राज्य स्तरीय राजनीतिक दल - किसी आम चुनाव में प्राप्त स्थान अथवा प्राप्त मतों के प्रतिशत के आधार पर राज्य स्तरीय दलों को मान्यता प्रदान की जाती है। यदि कोई राजनीतिक दल राजनीतिक गतिविधियों में लगातार पांच वर्षों तक सक्रिय रहा है तथा चुनाव में उस दल का किसी राज्य से लोकसभा के प्रत्येक 25 सदस्यों के अनुपात पर कम से कम एक सदस्य अथवा विधानसभा के प्रत्येक 30 सदस्यों के अनुपात पर कम से कम एक सदस्य चुना गया है। अथवा, आम चुनाव में यदि किसी राज्य में वहां की विधानसभा अथवा लोकसभा के लिए किसी राजनीतिक दल के उम्मीदवार द्वारा वैध मतों की संख्या का कम से कम 4 प्रतिशत मत प्राप्त किया गया है, तो वैसे सामाजिक दलों को राज्य स्तरीय राजनीतिक दल कहा जाता है।
राष्ट्रीय दल - यदि किसी राजनीतिक दल का कम से कम चार राज्यों में मान्यता प्राप्त है तो उस राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता मिल जाती है। एक अन्य आधार पर भी राष्ट्रीय दलों को मान्यता दी जाती है। यदि किसी राष्ट्रीय दल को किसी आम चुनाव में कुल पड़े वैध मतों के किन्हीं चार राज्यों में कम से कम चार प्रतिशत या उससे अधिक मत प्राप्त हुए हैं, तो उसे राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता मिल जाती है। 1999 के आम चुनाव के पूर्व 7 पार्टियों का राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता मिली हुई थी। ये पार्टियां थीं - भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा, बहुजन समाज पार्टी, जनता दल (यूनाइटेड) और जनता दल (सेक्यूलर)।
संविधान द्वारा पंचायतों के लिए तय कार्य |
ग्यारहवीं अनुसूची * (अनुच्छेद 243 छ) |
1. कृषि, जिसके अंतर्गत कृषि विस्तार है। * संविधान , 73वां संशोधनद्ध अधिनियम, 1992 की धारा 4 द्वारा 24.4.1993 सेद्ध अंतःस्थापित। |
सत्रावसान तथा संसद भंग होना - लोकसभा भंग होने से इसके कार्यकाल का अंत हो जाता है और इसे पुनर्गठित करने हेतु नया आम चुनाव आवश्यक होता है। सत्रावसान के द्वारा सदन के सत्रा की अवधि शेष रहते हुए भी सत्रा का अंत कर दिया जाता है। भंग होने के परिणामस्वरूप न केवल लोकसभा का कार्यकाल समाप्त हो जाता है, वरन् इस सदन में पड़े हुए सभी विधायकों एवं अन्य प्रस्तावों का भी अंत हो जाता है तथा नये चुनावों के पश्चात् लोकसभा के पुनर्गठित होने पर इन्हें फिर से प्रस्तुत किया जाना आवश्यक होता है। लेकिन ऐसा विधेयक, जो लोकसभा भंग होने के समय राज्यसभा में अवस्थित हो एवं इसके द्वारा पारित नहीं हुआ हो, समाप्त नहीं होगा। लोकसभा के भंग होने से दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन, विधेयक से संबंधित गतिरोध दूर करने के लिए जिसकी सूचना राष्ट्रपति दे चुका है, भी स्थगित नहीं किया जायेगा। सत्रावसान का संसदीय कार्यवाहियों पर यही प्रभाव पड़ता है कि इससे सूचनाएं, प्रस्तावों आदि का तो अंत हो जाता है, पर विधेयक अप्रभावित रहते हैं।
प्रश्न काल तथा शून्य काल - दोनों सदनों की बैठकों का पहला घंटा प्रश्न पूछे जाने एवं उनके उत्तर दिये जाने के लिए निर्धारित किया जाता है, जिसे प्रश्न काल कहते हैं। इसके दौरान देश के प्रशासन एवं उससे संबंधित समस्याओं को सरकार के ध्यान में लाया जाता है, जिससे कि वह इस संदर्भ में उचित कार्रवाई कर सके।
शून्य काल बारह बजे के ठीक बाद से प्रारम्भ होता है तथा भोजनकाल तक चलता है, जो एक बजे प्रारम्भ होता है। शून्य काल के अंतर्गत विविध कार्रवाइयां आती हैं, जैसे - ध्यानाकर्षण प्रस्ताव, प्रश्न या सरकारी वक्तव्य तथा कार्यस्थगन प्रस्ताव आदि।
गणपूर्ति (कोरम) - किसी सभा के संदर्भ में यह नियम है कि उसकी अधिकृत कार्यवाही प्रारम्भ करने या जारी रखने के लिए कितने सदस्यों की उपस्थिति आवश्यक होगी। भारत की लोकसभा तथा राज्यसभा दोनोें में गणपूर्ति के लिए कम से कम दस प्रतिशत सदस्यों की उपस्थिति आवश्यक होती है।
सामूहिक उत्तरदायित्व - संसदीय सरकार एक उत्तरदायी सरकार होती है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 75 (3) के अनुसार, मंत्रिपरिषद् लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है। सरकार के प्रत्येक कार्य मंत्रिपरिषद् का प्रत्येक सदस्य जिम्मेदार होता है तथा मंत्रिपरिषद् के फैसले को समूची सरकार का फैसला समझा जाता है। सामूहिक उत्तरदायित्व को लोकसभा प्रश्न पूछकर, निन्दा प्रस्ताव, काम रोको प्रस्ताव, कटौती प्रस्ताव तथा अविश्वस प्रस्ताव लाकर लागू करती है। यदि किसी एक मंत्राी के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाता है, तो उसे पूरे मंत्रिमंडल के खिलाफ समझा जाता है। फलतः पूरे मंत्रिमंडल को त्याग-पत्रा देना पड़ता है। साथ ही, कोई भी मंत्राी, मंत्रिपरिषद से या प्रधानमंत्राी से परामर्श किये बिना किसी महत्वपूर्ण नीति की घोषणा नहीं कर सकता है।
व्यक्तिगत उत्तरदायित्व - प्रत्येक मंत्राी अपने विभागीय कार्यों के लिए व्यक्तिगत रूप से भी उत्तरदायी होता है। उसे अपने विभाग या मंत्रालय से संबंधित प्रश्नों का उत्तर देना पड़ता है। इतना ही नहीं, प्रत्येक मंत्राी को उन कार्यों के लिए भी दायित्व लेना पड़ता है जो उसके अधीनस्थ अधिकारियों द्वारा किये जाते हैं। राष्ट्रपति के प्रति व्यक्तिगत उत्तरदायित्व का सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 75(2) के अंतर्गत समाविष्ट है। इसके अनुसार, कोई भी मंत्राी राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त अपना पद धारण कर सकता है। अन्य शब्दों में यद्यपि मंत्रिगण सामूहिक रूप से संसद (विधान मंडल) के प्रति उत्तरदायी होते हैं, लेकिन वे व्यक्तिगत रूप से कार्यपालिका के प्रधान के प्रति भी उत्तरदायी होंगे तथा उन्हें संसद (विधान मंडल) का विश्वास होने पर भी पदच्युत किया जा सकेगा। मंत्रियों को व्यक्तिशः पदच्युत करने के लिए प्रधानमंत्राी की सलाह आवश्यक होगी। इसलिए राष्ट्रपति की यह शक्ति वास्तव में प्रधानमंत्राी की अपने सहकर्मियों के विरुद्ध शक्ति होगी। सामान्यतया इस शक्ति का प्रयोेेेग करके प्रधानमंत्राी अपने अवांछित सहकर्मी से पदत्याग करने के लिए कहता है।
विधिक उत्तरदायित्व - यदि जो कार्य किया गया है उससे देश की किसी विधि का उल्लंघन होता है और किसी व्यक्ति के पक्ष में वाद का सृजन होता है तो न्यायालय में इसके लिए संबंधित मंत्राी उत्तरदायी होगा। भारतीय संविधान इंग्लैंड की भांति स्पष्टतः यह नहीं कहता है कि राष्ट्रपति पर ही यह छोड़ दिया गया है कि वह इसके लिए नियम बनाये कि किस प्रकार उसके आदेश आदि अधिप्रमाणित किये जायेंगे। दूसरी ओर, यदि राष्ट्रपति का कोई कार्य उसके द्वारा बनाये गये नियमों के अनुसार भारत सरकार के किसी सचिव द्वारा अधिप्रमाणित किया जाता है तो उस कार्य के लिए कोई मंत्राी उत्तरदायी नहीं हो सकता, भले ही वह कार्य उस मंत्राी की सलाह पर किया गया हो।
मुख्य चुनाव आयुक्त - संविधान के अनुच्छेद 324 के अंतर्गत संपूर्ण चुनाव प्रक्रिया का पर्यवेक्षण करने, चुनाव न्यायाधिकरणों की स्थापना करने एवं चुनाव संबंधी अन्य मामलों की देखभाल करने के लिए एक स्वतंत्रा निकाय के रूप में निर्वाचन आयोग की स्थापना की गयी। इस आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त तथा अन्य उतने चुनाव आयुक्त होंगे, जितने राष्ट्रपति द्वारा समय-समय पर निर्धारित किये जायें। चुनाव आयुक्त राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त होते हैं एवं उसकी इच्छापर्यन्त सेवारत रहते हैं। चुनाव आयुक्त को पद से हटाये जाने में कार्यकारी नियंत्राण को नहीं रखा गया है। वह स्वयं अपना त्यागपत्रा दे सकता है पर उसकी पदच्युति प्रमाणित दुव्र्यवहार एवं अक्षमता के आधार पर संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से पारित एक प्रस्ताव द्वारा ही की जानी संभव है। उसकी सेवा-शर्त एवं पदावधि वहीं होगी, जो संसद विधि द्वारा निर्धारित करेगी। सम्प्रति मुख्य निर्वाचन आयुक्त डाॅ. एम.एस. गिल और अन्य चुनाव आयुक्त टी.एस. कृष्णमूर्ति एवं जे.एम. लिंगदोह हैं।
नियंत्राक एवं महालेखा परीक्षक - नियंत्राक एवं महालेखा परीक्षक केन्द्र सरकार का लोक वित्त का संरक्षक है एवं संविधान के अंतर्गत उसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है। उसका कार्यकाल 6 वर्षों का या 65 वर्ष की आयु प्राप्त करने तक होता है। उसके पद से हटाने जाने के प्रावधान उसी तरह के हैं, जैसे सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के संबंध में हैं। उसके कार्य की स्वतंत्राता को भी उसी भांति सुनिश्चित किया गया है, जैसे सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की स्वतंत्राता सुनिश्चित की गयी है। नियंत्राक एवं महालेखा परीक्षक यह सुनिश्चित करता है कि संसद द्वारा किये गये व्यय उचित स्वीकृति के आधार से युक्त है तथा ये विवेकपूर्ण, विश्वसनीयता एवं मितव्ययितापूर्ण तरीके से किये गये हैं। वह संघीय लेखा से संबंधित रिपोर्ट राज्यपाल को देता हैं। उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक लेखा समिति के सामने प्रस्तुत की जाती है। संप्रति भारत के नियंत्राक एवं महालेखा परीक्षक वी.के. शुंगलू हैं।
महान्यायवादी - महान्यायवादी, भारत सरकार का प्रथम विधि अधिकारी है। वह राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति किया जाता है तथा राष्ट्रपति की इच्छापर्यंत पद पर बना रह सकता है। उसके पद के लिए वही योग्यताएं आवश्यक हैं, जो सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश हेतु निर्धारित हैं। उसको वही वेतन एवं भत्ते प्राप्त होते हैं, जो राष्ट्रपति द्वारा उसके लिए निर्धारित किये जाते हैं। महान्यायवादी विधि के उन विषयों पर सुझाव देता है एवं उन कार्यों को संपन्न करता है, जो राष्ट्रपति द्वारा उसे दिये जाते हैं। संसद में या संसद की किसी समिति में उसे अपने विचार प्रकट करने का अधिकार नहीं दिया गया है। अपने आधिकारिक कार्यों को संपन्न करने में, उसे देश के सभी न्यायालयों में सुनवाई का अधिकार है |
अध्यादेश: जब देश की विधायिका या संसद का अधिवेशन न चल रहा हो और किसी कानून का बनाना अत्यन्त आवश्यक समझा जाए, उस समय देश की कार्यपालिका अध्यादेश निकालती है। अध्यादेश कार्यपालिका के प्रमुख की आज्ञा होती है जो कानून की भांति लागू होती है, किन्तु यह कुछ निश्चित समय के लिए ही लागू रहती है। लोकतान्त्रिाक देशों में संसद के अधिवेशन के प्रारम्भ होने पर इस अध्यादेश को कानून के रूप में पारित कर दिया जाता है, अन्यथा ये रद्द हो जाते है।
संसदीय समाजवाद: संसदीय समाजवाद इंगलैंड के मजदूर दल (Labour Party)की देन है। इसकी मुख्य विशेषता यह है कि यह समाजवाद की स्थापना के लिए संसदीय पद्धति के मार्ग को अपनाता है। इसका सांविधानिक उपायों में अटल विश्वास है। संसदीय पद्धति के माध्यम से यह न केवल मजदूरों व अन्य कमजोर वर्गों की मांगों को पूरा करने में विश्वास रखता है बल्कि समाज के समाजवादी पुनर्निर्माण के लिए भी आश्वस्त है।
अनुच्छेद 41 में दिए गए निदेशक सिद्धान्त : राज्य अपने आर्थिक सामथ्र्य का विस्तार करते हुए अपनी सीमाओं के अन्दर यह प्रत्यन्न करेगा कि प्रत्येक नागारिक को शिक्षा प्राप्त हो सके तथा योग्यतानुसार वह कार्य पा सके और बेकारी, बुढ़ापा तथा अपाहिज होने की अवस्था में, जबकि नागरिक आजीविका कमाने में असमर्थ हो जाए, राज्य उनकी सहायता कर सके। अनुच्छेद-41
पंचायतों से सम्बन्धित निदेशक सिद्धान्त : महात्मा गांधी ग्रामों को शासन की इकाई बनाना चाहते थे और इसलिए वह ग्राम पंचायतों पर अत्यधिक बल देते थे। उनकी दृष्टि में पंचायतें ग्रामोें में स्वायत शासन की इकाई के रूप में खड़ी हो सकती हैं और ग्राम के लोग इन पंचायतों के द्वारा अपना शासन स्वयं सम्भाल सकते हैं।
महात्मा गांधी के इस विचार को कार्यान्वित करने के निमित्त राज्य ग्रामों में ग्राम पंचायतों का अधिकाधिक संगठन करेगा और उन्हें वे सभी अधिकार देगा जिससे उनका स्वतन्त्रा अस्तित्व खड़ा हो सके और वे कुशलतापूर्वक कार्य कर सकें। अनुच्छेद-40
भारत में मौलिक अधिकार न्याय-संगत होते हैं: मौलिक अधिकारों को लागू करने की व्यवस्था भारतीय संविधान के अनुच्छेद-32 के द्वारा की गई है अर्थात् मौलिक अधिकारों को न्यायसंगत (Justiciable) बनाया गया है। भारतीय नागरिकों को यह अधिकार प्राप्त है कि वे मौलिक अधिकारों के संरक्षण के लिए सर्वोच्च न्यायालय की शरण में जा सकें। किसी नागारिक द्वारा अधिकारों के संरक्षण की मांग पर न्यायालय समुचित आदेश या लेख निकाल सकता है। आदेश या लेख जारी करने का यह अधिकार उच्च न्यायालयों को भी अनुच्छेद-226 के अन्तर्गत प्राप्त है।
क्या भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों को निलम्बित किया जा सकता है ?: भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों को आपातकाल के दौरान निलम्बित (Suspend) किए जाने की व्यवस्था है। इतना ही नहीं, संविधान राष्ट्रपति को आपातकालीन स्थिति में आवश्यकता पड़ने पर सांविधानिक उपचारों के अधिकारों को भी निलम्बित करने की शक्ति प्रदान करता है। 1975 में आंतरिक आपातकाल में इसी प्रावधान के अन्तर्गत भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकार निलम्बित कर दिए गए थे और न्यायालय के संरक्षण को भी समाप्त कर दिया गया था।
क्या भारतीय संसद मौलिक अधिकारों को संशोधित कर सकती है ?: मौलिक अधिकारों में संशोधन करने का अधिकार संसद को प्राप्त है। यह संविधान के अन्य प्रावधानों की तरह अनुच्छेद-368 के अन्तर्गत मौलिक अधिकारों में 2/3 के बहुमत से संशोधन करने का अधिकार रखती है अर्थात् वह इन अधिकारों पर प्रतिबन्ध लगा सकती है, इन्हें कम कर सकती है, बढ़ा सकती है अथवा किसी अधिकार को पूर्णतः समाप्त कर सकती है।
विधि के सम्मुख समानता : हमारे संविधान के अनुच्छेद.14 में कहा गया है कि ”भारतीय राज्य-क्षेत्रा में राज्य किसी व्यक्ति को विधि के सम्मुख समता अथवा विधि के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।“ इसका अर्थ यह है कि कानून की दृष्टि में सब समान हैंकृ न कोई छोटा है, न कोई बड़ा, न कोई गरीब और न कोई धनी, न कोई बड़ी जाति का है और न कोई छोटी जाति का। न्यायालय सब मुकदमों का कानून के अनुसार ही निर्णय करेगा।
क्या भारत में अस्पृश्यता को कानूनी रूप में समाप्त कर दिया गया है ?: अनुच्छेद - 17 में कहा गया है कि "अस्पृश्यता का अंत किया जाता है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है।" अस्पृश्यता से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा जो विधि के अनुसार दण्डनीय होगा। भारतीय समाज की एक अत्यन्त घृणित कुरीति अस्पृश्यता को संविधान के अनुच्छेद-17 ने सदा के लिए कानूनी रूप से समाप्त कर दिया।
भाषण व अभिव्यक्तिकरण की स्वतन्त्राता : लोकतन्त्रा शासन प्रणालियों में जनमत का महत्व है। जनमत के निर्माण के लिए नागरिकों को अपने विचार प्रकट करने का अधिकार होना अत्यन्त आवश्यक है। भारतीय संविधान में नागरिकों को अनुच्छेद- (19)(1)(क) में भाषण, लेखन तथा मुद्रण व अन्य प्रकार के साधनों द्वारा अपने विचार प्रकट करने की स्वतन्त्राता दी गई है।
दैहिक स्वतन्त्राता : अनुच्छेद.21 में कहा गया है कि ”किसी व्यक्ति को उसके प्राण (जीवन) या दैहिक (व्यक्तिगत) स्वतन्त्राता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया को छोड़कर अन्य किसी प्रकार से वंचित नहीं किया जाएगा।“ यह अनुच्छेद प्रत्येक व्यक्ति को प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्राता का संरक्षण प्रदान करता है।
निवारक निरोध (Preventive Detention) : निवारक निरोध’ की यद्यपि कोई अधिकृत परिभाषा नहीं है फिर भी इसका अर्थ किसी व्यक्ति को किसी अपराध की सजा दिया जाना न होकर उसे अपराध करने से रोकना है। यदि शासन को विश्वास हो जाता है कि किसी व्यक्ति को स्वतन्त्रा छोड़ने से उसके द्वारा अपराध करने की सम्भावना है तो उसे बन्दी बना लिया जाता है, किन्तु अपराध किए जाने के अभाव में उस पर मुकदमा नहीं चलाया जाता। यही निवारक निरोध है। संसद आवश्यकतानुसार कानून बनाकर इस निवारक निरोध की व्यवस्था करती है।
शोषण के विरुद्ध अधिकार को : भारत में मध्य काल में जमींदार, राजा और नवाब तथा अन्य लोग अपने अधीनस्थ लोगों से बेगार करवाते थे। अपना निजी कार्य कराकर उनको बदले में कुछ भी नहीं देते थे। इसके अतिरिक्त ग्रामों में स्त्रिायों, दासों व बालकों के क्रय-विक्रय की कुरीति भी प्रचलन में थी। स्वतन्त्रा हो जाने के बाद भी समाज के दुर्बल वर्ग का सर्वत्रा शोषण होता हुआ हम देख रहे हैं। भारतीय संविधान में इन अनेक अत्याचारों, कुरीतियों व शोषण को समाप्त करने के लिए अनुच्छेद - 23 एवं 24 में शोषण के विरुद्ध व्यवस्था की गई है।
धार्मिक स्वतन्त्राता या धर्मनिरपेक्ष राज्य : भारत पंथ-निरपेक्ष राज्य है, अतः प्रत्येक धर्म व सम्प्रदाय राज्य की दृष्टि में समान हैं। राज्य किसी विशिष्ट धर्म या पंथ तक सीमित नहीं है जिसका वह प्रचार करेगा। किन्तु धार्मिक स्वतन्त्राता के आधार पर प्रत्येक व्यक्ति धार्मिक मामलों में पूर्ण स्वतंत्रा है। धर्म उसका व्यक्तिगत विषय है। राज्य का कर्तव्य है कि वह सभी धर्मों व विश्वासों को फलने-फूलने का समान अवसर प्रदान करे। भारतीय संविधान में धार्मिक स्वतन्त्राता के अधिकार को अनुच्छेद 25 से 28 तक में स्थापित किया गया है।
184 videos|557 docs|199 tests
|
1. भारतीय राजव्यवस्था क्या है? |
2. भारतीय राजव्यवस्था के मुख्य संगठन कौन-कौन से हैं? |
3. भारतीय संविधान कब लागू हुआ था? |
4. भारतीय संविधान की कुल अनुसूचियों की संख्या क्या है? |
5. भारतीय राजव्यवस्था में न्यायपालिका का क्या महत्व है? |
184 videos|557 docs|199 tests
|
|
Explore Courses for UPSC exam
|