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भारतीय अर्थव्यवस्थाः एक अध्ययन, पारंपरिक अर्थव्यवस्था, (UPSC) | भारतीय अर्थव्यवस्था (Indian Economy) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

अर्थव्यवस्था का विकास

  • विकास को मूर्त रूप देने में कई घटकों की भूमिका है, जैसे प्रौद्योगिकी में नवीनताएं, ज्ञान का प्रसार, जनसंख्या वृद्धि और उसका शहरों में केन्द्रित होना, विश्व अर्थव्यवस्था का वित्तीय एकीकरण-भूमंडलीकरण और स्थानीयकरण।
  • जापान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर और चीन के अनुभवों से यह स्पष्ट हो गया है कि अनुकूलतम मानव संसाधन विकास की बदौलत किसी भी देश के लिए अन्य बातों के अलावा बौद्धिक अर्थव्यवस्था, बौद्धिक संगठन, बौद्धिक प्रबंध और बौद्धिक श्रमिक जुटाना संभव हो सकता है।

आर्थिक विकास और ढांचागत परिवर्तन

  • तीव्र एवं व्यापक विकास से अर्थव्यवस्था के ढांचे में निश्चित रूप से परिवर्तन होते हैं। यह देखा गया है कि विभिन्न व्यवसायों के बीच ज्ञान आधारित श्रमिकों की अदला-बदली हुई है। इसी तरह भूमि के स्वामित्व और प्रबंध में भी बदलाव आया है। निवेश के स्वरूप और ढांचे में भी परिवर्तन हो रहा है तथा अर्थव्यवस्था की संरचना भी बदल रही है।

आर्थिक विकास के प्रभाव का अध्ययन निम्नलिखित उप-शीर्षकों के तहत् किया जा सकता है

  • व्यावसायिक ढांचे में परिवर्तन (बौद्धिक श्रमिक)
  • भूमि के स्वामित्व, प्रबंधन आदि में परिवर्तन (ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था)
  • उद्योगों का ढांचा (ज्ञान आधारित संगठन)

मोटे तौर पर श्रमिकों को तीन वर्गों में बांटा जा सकता है

  • प्राथमिक व्यवसाय - खेती, पशुपालन, वानिकी, मछली पालन आदि, को सामूहिक तौर पर प्राथमिक व्यवसाय कहा जाता है, क्योंकि वे श्रमिकों के प्राचीनतम एवं प्रथम व्यवसाय हैं।
  • माध्यमिक व्यवसाय - लघु और बड़े उद्योगों, कार्यालय, फैक्ट्रियों आदि में विनिर्माण को माध्यमिक कार्यों के रूप में जाना जाता है। प्राथमिक व्यवसायों के बाद माध्यमिक व्यवसायों का दूसरा स्थान है।
  • तृतीयक व्यवसाय - तीसरे दर्जे के व्यवसायों में परिवहन, संचार, बैंकिंग, वित्त और काम की सेवाएं जैसे डाक्टरों, वकीलों, सरकारी कर्मचारियों आदि की सेवाएं आती हैं।
  • इन व्यवसायों में सेवाएं उपलब्ध करायी जाती हैं। (पहले दो व्यवसायों से भिन्न, जिनमें वस्तुएं बनायी जाती हैं) और इसीलिए तृतीयक व्यवसायों को सेवा क्षेत्र कहा जाता है।
  • बुद्धि या ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था में बौद्धिक श्रमिकों को तीन बड़े क्षेत्रों में विभाजित करना व्यावसायिक ढांचा अथवा बौद्धिक अर्थव्यवस्था के श्रमिकों का व्यावसायिक प्रतिमान कहलाता है।

भारतीय उद्योग ढांचा

  • आजादी के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था का औद्योगिक ढांचा मिश्रित अर्थव्यवस्था की अवधारणा पर आधारित था- यानी उस पर आंशिक नियंत्रण सरकार का और आंशिक निजी क्षेत्र का था।
  • 1948 और 1956 के औद्योगिक नीति प्रस्तावों में मुख्य रूप से इस बात पर बल दिया गया कि एक ऐसी मिश्रित अर्थव्यवस्था की स्थापना की जाये, जिसमें निजी और सार्वजनिक दोनों ही उद्यम साथ-साथ विकास कर सकें।
  • इसी आधार पर सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की स्थापना की गई और उनका विस्तार किया गया। किन्तु, दोनों क्षेत्रों के बीच हमेशा एक संघर्ष रहा।
  • उन वर्षों में सरकार ने संयुक्त क्षेत्रके उद्यमों का भी प्रयोग किया-यानी ऐसे उद्यम लगाए गए जिनके स्वामित्व और प्रबंध में निजी एवं सार्वजनिक, दोनों क्षेत्रों की संयुक्त भागीदारी थी
  • बड़े पैमाने पर कुटीर एवं लघु उद्योग लगाए गए। हालांकि प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में पूंजी के अभाव वाली भारतीय अर्थव्यवस्था में कुटीर और लघु उद्योगों की महत्वपूर्ण भूमिका पर बल दिया गया, लेकिन औद्योगिक उत्पादन बड़ी इकाइयों में ही केन्द्रित रहा
  • सरकार ने आठवीं पंचवर्षीय योजना में औद्योगिक, राजस्व, व्यापार और विदेशी पूंजी निवेश के बारे में अनेक सुधार किए।
  • इन सुधारों का लक्ष्य उद्योग को नियंत्रण मुक्त या प्रतिबंध मुक्त करना था ताकि वह खास कार्यों के लिए बिना सरकारी मंजूरी के स्वयं फैसले कर सके।
  • इन सुधारों के पीछे यह मंशा भी थी कि अर्थव्यवस्था का अधिकारिक भूमंडलीकरण किया जाये और इसे विश्व अर्थव्यवस्था के साथ जोड़ा जाये।
  • उद्योग क्षेत्र की आजादी देने और उसके प्रति लचीलापन अपनाने का उद्देश्य उसकी संचालन एवं प्रतिस्पद्र्धा क्षमता बढ़ाना था।
  • इस पृष्ठभूमि में मात्रत्मक लक्ष्यों पर कम बल दिया गया और आयोजना पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया गया।

महत्वपूर्ण तथ्य

  • देश का कुल क्षेत्रफल 3287263 वर्ग किमी
  • विश्व का क्षेत्रफल का प्रतिशत 2.42% (सातवाँ स्थान)
  • समुद्र तट की कुल लम्बाई 8118 किमी
  • अनन्य आर्थिक क्षेत्र 2.02 मिलियन वर्ग किमी
  • कॉन्टिनेंटल सेल्फ क्षेत्र 0.53 मिलियन वर्ग किमी
  • कुल वन एवं वृक्षादित क्षेत्रफल 782871 वर्ग किमी (कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 23.81%)
  • कुल वनाच्छादित क्षेत्रफल (2013) 697898 वर्ग किमी (21.23%)
  • कृषि के अन्तर्गत भूमि (2011-12) 181.98 मिलियन हेक्टेयर
  • जोती गई भूमि (2011-12) 155.52 मिलियन हेक्टेयर
  • निवल बोया गया क्षेत्रफल (2011-12) सिंचित 140.801 मिलियन हेक्टेयर
  • खाद्यान्न फसलों के अन्तर्गत क्षेत्रफल 125.0 मिलियन हेक्टेयर
  • सिंचित क्षेत्र (निवल) (2011-12) 65.26 मिलियन हेक्टेयर
  • सकल सिंचित क्षेत्र (2011-12) 91.53 मिलियन हेक्टेयर (46.9%)
  • वर्षाधीन क्षेत्रफल (2011-12) 53.1%

फसलों में खाद्यान्न फसलों की हिस्सेदारी 

  • 1950-51 76.7%
  • 2011-12 88.07%
  • सर्वाधिक राज्यों की सीमा से लगा राज्य उत्तर प्रदेश (8 राज्यों की सीमाओं को स्पर्श करता है-हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, उत्तराखण्ड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, बिहार)
  • प्रति व्यक्ति भूमि उपलब्धता (2011-12) 0.151 हेक्टेयर
  • क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे बड़ा राज्य राजस्थान
  • क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे छोटा राज्य गोवा

दृष्टिकोण और रणनीति

  • औद्योगिक विकास में निजी क्षेत्र के प्रयासों पर अधिक बल दिया गया। विनिर्माण एवं निवेश के मामले में सार्वजनिक क्षेत्र के लिए गिनी चुनी गतिविधियां ही छोड़ी गईं, गांव में छोटे उद्यम और लघु उद्योग क्षेत्र कुल मिलाकर निजी प्रयासों और निजी उद्यमशीलता पर आश्रित रहा
  • इस बात पर भी बल दिया गया कि ‘सेवा क्षेत्र’ और ‘अनौपचारिक क्षेत्र’ को असंख्य नियमों, विनियमों और नौकरशाही के नियंत्रण से मुक्त किया जाये। 
  • इन क्षेत्रों को आठवीं पंचवर्षीय योजना में रोजगार के अवसर पैदा करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण समझा गया।
  • इसके अलावा ग्रामीण कामगारों सहित परम्परागत व्यवसायों के उपकरणों एवं तकनीक को नया रूप देने और तत्संबंधी अनुसंधान को बढ़ावा दिया गया तथा उनके व्यापक इस्तमाल के लिए लोगों को प्रोत्साहित भी किया गया।

सेवा क्षेत्र का विकास

  • इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण नीतिगत लक्ष्य मानव संसाधनों का समुचित विकास एवं उपयोग है। 
  • मानव संसाधन विकास का लक्ष्य उन्नत शिक्षा और विशेष व्यावसायिक प्रशिक्षण तथा अधिक संख्या में ज्ञान आधारित रोजगार के अवसर पैदा करे हासिल किया जा सकता है। 
  • रोजगार के पर्याप्त अवसर प्रदान करने वाले विनिर्माण क्षेत्र का विकास उन सेवाओं के विकास पर निर्भर है जो ज्ञान का बेहतर स्रोत हो सकती हैं और जिनसे रोजगार के गहन अवसर उपलब्ध हो सकते हैं।
  • राष्ट्रीय एवं सामाजिक नीतिगत लक्ष्यों के संबंध में यह कहा जाता है कि बैंकिंग, जहाजरानी, परिवहन और संचार जैसे क्षेत्र विकास-प्रक्रिया के बुनियादी ढांचे का हिस्सा होते हैं।
  • भारत में कृषि-अर्थव्यवस्था का सेवा-अर्थव्यवस्था में रूपान्तरण 1979 के आस-पास शुरू हुआ। 
  • इस संदर्भ में भारतीय अर्थव्यवस्था ने जापान और अमेरिका की विकास पद्धति का अनुसरण किया। 
  • इन दोनों की अर्थव्यवस्था में परवर्तित हुई और इस प्रक्रिया में ऐसा दौर कभी नहीं आया जिसमें विनिर्माण क्षेत्र का वर्चस्व रहा हो।
  • स्वतंत्रता-परवर्ती काल में सेवा क्षेत्र में सबसे अधिक तेजी से प्रगति हुई। 
  • मानव संसाधन विकास को निश्चित रूप से विकास प्राथमिकताओं में केन्द्रीय स्थान मिला है। 
  • लेकिन व्यवहार में अर्थव्यवस्था के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में मानव संसाधनों के स्थानांतरण के अध्ययन को पर्याप्त महत्व नहीं दिया जा रहा है। 
  • आर्थिक क्षेत्रों में नीतियां अपनाने के संदर्भ में यह बात खासतौर पर सही है।
  • जिनका अर्थव्यवस्था के सेवा क्षेत्र में विकास गतिविधियों पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।
  • मानव संसाधन आयोजना को एकीकृत बनाने और मानव संसाधन विकास पर क्षेत्रवार संदर्भ में अधिकाधिक विचार करने की पर्याप्त आवश्यकता है।
  • इस मुद्दे की पहचान बड़ी धीमी गति से हो रही है कि मानव संसाधन आयोजना सिर्फ मांग और आपूत की आवश्यकताओं को दर्शाने का प्रश्न मात्र नहीं है। 
  • इस तरह के दृष्टिकोण की सीमाओं की पहचान कर ली जानी चाहिए और क्षेत्रवार विश्लेषण तथा श्रम बाजार की समझ को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
  • ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था में ‘मानव-पूंजी’ का मूल्य पहचानने की आवश्यकता है, जो तकनीकी ढांचे के मानवीय कौशल में रूपान्तरित होने पर फलती-फूलती है।
  • अर्थव्यवस्था में चूंकि परिवर्तन हो रहा है अतः मानव को आयोजना, विकास जैसे कौशल और ज्ञान श्रमिक के रूप में उसके उपयोग की दिशा में लगातार पुनः प्रशिक्षित और पुनः यंत्रीकृत करने की आवश्यकता है।
  • ‘ज्ञान-अर्थव्यवस्था’, ‘ज्ञान-संगठन’, ‘ज्ञान-प्रबंध’ और ‘ज्ञान-श्रमिक’ परस्पर संबद्ध हैं और इन्हें अलग-अलग संचालित नहीं किया जा सकता। 
  • ज्ञान-श्रमिक ज्ञान-प्रबंधन के साथ संबद्ध है और ज्ञान-प्रबंधन का संबंध ज्ञान-संगठनों के साथ है। 
  • ज्ञान-संगठन, ज्ञान-प्रबंधन और ज्ञान-श्रमिक सभी ज्ञान-अर्थव्यवस्था के विकास एवं वृद्धि पर निर्भर हैं।
  • मानव संसाधन विकास की प्रक्रिया में ज्ञान-अर्थव्यवस्था का उपयोग सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और आध्यात्मिक जीवन का परिष्कार करने के लिए किया गया है। 
  • किन्तु ज्ञान-संगठन, ज्ञान-प्रबंधन और ज्ञान-श्रमिक अन्य बातों के अलावा आर्थिक विकास का अन्तनहित घटक समझते हैं।
  • ज्ञान-अर्थव्यवस्था का उद्देश्य एक ऐसा माहौल तैयार करना है जिसमें ज्ञान-संगठन, ज्ञान-प्रबंधन और ज्ञान-श्रमिक एवं दीर्घावधि तक स्वस्थ और रचनात्मक जीवन जी सकें, यानी सिर्फ आय नहीं बल्कि सभी मानवीय लक्ष्यों का विस्तार कर सकें।
  • सिद्धांत रूप में ये विकल्प अपरिमित हो सकते हैं और समय के अनुरूप इनमें बदलाव आ सकता है। 
  • किन्तु, विकास के सभी स्तरों पर तीन चीजें जरूरी हैं, लोग लंबी एवं स्वस्थ जिंदगी जी सकें, ज्ञान प्राप्त कर सकें और शानदार जीवन स्तर के लिए आवश्यक संसाधनों तक उनकी पहुंच कायम हो सके।
  • ज्ञान - अर्थव्यवस्था के दो पक्ष हैं। पहला है आर्थिक क्षमता का निर्माण और दूसरा है ज्ञान-श्रमिकों का उपयोग ताकि वे उत्पादक लक्ष्यों के लिए या सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक मामलों में सक्रिय रहने के लिए क्षमता हासिल कर सकें।
  • ज्ञान-अर्थव्यवस्था की अवधारणा को अभी हाल ही तक आर्थिक-परिदृश्य में हासिल नहीं किया गया था, क्योंकि इसका अर्थ है किसी देश में सामान एवं सेवाओं के उत्पादन में वृद्धि एवं विकास।

ज्ञान-अर्थव्यवस्था के नमूने में निम्नांकित चार घटक शामिल किए जा सकते हैं-

  • उत्पादकता - ज्ञान-श्रमिक को अपनी उत्पादकता बढ़ाने में अवश्य सफल होना चाहिए और आय तथा लाभकारी रोजगार की प्रक्रिया में पूर्ण भागीदारी निभानी चाहिए।
  • समानता - सभी लोगों को समान अवसर उपलब्ध कराये जाने चाहिए। आर्थिक और राजनीतिक अवसरों के मार्ग में आने वाली सभी रुकावटें दूर की जानी चाहिए ताकि लोग भागीदीारी कर सकें और इन अवसरों से लाभान्वित हो सकें।
  • स्थायित्व - अवसरों तक पहुंच न केवल वर्तमान पीढ़ी के लिए बल्कि भावी पीढ़ियों के लिए भी सुनिश्चित की जानी चाहिए। निवेश के भौतिक, मानवीय, पर्यावरण जैसे सभी पहलुओं में यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि उनका पुनर्भरण हो सके।
  • रोजगार - विकास लोगों के लिए नहीं बल्कि लोगों द्वारा होना चाहिए। लोगों को उनके जीवन को प्रभावित करने वाले फैसलों और प्रक्रियाओं में पूर्ण रूप से अवश्य शामिल किया जाना चाहिए।
  • भारत के पास ज्ञान - अर्थव्यवस्था को सहायता पहुंचाने के लिए एक स्थापित संस्थागत ढांचा और ज्ञान-संगठन हैं। जन, धन, पद्धति, सामग्री और मशीन।
  • इन पांच चीजों के प्रबंध को पांच ‘एम’ का प्रबंध कहा गया है (यानी मनी, मैन, मैथड, मैटिरियल और मशीन), आज हम इन पांच चीजों के प्रबंध की बजाय चार ‘के’ के प्रबंध की ओर मुड़ रहे हैं।
  • ये हैं ज्ञान - अर्थव्यवस्था (नॉलेज इकोनॉमी), ज्ञान-संगठन (नालेज-आर्गेनाइजेशन), ज्ञान-प्रबंध (नाॅलिज-मैंनेजमेंट) और ज्ञान-श्रमिक (नाॅलिज-वर्कर)
  • भारत को मानव - पूंजी के विकास में अपने संसाधन अवश्य लगा देने चाहिए ताकि वह विश्व अर्थव्यवस्था से एकीकरण की प्रक्रिया जारी रख सके।
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FAQs on भारतीय अर्थव्यवस्थाः एक अध्ययन, पारंपरिक अर्थव्यवस्था, (UPSC) - भारतीय अर्थव्यवस्था (Indian Economy) for UPSC CSE in Hindi

1. भारतीय अर्थव्यवस्था क्या है?
उत्तर: भारतीय अर्थव्यवस्था भारतीय अर्थशास्त्र के अध्ययन का एक हिस्सा है, जिसमें भारतीय अर्थव्यवस्था की विशेषताएं, नियम, नीतियां, और संरचना का अध्ययन किया जाता है। यह अध्ययन भारत की आर्थिक प्रगति, वित्तीय प्रणाली, वित्तीय बाजार, और अर्थव्यवस्था की विभिन्न पहलुओं को समझने में मदद करता है।
2. पारंपरिक अर्थव्यवस्था क्या है?
उत्तर: पारंपरिक अर्थव्यवस्था उन नियमों, नीतियों और प्रथाओं का संग्रह है जो अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में आम तौर पर पालन किए जाते हैं। इसमें लोग इतिहास, संस्कृति, परंपरा और सामाजिक संरचना के आधार पर आर्थिक गतिविधियों को निर्धारित करते हैं।
3. UPSC क्या है और यह किस लक्ष्य के लिए होता है?
उत्तर: UPSC (संघ लोक सेवा आयोग) भारतीय संघ लोक सेवा की संघ क्षेत्रीय नियंत्रण संगठन है। इसका लक्ष्य भारतीय संघ लोक सेवा (IAS, IPS, IFS आदि) में नियुक्ति के लिए योग्य उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया का आयोजन करना है।
4. भारतीय अर्थव्यवस्था के क्या प्रमुख घटक होते हैं?
उत्तर: भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रमुख घटक निम्नलिखित हो सकते हैं: - भूमि और कृषि क्षेत्र - उद्योग और निर्माण क्षेत्र - सेवा क्षेत्र - वित्तीय बाजार और बैंकिंग - वाणिज्यिक और वाणिज्यिकी - विदेशी निवेश और व्यापार
5. भारतीय अर्थव्यवस्था में वित्तीय प्रणाली क्या है?
उत्तर: भारतीय अर्थव्यवस्था में वित्तीय प्रणाली उद्योग, व्यापार, और व्यक्तिगत वित्तीय संसाधनों के आपूर्ति और वित्तीय गतिविधियों के प्रबंधन को संबोधित करती है। यह वित्तीय संस्थाओं, बैंकों, वित्तीय बाजारों, निवेश, और वित्तीय संकल्पों के अध्ययन पर आधारित होती है।
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