लेखक समाचार-पत्रों को देखता है तो उसमें ठगी, डकैती, तस्करी, चोरी और भ्रष्टाचार के समाचारों की बहुलता होती है, जिसे देखकर उसका मन दुखी हो जाता है। इनमें एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप किया जाता है। इसे देखकर तो यही लगता है कि देश में कोई ईमानदार रह ही नहीं गया है। ऐसे में हर व्यक्ति गुणी कम, दोषी अधिक दिखता है। ऊँचे पद पर आसीन व्यक्ति ज्यादा ही दोषी दिखाई देता है। दोषों को इतना बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है कि उसके सारे गुण छिप जाते हैं। उसके गुणों को बिल्कुल ही छिपा देना चिंता का विषय है। लेखक का मानना है कि भारत-भूमि पर बड़े-बड़े मनीषी पैदा हुए हैं। मानवता हमारा आधार है। यहाँ आर्य और द्रविड़, हिंदू और मुसलमान, यूरोपीय और अन्य संस्कृतियों का मेल हुआ है। यह मानव-महासमुद्र कभी सूख नहीं सकता। यहाँ विभिन्न जातीय रूपी बूँदें मिलकर मानव संसार रूपी महासागर बनाती हैं। इसी के साथ यह भी सही है कि आजकल कुछ इस तरह का वातावरण बना हुआ है कि परिश्रमी और भोले-भाले परेशान हैं तथा .फरेब का व्यापार करनेवाले उन्नति करते जा रहे हैं। इस माहौल में ईमानदारी, सच्चाई, मेहनत आदि बेबसी बनकर रह गई है। इससे जीवन के मानवीय मूल्यों के प्रति लोगों की आस्था विचलित होने लगी है।
भारत वह देश है जहाँ भौतिक वस्तुओं के संग्रह को महत्व नहीं दिया जाता। यहाँ मनुष्य के आंतरिक भावों को ही विशेष माना जाता है। हर व्यक्ति में लोभ-मोह, काम-क्रोध आदि भरे हैं, पर इन्हे प्रधान मानकर मन को ड्ढनके इशारे पर नहीं छोडऩा चाहिए। इन्हें संयत रखने का प्रयास करना चाहिए तथा आवश्यकतानुसार ही इनका प्रयोग करना चाहिए। इस देश के करोड़ों-करोड़ों गरीबो की हीन अवस्था दूर करने के लिए कानून बनाए जाते हैं, जिनका लक्ष्य कृषि, उद्योग , वाणिज्य, शिक्षा और स्वास्थ्य को बेहतर बनाना होता है, पर इन कार्यों में जिन लोगों को लगाया जाता है, वे वास्तविक उददेश्य से भटककर स्वयं ही फायदा उठाने में लग जाते हैं। भारतवर्ष में कानून को धर्म के रूप में देखा जाता है, किंतु वर्तमान में इसमें भी बदलाव आ गया है। लोग धर्म और कानून में अंतर मानकर कानून को धोखा देने लगे हैं। लोग धर्म से तो डरते हैं पर कानून का अनुचित लाभ उठा जाते हैं। कहने को कुछ भी कहा जाए, पर धर्म कानून से बड़ी चीज है। धर्म ही है जो सेवा, ईमानदारी, सच्चाई और आध्यात्मिकता का मूल्य बनाए हुए है। धर्म दबा जरूर है, पर नष्ट नहीं हुआ है। वह आज भी मनुष्य से प्रेम करता है, स्त्रियों का सम्मान करता है, झूठ और चोरी को पाप समझता है। समाचार-पत्रों में भ्रष्टाचार के प्रति इतना आक्रोश यही सिद्ध करता है कि हम इनको गलत समझते हैं और गलत तरीके से धन या मान का संग्रह करनेवालों की प्रतिष्ठा कम करना चाहते हैं। लेखक बुराई का पर्दाफाश करना अच्छा समझता है, पर किसी के आचरण के गलत पक्ष को उद्घाटित करते हुए रस या आनंद लेना अच्छी बात नहीं समझता। वास्तव में, अच्छाई को रस लेकर उद्घाटित करना चाहिए। अच्छी घटनाओं को उजागर करने से दूसरों के मन में अच्छी भावना बलवती होती है।
इसी संबंध में एक घटना के बारे में लेखक बताता है कि एक बार टिकट लेते समय उसने टिकट बाबू को दस की जगह सौ का नोट थमा दिया और जल्दी में गाड़ी में आकर बैठ गया। कुछ देर बाद वह टिकट बाबू नब्बे रूपये लिए डिब्बे में आया और लेखक को पहचानकर नब्बे रूपये वापस कर गया। उस समय टिकट बाबू के चेहरे पर संतोष की गरिमा देखते ही बनती थी।
दूसरी घटना के अनुसार, लेखक सपरिवार बस में यात्रा कर रहा था। बस में कुछ खराबी थी, जिससे वह रुक-रुककर चल रही थी। बस गंतव्य से आठ किलोमीटर पहले ही सुनसान जगह पर खड़ी हो गई। बस के कंडक्टर ने एक साइकिल उठाई और चलता बना। संदेह एवं भय से त्रस्त लोग तरह-तरह की बातें करने लगे। कोई दो दिन पहले हुई डकैती की बात कहता तो कोई कुछ और। लेखक सपरिवार था। बच्चे पानी-पानी चिल्ला रहे थे, परंतु पानी वहाँ उपलब्ध न था। कुछ नौजवानों ने ड्राइवर को पीटने का मन बनाया। लेखक के समझाने पर नौजवानों ने उसे बंधक बना लिया और अलग लेकर चले गए कि यदि बस का कंडक्टर डाकुओं को लेकर आता है तो पहले इस ड्राइवर को ही खत्म कर दिया जाए। इस बीच डेढ़-दो घंटे बीत गए। बच्चे भोजन-पानी के लिए व्याकुल थे। लेखक ने ड्राइवर को पिटने से बचा तो लिया, पर वह भी घबराया हुआ था। तभी लेखक ने देखा कि कंडक्टर बस अड्डे से खाली बस लिए चला आ रहा है। उसने आते ही कहा कि यह बस चलने लायक नहीं है। अब इस बस पर बैठिए। उसने अपने साथ लोटे में लाए पानी और थोड़े से दूध को लेखक के बच्चों को दिया। सबने उसे धन्यवाद देकर ड्राइवर से माफी माँगी और बस बारह बजे से पहले अपने गंतव्य तक पहुँच गई।
लेखक कई बार ठगी और धोखे का शिकार हुआ है, पर उसके साथ विश्वासघात कम ही हुआ है। उसका मानना है कि कष्टकर चीजों का हिसाब रखने से जीवन कष्टकर हो जाता है। कई बार लोगों ने अकारण उसकी सहायता भी की है, निराश मन को दिलासा और हिम्मत प्रदान की है। रवींद्रनाथ ने ईश्वर से प्रार्थना करते हुए लिखा है कि लयदि केवल धोखा खाना पड़े या नुकसान उठाना पड़े तो भी, हे प्रभो! इतनी शक्ति देना कि मैं तुम्हारे ऊपर संदेह न करूँ।
अंत में लेखक कहता है कि मनुष्य की बनाई नीतियाँ यदि आज गलत हो रही हैं तो उन्हें बदलने की जरूरत है। अब भी आशा की ज्योति बुझी नहीं है। हमारे उन्नति और विकास के रास्ते अब भी खुले हैं। अत: मानव मन को निराश होने की आवश्यकता नहीं है।
पृष्ठ : तस्करी—अवैध् वस्तुओ का चोरी से व्यापार करना। आरोप-प्रत्यारोप —एक-दूसरे को दोषी ठहराना। अतीत—बीता हुआ। गह्वर - गड्ढा। मनीषी—विद्वान लोग। माहौल—वातावरण। जीविका—रोजी-रोटी का साधन। निरीह—असहाय, कमजोर। श्रमजीवी—परिश्रम करके रोटी कमानेवाला। पिसना—मुसीबतें झेलना। फऱेब—छल-कपट। पर्याय—दूसरा नाम। भीरु—कायर, डरपोक। बेबस—लाचार। आस्था—विश्वास।
पृष्ठ : भौतिक —बनावटी, कृत्रिम। संग्रह —एकत्र करना। आंतरिक—अंदर (हृदय) के। चरम और परम—आखिरी और सबसे सुुंदर। लोभ—लालच। संयम—नियंत्रण। गुमराह—जो सही रास्ते से भटक गया हो। उपेक्षा—आदर न देना। कोटि-कोटि—करोड़ों। हीन—कमजोर। सुचारु—सही रूप में। त्रुटियाँ—कमियाँ, ग़लतियाँ। प्रमाण—सबूत। आध्यात्मिकता— ईश्वरीय, धार्मिक। आक्रोश—गुस्सा।
पृष्ठ : प्रतिष्ठा—इज्जत। दोषोद्घाटन—कमियों को सामने लाना। लोक-चित्त—लोगों के मन में। विचित्र —अनोखी। गरिमा—महिमा, बड़प्पन का भाव। अवांछित—अनचाही। वंचना—धोखा।
पृष्ठ : गंतव्य—लक्ष्य, जहाँ जाना हो। निर्जन—जहाँ कोई मनुष्य न हो। कातर—डरा हुआ।
पृष्ठ : व्याकुल —बेचैन। गिड़गिड़ाना —दीनतापूर्वक मदद के लिए प्रार्थना करना।
पृष्ठ : एकदम—पूरी तरह से। विश्वासघात—विश्वास को तोडऩा। कष्टकर—दुख देनेवाला। विधियाँ—नीतियाँ, तरीके।
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