Table of contents |
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कवि परिचय |
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कविता का सार |
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कविता की व्याख्या |
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कविता से शिक्षा |
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शब्दार्थ |
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मैथिलीशरण गुप्त जी का जन्म 1886 में झाँसी के पास चिरगाँव नामक गाँव में हुआ था। उन्हें अपने समय में ही "राष्ट्रकवि" कहा जाने लगा था। उनकी पढ़ाई-लिखाई घर पर ही हुई और उन्हें संस्कृत, बांग्ला, मराठी और अंग्रेज़ी भाषाएँ अच्छी तरह आती थीं। वे भगवान राम के भक्त कवि थे और राम के जीवन पर कविता लिखना उन्हें बहुत पसंद था। उन्होंने भारतीय संस्कृति और इतिहास को अपनी कविताओं में सुंदर ढंग से पेश किया। उनकी कविता की भाषा खड़ी बोली है और उसमें संस्कृत का असर दिखाई देता है। उनकी प्रसिद्ध किताबें हैं – साकेत, यशोधरा और जयद्रथ वध। उनके पिता भी कवि थे और उनके छोटे भाई सियारामशरण गुप्त भी जाने-माने कवि बने।
मैथिलीशरण गुप्त
इस कविता में कवि बताना चाहते हैं कि सच्चा मनुष्य वही है जो दूसरों की भलाई के बारे में सोचता है। अगर कोई व्यक्ति अपने जीवन को दूसरों की मदद में लगा देता है, तो उसका जीवन सफल माना जाता है। ऐसा व्यक्ति मरने के बाद भी सबको याद रहता है। अगर कोई सिर्फ अपने लिए जीता है, तो उसका जीवन बेकार है। बाकी जीवों में सोचने-समझने की ताकत नहीं होती, लेकिन मनुष्य के पास समझ होती है। इसलिए उसे केवल अपने खाने-पीने की चिंता नहीं करनी चाहिए।
जो लोग दूसरों के लिए कुछ करते हैं, उन्हें सब याद रखते हैं। धरती और ज्ञान की देवी सरस्वती भी ऐसे लोगों की तारीफ करती हैं। कवि कुछ महान लोगों जैसे – दधीचि, रंतिदेव, कर्ण आदि का उदाहरण देते हैं, जिन्होंने दूसरों की भलाई के लिए खुद को कुर्बान कर दिया। हमें अपने पैसों या सफलता पर घमंड नहीं करना चाहिए। जब तक भगवान हमारे साथ हैं, हम कभी अकेले या दुर्भाग्यशाली नहीं होते। जो भला करता है, उसकी पूजा देवता भी करते हैं। हम सभी इंसान एक-दूसरे के भाई-बहन जैसे हैं, लेकिन हमें अपने कर्मों के अनुसार फल मिलता है। इसलिए इंसान को बिना डरे, खुश होकर अच्छे रास्ते पर आगे बढ़ते रहना चाहिए। जीवन का असली मकसद दूसरों की मदद करना है, नहीं तो यह जीवन व्यर्थ है।
विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,
मरो, परंतु यों मरो कि याद जो करें सभी।
हुई न यों सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,
मरा नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।
वही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
व्याख्या: कवि कहता है कि हमें यह जान लेना चाहिए कि मृत्यु का होना निश्चित है, हमें मृत्यु से नहीं डरना चाहिए। कवि कहता है कि हमें कुछ ऐसा करना चाहिए कि लोग हमें मरने के बाद भी याद रखे। जो मनुष्य दूसरों के लिए कुछ भी न कर सकें, उनका जीना और मरना दोनों बेकार है । मर कर भी वह मनुष्य कभी नहीं मरता जो अपने लिए नहीं दूसरों के लिए जीता है, क्योंकि अपने लिए तो जानवर भी जीते हैं। कवि के अनुसार मनुष्य वही है जो दूसरे मनुष्यों के लिए मरे अर्थात जो मनुष्य दूसरों की चिंता करे वही असली मनुष्य कहलाता है।
उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती,
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती,
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
व्याख्या: कवि कहता है कि जो मनुष्य अपने पूरे जीवन में दूसरों की चिंता करता है उस महान व्यक्ति की कथा का गुणगान सरस्वती अर्थात विद्या की देवी या साहित्य में उसका वर्णन होता है। पूरी धरती उस महान व्यक्ति की आभारी रहती है। उस व्यक्ति की बातचीत हमेशा जीवित व्यक्ति की तरह की जाती है और पूरी सृष्टि उसकी पूजा करती है। कवि कहता है कि जो व्यक्ति पूरे संसार को अखण्ड भाव और भाईचारे की भावना में बाँधता है वह व्यक्ति सही मायने में मनुष्य कहलाने योग्य होता है।
क्षुदार्त रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी दिया।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
व्याख्या: कवि कहता है कि पौराणिक कथाएं ऐसे व्यक्तियों के उदाहरणों से भरी पड़ी हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन दूसरों के लिए त्याग दिया जिस कारण उन्हें आज तक याद किया जाता है। भूख से परेशान रंतिदेव ने अपने हाथ की आखरी थाली भी दान कर दी थी और महर्षि दधीचि ने तो अपने पूरे शरीर की हड्डियाँ वज्र बनाने के लिए दान कर दी थी। उशीनर देश के राजा शिबि ने कबूतर की जान बचाने के लिए अपना पूरा मांस दान कर दिया था। वीर कर्ण ने अपनी ख़ुशी से अपने शरीर का कवच दान कर दिया था। कवि कहना चाहता है कि मनुष्य इस इस नश्वर शरीर के लिए क्यों डरता है क्योंकि मनुष्य वही कहलाता है जो दूसरों के लिए अपने आप को त्याग देता है।
सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही,
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरुद्धवाद बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा,
विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
व्याख्या: कवि कहता है कि मनुष्यों के मन में दया व करुणा का भाव होना चाहिए ,यही सबसे बड़ा धन है। स्वयं ईश्वर भी ऐसे लोगों के साथ रहते हैं । इसका सबसे बड़ा उदाहरण महात्मा बुद्ध हैं जिनसे लोगों का दुःख नहीं देखा गया तो वे लोक कल्याण के लिए दुनिया के नियमों के विरुद्ध चले गए। इसके लिए क्या पूरा संसार उनके सामने नहीं झुकता अर्थात उनके दया भाव व परोपकार के कारण आज भी उनको याद किया जाता है और उनकी पूजा की जाती है। महान उस को कहा जाता है जो परोपकार करता है वही मनुष्य ,मनुष्य कहलाता है जो मनुष्यों के लिए जीता है और मरता है।
रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में
सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।
अनाथ कौन है यहाँ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,
दयालु दीनबंधु के बड़े विशाल हाथ हैं।
अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
व्याख्या: कवि कहता है कि भूल कर भी कभी संपत्ति या यश पर घमंड नहीं करना चाहिए। इस बात पर कभी गर्व नहीं करना चाहिए कि हमारे साथ हमारे अपनों का साथ है क्योंकि कवि कहते हैं कि इस संसार में कोई अनाथ नहीं है, उस ईश्वर का साथ सब के साथ है। वह बहुत दयावान है उसका हाथ सबके ऊपर रहता है। कवि कहता है कि वह व्यक्ति भाग्यहीन है जो इस प्रकार का जल्दबाज़ी करता है क्योंकि मनुष्य वही व्यक्ति कहलाता है जो इन सब चीजों से ऊपर उठ कर सोचता है।
अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।
परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी,
अभी अमर्त्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
व्याख्या: कवि कहता है कि उस कभी न समाप्त होने वाले आकाश में असंख्य देवता खड़े हैं, जो परोपकारी व दयालु मनुष्यों का सामने से खड़े होकर अपनी भुजाओं को फैलाकर स्वागत करते हैं। इसलिए दूसरों का सहारा बनो और सभी को साथ में लेकर आगे बढ़ो। कवि कहता है कि सभी कलंक रहित हो कर देवताओं की गोद में बैठो अर्थात यदि कोई बुरा काम नहीं करोगे तो देवता तुम्हे अपनी गोद में ले लेंगे। अपने मतलब के लिए नहीं जीना चाहिए अपना और दूसरों का कल्याण व उद्धार करना चाहिए क्योंकि इस मरणशील संसार में मनुष्य वही है जो मनुष्यों का कल्याण करे व परोपकार करे।
'मनुष्य मात्र बंधु है' यही बड़ा विवेक है,
पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है,
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
व्याख्या: कवि कहता है कि प्रत्येक मनुष्य एक दूसरे के भाई – बन्धु हैं। यह सबसे बड़ी समझ है। पुराणों में जिसे स्वयं उत्पन्न पुरुष माना गया है, वह परमात्मा या ईश्वर हम सभी का पिता है, अर्थात सभी मनुष्य उस एक ईश्वर की संतान हैं। बाहरी कारणों के फल अनुसार प्रत्येक मनुष्य के कर्म भले ही अलग अलग हों परन्तु हमारे वेद इस बात के साक्षी हैं कि सभी की आत्मा एक है। कवि कहता है कि यदि भाई ही भाई के दुःख व कष्टों का नाश नहीं करेगा तो उसका जीना व्यर्थ है क्योंकि मनुष्य वही कहलाता है जो बुरे समय में दूसरे मनुष्यों के काम आता है।
चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,
विपत्ति, विघ्न जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेलमेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी,
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
व्याख्या: कवि कहता है कि मनुष्यों को अपनी इच्छा से चुने हुए मार्ग में खुशी-खुशी चलना चाहिए,रास्ते में कोई भी संकट या बाधाएं आएँ, उन्हें हटाते चले जाना चाहिए। मनुष्यों को यह ध्यान रखना चाहिए कि आपसी समझ न बिगड़े और भेद भाव न बढ़े। बिना किसी तर्क वितर्क के सभी को एक साथ ले कर आगे बढ़ना चाहिए तभी यह संभव होगा कि मनुष्य दूसरों की उन्नति और कल्याण के साथ अपनी समृद्धि भी कायम करे।
इस कविता से हमें यह शिक्षा मिलती है कि सच्चा इंसान वही है जो दूसरों की मदद करता है। हमें सिर्फ अपने लिए नहीं, बल्कि समाज और ज़रूरतमंद लोगों के लिए भी जीना चाहिए। अगर हम दूसरों के दुख-दर्द को समझें और उनके लिए कुछ करें, तो हमारा जीवन सफल माना जाता है। हमें कभी भी धन, पद या अपने रिश्तों पर घमंड नहीं करना चाहिए, क्योंकि ईश्वर सबके साथ होता है। जो लोग दूसरों की भलाई में अपना जीवन लगाते हैं, उन्हें लोग मरने के बाद भी याद रखते हैं। इसलिए, इंसान को प्यार, दया, परोपकार और एकता के साथ जीवन जीना चाहिए। यही मानव जीवन का सच्चा उद्देश्य है।
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1. मैथिलीशरण गुप्त का जन्म कब हुआ था ? | ![]() |
2. मैथिलीशरण गुप्त की प्रमुख कृतियाँ कौन-कौन सी हैं ? | ![]() |
3. 'मनुष्यता' कविता का मुख्य संदेश क्या है ? | ![]() |
4. मैथिलीशरण गुप्त को किस उपनाम से जाना जाता है ? | ![]() |
5. मैथिलीशरण गुप्त का योगदान हिंदी साहित्य में क्या है ? | ![]() |