भारत के अतीत की झाँकी
नेहरू जी के मानस पटल पर भारत-ही-भारत रहा। वे भारत को बराबर समझने और विश्लेषण करने तथा बचपन को याद करने की कोशिश करते हैं। वे सोचते थे कि आखिर यह भारत है क्या? यह किस विशेषता का प्रतिनिधित्व करता है? वह शक्ति कैसे खोता चला गया? जनसंख्या का विशाल समूह होने के बावजूद इसके पास कुछ जानदार कहने लायक है या नहीं? यह विश्व से अपना तालमेल किस प्रकार बैठता है? इन सब बातों पर विचार के वे भारत की मज़बूती तथा एकजुटता का कारण जानना चाहते थे।
नेहरू जी भारत को एक आलोचक की दृष्टि से देखना चाहते थे। वे वर्तमान को तो देख रहे थे पर अतीत के कई अवशेषों को अनदेखा कर रहे थे। इससे वे मन-ही-मन शंकित हो रहे थे कि क्या उन्होंने भारत को देख लिया है। वे भारत के अतीत की विरासत के बड़े हिस्से को खारिज़ करने का साहस कर रहे थे जो बहुत ही सार्थक और टिकाऊ रहा है, परंतु अगर ऐसा होता तो भारत हज़ारों वर्षों तक अपने सभ्य अस्तित्व की पहचान बनाए नहीं रख सकता था।
संपूर्ण भारत की विशेषता जानने के उद्ïदेश्य से नेहरू जी ने भारत के पचिमोत्तरभाग में स्थित मोहनजोदड़ो के प्राचीन नगर, घर और गलियों का निरीक्षण-परीक्षण किया। इनका समय पाँच हज़ार वर्ष से भी अधिक पुराना बताया गया है। यह सभ्यता प्राचीन और पूर्ण विकसित थी। यही इसके स्थायी होने का कारण है। आश्चर्य की बात है कि यह सभ्यता पाँच-छद्द हज़ार वर्ष तक बनी रही। वह परिवर्तनशील तथा विकासमयी भी थी। इस संस्कृति के प्रभाव में फ्रांस, मिस्र, ग्रीस, चीन, अरब, मध्य एशिया, भूमध्य सागर के लोग भी रहे। इनसे प्रभावित होने के बाद भी अपनी सांस्कृतिक मज़बूती के बल के कारण यह संस्कृति अपनी मज्जबूती बनाए रख सकी।
नेहरू जी ने भारत के प्राचीन इतिहास तथा साहित्य का अध्ययन किया। उन्होंने चीन, पश्चिमी एवं मध्य एशिया से आए विद्वान यात्रियों द्वारा लिखे साहित्य का भी अध्ययन किया। वे पूर्वी एशिया, अंगकोर, बोरोबुदुर और बहुत-सी जगहों में भारत की उपलब्धियों के बारे में सोचने लगे। उन्होंने हिमालय पर्वत को देखा और उससे जुड़ी दंत कथाओं को जाना। इस महान पर्वत से निकलनेवाली गंगा,यमुना सिंधु, ब्रम्हपुत्र जैसी विशाल नदियों ने उन्हें आकर्षित एवं प्रभावित किया। इन नदियों के आसपास इतिहास बिखरा पड़ा है। इनके चारों ओर नृत्य, उत्सव और नाटक से संबंधित न जाने कितनी पौराणिक कथाएँ एकत्र पड़ी हैं। इनमें गंगा नदी विशेष महत्व रखती है, जिसने इतिहास के आरंभ से ही भारत के हृदय पर राज किया है और लाखों लोगों को अपने तट की ओर खींचा है। गंगा की गाथा में भारत की सभ्यता और संस्कृति की कहानी छिपी है।
भारत के अतीत की कहानी को समृद्ध करनेवाली अजंता, एलोरा और एलीफैंटा की गुफ़ाओं और अन्य स्थानों को नेहरू जी ने देखा। उन्होंने आगरा और दिल्ली की खूबसूरत इमारतों को देखा जिनका प्रत्येक पत्थर भारत के समृद्ध अतीत की कहानी बयाँ कर रहा था। इसके बाद उन्होंने अपने पैतृक शहर इलाहाबाद और हरिदवार में आयोजित कुंभ के मेले को देखा, जिसमें हज़ारों की तादात में लोग आते हैं। उन्हें तेरह सौ साल पहले चीनी यात्रियों तथा अन्य लोगों द्वारा इन पर्वो की महिमा के बारे में लिखे लेख याद आ जाते हैं। उनमें से कुछ मेले आज गुम हो गए हैं। वे हैरान होते हैं कि ऐसी कौन-सी प्रबल आस्था है जो लोगों को अनगिनत पीढिय़ों से भारत की इस प्रसिद्ध नदी की ओर खींचती रही है।
अपने अध्ययन और यात्राओं से उन्हें यह पता चला कि भारत के अतीत में वह हर बात विद्धमान है] जो वर्तमान में भी शिक्षा देती हुई प्रतीत होती है। उन्हें यह ज्ञात हो गया कि उनके पूर्वजों की भूमि में लोग हँसते-रोते, जीते-जागते, प्यार करते तथा पीड़ा भोगते आबाद हो गए। उन्हें जिंदगी की जानकारी और समझ थी। वे जब भी कहीं जाते तो उस स्थान से संबंधित चित्र उनकी आँखों में घूम जाता था। बनारस के पास सारनाथ में महात्मा बुद्ध दवारा दिया गया उपदेश उन्हें ऐसा लगता था जैसे बुद्ध अपना पहला उपदेश अभी दे रहे हों। ढाई हज़ार वर्ष से अधिक समय बीतने पर भी उन्हें उनकी प्रतिध्वनि सुनाई देती है। अशोक के पाषाण स्तंभों के शिलालेखों पर एक ऐसे आदमी की कहानी थी] जो सम्राट होकर भी अन्य सम्राट तथा राजा से अलग था। इसी तरह फतेहपुर सीकरी में सम्राट अकबर अपना साम्राज्य भूलकर, सभी धर्मों में समानता को विद्वान तथा मतावलंबियों के माध्यम से ढूंढ़ने का प्रयास कर रहा था, जिससे वह मनुष्य की शाश्वत समस्याओं का हल खोज सके ।
इस प्रकार उन्हें इतिहास की लंबी झाँकी, जिसमें जय-पराजय, उतार-चढ़ाव सब कुछ था, उन्हें स्पष्ट दिखाई पड़ रही थी। इसमें चार-पाँच हजार वर्षों की संस्कृति की निरंतरता तथा विलक्षणता थी, जो वर्तमान में जनता पर गहरा प्रभाव डाल रही थी।
भारत की शक्ति और सीमा
नेहरू जी का मानना है कि भारत की शक्ति के स्रोतों के पतन के कारणों को खोजा जाए तो पता चलता है कि प्रत्येक क्षेत्र में आगे रहनेवाला भारत पिछड़ता गया और पिछड़ा रहनेवाला यूरोप आगे निकल गया। इससे यूरोपियो देशों की सैन्यशक्ति भी बढ़ी। फलस्वरूप, उन्होंने पूरब की दिशा में कदम बढ़ाए। भारत सहित सारे एशिया की यही कहानी थी।
ऐसा क्यों हुआ, इसे सुलझाना सरल नहीं है। वास्तव में भारत में पुराने समय में मानसिक सजगता और तकनीकी कौशल की कमी न थी, पर बाद की सदियों में इसमें गिरावट आती गई। रचनात्मक पर्विति में कमी तथा अनुकरण की पर्विति बढ़ती गई। एक ओर जहाँ प्रकृति एवं ब्रम्हमांड के रहस्य खोलने की क्षमता क्षीण होती जा रही थी, वहीं साहित्य-सृजनात्मकता में विरिधि हुई। भव्य कला और मूर्ति निर्माण पर पाश्चात्य प्रभाव पड़ा और जटिल पच्चीकारी, नक्काशी में बदलने लगी। भाषा भी इस बदलाव से न बच सकी। सरल, सजीव और समृद्ध भाषा की जगह अलंकृत और जटिल साहित्यिक शैली युक्त भाषा ने ले ली। इसके अलावा इसी समय एक संकीर्ण मानसिकता का भी उदय हुआ जिससे महासागरों को पार करने की पर्विति को बल मिला। लोगों में मानसिक जड़ता और शारीरिक थकावट के कारण भारत का ह्रास होने लगा। भारत गतिहीनता और जड़ता की ओर बढ़ रहा था जबकि अन्य देश प्रगति की ओर उन्मुख हो रहे थे।
नेहरू जी का मानना था कि यह स्थिति का पूरा और सही सर्वेक्षण नहीं है। इस जड़ता और गतिहीनता का अगर लंबा समय रहा होता तो इसका संबंध अतीत और वर्तमान से टूट गया होता। पुराने युग की समाप्ति तथा नए युग का उदय होता, पर यह क्रमभंग नहीं हुआ। यह निरंतरता भारत में भी बनी रही। इससे नए लक्ष्यों का निर्धारण भले न हो सका हो, पर प्राचीन और नवीन के बीच तालमेल बैठने का प्रयास चलता रहा। इसी लालसा से देश को गति मिली तथा पुराने विचारों को सहेजकर रखने तथा नए विचारों को अपनाने की शक्ति मिली।
भारत की तलाश
नेहरू जी जानते थे कि भारत का अतीत जानने के लिए पुस्तकों का अध्ययन, प्राचीन स्मारकों तथा भवनों का दर्शन, सांस्कृतिक उपलब्धियों का अध्ययन तथा भारत के विभिन्न भागों की पदयात्राएँ पर्याप्त होंगी, पर इन सबसे उन्हें वह संतोष न हासिल हो सका जिसकी उन्हें तलाश थी। हाँ, इन सबसे उनमें भारत की समझ जरूर पैदा हुई। उन्होने देखा कि इस समय का भारत भयंकर गरीबी एवं दुर्गति और मध्य वर्ग की कुछ-कुछ सतही आधुनिकता का विचित्र मिश्रण है। यह सब कुछ बेचैन करनेवाला था। नेहरू जी उच्च वर्ग के प्रशंसक न होकर भी अंग्रेज़ों से संघर्ष के लिए मध्य वर्ग की ओर देखते थे। मध्य वर्ग उस समय बुरे हालात से गुज़र रहा था। वह तरक्की एवं विकास करना चाहता था, पर ऐसा न कर पाने के कारण वह अंग्रेज़ों के प्रति आक्रोशित हो रहा था। वे अंग्रेज़ों की कई नीतियों को सही मानते थे। ये अंग्रेज़ों को देश से बाहर करके स्वयं शासन चलाना चाहते थे। असल में मध्य वर्ग इसी ढाँचे की पैदाइश था जो उस ढाँचे को उखाड़ फेंकने में स्वयं को सक्षम नहीं समझता था।
इसी बीच नयी ताकतों के उदय ने युवा बुद्धियों जीवियों को उन गाँवों की याद दिलाई, जिनका अस्तित्व वे भूल चुके थे। भारत तथा गाँवों की ऐसी तस्वीर उन बुद्धियों जीवियों के सामने आई, जिसके वास्तविक अस्तित्व को वे पूरी तरह भूल गए थे। भारत तथा गाँवों की ऐसी दशा देखकर नेहरू जी बेचैन हो गए। तब उन्होंने उसके वास्तविक रूप को तलाशना शुरू किया। यह उनके लिए सही अर्थों में नयी यात्रा थी। उन्हें लगातार अपने लोगों की असफलताओं और कमज़ोरियों का दर्दयुक्त अहसास था, पर ग्रामीण जनता में कुछ ऐसी बात थी जो मध्य वर्ग में नहीं थी। मध्यवर्ग केवल उत्तेजना से भरा था।
नेहरू जी के लिए भारत के लोगों का अपनी सारी विविधता के साथ वास्तविक अस्तित्व है। उनकी विशाल संख्या होने के बावजूद भी उन्होंने उनसे बहुत अधिक आशा नहीं रखी, इसलिए वे निराश भी नहीं हुए। उन्होंने देखा कि भारतीय संस्कृति के कारण उनमें एक प्रकार की दृढ़ता और अंत:शक्ति है। वे लगभग दो सौ वर्षों तक अंग्रेज़ों का अत्याचार झेल रहे हैं। बहुत कुछ तो इस कारण समाप्त हो गया, पर उन्होंने बहुत कुछ सार्थक बचा रखा है जो प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक परंपरा का अंश बना हुआ है, पर इसमें कुछ निरर्थक तथा अनिष्टकारी तत्व भी हैं।
भारत माता
नेहरू जी जब भी सभाओं में जाते थे तो अपने श्रोताओं से हिंदुस्तान के सम्राट ‘भरत’ की चर्चा अवश्य करते थे,जिनके नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा। वे देश के किसानों के समक्ष इस महान देश की चर्चा करते, जिसके लिए वे संघर्ष कर रहे हैं। उनको नेहरू जी बताते कि भिन्न-भिन्न होकर वे कैसे एक हैं। सभी इस महान भारत के हिस्से हैं। उन्होंने सुदूर उत्तर-पश्चिम में खैबर पास से कन्याकुमारी तक की अपनी लंबी यात्रा के अनुभव के आधार पर बताया कि देश के सभी हिस्से के किसानों की समस्याएँ एक जैसी हैं। देश के सभी स्थानों के किसान गरीबी, कर्ज निहित स्वार्थ, जमींदार महाजन, भारी लगान, कर, पुलिस के अत्याचार आदि समस्याओं का सामना कर रहे हैं। सभी देशवासियों को मिलकर अंग्रेज़ों के चंगुल से इस देश को आज़ाद कराना है। नेहरू जी के लिए यह अनुभव कराना ज़्यादा कठिन काम न था क्योंकि उन्हें प्राचीन महाकाव्यों, पुरागाथाओं और दंतकथाओं की जानकारी थी। उन्हें साहित्य के माध्यम से देश के बारे में जानकारी थी।
नेहरू जी जैसे ही किसी सभा में पहुँचते, उनके स्वागत में ‘भारतमाता की जय!’ के नारों का स्वर गूँज उठता। वह उन्हीं से पूछ बैठते कि ‘भारतमाता की जय!’ से उनका आशय क्या है? वे स्वयं चंकित होकर एक दूसरे को देखते और सोचते कि क्या ज़वाब दे। फिर वे नेहरू जी की ओर देखते थे। अंत में वे श्रोताओं को बताते कि भारत वह सब कुछ है जो उन्होंने सोच रखा है। भारत इसके अलावा भी बहुत कुछ है। भारत के पहाड़ और नदियाँ, जंगल और फैले हुए खेत सब उन्हें प्रिय हैं, पर भारत की जनता उन्हें सर्वाधिक प्रिय है। इस विशाल धरती पर फैले लोग ही मूल रूप से भारतमाता हैं तथा भारतमाता की जय का अर्थ जनता जर्नादन की जय!
इस प्रकार स्वयं को तथा प्रत्येक भारतवासी को भारत का हिस्सा समझकर उनकी आँखें चमकने लगती। उन्हें लगता कि मानो उन्होंने भारत की खोज कर ली हो।
भारत की विविधता और एकता
विविधता में एकता देखने के लिए भारत से अच्छा स्थान शायद ही कोई हो। यहाँ की विविधता भी अद्भुत है] जिसे स्पष्ट रूप से कोई भी देख सकता है। उत्तर-पश्चिमी इलाके में रहनेवाला पठान सुदूर दक्षिण छोर पर रहनेवाले तमिल से बहुत कम समानता रखता है। इन अनेक विविधताओं के बावजूद सीमा के पास रहनेवाले पठान पर भारत की छाप तमिल जैसी ही दिखाई देती है। अफगानिस्तान भारत के साथ हजारों वर्षों से जुड़ा रहा है। यहाँ के पुराने तुर्क और दूसरी जातियाँ, जो मध्य एशिया में बसी थीं, इस्लाम के आने के पूर्व बौद्ध थीं और उससे भी पहले वैदिक काल में हिंदू थीं। यह क्षेत्र प्राचीन भारतीय संस्कृति के केंद्र में था। आज भी स्मारकों और मठों के अवशेषों में तक्षशिला के अवशेष मिल जाते हैं। यहाँ सारेे भारत के अलावा एशिया के विभिन्न भागों से विद्यार्थी आकर शिक्षा ग्रहण किया करते थे। धर्म-परिवर्तन के बाद भी लोगों ने जो मानसिकता कर ली थी, वह पूरी तरह न बदल सकी।
अन्य प्रांतवासियों की भी अपनी अलग-अलग विशेषताएँ हैं, पर उनमे भारतीयता की गहरी छाप भी विद्धमान है। आश्चर्यजनक बात यह है कि बंगाली, मराठी, गुजराती, तमिल, आंध्र, उडिय़ा, असमी, कन्नड़, मलयाली, ख्नसधी, पठान, कश्मीरी, राजपूत और हिंदुस्तानी भाषा-भाषी जनता से बसा हुआ विशाल मध्य भाग सैकड़ों वर्षों तक अपनी पहचान बनाए रख सका। इसकी जानकारी पुरानी परम्पराओ और अभिलेखों से मिलती है। भारत की सभ्यता और संस्कृति ऐसी थी, जिसने तमाम चीज़ो को आकार दिया। विदेशी प्रभाव भी भारतीय संस्कृति को प्रभावित न कर सके और उसी में समाहित हो गए। भारतीय मानस में एकता की भावना सर्वोपरि रही। यहाँ विश्वासों और रीति-रिवाज्जों के प्रति अपार सहिष्णुता का पालन किया गया।
नेहरू जी का मानना था कि अब तक के ज्ञात इतिहास में एक भारतवासी, भारत के किसी भी भाग में जाकर भी वहां अपने घर की-सी अपनेपन की अनुभूति करता है, जबकि अन्य देश में जाकर वह अज़नबी तथा परदेशी महसूस करता है। गैर-भारतीय धर्म मानने वाले जो भारत में आकर बस गए, वे कई पीढिय़ों के बाद भारतीय होकर रह गए। यहूदी, पारसी, मुसलमानों को देखकर इसे जाना-समझा जा सकता है। जिन भारतीयों ने इन धर्मों को स्वीकार कर लिया, वे भी धर्म-परिवर्तन के बावजूद भारतीय बने रहे। आज जब राष्ट्रवाद की अवधारणा विकसित हो गई है, विदेशों में भारतीय अधिक एकजुट होकर रहते हैं। आज हिंदुस्तानी ईसाई कहीं भी जाए, वह हिंदुस्तानी ही कहलाएगा। इसी प्रकार हिंदुस्तानी मुसलमान को किसी भी देश में हिंदुस्तानी ही कहा जाता है।
नेहरू जी सोचते थे कि अपनी मातृभूमि के बारे में हर कोई अपने-अपने ढंग से सोचता है। वे अनगिनत छोटे-छोटे गाँवों, कस्बों, शहरों तथा दूर-दूर तक फैले खेतों के बारे में सोचते थे, जहाँ-जहाँ वे गए थे। वर्षा ऋतु की जादुई बरसात धरती का सौंदर्य बढ़ा देती है। विशाल नदियों में बहता जल, बर्फ में ढँके खैबर पास के बारे में, बर्फीले हिमालय के बारे में, नवजात फूलों से भरी पहाड़ी घाटी और उनके बीच से बहता झरना। इनसे जो सुंदर तस्वीर बनती है उसे नेहरू जी सँजोए रखते थे।
जन संस्कृति
भारत की तलाश के क्रम में नेहरू जी जब भारतीय जनता के जीवन की गतिशीलता देखते तो उसका संबंध अतीत से जोड़ते थे, जबकि इन लोगों की नज़रें भविष्य पर टिकी रहती थीं। उन्हें हर जगह ऐसी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि मिली जो लोगों को प्रभावित कर रही थी। इस पृष्ठभूमि में लोक-दर्शन, परंपरा, इतिहास, प्राचीन कथाएँ तथा मिथकों का ऐसा मेल था, जिन्हें अलग कर पाना संभव न था। निरक्षर लोग भी इस पृष्ठभूमि के हिस्सेदार थे। इनके बीच रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथ अपनी पहुँच बनाए हुए थे। उनकी घटना, कथा आदि का नैतिक अर्थ हर मानस पर अंकित था। अनपढ़ ग्रामीणों को सैकड़ों पद और नैतिक उपदेशों से भरी कहानियाँ याद थीं। नेहरू जी ने महसूस किया कि यदि उनके मन में लिखित इतिहास और सुनिश्चित तथ्यों से निर्मित तस्वीरों का भंडार है तो इन किसानों के मन में भी वैसी ही तस्वीर है। उनके मन की ये तस्वीरें किसी साहित्य से कम नहीं हैं। इससे स्प"ङ्क होता था कि इनमें बौद्धिकी विश्लेषण की शक्ति भरी है।
अपनी इस यात्रा में नेहरू जी ने इन किसानों के चेहरे, आकार और चाल-ढाल को देखा। उनके चेहरे संवेदनशील, देह बलिष्ठ थे, तथा महिलाओं में लावण्य, नम्रता, गरिमा और संतुलन के साथ अवसाद रहता था। किसी देहाती रास्ते पर चलते हुए जब वे मनोहर पुरुष या सुंदर स्त्री को देखते तो आश्चर्य चकित रह जाते थे, क्योंकि इनसे भित्ति चित्रों की याद तरोताजा हो जाती थी। वे सोचते थे कि इतने भयानक कष्ट सहने के बाद भी यह सौंदर्य कैसे बना रह सका। उन्हें लगा कि इन लोगों के माध्यम से बहुत कुछ किया जा सकता है, पर इन्हें ऐसा करने का अवसर मिलना चाहिए।
नेहरू जी ने देखा कि उस समय भारत की आस्तिक और सामाजिक स्थिति बहुत अच्छी न थी। चारों ओर गरीबी और विपत्तियों का साम्राज्य था। इससे जिंदगी कुरूप बन गई थी। समाज में भ्रष्टाचार तथा असुरक्षा की स्थिति बन गई थी, पर भारत की सच्चाई यही थी। यह सब कुछ होने के बाद भी स्थिति को स्वीकारने की प्रबल पर्विति, नम्रता और भलमनसाहत थी जो हज्जारों वर्षों की सांस्कृतिक विरासत की देन थी और इसे दुर्भाग्य भी न मिटा पाया था। अर्थात भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्वों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था।
इस पाठ में नेहरू जी देश के बारे में अपने विचार प्रकट करते हैं। उनका कहना था कि उनके मन में सिर्फ देश के ही विचार रहते हैं। वे चिंतन करते हैं कि अपने बचपन में वे जिस भारत के बारे में सोचते थे, उसने अपनी प्राचीन शक्तियाँ कैसे खो दी हैं? क्या एक आबादी वाले देश के अलावा हमारी कुछ और ताकत है? भारत आधुनिक युग का सामना कैसे करेगा? उन्होंने देश को बाहरी आलोचक की नजर से देखा था जो वर्तमान और अतीत दोनों की कुछ बातें नापसंद करते थे। वे जानना चाहते थे की भारत की अस्तित्व को बनाए रखने वाला विशेष तत्व क्या था। उन्होंने भारत के उत्तर पश्चिम में पांच हजार वर्ष पहले बनी सिंधु घाटी सभ्यता की बात कही। इस सभ्यता के विकसित होने के कारण ही वो आज तक हमारे बीच बनी हुई है।
भारत के इतिहास में भाषा और समृद्ध दिमाग का असर था। इसमें पराक्रमी योद्धा, मिथ्या, एवं प्राचीन कथाएं शामिल हैं । भारत का प्रत्येक पत्थर, नदी लोगों को पीढ़ियों से अपनी और खींच रहे हैं, यह भारत की महानता का प्रतीक हैं । किन्तु इन सबसे अलग भारत तकनीकी विकास में पीछे रह गया। मानसिक जड़ता और शारीरिक थकावट से भारत पिछड़ गया । ऐसा होने का कारण जानना मुश्किल है, क्योंकि भारत में पहले दिमागी सजगता और कौशल की कमी नहीं थी।
नेहरू जी को भारत की समझ यहाँ की पुस्तकों, प्राचीन इमारतों और सांस्कृतिक इतिहास से जुड़े उपलब्ध साधनों से हुई थी परंतु इससे उन्हें जो उत्तर मिले उससे वो संतुष्ट नहीं हुए थे। वो दौर उनके लिए और उनके जैसे कई लोगों के लिए गरीबी और संघर्ष का था। मध्यवर्ग ने इस संघर्ष में नेतृत्व किया था क्योंकि उनमें विद्रोह की भावना जागी। नई ताकतों ने मोर्चा संभाल और गांव की जनता को अपनी ओर ले आयीं । अद्भुत विविधता के इस देश ने सैकड़ों वर्षों में अपनी पहचान बनाई, जब वे अपने समूह की घनिष्ठता छोड़ कर देशीय एकता के साथ आये। लेकिन वर्तमान समय में गरीबी और परेशानियां हर जगह इंसान को सता रही थी और यहीं भारत की असलियत थी।
पृष्ठ : बराबर—लगातार।
विश्लेषण—वास्तविकता जानने का प्रयास करना।
अवधारणा—विचार।
बसेरा—निवास।
आलोचक—सही-गलत दोनों पक्षों पर विचार करनेवाला।
शंका—संशय, संधये।
सिर उठाना—अस्तित्व में आना।
खारिज्ज करना—नकारना।
जीवंत—सजीव।
टिकाऊ—मज़बूत।
वजूद—आधार।
पृष्ठ : टीला- पठार जैसा ऊँचा भाग।
ठेठ—पूरी तरह।
परिवर्तनशील—बदलता रहनेवाला।
विकासमान—विकास की ओर उन्मुख।
संपर्क—संबंध।
सक्रिय—क्रियाशील।
समृद्धि—संपन्नता।
पराक्रमी—साहसी।
दास्तान—कहानी।
मिथक—प्राचीन कथाओं का तत्व जो नवीन परिस्थितियों में नया अर्थ वहन करे।
पृष्ठ : दंतकथा—ंकंवदंती, जनश्रुति,लोकथा।
विशाल—बड़ी।
अनगिनत—अनेक।
कबीला—कुल, वंश, जंगली आदमियों का किसी विशेष व्यक्ति को नेता या सरदार माननेवाला समूह।
रमणीय—सुंदर।
पौराणिक—पुराण संबंधी।
तादाद—संख्या।
भग्नावशेष—पुरानी चीज़ों (महलों) का बचा-खुचा भाग।
पुरखे—पूर्वज।
पर्व—त्योहार।
हैरत—हैरानी।
प्रबल—मज़बूत।
पृष्ठ : आस्था—विश्वास।
दौरा—यात्रा।
अंतदृष्टि—अंदर तक पहचान पाने की शक्ति।
बोध—ज्ञान।
तत्काल—उसी समय।
फासला—दूरी।
अभिलिखित—लिखित सबूत।
पाषाणस्तंभ—पत्थर के खंभे।
शिलालेख—पत्थरों पर लिखे गए लेख।
सम्राट—राजाओं का राजा।
जिज्ञासु—जानने की इच्छा रखनेवाला।
शाश्वत—निरंतर, चिर।
परंपरा—रीति-रिवाज़।
स्रोत—प्राप्य स्थान।
पतन—गिरावट।
जमाना—एक युग, लंबा समय।
पृष्ठ : हौसलामंद—हिम्मत बढ़ानेवाली।
मानसिकता—सोचने की शक्ति।
गुत्थी—उलझन, उलझा हुआ प्रश्न।
सुलझाना—हल करना।
सजगता—सतर्कता।
उताररोतर—बाद में।
आभास—अनुमान।
उद्यम—परिश्रम।
क्षीण—कमज्जोर।
अनुकरण—नकल।
शब्दाडंबर—शब्दों का हेर-फेर।
लैस—सुसज्जित।
भाष्यकार—भाषा पर अधिकार रखनेवाला।
जटिल—कठिन।
नक्काशी—हाथ से बनाई गयी महीन कारीगरी।
अलंकृत—सजी हुई।
संकीर्ण—छोटी, कमज्जोर।
रूढि़वादिता—पुराने विचारों की मान्यता।
विकट—कठिन।
मूर्छा—बेहोश होने की अवस्था।
जड़ता—मूर्खता, स्थिरता।
ह्रास—गिरावट। पथ—रास्ता।
सर्वेक्षण—जाँच-पड़ताल।
ध्वंसावशेषों—टूटी-फूटी बची हुई वस्तुएँ।
क्रमभंग—क्रम टूट जाना।
पुनर्जागरण—नए विचार एवं विकास को अपनाना।
पृष्ठ : सामंजस्य—तालमेल।
प्रयास—कोशिश।
अंतर्वस्तु—आंतरिक आधार।
आत्मसात करना—अपना लेना।
सामथ्र्य—क्षमता, शक्ति।
स्मारक—महत्वपूर्ण लोगों की याद में बनाए गए भवन।
विगत—जो बीत चुका हो।
हद—सीमा। दुर्गति—बुरी स्थिति।
मिश्रण—मिला-जुला।
नेतृत्व—अगुआई।
चेतना—संज्ञान।
रौंद देना—नष्ट कर देना।
उखाड़ फेंकना—भगा देना।
बौद्धजीवियों—विचारशील बुद्धि से जीविका चलने वाला
पृष्ठ : अहमियत—महक्रव।
दवंद्व—उलझन।
समुदाय—समूह।
उत्तेजक—उत्तेजना से भर देनेवाला।
अपेक्षा—उम्मीद।
सूझा—समझ में आया।
दृढ़ता—मजबूती।
अंत:शक्ति—अंदर की ताकत।
परंपरा—रीति-रिवाज।
निरर्थक—जिसका कोई अर्थ न हो।
अनिष्टकारी—विनाश करनेवाला।
श्रोता—सुननेवाले।
संस्थापक—स्थापना करनेवाला।
प्राचीन—पुराना।
प्रभावशाली - दमदार I
नजरियां—दृष्टिकोण।
पृष्ठ : बावत—बारे में।
सुदूर—बहुत दूर।
अत्याचार—सताने और शोषण करने की प्रक्रिया।
हुकूमत—शासन।
आरोपित—थोपा हुआ। अखंड—समूचा, पूरा।
विराट—विशाल।
कंठ—गला।
अटूट—घनिष्ठ, गहरा।
पृष्ठ : सिलसिला—क्रम।
प्रयत्न—कोशिश।
मुहैया—उपलब्ध।
जनता-जनार्दन-लोगो का समहू ।
अद्ïभुत—आश्चर्यजनक, विचित्र।
प्रकट—दिखाई देनेवाला।
ताल्लुक—संबंध।
सीमांत—सीमा के किनारे पर।
गमक—महक।
पृष्ठ : ध्वस्त—नष्ट हुए।
अवशेष—बचा हुआ अंश।
चरम-सीमा—सर्वोच्च बिंदु।
कमोबेश—कम-ज़्यादा।
जज़्ब होना—समा जाना।
विघटनकारी—अलग-थलग करनेवालद्म।
सामंजस्य—तालमेल।
आरोपित—बलपूर्वक थोपा हुआ।
मानकीकरण—शुद्ध रूप।
सहिष्णुता—सहन करने की शक्ति, सहृदयता।
प्रोत्साहन—बढ़ावा।
पृष्ठ :मूल—वास्तविक।
निकटवर्ती—पास रहनेवाला।
बोध—ज्ञान।
मतभेद—विचारों में अंतर।
प्रभुत्व—बोलबाला।
अनगिनत—बहुत अधिक, असंख्य।
पृष्ठ 15:
प्रसार—फैलाव।
नवजात—ताज़ा, ।
सहेजकर—सँभालकर।
जीवन-नाटक—जीवन के क्रियाकलाप।
पृष्ठभूमि—आधार।
लोक-प्रचलित—लोगों के बीच फैली हुई।
मिथक—जिसका साहित्य में उल्लेख न हो, मनगढ़ंत।
पह्नरा—प्राचीन।
लोकमानस—लोगों का विचार हुआ।
अंकित—छपा हुआ।
पद—साहित्यिक काव्य विधा
उद्ïधृत करना—उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करना।
रोज़मर्रा—प्रतिदिन।
मसला—मामला।
पृष्ठ :
संवेदनशील—संवेदना से युक्त।
देह—शरीर।
लावण्य—सौंदर्य।
गरिमा—बड़प्पन।
अवसाद—दुख।
मनोहर—सुंदर, आकर्षक।
विस्मय-विमुग्ध—आश्चर्ययुक्त, सम्मोहन के साथ।
भीति चित्र—दीवारों पर बनद्म चित्र।
छाप—प्रभाव।
विकृत—बिगड़ा हुआ।
पर्विति—आदत। प्रबल—मज़बूत।
भलमनसाहत—दूसरों की भलाई करने का गुण।
दुर्भाग्य—बदकिस्मती।
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