भारत उन अनेक आधुनिक राष्ट्रों की तरह नहीं है जिनकी अपनी कोई विकसित भाषा नहीं थी और विवश होकर उन्हें शासक की भाषा को अपनाना पड़ा। चूंकि उनकी अपनी कोई वकसित भाषा नहीं थी, उस भाषा में विकसित साहित्य नहीं था, इसलिए उनके सामने भाषा की कोई समस्या भी नहीं थी, पर भारत की स्थिति दूसरी है। यहां संस्कृत, प्राकृत, पालि ही नहीं, अन्य आधुनिक भारतीय भाषाएं भी हैं जिनके माध्यम से भारतीय साहित्य भी समृद्ध होता आ रहा है और ये यहां राज-काज की भाषाएं भी रही हैं। पिछले लगभग हजारों वर्षों से हिन्दी किसी न किसी रूप में अखिल भारतीय सम्पर्क भाषा के रूप में विकसित और प्रयुक्त होती आई है।
भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्रा में हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं जैसी लोकभाषा की उपेक्षा का अर्थ है लोक-भावना की उपेक्षा। लोक-भावना की उपेक्षा कर कोई लोकतंत्रा कैसे और कब तक टिक सकता है। पिछले ढाई सौ वर्षों में भारत की ढाई प्रतिशत आबादी भी अंग्रेजी नहीं सीख पाई। यदि अंग्रेजी सिखाई नहीं जा सकी तो क्या अंग्रेजी लादी जाती रहेगी? ऐसे वातावरण में लोकतंत्रा का भविष्य कब तक सुरक्षित रहेगा? अतः भारतीय लोक-भावना का सम्मान करते हुए अपने-अपने क्षेत्रा में सभी भारतीय भाषाओं को और सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी को जब मुक्त भाव से स्वीकार किया जाएगा तभी संविधान की रक्षा हो सकेगी और भारतीय लोकतंत्रा का वह तेजस्वी रूप भी निखरेगा; जिसके बिना मानव-समाज अपने समाज की चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना नहीं कर सकता। अंग्रेजी का मोह भारत के स्वस्थ विकास में सबसे बड़ी बाधा है। बीच की इस बाधा के कारण भारतीय अपनी उस भारत माता से दूर पड़ता जा रहा है जिसकी स्वतंत्राता के लिए उसने कभी अपना सर्वस्व समर्पित किया था। निश्चय ही यह बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा।
आज चारों ओर जब आर्थिक, वैज्ञानिक, औद्योगिक या वाणिज्यिक विकास की ही आमतौर पर चर्चा होती है तब मैं भाषा की बात आपके सामने इसलिए कर रहा हूं कि आज मानव-समाज के सामने सबसे बड़ी समस्या अपने को समुचित रूप में अभिव्यक्त न कर पाने की है। इसीलिए व्यक्ति और व्यक्ति, व्यक्ति और समाज, समाज और समाज के बीच दूरी बढ़ती जा रही है। यातायात या संचार के साधनों के कारण औद्योगिक दूरी जितनी घटी है, मानव-मानव के बीच की भावनात्मक दूरी उतनी ही बढ़ी है। आधुनिक मनुष्य ने अपने जिन वैज्ञानिक उपकरणों को विकसित किया है उनसे उसकी सत्ता की भूख नहीं मिटी बल्कि और बढ़ती ही गई और वह सत्य से भी दूर होता गया, मनुष्य कम और मशीन अधिक होता गया।
मनुष्य ने अपने को मशीन बनाने की कोशिश कर अपनी किसी समस्या का कोई समाधान पाया क्या? क्या उसकी समस्याएं और जटिल नहीं होती गई हैं? मनुष्य का मशीन बनना पुनः पशुता की ओर लौटने के प्रयास का ही नया रूप नहीं है क्या ?
लेकिन इसका बोध, इसकी अनुभूति, इसका एहसास, उसे हो भी कैसे? उसने तो अपने को जानने-समझने का प्रयास करना ही छोड़ दिया है। आधुनिक मनुष्य स्वयं को जितना नकारता है, ”स्व“ से जितना भागता है, घबराता है, उतना अन्य किसी से नहीं। फिर मनुष्य-मनुष्य कैसे रह पाएगा? वह उलझनें जितनी पैदा कर ले, उन्हें सुलझा नहीं पाएगा, हिंसा और युद्ध का चाहे जितना सहारा ले पर किसी समस्या का समाधान नहीं पा सकेगा, जन-धन जितना जोड़ ले पर सुख-चैन की नींद न ले पाएगा, खान-पान के छप्पन प्रकार भले ही उसे सुलभ हो परन्तु उसकी मंदाअग्नि उसे पचा नहीं पाएगी, सारी धरती को अपनी मुट्ठी में कर लेने का वह जितना मन बनाए पर उसका मन ही उसके काबू में न आ पाएगा, न रह पाएगा।
दिनोंदिन बढ़ते वैभव के बीच आधुनिक मनुष्य की बढ़ती हुई विकलता का क्या कारण है? उसके अंतर्मन की रिक्तता, जिसके कारण वह भीड़ में भी अकेलेपन का अनुभव करता है और अपने मन की इस विकलता को छिपाने के लिए वह नित नवीनता की खोज में रहता है, के पीछे मूल कारण क्या है? भोग और नवीनता की इस कभी न शांत होने वाली भूख ने, इस आधुनिक सभ्यता ने, अपने तीन सौ वर्षों के अल्प जीवन में, प्राकृतिक सम्पदा का जैसा विवेकहीन विनाश किया है वैसा उसके पहले के तीन क्या तीस हजार वर्षों में भी नहीं हुआ था। प्रकृति का इस प्रकार अविचारित क्षय किए जाने के कारण आज संसार में पर्यावरण का जो असंतुलन उत्पन्न हुआ है उसके कारण इस धरती पर मानव-सभ्यता ही नहीं, जीवन-मात्रा के अस्तित्व के लिए भी आशंका बढ़ती जा रही है। हवा, पानी, मिट्टी, मानव-मन सब विषैले, सब प्रदूषित होते जा रहे हैं और इनके कारण शारीरिक तथा मानसिक रोगों में असाधारण वृद्धि होती जा रही।
जब सर्वत्रा पाश्चात्य शिक्षा-पद्धति के अंग्रेजी के कारण वर्चस्व को स्वीकार करने वाले स्कूलों और काॅलेजों की भरमार थी तब हिन्दी विद्यापीठ की स्थापना का प्रयोजन और सार्थकता क्या थी? यदि पाश्चात्य प्रवाह में ही बहना स्वीकार्य होता तो गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर शांति निकेतन की, महात्मा गांधी अनेक विद्यापीठों की और डाॅ. जाकिर हुसैन जामिया की स्थापना क्यों करते? भारतीय स्वतंत्राता संग्राम के मार्गदर्शक चूंकि इस बात को स्वीकार करते थे कि लार्ड मैकाॅले द्वारा प्रतिपादित अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति से भारत का नव-निर्माण संभव नहीं है, इसलिए उसके राष्ट्रीय विकल्प के रूप में इन संस्थाओं के माध्यम से अपनी परंपरा और मेधा की प्रकृति को विकसित किया जा रहा था जिनमें अंग्रेजी के स्थान पर भारतीय भाषाएं शिक्षा-परीक्षा के माध्यम हों और पाठ्यक्रम भारत की धरती से जुड़े हुए हों।
भारत के राष्ट्र-निर्माताओं ने शिक्षा के क्षेत्रा में जो ऐसा क्रांतिकारी कदम उठाया था उसका कारण क्या था? क्या भारत को परतंत्राता की बेड़ी में डालने वालों का विरोध मात्रा? ऊपर से ऐसा लग सकता है पर बात इससे बहुत गहरी थी। मनुष्य की श्रेष्ठता क्या इसी बात में है कि वह दो पैरों पर चल सकता है और उसके दो हाथ कार्य के लिए मुक्त हैं? मनुष्य की विशेषता उसका विकसित मस्तिष्क है क्या? पर मानव-मस्तिष्क की विशेषता क्या है? निश्चय ही भाषा का प्रयोग। यदि मनुष्य में भाषा के प्रयोग की क्षमता न होती तो न तो वह सभ्यता और संस्कृति, साहित्य और दर्शन, कला और विज्ञान का विकास कर सकता था, न पशुता के ऊपर उठ मनुष्यता को प्राप्त कर सकता था। मानव-मस्तिष्क का विकास भाषा के प्रयोग की क्षमता पर ही निर्भर है। भाषा न हो तो न तो मनुष्य सोच-विचार सकता है, न अपने को व्यक्त कर सकता है, न दूसरों को ही समझ सकता है। भाषा के बिना मनुष्य की स्थिति कितनी दयनीय होगी, इसकी कल्पना मात्रा भयावह प्रतीत होती है। अतः भाषा की उपेक्षा का अर्थ है मनुष्य की वास्तविक शक्ति के मूलाधार की उपेक्षा। मुझे दुःख के साथ यह कहना पड़ता है कि जिसे आधुनिक सभ्यता कहा जाता है उसने यही भूल की है कि जिसके कारण शोरगुल के बीच संवादहीनता आधुनिक मनुष्य की नियति बन गई है, वह बोलकर भी न तो अपने को व्यक्त कर पाता है और न दूसरे को समझ पाता है। संवादहीनता की ऐसी स्थिति के कारण मनुष्य की भावनात्मक दूरी निरंतर बढ़ती जा रही है। तलाक का प्रतिशत संसार के सबसे अधिक होने का कारण संवादहीनता से उत्पन्न वह बढ़ती हुई भावनात्मक दूरी है जिसमें पति-पत्नी भी एक दूसरे को समझ पाने में समर्थ नहीं हो रहे हैं।
आधुनिक सभ्यता की बुनियादी भूल यह है कि विज्ञान और तकनीक को ही सर्वस्व मान इसने भाषा और साहित्य की घोर उपेक्षा की है। इसके कारण सारी समृद्धि और सामरिक शक्तियों के बावजूद आधुनिक कहा जाने वाला मनुष्य वस्तुतः गूंगा हो गया है, सारे शोरगुल के बीच बहरा हो गया है। उसका मस्तिष्क मशीन बन गया है और घोर उपेक्षा के कारण उसके जीवन की भावना-स्रोतस्विनी लगभग सूख चली है। वह इस बात का विस्मरण कर बैठा है कि प्राकृति के परिवेश के अभाव में मनुष्य का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा और विज्ञान की सारी शक्ति उसे सर्वनाश से नहीं बचा सकती। पर्यावरण और प्रदूषण की बढ़ती चर्चा इसी आसन्न भय के कारण शुरू हुई है।
भाषा के क्षेत्रा में मनुष्य का प्राकृतिक परिवेश क्या है। उसकी मातृभाषा। सारे संसार के शिक्षाशास्त्री इस बात को स्वीकार करते हैं कि मनुष्य की नैसर्गिक शक्ति का सर्वोतम विकास उसकी मातृभाषा से ही सुगम है, सहज है। कहने की आवश्यकता नहीं कि अंग्रेजी के वर्चस्व को स्थापित करने का प्रयास कर जीवन के स्वाभाविक सत्य को चतुर्दिक विकृत किया जा रहा है। जिन देशों ने अपनी मातृभाषा को छोड़कर, मातृभाषा परिवार की भाषा को छोड़कर, अंग्रेजी को अपनाया उनकी रचनात्मक प्रतिभा कुंठित होती जा रही है, वे सत्य को छोड़कर सत्ता के पुजारी बनने जा रहे हैं।
एक स्वतंत्रा राष्ट्र के रूप में भारत के अवतरण के पीछे जो ऐतिहासिक प्रयोजन है उसकी निष्पत्ति तभी हो पाएगी जब भारत में शिक्षा-दीक्षा एवं राजकाज भारतीय भाषाओं में किया जाए। स्वतंत्राता-आन्दोलन के दिनों में, सरदार बल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में सम्पन्न कराची कांग्रेस में 1931 में, भाषावार प्रांतों के गठन के सिद्धांत को इसी दृष्टि से स्वीकार किया गया था कि प्रांतों की भाषा में वहां शिक्षा -दीक्षा एवं राजकाज हो एवं हिंदी भारत की सम्पर्क भाषा का स्थान ले तथा भारत सरकार की भाषा बने। स्वतंत्राता के पश्चात 1951 में राज्यों का पुनर्गठन भी इसी दृष्टि से किया गया था। भारतीय संविधान में भी यही सिद्धांत स्वीकृत है।
पिछले लगभग हजार वर्षाें से हिन्दी का कोई न कोई रूप अखिल भारतीय सम्पर्क भाषा के रूप में व्यवहृत होता आया है। तीर्थयात्राी हो या व्यवसायी, सैनिक हों या राज्य के अधिकारी, ज्ञानेश्वर, नामदेव, कबीर, नानक, अमीर खुसरों य वली जैसे कवि हों या अन्य रचनाकार, समय-समय पर हिन्दी के माध्यम से ही इन्होंने मध्य युग में अपना अखिल भारतीय स्वरूप और संस्कृति विकसित की। खुसरो की खड़ी बोली, कबीरदास की सधुक्कड़ी, सूरदास की ब्रजभाषा,विद्यापति की मैथिली, मीरा की राजस्थानी, तुलसीदास की अवधी आदि हिन्दी के ये सभी रूप हिन्दी के रूप में ही सर्वत्रा स्वीकृत थे और आज भी हैं। संस्कृत की अखिल भारतीयता भारतीय इतिहास के आदि काल से आज तक जिस प्रकार से बनी रही है उसी प्रकार से मध्यकाल से आज तक हिन्दी की अखिल भारतीयता चलती आ रही है। इसका एक और सबल प्रमाण यह भी है कि हिन्दुस्तानी संगीत की भाषा सदा से हिन्दी रही है, आज भी है और बिना भेदभाव के हिन्दू मुसलमान सभी ने इसे इस रूप में, अखिल भारतीय रूप में, विकसित होने में समान रूप से सहयोग दिया है। इसका कारण यह है कि घरानों और गायकों की भिन्नता के होते हुए भी भारतीय संगीत की राग-रागिनियों, सुर-ताल-लय और बोल एक ही हैं। उसी प्रकार भाषा-भेद के होते हुए भी भारतीय साहित्य की आत्मा एक ही है।
हमें इस बात को समझने की कोशिश करनी चाहिए कि रचनात्मक लेखन के लिए गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर को ही क्यों नोबेल पुरस्कार मिला जो बंगला में लिखते थे ? महात्मा गांधी को ही भारत का प्रतीक क्यों माना गया जो अपनी वेश-भूषा में एकदम देहाती मालूम पड़ते थे ? क्योंकि इनके माध्यम से ही सनातन भारत की आत्मा अभिव्यक्त हुई। अच्छी अगे्रजी लिखने वाले या अच्छी अंग्रेजी पोशाक पहनने वाले, एक भारतीय के रूप में स्वीकृति पा ही नहीं सकता।
भारत ने ललित कलाओं के साथ-साथ जीवनकला को भी विकसित किया जिसकी ओर पाश्चात्य परंपरा में बहुत कम लोगा का ध्यान गया है और इसीलिए यह वहां अविकसित ही रह गई है। इसका परिणाम यह हुआ कि अभूतपूर्व समृद्धि के वावजूद वहां असंतोष, आत्महत्या, सड़क दुर्घटना, तलाक, परिवारिक विघटन एवं भयाकुलता में निरंतर वृद्धि होती जा रही है। ऐसी परिस्थिति में भारत शेष विश्व को मन की शांति दे सकता है, कम साधनों या अभाव में जीवन जीने की कला दे सकता है, मन की शक्ति को विकसित करने का विज्ञान दे सकता है।
संस्कृत विश्व की भाषाओं में प्राचीनतम ही नहीं, सर्वीधिक विकसित समर्थ एवं पूर्ण भी है। इसी प्रकार से हिन्दी संसार की सबसे सरल भाषा है। भारत अपनी इस प्राकृति भाषा-शक्ति के माध्यम से वह कर दिखा सकता है जो और नहीं कर पा रहे हैं।
संस्कृत, हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं की पारिवारिक निकटता के कारण जो स्वाभाविक समानता है उसके लिए यहां इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि किसी भारतीय भाषा में रचित कृति का अन्य भारतीय भाषाओं में रूपान्तर, रूपान्तर न रह कर सर्वथा मौलिक रचना के आस्वादन का आनन्द देता हैं। श्री विभूतिभूषण बंधोपाध्याय के प्रसिद्ध उपन्यास ”आरण्यक“ का श्री हंस कुमार तिवारी ने जो अनुवाद किया है वह हिन्दी की मौलिक रचना प्रतीत होता है। प्रेमचंद और सुदर्शन की अनेक रचनाओं के विषय में यह विवाद चलता आ रहा है कि वे मूलतः हिन्दी में रची गई या उर्दू में। इसका लाभ यह है कि किसी भी भारतीय भाषा में रची गई कृति जब हिन्दी में आ जाती है तो उसे स्वभावतः अखिल भारतीय पाठक ही नहीं प्राप्त होता, बल्कि साहित्यिक स्वीकृति भी प्राप्त हो जाती है क्योंकि हिन्दी स्वाभावतः संस्कृत साहित्य की परपरा का पालन करती हुई हर भाषा की रचना को उसका उपयुक्त स्थान प्रदान करती है। इसीलिए रवीन्द्रनाथ ठाकुर, शरत्चंद्र, बंकिम चन्द्र, गालिब, इकबाल, फैज, भारती, ज्ञानेश्वर आदि स्वीकृत होकर हिन्दी आलोचनाशास्त्र को भारतीय आलोचना शास्त्रा का रूप प्रदान कर देते हैं। पर अंग्रेजी साहित्य के इतिहास में जब रवीन्द्रनाथ ठाकुर के ही लिए कोई स्थान नहीं है तो किसी अन्य की चर्चा उठाना ही व्यर्थ है। हिन्दी का आलोचक विश्वसाहित्य की परपरा को ध्यान में रखकर जिस प्रकार विवेचना करता है, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस दायित्व को जिस सफलता के साथ निभाया है, रिचर्ड्स या इलियट की आलोचनाओं में यह बात ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलेगी। अतः हिन्दी न केवल संस्कृत-परंपरा के विशेषताओं को ग्रहण करती हुई चलती है बल्कि ”यत्रा विश्वं भवति एक नीड़म्“ की भावना के अनुरूप नए युग की नई मानवता के लिए भी नई भाव-भूमि तैयार करती है।
हिन्दी की इस शक्ति की सार्थकता साहित्य के प्रयोजन को ठीक-ठीक समझने पर ही स्पष्ट हो सकेगी। भारतीय साधना की तरह भारतीय साहित्य-शास्त्र भी मनोविज्ञान पर प्रतिष्ठित है। भारतीय परंपरा ने तन के महत्व की उपेक्षा तो नहीं की है परंतु यहां मान्यता यह रही है कि मन के कारण ही मनुष्य मनुष्य है। अतः मनुष्य के उन्नयन का अर्थ है मत का उन्नयन।
इंगलिश इंग्लैंड की भाषा के साथ वहां के निवासी के लिए प्रयुक्त होता है। वैसे ही हिन्दी हिन्द की नहीं है, हिन्द के निवासी भी हिन्दी हैं। अतः यह शब्द ही नहीं यह भाव भी सहजात है। ”हिन्दी“ के भविष्य को अलग किया ही नहीं जा सकता। अपनी विशेषताओं के कारण जब भारत का वर्चस्व स्थापित होगा तो उसकी अस्मिता हिन्दी के माध्यम से ही अपने स्वाभाविक रूप में अभिव्यक्त होगी।