है। उन्हें इसके लिए संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के तहत अदालत से सम्पर्क करना पड़ता है।
  • मुसलमान, ईसाई और पारसी उक्त अधिनियम के अधीन पालन-पोषण के लिए किसी बच्चे को गोद ले सकते हैं। इस प्रकार गोद लिए गए बच्चे को व्यस्क हो जाने पर अपने सभी संबंधों को तोड़ने का अधिकार है। इसके अतिरिक्त ऐसे बच्चे को विरासत या कानूनी अधिकार प्राप्त नहीं हैं।
  • जो विदेशी भारतीय बच्चों को गोद लेना चाहते हैं, उन्हें उपर्युक्तअधिनियम के अधीन न्यायालय में आवेदन करना होता है। यदि न्यायालय बालक को देश के बाहर ले जाने की अनुमति देता है, तो उसे विदेशी विधि (यानि संरक्षक पर लागू विधि) के  अनुसार दत्तक ग्रहण देश के बाहर होता है।
  • दत्तक ग्रहण संबंधी हिन्दू विधि को हिन्दू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 के रूप में संशोधित और संहिताबद्ध किया गया है, जिसके अंतर्गत सामथ्र्यवान हिन्दू पुरुष या स्त्राी किसी लड़के या लड़की को गोद ले सकता है।

संरक्षता

  • कौटुंबिक कानून के अन्य पहलुओं की भांति किसी अवयस्क बालक की संरक्षकता के प्रश्न के संबंध में कोई एक कानून नहीं है। इसके लिए तीन विभिन्न विधि पद्धतियां प्रचलित हैं- हिन्दू विधि, मुस्लिम विधि और संरक्षक तथा प्रतिपालन अधिनियम, 1890।
  • संरक्षक तीन प्रकार का हो सकता हैः नैसर्गिक संरक्षक, वसीयती संरक्षक और न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक। संरक्षकता के प्रश्न का निश्चय करने के लिए दो भिन्न बातें ध्यान में रखनी होती हैं- अवयस्क का संरक्षक और उसकी संपत्ति का संरक्षक। प्रायः ये दोनों चीजें एक ही व्यक्ति को नहीं सौंपी जाती।
  • अल्पवयस्कता और संरक्षकता से संबद्ध हिन्दू विधियों को हिन्दू अल्पवयस्क और संरक्षकता अधिनियम, 1956 द्वारा संहिताबद्ध किया गया है। असंहिताबद्ध विधि की तरह इसमें भी पिता के श्रेष्ठ अधिकार को कायम रखा गया है। इसमें कहा गया है कि बालक 18 वर्ष की आयु तक अवयस्क रहता है। लड़कों और अविवाहित पुत्रियों, दोनों का नैसर्गिक संरक्षक पहले पिता है और इसके बाद माता।
  • पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की संरक्षकता के मामले में ही मां के अधिकार को प्रधानता दी जाती है। अवैध बच्चों के मामले में, मां को पिता से बेहतर अधिकार प्राप्त है। अधिनियम के अनुसार बच्चे के शरीर और उसकी संपत्ति में कोई अंतर नहीं रखा गया है। अतः संरक्षकता का अभिप्राय दोनों पर नियंत्राण रखना है। अधिनियम के निर्देशानुसार संरक्षकता के प्रश्न का निश्चय करते समय न्यायालय को बच्चे के हित को सर्वोपरि स्थान देना चाहिए।
  • मुस्लिम विधि में पिता को प्रधानता दी गई है। इसके अंतर्गत संरक्षकता और अभिरक्षा में भी अंतर किया गया है। संरक्षकता का संबंध प्रायः संपत्ति की संरक्षता से होता है। सुन्नियों के अनुसार यह अधिकार पहले पिता का है और उसकी अनुपस्थिति में उसके नष्पादक (एक्जीक्यूटर) का है। यदि पिता ने कोई निष्पादक नियुक्त नहीं किया है, तो संरक्षकता का अधिकार दादा को मिलता है।
  • शियाओं में एक अंतर यह है कि पिता को एकमात्रा संरक्षक माना जाता है, किन्तु उसके मरने पर यह अधिकार दादा का होता है, न कि निष्पादक का। फिर भी, दोनों विचारधाराओं के विद्वान इस बात से सहमत हैं कि जीवित रहने पर पिता ही एकमात्रा संरक्षक है। मां को पिता के मरने के बाद भी नैसर्गिक संरक्षक नहीं माना जाता।
  • जहां तक नैसर्गिक संरक्षक के अधिकारों का संबंध है, इसमें कोई संदेह नहीं है कि पिता का अधिकार संपत्ति और शरीर, दोनों पर होता है। यदि अवयस्क बालक मां की अभिरक्षा में है, तो भी देखभाल और नियंत्राक का सामान्य अधिकार पिता को प्राप्त होता है। फिर भी पिता-मां को एक संरक्षक के रूप में नियुक्त कर सकता है। इस प्रकार भले ही मां को नैसर्गिक संरक्षक के रूप में मान्यता प्राप्त न हो, फिर भी पिता की वसीयत के अंतर्गत उसके संरक्षक नियुक्त किए जाने के बारे में कोई आपत्ति नहीं है।
  • मुस्लिम विधि के अनुसार, अवयस्क बालक (हिज़ानत) की अभिरक्षा का मां का अधिकार एक पूर्ण अधिकार है, पिता भी उसे इससे वंचित नहीं कर सकता। अनाचार के आधार पर ही मां इस अधिकार से वंचित की जा सकती है।
  • किस आयु में मां का अभिरक्षा का अधिकार समाप्त हो जाता है, इसके बारे में शिया संप्रदाय का मत है कि ‘हिज़ानत’ पर मां का अधिकार केवल स्तनपान छुड़ाने की अवधि तक होता है, जो बच्चे की दो वर्ष की आयु होने पर समाप्त हो जाता है।
  • ‘हनफी’ विचारधारा के अनुसार यह अधिकार बालक के सात वर्ष के होने तक रहता है। लड़कियों के बारे में शिया विधि के अनुसार, मां का अधिकार तब तक रहता है, जब तक लड़की सात वर्ष की न हो जाए और ‘हनफी’ विचारधारा के अनुसार यह अधिकार लड़की की किशोरावस्था आरंभ होने तक रहता है। 
  • संरक्षक और प्रतिपालक अधिनियम, 1890 सभी समुदायों पर लागू होता है। इसमें स्पष्ट कर दिया गया है कि पिता का अधिकार प्रधान है और अन्य कोई व्यक्ति तब तक नियुक्त नहीं किया जा सकता जब तक कि पिता अयोग्य न पाया जाए। अधिनियम में यह भी व्यवस्था है कि न्यायालय को अधिनियम के अनुसार संरक्षक नियुक्त करते समय बच्चे की भलाई ध्यान में रखनी चाहिए।

 

भरण-पोषण

  • पत्नी का भरण-पोषण करने की पति की जिम्मेदारी विवाह से उत्पन्न होती है। भरण-पोषण का अधिकार व्यक्तिगत विधि में आता है।
  • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अनुसार भरण-पोषण का अधिकार पत्नी को और आश्रित बालकों को ही नहीं दिया गया है, अपितु निर्धन माता-पिता और तलाकशुदा पत्नियों को भी दिया गया है। परंतु पत्नी आदि का दावा पति के पास पर्याप्त साधन होने पर निर्भर करता है।
  • सभी आश्रित व्यक्तियों के भरण-पोषण का दावा 500 रुपये प्रतिमाह तक सीमित रखा गया है। दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत भरण-पोषण के अधिकार को शामिल करने से यह एक बहुत बड़ा लाभ हुआ है कि उपचार शीघ्र और सस्ता हो गया है, किन्तु वे तलाकशुदा पत्नियां, जिन्होंने रूढ़िजन्य या व्यक्तिगत विधि के अंतर्गत मिलने वाली धनराशि प्राप्त की है, दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत भरण-पोषण का दावा करने की हकदार नहीं हैं।
  • हिन्दू विधि के अनुसार, पत्नी को अपने पति से भरण-पोषण प्राप्त करने का पूर्ण अधिकार है, किन्तु यदि वह पतिव्रता नहीं रहती है, तो वह अपने इस अधिकार से वंचित हो जाती है। भरण-पोषण का उसका अधिकार हिन्दू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 में संहिताबद्ध है।
  • भरण-पोषण की रकम निर्धारित करने में न्यायालय अनेक बातों को ध्यान में रखता है, जैसे दोनों पक्षों की स्थिति और हैसियत, दावेदार की उचित जरूरतें और पति की देनदारी तथा दायित्व। न्यायालय इस बात का भी निर्णय करता है कि पत्नी का पति से पृथक रहना न्यायसंगत है या नहीं। न्यायसंगत मानने योग्य कारण अधिनियम में उल्लिखित हैं।
  • मुकदमा चलाने की अवधि के दौरान भरण-पोषण, निर्वाह-व्यय और विवाह संबंधी मुकदमे का खर्च भी या तो पति द्वारा वहन किया जाएगा या पत्नी द्वारा, यदि दूसरे पक्ष (पति या पत्नी) की अपने भरण-पोषण के लिए कोई स्वतंत्रा आय नहीं है। स्थायी भरण-पोषण के भुगतान के बारे में भी यही सिद्धांत लागू होगा।
  • तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के हितों के संरक्षण तथा तलाक संबंधी बातों के लिए मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 में भी यह प्रावधान है। इस अधिनियम के तहत मुस्लिम महिलाओं को दूसरी चीजों के अलावा, ये अधिकार प्राप्त हैंः

(क) ‘इद्दत’ के दौरान पूर्व पति द्वारा उचित और न्यायसंगत खाद्य-सामग्री और निर्वाह-भत्ता दिया जाएगा,
(ख) यदि तलाक के पहले या बाद में हुए बच्चे का भरण-पोषण तलाकशुदा महिला खुद करती है, तो उसके पूर्व पति द्वारा उसे उचित न्यायसंगत खाद्य-सामग्री और निर्वाह-भत्ता हर बच्चे के बाद दो साल तक मिलेगा,
(ग) ‘मोहर’ या ‘डावर’ (पति की मृत्यु पर पत्नी को मिलने वाला हिस्सा), जो भी विवाह के अवसर पर या बाद में मुस्लिम विधि के अनुसार पत्नी को देना तय हुआ हो, वह तलाकशुदा महिला को मिलेगा, और 
(घ) विवाह से पहले, विवाह के वक्त या बाद में उसे उसके मित्रों या रिश्तेदारों, पति या उसके मित्रों और रिश्तेदारों से मिली सभी संपत्तियां भी तलाकशुदा महिला को प्राप्त होंगी।

  • इसके अलावा यह कानून इद्दत के बाद खुद का भरण-पोषण न कर सकने वाली तलाकशुदा मुस्लिम महिला के लिए भी प्रावधान करता है। इसके अनुसार मजिस्ट्रेट ऐसी महिला की संपत्ति के वारिसों को उचित और न्यायसंगत निर्वाह-भत्ता, जो उसे ठीक लगे, देने के आदेश दे सकता है। ऐसे आदेश देते वक्त मजिस्टेªट महिला की जरूरतों, उसके विवाहित जीवन स्तर और वारिसों की आय को ध्यान में रखेगा। यह निर्वाह-भत्ता वारिसों द्वारा उसी अनुपात में दिया जाएगा, जिस अनुपात में वे उस महिला की संपत्ति के उत्तराधिकारी बनेंगे तथा ये उस काल में निर्वाह-भत्ता देंगे जैसे कि मजिस्ट्रेट ने आदेश में कहा होगा।
  • अगर इस महिला के बच्चे हैं तो मजिस्ट्रेट सिर्फ उन बच्चों को ही निर्वाह-भत्ता  देने को कहेगा, लेकिन बच्चों के भत्ता देने की असमर्थता की दशा में वह तलाकशुदा महिला के माता-पिता को निर्वाह-भत्ता देने का आदेश देगा। यदि महिला के रिश्तेदार न हों या वे इस महिला के भरण-पोषण में असमर्थ हों, तो उस हालत में मजिस्ट्रेट वक्फ अधिनियम, 1954 की धारा 9 के तहत बनाए गए उस राज्य के वक्क बोर्ड की, जो इस महिला के निवास स्थान के क्षेत्रा में कार्यरत हो, इस तलाकशुदा महिला को उचित निर्वाह-भत्ता देने का आदेश देगा।
  •  पारसी विवाह और विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1936 भरण-पोषण के लिए केवल पत्नी के अधिकार मुकदमें के दौरान निर्वाह-व्यय एवं स्थायी निर्वाह-व्यय, दोनों को मान्यता देता है। जिस अवधि के दौरान विवाह विषयक वाद न्यायालय में चलता है, उसके लिए न्यायालय अधिकतम रकम, पति की शुद्ध आय का पांचवां भाग, पत्नी को दिला सकता है। स्थायी भरण-पोषण की राशि तय करने में न्यायसंगत भुगतान करने की पति की क्षमता, पत्नी की अपनी धन-संपत्ति और दोनों पक्षों के आचरण को ध्यान में रखते हुए निर्णय करेगा कि न्यायसंगत क्या है? यह आदेश तब तक प्रभावी रहेगा, जब तक पत्नी पतिव्रता और अविवाहित रहेगी।
  • ईसाई पत्नी के भरण-पोषण के अधिकारों के बारे में भारतीय विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1869 लागू होता है। इसके उपबंध भी वही हैं, जो पारसी विधि के अंतर्गत हैं और भरण-पोषण, वादकालीन निर्वाह-व्यय एवं स्थायी निर्वाह-व्यय, दोनों को मंजूर करते समय वही बातें लागू की जाती हैं।

उत्तराधिकार

  • 1925 में भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम पारित किया गया। इस अधिनियम का उद्देश्य उन अनेक विधियों को समन्वित करना था, जो उस समय अस्तित्व में थीं। मुसलमानों और हिन्दुओं के उत्तराधिकार के विषय में लागू होने वाले कानूनों को इस अधिनियम से अलग रखा गया। उत्तराधिकार संबंधी कानूनों को समन्वित करते समय दो स्पष्ट योजनाओं को अपनाया गया- प्रथम, भारतीय ईसाइयों, यहूदियों और विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के अधीन विवाहित व्यक्तियों के संपत्ति उत्तराधिकारी के बारे में और दूसरे पारसियों के उत्तराधिकार संबंधी अधिकारों के बारे में।
  • प्रथम योजना में, यानि उन व्यक्तियों के संदर्भ में, जो पारसी नहीं थे, प्रावधान था कि यदि किसी व्यक्ति की बिना वसीयत लिखे मृत्यु हो जाए और उसकी विधवा और पारंपरिक वंशज जीवित हों, तो विधवा एक तिहाई संपत्ति के नियत हिस्से की हकदार होगी और शेष उत्तराधिकारी बचे हुए दो-तिहाई हिस्से के हकदार होंगे। बाद में विधवा के अधिकारों को बेहतर बनाने की दृष्टि से इन विधि में संशोधन किया गया और उसमें यह प्रावधान किया गया कि जहां किसी निर्वसीयती की मृत्यु हो जाए और उसकी विधवा जीवित हो तथा कोई पारंपरिक वंशज न हो, तथा संपत्ति का शुद्ध मूल्य 5,000 रुपए से अधिक न हो, वह संपूर्ण संपत्ति की हकदार होगी। 
  • जहां संपत्ति का मूल्य 5,000 रुपए से अधिक है, वहां वह भुगतान चार प्रतिशत की दर पर ब्याज सहित 5,000 रुपये की राशि के लिए हकदार होगी और शेष में वह अपने निर्वसीयत हिस्से की हकदार है। यह अधिनियम किसी व्यक्ति पर अपनी संपत्ति की वसीयत करने के मामले में कोई प्रतिबंध नहीं लगाता।
  • द्वितीय योजना के अंतर्गत, अधिनियम में पारसी निर्वसीयती उत्तराधिकार के लिए प्रावधान है। भारतीय उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 1991 के द्वारा उक्त अधिनियम को इस तरह संशोधित किया गया है ताकि पुत्रों और पुत्रियों, दोनों को अपने पिता की अथवा अपनी माता की संपत्तियों में बराबर हिस्सा मिले।
  • इसमें यह भी प्रावधान है कि पारसी अपनी संपत्ति धार्मिक अथवा दान संबंधी कार्यों के लिए भी दे सकते हैं। इसमें कोई बंधन नहीं है। इस कानून के अनुसार जब कोई पारसी अपने पीछे विधवा अथवा विधुर तथा बच्चे छोड़कर मर जाता है, तो संपत्ति इस तरह बांटी जाएगी ताकि विधवा अथवा विधुर तथा प्रत्येक बच्चे को बराबर का हिस्सा मिले।
  • इसके अलावा यदि कोई पारसी अपने बच्चों अथवा विधवा अथवा विधुर के अलावा अपने पीछे माता अथवा पिता या दोनों को छोड़कर मर जाता है, तो माता अथवा पिता अथवा दोनों में से प्रत्येक को प्रत्येक बच्चे के हिस्से के आधे के बराबर हिस्सा मिलेगा।
  • हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की उल्लेखनीय विशेषताएं हैं- निर्वसीयती की संपत्ति की विरासत पाने में पुरुषों के समान स्त्रिायों के अधिकार को भी मान्यता और स्त्राी-वारिसों की जीवनपर्यन्त संपत्ति की समाप्ति।
  • भारत के अधिकांश मुसलमान सुन्नी विधि के ‘हनफी’ सिद्धांतों का पालन करते हैं और न्यायालय यह मानकर काम करते हैं कि मुसलमानों पर ‘हनफी’ विधि लागू होती है, जब तक कि इसके प्रतिकूल सिद्ध न किया जाए। यद्यपि शिया और सुन्नी संप्रदायों में बहुत-सी बातें एक-सी हैं, फिर भी कुछ बातें भिन्न हैं। सुन्नी विधि के अनुसार, विरासत संबंधी कुरान के पद, पूर्व-इस्लामी पारंपरिक कानून के परिशिष्ट माने जाते हैं और उसमें पुरुषों की श्रेष्ठ स्थिति को बनाए रखा गया है।
  • हिन्दू और ईसाई विधि से अलग मुस्लिम विधि व्यक्ति के वसीयत करने के अधिकार को प्रतिबंधित करती है। मुसलमान अपनी संपत्ति के केवल एक-तिहाई की वसीयत कर सकता है। यदि कोई वसीयत एक-तिहाई संपत्ति से अधिक नहीं है, तो वारिसों की सहमति के बिना भी किसी अजनबी व्यक्ति के लिए की गई वसीयत विधिमान्य होगी, किन्तु वारिसों की सहमति के बिना किसी एक वारिस के लिए की गई वसीयत विधिमान्य नहीं होगी। उत्तराधिकार आरंभ होने पर वसीयत के वारिसों की सहमति प्राप्त करनी होगी। वसीयतकर्ता के जीवन-काल में दी गई सहमति उसकी मृत्यु के बाद वापस ली जा सकती है। शिया कानून मुसलमानों को एक-तिहाई संपत्ति के वसीयत करने की छूट देता है।
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FAQs on निजी कानून - भारतीय राजव्यवस्था - भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi

1. निजी कानून क्या है?
उत्तर: निजी कानून भारतीय राजव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण अवधारणा है जो निजी व्यक्तियों और संगठनों को उनके यथार्थित अधिकारों की सुरक्षा प्रदान करती है। यह कानूनी और संवैधानिक अधिकारों के साथ-साथ व्यक्तिगत, वाणिज्यिक, और सामाजिक मामलों पर प्रभाव डालता है।
2. भारतीय राजव्यवस्था में निजी कानून की प्रमुख विशेषताएं क्या हैं?
उत्तर: भारतीय राजव्यवस्था में निजी कानून की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं: - यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अधिकारों की सुरक्षा प्रदान करता है। - यह निजी संपत्ति की सुरक्षा और संरक्षण के लिए जिम्मेदार होता है। - इसके अंतर्गत व्यापारिक संबंधों और अनुबंधों को व्यवस्थित करने का आदेश होता है। - यह निजी संगठनों को स्थापित करने और चलाने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है। - इसके द्वारा सामाजिक और न्यायिक विवादों का समाधान किया जाता है।
3. निजी कानून को किस प्रकार लागू किया जाता है?
उत्तर: निजी कानून को भारतीय राजव्यवस्था में लागू करने के लिए व्यक्तियों और संगठनों को इसे मान्यता प्राप्त करनी होती है। यह कानूनी और संवैधानिक तत्वों के अनुसार निजी अधिकारों के साथ-साथ व्यक्तिगत और वाणिज्यिक मामलों पर प्रभाव डालता है।
4. निजी कानून क्यों महत्वपूर्ण है?
उत्तर: निजी कानून भारतीय राजव्यवस्था में महत्वपूर्ण है क्योंकि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अधिकारों की सुरक्षा के लिए जरूरी है। इसके माध्यम से व्यक्तियों को उनके यथार्थित अधिकारों की प्राप्ति होती है और व्यापार, संगठन, और संपत्ति की सुरक्षा के लिए निर्देश और प्रोत्साहन मिलता है। यह सामाजिक, न्यायिक, और व्यवसायिक मामलों को व्यवस्थित करने में मदद करता है और न्यायिक विवादों का समाधान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
5. यूपीएससी क्या है और क्या उसका संबंध निजी कानून से है?
उत्तर: यूपीएससी (UPSC) भारतीय संघ लोक सेवा आयोग है जो भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय विदेश सेवा, भारतीय पुलिस सेवा, और अन्य केंद्रीय संघीय सेवाओं के लिए संयुक्त प्रतियोगी परीक्षाएं आयोजित करता है। निजी कानून इन परीक्षाओं के सिलेबस में शामिल होता है और छात्रों को निजी कानून और उसके प्रमुख विषयों के बारे में ज्ञान प्रदान करता है।
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