कविता की व्याख्या
(1)
छाया मत छूना
मन, होगा दुख दूना।
जीवन में हैं सुरंग सुधियाँ सुहावनी
छवियों की चित्रा-गंध पैफली मनभावनी;
तन-सुगंध शेष रही, बीत गई यामिनी,
वुंफतल के पूफलों की याद बनी चाँदनी।
भूली-सी एक छुअन बनता हर जीवित क्षण-
छाया मत छूना
मन, होगा दुख दूना।
शब्दार्थ - छाया = परछाईं, भ्रम, दुविधा, दूना = दुगुना, सुरंग = रंग-बिरंगी, सुधियाँ = यादें, सुहावनी = आनंद देने वाली, छवियों = चित्रों, चित्रा-गंध = चित्रा की याद के साथ-साथ उसके आस-पास की सभी चीशों की गंध का अनुभव, मनभावनी = मन को लुभाने वाली, यामिनी = तारों भरी चाँदनी रात, कुंतल = लंबे केश, छुअन = स्पर्श।
व्याख्या: कवि हम सब से कहते हैं कि अपने अतीत जीवन की यादों को बार-बार याद करने से हमारा मन और अधिक दुखी हो जाएगा। यह तो मानी हुई बात है कि समय ठहरता नहीं है। जो अभी है, वह भी अगले पल अतीत बन जाएगा। इसी प्रकार यदि हमने पीछे कभी कुछ सुख के पल बिताए हैं तो उन्हें याद करके हमें इस समय सुख का अनुभव नहीं होगा, बल्कि उनके न रहने का दुख हमें सालता रहेगा। हर व्यक्ति के जीवन में कुछ रंग-बिरंगी सुखद यादें रहती हैं, जिनके सहारे व्यक्ति अपने शेष जीवन को बिता देना चाहता है, किंतु कवि हमें सचेत करते हुए कहते हैं कि तारों भरी चाँदनी रात, जब हम प्रिया के संग रंगीन सपनों में खोए रहते हैं, वह बीत गई। अब तो केवल प्रिया के सुंदर केशों में गुँथे महकते फूलों की सुगंध की याद भर रह गई है। अब इस समय न तो प्रिया पास में है और न वे सुख के पल, किंतु इस वियोग की घड़ी में उस समय की सारी चीशों की यादें मधुर मनभावन सुगंध-सी हमारे मन में बसी हुई हैं। कवि उन यादों को कुरेदने को मना करते हैं क्योंकि अब तो वे पल वापस नहीं आएँगे, केवल हमारा वर्तमान दुखपूर्ण और भारी हो जाएगा। इसलिए कवि अतीत की छाया को छूने का निषेध करते हैं। पुरानी बातों की यादें वर्तमान के घावों को और हरा कर देती हैं, तन-मन और अधिक दुखी हो जाता है।
विशेष
1. कविता सरल व खड़ी बोली में लिखी गई है।
2. कहीं-कहीं तत्सम और तद्भव शब्दों के पुट मिलते हैं, जैसे- कुंतल, तन-सुगंध, यामिनी, ;तत्समद्ध, छुअन, दूना (तद्भव) आदि।
3. ‘दुख दूना और सुरंग सुधियाँ सुहावनी’, में अनुप्रास अलंकार की छटा दिखाई पड़ती है।
4. चित्रा-गंध में रूपक अलंकार का प्रयोग हुआ है।
5. ‘तन-सुगंध्’ सामासिक शब्द है।
6. सुंदर लययुक्त शब्दावली कविता के भावों को और अधिक वाघ्मय बनाती हैं।
7. कवि वर्तमान में जीने की प्रेरणा देते हैं।
8. कविता में छायावाद का पुट स्पष्टतः दिखाई पड़ता है।
(2)
यश है या न वैभव है, मान है न सरमायाऋ
जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया!
प्रभुता का शरण-बिंब केवल मृगतृष्णा है,
हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्णा है।
जो है यथार्थ कठिन उसका तू उसका कर पूजन-
छाया मत छूना
मन, होगा दुख दूना।
शब्दार्थ: यश = प्रसिद्धि, वैभव = धन-संपत्ति, ऐश्वर्य, मान = सम्मान, सरमाया = पूँजी, मूल धन, भरमाया = भ्रम में डाला, प्रभुता = बड़प्पन, प्रभुता का शरण-¯बब = बड़प्पन का अहसास, मृगतृष्णा = कड़ी धूप में रेतीले मैदानों में जल के होने का अहसास, छलावा, चंद्रिका = चाँदनी, कृष्णा = काली, अंधकारमयी, यथार्थ = सत्य, वास्तविकता, सच्चाई।
व्याख्या: कवि कहते हैं कि लोग नाम-यश, मान, संपत्ति, धन-दौलत, ऐश्वर्य आदि के पीछे सारी जिंदगी भागते रहते हैं क्योंकि आम लोगों के लिए ये ही चीशें सुख देने वाली होती हैं। किंतु कवि कहते हैं कि जिस प्रकार रेगिस्तान में पानी की आस में पशु इधर से उधर भटकते रहते हैं और दूर कहीं सूर्य की तेज़ किरणों से उत्पन्न जल का आभास देखकर ठगे जाते हैं, ठीक उसी प्रकार हम सब मनुष्य भी सांसारिक सुखों के पीछे मृगतृष्णा के समान भागते रहते हैं। हम जितना अधिक यश, नाम, मान, धन-संपत्ति, वैभव, ऐश्वर्य और बड़प्पन की चाह करते हैं, उतना ही अधिक इन सब चीशों की चाहत बढ़ती जाती है। इस चाहत का कोई अंत नहीं। कवि कहते हैं कि सांसारिक सुखों के पीछे भागने से अच्छा अपने यथार्थ को स्वीकार करना है। जैसे हर चाँदनी रात के बाद एक बार अमावस्या की काली रात आती है, उसी प्रकार सुख-दुख का पहिया निरंतर चलता ही रहता है। सुख-दुख कुछ भी नित्य या स्थायी नहीं है। इसलिए कवि व्यक्ति को कठोर वास्तविकता के धरातल पर जीने की सलाह देते हैं। सच्चाई को स्वीकार करने में ही हमारी भलाई है, अन्यथा अतीत के सुखद क्षणों को वर्तमान में याद करते हुए वर्तमान के दुख को हम और बढ़ा लेंगे।
विशेष
1. कवि वर्तमान में जीने की सलाह देते हैं। यथार्थ को स्वीकार करने में ही हमारी भलाई है।
2. संस्कृत के तत्सम शब्दों का समुचित प्रयोग हुआ है। वैसे इसकी भाषा सहज-सरल खड़ी बोली है।
3. इस कविता में दार्शि नकता आरै छायावाद का पटु है। सुख-दुख के निरंतर गतिशील होने की बात बताई गई है।
4. चंद्रिका और अमावस्या (कृष्णा रात) की उपमा पद्यांश में अनोखा भाव भर देती है।
5. ‘शरण-बिंब’ में रूपक अलंकार है।
6. मृगतृष्णा का उदाहरण देकर कवि ने सब लोगों को यश, मान, धन-संपत्ति के पीछे भागने के लिए निषेध किया है।
(3)
दुविधा-हत साहस है, दिखता है पंथ नहीं,
देह सुखी हो पर मन के दुख का अंत नहीं।
दुख है न चाँद खिला शरद-रात आने पर,
क्या हुआ जो खिला पूफल रस-बसंत जाने पर?
जो न मिला भूल उसे कर तू भविष्य वरण,
छाया मत छूना
मन, होगा दुख दूना।
शब्दार्थ: दुविध-हत = दुविध में पँफसा हुआ, क्या करें और क्या न करें की स्थिति में होना, असमंजस में होना, पंथ = राह, रास्ता, देह = तन, शरीर, शरद = एक ट्टतु का नाम, रस-बसंत = रस से भरपूर मतवाली वसंत ट्टतु, वरण = चुनना, अपनाना।
व्याख्या: कवि कहते हैं कि मनुष्य सुख की आस में इधर-उधर भटकता रहता है, पर हमेशा उसे अपने जीवन में इच्छित वस्तु मिल नहीं जाती। जो कुछ उसे मिलता है, उससे उसका तन सुखी हो सकता है किंतु मन संतुष्ट नहीं होता। कवि कहते हैं कि मानव-मन के दुखों का अंत नहीं। एक पाने पर दूसरा पाने की लालसा जगती है, दूसरा पाने पर तीसरे की इच्छा होती है। इस प्रकार लोभी मन कभी सुखी नहीं होता। किसी भी प्रकार से जीवन-संघर्ष में विजयी होने का मन में साहस तो है, परंतु साथ में दुविधा की स्थिति भी बनी रहती है। कवि कहते हैं कि ‘क्या करूँ और क्या न करूँ’ वाली असमंजसपूर्ण स्थिति में व्यक्ति को कोई रास्ता नहीं सूझता और वह अधिक निराश हो जाता है।
कवि कहते हैं कि मनुष्य को यह कष्ट बार-बार सताता रहता है कि जो चीश उसे ठीक समय पर मिलनी थी, वह न मिल पाई। यौवनावस्था में प्रिय के सामीप्य का सुख मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया। यदि बाद में वह सुख मिले तो क्या लाभ? ‘का बरखा जब कृषि सुखाने’ वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए कवि कहते हैं कि उचित समय में इच्छित वस्तु का मिलना ही वास्तव में सुखद होता है। इसके विपरीत, समय बीत जाने पर उसके मिलने से कुछ लाभ नहीं होता। जिस प्रकार शरद पूर्णिमा की रात को यदि चाँद न निकले तो शरद पूर्णिमा का सारा सौंदर्य और सारा महत्व समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार कवि के जीवन के स्वणम काल में उन्हें सुख-संपदा नहीं मिली, इस बात का दुख उन्हें
हमेशा सताता रहता है। मतवाली-रसभरी बसंत ट्टतु के बीत जाने पर यदि पूफल खिले तो क्या हुआ? बसंत तो रंग-बिरंगे सुगंधित पूफलों की ट्टतु है। ऐसे समय यदि पूफल ही न हो तो वह केसी बसंत होगी? निश्चित ही वह मतवाली, सुवासित और सुखदायी न होगी।
इतना सब कुछ होने पर भी कवि निराश-हताश नहीं होते। अतीत में जो कुछ उन्हें मिलना चाहिए था, उसके न मिलने पर भी वे आँसू नहीं बहाते। कवि पूरी तरह से आशावादी दृष्टिकोण रखते हैं और अपने अतीत के दुखों को भुलाकर जो कुछ भी वर्तमान में मिलता है, उसे सहर्ष अपनाकर अपने वर्तमान तथा भविष्य को सुखी बनाने की नेक सलाह देते हैं। इसीलिए कवि गिरिजा कुमार माथुर बारंबार हमें अतीत की स्मृति रूपी परछाईं को छूने से मना करते हैं। उनके अनुसार अतीत के सुखद क्षणों की स्मृतियाँ हमारे वर्तमान समय के दुखों को दुगुना कर देती हैं। इसलिए उन्हें भुलाना ही बेहतर है।
विशेष
1. सहज सरल खड़ी बोली में यह कविता लिखी गई है।
2. कहीं-कहीं संस्कृत के तत्सम शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। जैसे- दुविधा-हत साहस।
3. कवि ने इस पद्यांश में चाँद, शरद पूनम की रात, रस-बसंत, फूलों का खिलना आदि प्रतीकों का सुंदर प्रयोग किया है।
4. प्रस्तुत पद्यांश में दार्शनिकता की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। साथ ही छायावाद का प्रभाव भी लक्षित होता है।
5. कवि पाठकों के मन में प्रतीकात्मक शैली द्वारा आशावादी दृष्टिकोण भर देना चाहते हैं।
1. छाया मत छूना पाठ किस ग्रंथ में है? | ![]() |
2. छाया मत छूना पाठ का क्षेत्रीय भाषा में अनुवाद क्या है? | ![]() |
3. छाया मत छूना पाठ के मुख्य पात्र कौन हैं? | ![]() |
4. छाया मत छूना पाठ में किस बिंदु पर बल दिया गया है? | ![]() |
5. छाया मत छूना पाठ का संदेश क्या है? | ![]() |