भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चित्राकला की अपनी अलग- अलग शैलियां है। देश में चित्राकला की प्रम ख शैलियां इस प्रकार है -
राजपूत शैली - चित्राकला की यह शैली काफी प्राचीन प्रतीत होती है किन्त इसका वास्तविक स्वरूप 15वीं शताब्दी के बाद प्राप्त होता है। यह वास्तव में राजदरबारों से प्रभावित शैली है जिसके विकास में कन्नौज, ब न्देलखण्ड तथा चन्देल राजाओं का सराहनीय योगदान रहा है। यह शैली विश द्ध हिन्दू परम्पराओं पर आधारित है। इस शैली में रागमाला से सम्बन्धित चित्रा काफी महत्त्वपूर्ण है। इस शैली का विकास कई शाखाओं के रूप में ह आ है जिनका विवरण निम्नलिखित है -
बीकानेर शैली - मारवाड़ शैली से सम्बन्धित बीकानेर शैली का सर्वाधिक विकास अनूप सिंह के शासन काल में हआ। राम लाल, अली रजा, हसन रजा, र कन द्दीन आदि इस शैली के प्रम ख कलाकार थे। इस शैली पर पंजाबी शैली का भी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। यहाँ के शासकों की निय क्ति दक्षिण में होने के कारण इस शैली पर दक्खिनी शैली का भी प्रभाव पड़ा है। इस शैली की सबसे प्रम ख विशेषता है म स्लिम कलाकारों द्वारा हिन्दू धर्म से सम्बन्धित एवं पौराणिक विषयों पर चित्रांकन करना।
जयप र शैली - जयप र शैली का य ग 1600 से 1900 तक माना जाता है। इस शैली के अनेक चित्रा शेखावटी में 18वीं शताब्दी के मध्य व उत्तरार्द्ध में भित्ति चित्रों के रूप में बने है। इसके अतिरिक्त सीकर, नवलगढ़, रामगढ़, मकन्दगढ़, झुंझुनू इत्यादि स्थानों पर भी इस शैली के भित्ति चित्रा प्राप्त होते है।
मालवा शैलीः मालवा शैली की चित्राकला में वास्त शिल्पीय दृश्यों की ओर झ काव, सावधानीपूर्वक तैयार की गयी सपाट किन्त स व्यवस्थित संरचना, श्रेष्ठ प्रारूपण, शोभा हेत प्राकृतिक दृश्यों का सृजन तथा रूपों को उभारने के लिए एक रंग के धब्बों का स नियोजित उपयोग दर्शनीय है।
मेवाड़ शैली - मेवाड़ शैली राजस्थानी चित्राकला की धरोहर है। शैली का प्रारंभिक इतिहास वर्तमान समय में एक पहेली बना हआ है। इतिहासवेत्ता तारकनाथ ने 7वीं शताब्दी में मारवाड़ के प्रसिद्ध चित्राकार श्रीरंगधर को इसका संस्थापक माना है लेकिन उनके तत्कालीन चित्रा उपलब्ध नहीं हैं। ‘रागमाला’ के चित्रा 16वीं शताब्दी में महाराणा प्रताप की राजधानी चावण्ड में बनाये गये जिसमें लोक कला का प्रभाव तथा मेवाड़ शैली के स्वरूप चित्रित है। ‘रागमाला’ चित्रावली दिल्ली के संग्रहालय में है।
बूंदी शैली - बूंदी शैली का विकास कोटा, बूंदी और झालवाड़ में ह आ। 17वीं शताब्दी के प्रारम्भ में यह मेवाड़ शैली की ही एक स्वतन्त्रा शाखा के रूप में विकसित ह ई।
नाथ द्वारा शैली - 1671 में ब्रज से श्रीनाथजी की मूर्ति के नाथ द्वारा लाये जाने के पश्चात् ब्रजवासी चित्राकारों द्वारा मेवाड़ में ही चित्राकला की स्वतन्त्रा नाथ द्वारा शैली का विकास किया गया। इस शैली में बने चित्रों में श्रीनाथजी की प्राकट्य छवियों, आचार्यों के दैनिक जीवन सम्बन्धी विषयों तथा कृष्ण की विविध लीलाओं को दर्शाया गया है।
अलवर चित्राकला शैली - इस शैली की स्थापना 1775 में अलवर के राजा प्रताप सिंह ने की थी। इस शैली के चित्रांे में म गलकालीन चित्रों जैसा बारीक काम, परदों पर ध एं के समान छाया तथा रेखाओं की स दृढ़ता दर्शनीय है।
किशनगढ़ शैली - किशनगढ़ शैली राजस्थान की एक उन्नत शैली रही है। इस शैली के प्रम ख कलाकार अमीरचन्द, छोटू, भवानीदास, निहालचन्द, सीताराम आदि है। यह शैली दरबार तक सीमित रही फिर भी अनेक विषयों का चित्राण हआ, जैसे - राधा-कृष्ण की प्रणयलीला, नायिका-भेद, गीतगोविन्द, भागवतपुराण, बिहार चन्द्रिका आदि।
जैन शैली - 7वीं से 12वीं शताब्दी तक सम्पूर्ण भारत को प्रभावित करने वाली शैलियों में जैन शैली का प्रमुख स्थान है। इस शैली का प्रथम प्रमाण सितनवासल की गुफा में बनी उन पांच जैनमूर्तियों से प्राप्त होता है जो 7वीं शताब्दी के पल्लव नरेश महेन्द्र वर्मन के शासनकाल में बनी थीं। भारतीय चित्राकलाओं में कागज पर की गई चित्राकारी के कारण इसका प्रथम स्थान है। इस कला शैली में जैन तीर्थंकरों - पाश्र्वनाथ, नेमिनाथ, ऋषभनाथ, महावीर स्वामी आदि के चित्रा सर्वाधिक प्राचीन है।
सिक्ख शैली - इस शैली का विकास लाहौर स्टेट के राजा महाराज रणजीत सिंह के शासनकाल (1803.1839) में हुआ। इस शैली के विषयों का चयन पौराणिक महाकाव्यों से किया गया है जबकि इसका स्वरूप पूर्णतः भारतीय है। इस शैली में भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं से सम्बन्धित ‘रागमाला’ के चित्रों की प्रधानता है। कालान्तर में इस शैली पर मुगल शैली के हावी हो जाने से इसका प्रभाव क्षीण होता गया।
जम्मू शैली - मुगल शैली से प्रभावित इस शैली का विकास जम्मू क्षेत्रा में हुआ क्योंकि नादिरशाह के द्वारा दिल्ली को पदाक्रान्त करने के पश्चात् दिल्ली दरबार के चित्राकारों ने भागकर पहाड़ी राजाओं के यहां शरण ली एवं नवीन शैली के चित्रों का निर्माण किया। इस शैली के संरक्षकों में जम्मू के राजा रणजीत देव का नाम सर्वोपरि है। इस शैली में बने हुए अधिकांश चित्रा दैनिक क्रिया-कलापों से सम्बन्धित है।
गढ़वाल शैली - इस शैली का विस्तार मध्यकाल के गढ़वाल राज्य (जम्मू एवं कश्मीर) में हुआ। गढ़वाल राज्य के नरेश पृथपाल शाह (1625.1660) के दरबार में रहने वाले दो चित्राकारों शामनाथ तथा हरदास ने इस शैली को जन्म दिया।
कांगड़ा शैली - भारतीय चित्राकला के इतिहास के मध्ययुग में विकसित पहाड़ी शैली के अन्तर्गत कांगड़ा शैली का विशेष स्थान है। इसका विकास कचोट राजवंश के राजा संसारचन्द्र के कार्यकाल में हुआ।
यह शैली दर्शनीय तथा रोमाण्टिक है। इसमें पौराणिक कथाओं और रीतिकालीन नायक-नायिकाओं के चित्रों की प्रधानता है तथा गौण रूप में व्यक्ति चित्रों को भी स्थान दिया गया है।
गुलेर शैली - चित्राकला की पहाड़ी शैली के अन्तर्गत विकसित गुलेर शैली के चित्रों का मुख्य विषय रामायण तथा महाभारत की घटनाएं रही है। इस शैली में इतना सशक्त एवं सजीव रेखांकन किया गया है कि मानव आकृतियों के अंग-प्रत्यंग अपनी स्वाभाविकता से दृष्टिगोचर होते है।
बसोहली शैली - चित्राकला की इस शैली का जन्म मुगल तथा पहाड़ी शैलियों के समन्वयन से हुआ है। यह शैली हिन्दू धर्म एवं परम्परा से अधिक प्रभावित रही और विष्णु एवं उनके दशावतारों का अधिक चित्राण किया गया।
गुजरात शैली - गुर्जर या गुजरात शैली के नाम से अभिहित की जाने वाली चित्राकला की इस शैली में पर्वत, नदी, सागर, पृथ्वी, अग्नि, बादल, क्षितिज, वृक्ष आदि विशेष रूप से बनाये गये है। इस शैली के चित्रों की प्राप्ति मारवाड़, अहमदाबाद, मालवा, जौनपुर, अवध, पंजाब, नेपाल, प. बंगाल, उड़ीसा तथा म्यान्मार तक होती है। जिससे सिद्ध होता है कि इसका प्रभाव क्षेत्रा काफी विस्तृत था। इसी शैली से राजपूत चित्राकला शैली का विकास हुआ है। इस शैली में ‘रागमाला’ के भी चित्रों का चित्रांकन किया गया है। मुगल सम्राट अकबर के समय के चित्रा भी इस शैली से प्रभावित है। इस कला शैली को प्रकाश में लाने का श्रेय डाॅ. आनन्द कुमार स्वामी (1924) को है।
पाल शैली - इस शैली का विकास पश्चिम बंगाल राज्य में नौवीं शताब्दी में धर्मपाल तथा देवपाल के शासनकाल में हुआ। दृष्टान्त शैली की प्रधानता वाली इस शैली ने तिब्बत तथा नेपाल की चित्राकला को भी प्रभावित किया है।
दक्कन शैली - इस शैली का प्रधान केन्द्र बीजापुर था परन्तु इसका विस्तार गोलकुण्डा एवं अहमदनगर राज्यों में भी था। ‘रागमाला’ के चित्रों का चित्रांकन इस शैली में विशेष रूप से किया गया है। इस शैली के महान संरक्षकों में बीजापुर के अली आदिल शाह तथा उसके उत्तराधिकारी इब्रााहिम शाह थे।
पटना या कम्पनी शैली - जनसामान्य के आम पहलुओं के चित्राण के लिए प्रसिद्ध पटना या कम्पनी चित्राकला शैली का विकास मुगल साम्राज्य के पतन के बाद हुआ जब चित्राकारों ने पटना एवं उसके समीपवर्ती क्षेत्रा को अपना कार्य-क्षेत्रा बनाया।
मधुबनी चित्राकलाः भारत की बहुचर्चित लोककलओं में मधुबनी चित्राकला का अपना अलग स्थान है। आज देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी इसकी ख्याति बढ़ती जा रही है। मधुबनी जिले का एक छोटा-सा गाँव जितवारपुर इस कला का प्रमुख केन्द्र है। इस शैली के चित्रों के विषय धार्मिक और लोक जीवन की कथाओं से जुड़ा हुआ है। इस शैली की प्रमुख विशेषताएं है -
(क) राम, कृष्ण, महादेव, काली आदि से जुड़े कथानक इस कला के केन्द्र में रहे हैं।
(ख) रंगों का चयन प्राकृतिक है फिर भी चित्रा काफी आकर्षक लगते है।
(ग) इस चित्राकला का चित्राण कपड़ों पर हाशिया के रूप में बढ़ रहा है।
(घ) तांत्रिक कला का भी प्रभाव है।
चित्राकला की मुगल एवं राजपूत शैली
मुगल और राजपूत शैली के चित्रों में कुछ समानता अवश्य है, जैसेकृव्यक्ति चित्रों पर बल, ऐतिहासिक चित्रों की बहुलता, धार्मिक एवं रात्रि चित्रों पर विशेष ध्यान। मगर दोनों शैलियों में काफी असमानताएं भी है, जो निम्नवत है -
(1) राजपूत शैली के चित्रों में भारतीय परिवेश, जन सामान्य एवं लोक चित्राण पर चित्रा बने है, जबकि मुगल चित्राकला पर इरानी व यूरोपीय बाह्य प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते है।
(2) राजपूत शैली के चित्रों में नारी को बहुरूपों में चित्रित किया गया है। मगर मुगल शैली में नारी की व्यापक पैमाने पर अवहेलना की गई है।
(3) राजपूत शैली के अन्तर्गत बेल-बूटेदार हाशियों का प्रयोग नहीं हुआ है। ठीक इसके विपरीत मुगल शैली में काफी सुन्दर ढंग से हाशियों का प्रयोग हुआ है।
(4) राजपूत शैली में पशु-पक्षियों के चित्रा प्रतीकात्मक है, परन्तु मुगल शैली में पशु-पक्षियों के चित्रा मनोरंजन के उद्देश्य से निर्मित हैं।
(5) राजपूत शैली के चित्रों को सामान्यतया एक ही चित्राकार पूर्ण कर देता था। मुगल शैली के चित्रों को आमतौर पर चार चित्राकार मिलकर पूर्ण करते थेे।
(6) एक तरफ राजपूत शैली के चित्रा जहां अपनी कला के माध्यम से पारलौकिकता का अहसास कराते है, वही दूसरी ओर मुगल शैली के चित्रा लौकिकता का एक सजीव उदाहरण है।
चित्राकला के प्रमुख उन्नायक
रवीन्द्रनाथ ठाकुर - कलकत्ता के टैगोर परिवार में जन्मे रवीन्द्रनाथ ने बिना किसी से निर्देश प्राप्त किए चित्राकला को नवीनता प्रदान करने का प्रयास किया। चित्राकला में पिकासो शैली का आधुनिकवाद भारतीय पृष्ठभूमि में लाने का प्रयास इन्हीं के द्वारा किया गया।
अवनीन्द्रनाथ ठाकुर - चित्राकला के महान व्यक्तित्व अवनीन्द्रनाथ ने कृष्ण लीला, शाहजहाँ का ताज को देखना, बुद्ध और सुजाता आदि के आकर्षक चित्रा बनाए।
नन्द लाल बोस - कलकत्ता में जन्मे माॅडर्न स्कूल आॅफ आट्र्स से सम्बन्धित प्रतिभाशाली चित्राकार। ‘उमा की तपस्या’, ‘घायल बकरी को ले जाते हुए भगवान बुद्ध’, ‘कृष्णार्जुन’,’ ‘नदी-पूजा’, ‘शिव-पार्वती एवं गोपिनी’ आदि उनकी अनुपम कृतियाँ हैं।
क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार - चित्राकला की महान हस्ती। इन्होंने आधुनिक आकृतियों को प्राचीन पौराणिक कथाओं के चरित्रों के रूप में प्रस्तुत किया है।
असित कुमार हल्दार - माॅडर्न स्कूल आॅफ आट्र्स से सम्बन्धित इस महान प्रतिभा ने कविता को चित्रा रूप से प्रस्तुत कर नवीनता का संचार किया।
अमृृता शेर गिल - देश की सबसे कम उम्र वाली चित्राकार जिनको 1934 में एशिया का सर्वोच्च चित्राकला जगत का सम्मान ‘ग्रैण्ड सैलान’ प्रदान किया गया। ‘स्वास्ति’, ‘एलीफैण्ट्स बाथिंग इन ग्रीन पूल’ एवं ‘हिल साइड’ उनकी अनुपम कृतियाँ है।
शारदा उकील - माॅडर्न स्कूल आॅफ आट्र्स से सम्बन्धित इस चित्राकार ने कल्पना प्रधान, भाव प्रधान ऐतिहासिक विषयों का चित्राण किया है। इसके अतिरिक्त इन्होंने स्त्री-पुरुष व प्राकृतिक दृश्यों के भी अनेक चित्रा बनाए।
मकबूल फिदा हुसैन - 1966 में बर्लिन में आयोजित फिल्म महोत्सव में ‘गोल्डेन बीयर’ पुरस्कार के विजेता। इन्होंने महाभारत एवं रामायण का चित्रांकन किया।
यामिनी राय - प. बंगाल में जन्मे एक ऐसे चित्राकार जिनकी चित्राकृतियों में बंगाल स्कूल आॅफ आट्र्स प्रभाव नगण्य है। इनके चित्रा सरल प्रकृति के तथा भावुकतापूर्ण हैं।
सतीश गुजराल - पाश्चात्य चित्राकला से प्रभावित चित्राकार जिन्होंने ‘कला चाँद’ जैसी प्रख्यात कलाकृति का निर्माण किया।
राजा रवि वर्मा - 19वीं शताब्दी के महान चित्राकार। ‘दुष्यन्त को प्रेम पत्रा लिखती हुई शकुन्तला’, ‘नायरलेडी’ के लिए इन्हें विश्वकला प्रदर्शनी में स्वर्ण प्रशस्ति-पत्रा प्रदान किया जा चुका है।
भवेश सान्याल - इनकी चित्राकला में कश्मीर एवं कांगड़ा की प्राकृतिक छटा का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखायी देता है। ‘गोल मार्केट के भिखारी’ तथा ‘आश्रयहीन लड़की’ इनकी प्रसिद्ध चित्राकृतियां है।
मुहम्मद अब्दुर्रह - मानकृइनकी चित्राकृतियों में पुरातन फारसी शैली एवं कांगड़ा शैली का प्रभाव प्रदर्शित होता है। ‘होली नृत्य’ इनकी प्रसिद्ध चित्राकृति है।
शोभा सिंह - कृतैल चित्रा निर्माण विशिष्टता प्राप्त आधुनिक चित्राकला की महान प्रतिभा। ‘हीर रांझा’ इनकी प्रसिद्ध चित्राकृति है।
प्रसिद्ध मन्दिर और उनकी शैलियाँ
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1. भारतीय चित्राकला क्या है? |
2. भारतीय चित्राकला का इतिहास क्या है? |
3. भारतीय चित्राकला के मुख्य प्रभावशाली कलाकार कौन हैं? |
4. भारतीय चित्राकला के प्रमुख शैलियों में से कौन-सी हैं? |
5. भारतीय चित्राकला की महत्वपूर्ण विशेषताएं क्या हैं? |
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