चारा घोटाले में फंसे बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्राी लालू प्रसाद यादव के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति देने के सिलसिले में राज्यपाल के विवेकाधिकार का मुद्दा राष्ट्रीय पटल पर छाया रहा। उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय (अंतुले प्रकरण) में कहा गया है कि राज्यपाल ऐसे मामलों में तथ्यों के आधार पर अपने विवेकानुसार निर्णय करेंगे। उनको मंत्रिमंडल की सलाह की कोई जरूरत नहीं।
यहां संविधान के अनुच्छेद-163 की दो धाराओं का उल्लेख प्रासंगिक होगा। अनुच्छेद-163 की धारा-1 के अनुसार, ‘जिन बातों में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने कृत्यों या उनमें से किसी को अपने विवेकानुसार करे, उन बातों को छोड़कर राज्यपाल को अपने कृत्यों का प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रधान मुख्यमंत्राी होगा।
अनुच्छेद-163 की धारा-2 कहती हैकृ यदि कोई प्रश्न उठता है कि कोई विषय ऐसा है या नहीं, जिसके संबंध में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने विवेकानुसार कार्य करे तो राज्यपाल का अपने विवेकानुसार किया गया निश्चय ‘अंतिम होगा और राज्यपाल द्वारा की गयी किसी बात की विधि मान्यता इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी कि उसे अपने विवेकानुसार कार्य करना चाहिए था या नहीं।
किसी मुख्यमंत्राी के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति देने संबंधी मामले पर विचार करते समय राज्यपाल को यह पृष्ठभूमि सामने रखनी चाहिए। लेकिन यह तो स्पष्ट है कि ऐसे मामलों में अनुमति स्वतः नहीं होती। ऐसे मामलों में राज्यपाल को सांविधानिक व कानूनी नजरिये से पूरा अध्ययन करने के बाद ही उचित कार्रवाई करनी पड़ती है।
इस संदर्भ में कलकत्ता उच्च न्यायालय का 1957 का एक फैसला गौरतलब है। इस फैसले के अनुसार अनुमति देने वाले अधिकारी को अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 197, पुराने भ्रष्टाचार निरोधक कानून की धारा 6 और भ्रष्टाचार निरोधक कानून-1988 की धारा 19 के तहत किसी लोकसेवक से जुड़े मामले में पूरी तरह कानूनी पहलू की जांच करा लेनी चाहिए। उनकी अनुमति स्वतः नहीं है। इसी के साथ मुकदमे की अनुमति देने वाले अधिकारी को यह भी ध्यान में रखना होगा कि कोई लोकसेवक अकारण परेशान न हो।
कोई भी राज्यपाल इन्हीं कानूनी व संवैधानिक पहलुओं को ध्यान में रखते हुए ऐसे मामलों में अपना निर्णय लेते हैं। इससे साफ है कि एक मुख्यमंत्राी के मामले में यदि सही मामला बनता है तो राज्यपाल को उसके विरुद्ध मुकदमा चलाने की अनुमति देनी पड़ेगी, लेकिन यदि मामला नहीं बनता तो राज्यपाल अनुमति नहीं देंगे। राज्यपाल संविधान और कानून दोनों के संरक्षक हैं। उन्हें केवल न्यायिक काम ही नहीं करना होता, बल्कि संवैधानिक मर्यादाओं और नियमों की भी रक्षा करनी होती है।
इधर राज्यपाल के पद, उसकी मर्यादाओं और अधिकारों को लेकर अक्सर सवाल उठाये जाते रहे हैं। कुछ लोग उस पर ‘केंद्र के एजेंट’ का लेबल लगाने से भी नहीं चूकते। इसलिए यहां स्पष्ट करना प्रासंगिक होगा कि राज्यपाल का पद पूरी तरह संवैधानिक है और उसके दायित्व भी संविधान में ही स्पष्ट हैं। अपने दायित्वों को निभाने में राज्यपाल किसी का प्रतिनिधि नहीं है। वह केंद्र व राज्य के बीच की एक प्रमुख कड़ी भी है, जो दोनों के संबंधों को बनाये रखने में अहम भूमिका निभाता है।
राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति जरूर करते हैं, पर यह मात्रा नियुक्ति का एक तरीका है। राज्यपाल अपने राज्य के हालात व गतिविधियों के बारे में राष्ट्रपति को अवगत कराता रहता है। लेकिन राज्यपाल को कोई निर्देश नहीं दिया जा सकता। वह विवेकानुसार ही काम करता है। राज्यपाल का पद पूरी तरह स्वतंत्रा पद है। वह राज्य का संवैधानिक प्रधान है, जिसमें पूरी कार्यपालिका की शक्तियां निहित हैं। बिना उसकी सहमति के विधायी शक्ति का प्रयोग किया ही नहीं जा सकता।
हमारे देश में लोकतांत्रिक प्रणाली का मूल चरित्रा संघीय है। संविधान निर्माताओं ने बहुत सोच-समझकर दूरदर्शिता दिखाते हुए इस पद को बनाये रखने का प्रावधान किया। इस पद को समाप्त नहीं किया जा सकता। राज्यपाल राज्य के पहले नागरिक की हैसियत से राज्य की जनता के अभिभावक के रूप में काम करता है। राज्य के चहुमुखी विकास, संस्कृति को बढ़ावा देने में और राज्य के विभिन्न समुदायों के बीच भाई-चारा बढ़ाने में उसकी भी अहम भूमिका रहती है। राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने में भी उसकी प्रभावशाली भूमिका है। राज्यपाल को हर समय लोगों के सामने ऊंचे आदर्श पेश करने में तत्पर रहना चाहिए।
मसला कोई भी हो, राज्यपाल को सतर्क रहना चाहिए ताकि उसके किसी निर्णय को लेकर विवाद की कोई गुंजाईश न हो। जहां कहीं उसे अपने किसी निर्णय की व्याख्या करनी जरूरी हो वह जरूर करे, लेकिन कोशिश यही रहे कि किसी व्यक्ति या दल की अनावश्यक निंदा न हो। खासकर नाजुक समय में राज्यपाल सरकार के नेता यानी मुख्यमंत्राी की भी मदद करता है।
राज्यपाल की भूमिका के बारे में सरकारिया आयोग की सिफारिशें भी गौरतलब हैं। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में भाग-एक अध्याय चार में कहा है कि राज्यपाल का पद एक स्वतंत्रा संवैधानिक पद है। वह न केंद्र सरकार के अधीनस्थ है और न उसका कार्यालय केंद्र सरकार का कार्यालय है।
संविधान की व्याख्या का काम उच्चतम न्यायालय करता है। राज्यपाल रघुकुल तिलक बनाम हरगोविंद पंत की एक याचिका पर 1979 में एक व्याख्या उच्चतम न्यायालय की ंसंविधान पीठ ने की थी। इस व्याख्या में कहा गया था कि राज्यपाल का पद केंद्र सरकार के अधीन नहीं है और न ही उस पर केंद्र सरकार के निर्देश लागू होते हैं।
राज्यपाल के संदर्भ में संविधान की धारा 356 भी खासी चर्चित रही है, जिसके तहत राज्यपाल को निर्वाचित सरकार को विशेष परिस्थितियों में बर्खास्त करके राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने का अधिकार मिला हुआ है।
पिछले दिनों केंद्र-राज्य संबंधों पर विचार करने के लिए हुई एक बैठक में इस सिलसिले में कुछ दिशा निर्देश तैयार किये गये। लेकिन इस महत्वपूर्ण बैठक में किसी ने नहीं कहा कि धारा 356 को समाप्त कर दिया जाना चाहिए।
वास्तव में हमारे संविधान निर्माताओं ने हर संभावित परिस्थिति को ध्यान में रखकर संविधान की रचना की थी। धारा 356 को भी बहुत सूझ-बूझ और दूरंदेशी से शामिल किया गया। यह सही है कि किसी भी राज्य में सत्ता का वास्तविक केंद्र यानी ‘पावर हाउस’ वहां का निर्वाचित मुख्यमंत्राी होता है, और राज्यपाल की भूमिका केवल सांविधानिक मुखिया की होती है। लेकिन कई बार ऐसा मौका आता है जब पावर हाउस फेल हो जाता है, तब राज्य की निरंतरता को बनाए रखने के लिए राष्ट्रपति शासन लागू करके राज्यपाल को ही शासन का दायित्व संभालना पड़ता है।
यह हर राज्यपाल की जवाबदेही है कि अपने हर प्रकार के कर्तव्यों का इस प्रकार निर्वाह करे कि उसके पद की गरिमा पर कोई आंच न आये; वहीं हमें भी किसी मामले में राज्यपाल की ओर देखते समय उन पर विश्वास रखना चाहिए और यह कोशिश करनी चाहिए कि उनको किसी विवाद में न डाला जाय।
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4. राज्यपाल का कार्यकाल कितने समय का होता है? |
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