भारतीय संविधान अपने मूल भावना के संबंध में अद्वितीय है। हालांकि इसके कई तत्व विश्व के विभिन्न संविधानों से उधार लिये गये हैं। भारतीय संविधान के कई ऐसे तत्व हैं, जो उसे अन्य देशों के संविधानों से अलग पहचान प्रदान करते हैं।
संविधान की प्रमुख विशेषताएं का नीचे वर्णन किया गया है:
भारत के संविधान को विस्तृत बनाने के पीछे निम्न चार कारण हैं:
संविधानों को नम्यता और अनम्यता की दृष्टि से भी वर्गीकृत किया जाता है। कठोर वा अनम्य संविधान उसे माना जाता है, जिसमें संशोधन करने के लिए विशेष प्रक्रिया की आवश्यकता हो। उदाहरण के लिए अमेरिकी संविधान।लचीला या नम्य संविधान वह कहलाता है, जिसमें संशोधन की प्रक्रिया वही हो, जैसी किसी आम कानूनों के निर्माण की, जैसे-ब्रिटेन का संविधान। भारत का संविधान न तो लचीला है और न ही कठोर, बल्कि यह दोनों का मिला-जुला रूप है।
अनुच्छेद 368 में दो तरह के संशोधनों का प्रावधान है:
भारत के संविधान ने सरकार की अमेरिकी राष्ट्रपति प्रणाली के बजाय सरकार की ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को चुना है। संसदीय प्रणाली विधायी और कार्यकारी अंगों के बीच सहयोग और समन्वय के सिद्धांत पर आधारित है जबकि राष्ट्रपति प्रणाली दो अंगों के बीच शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत पर आधारित है। भारत की संसदीय प्रणाली को जिम्मेदार सरकार और कैबिनेट सरकार के ‘वेस्टमिंस्टर’ मॉडल के रूप में भी जाना जाता है। संविधान न केवल केंद्र में बल्कि राज्यों में भी संसदीय प्रणाली की स्थापना करता है। संसदीय प्रणाली में प्रधानमंत्री की भूमिका है, और इसलिए इसे ‘प्रधानमंत्री स्तरीय सरकार’ कहा जाता है।
भारत में संसदीय प्रणाली की विशेषताएं निम्नलिखित हैं:
हालांकि भारतीय संसदीय प्रणाली बड़े पैमाने पर ब्रिटिश संसदीय प्रणाली पर आधारित है फिर भी दोनों में कुछ मूलभूत अंतर हैं। उदाहरण के लिए ब्रिटिश संसद की तरह भारतीय संसद संप्रभु नहीं है। इसके अलावा भारत का प्रधान निर्वाचित व्यक्ति होता है (गणतंत्र), जबकि ब्रिटेन में उत्तराधिकारी व्यवस्था है। किसी भी संसदीय व्यवस्था में, चाहे वह भारत की हो अथवा ब्रिटेन की, प्रधानमंत्री की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो गई है। जैसा कि राजनीति के जानकार इसे’ प्रधानमंत्रीय सरकार ‘का नाम देते हैं।
भारत की संसद की संप्रभुता का सिद्धांत ब्रिटिश संसद से लिया गया है जबकि न्यायिक सर्वोच्चता का सिद्धांत अमेरिकी सुप्रीम से लिया गया है। भारतीय संसदीय प्रणाली ब्रिटिश प्रणाली से भिन्न है, भारत में सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक समीक्षा शक्ति का दायरा अमेरिका की तुलना में संकीर्ण है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अमेरिकी संविधान भारतीय संविधान (अनुच्छेद 21) में निहित ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ के खिलाफ ‘कानून की उचित प्रक्रिया’ प्रदान करता है। इसलिए, भारतीय संविधान के निर्माताओं ने संसदीय संप्रभुता के ब्रिटिश सिद्धांत और न्यायिक सर्वोच्चता के अमेरिकी सिद्धांत के बीच एक उचित समायोजन को प्राथमिकता दी है। सर्वोच्च न्यायालय अपनी न्यायिक समीक्षा की शक्ति के माध्यम से संसदीय कानूनों को असंवैधानिक घोषित कर सकता है। संसद अपनी संवैधानिक शक्ति के माध्यम से संविधान के अधिकांश भाग में संशोधन कर सकती है।
भारतीय संविधान एक ऐसी न्यायपालिका की स्थापना करता है, जो अपने आप में एकीकृत होने के साथ-साथ स्वतंत्र है। भारत की न्याय व्यवस्था में सर्वोच्च न्यायालय शीर्ष पर है। इसके नीचे राज्य स्तर पर उच्च न्यायालय हैं। राज्यों में उच्च न्यायालय के नीचे क्रमवार अधीनस्थ न्यायालय हैं, जैसे-जिला अदालत व अन्य निचली अदालतें। न्यायालयों का एकल तंत्र, केंद्रीय कानूनों के साथ-साथ राज्य कानूनों को लागू करता है। हालांकि अमेरिका में संघीय कानूनों को संघीय न्यायपालिका और राज्य कानूनों को राज्य न्यायपालिका लागू करती है। सर्वोच्च न्यायालय, संघीय अदालत है। यह शीर्ष न्यायालय है, जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा की गारंटी देता है और संविधान का संरक्षक है। इसलिए संविधान में इसकी स्वतंत्रता के लिए कई प्रावधान किए गए हैं; जैसे-न्यायाधीशों के कार्यकाल की सुरक्षा, न्यायाधीशों के लिए निर्धारित सेवा शर्ते, भारत की संचित निधि से सर्वोच्च न्यायालय के सभी खचों का वहन, विधायिका में न्यायाधीशों के कामकाज पर चर्चा पर रोक, सेवानिवृत्ति के बाद अदालत में कामकाज पर रोक, अवमानना के लिए दंड देने की शक्ति, कार्यपालिका से न्यायपालिका को अलग रखना इत्यादि।
संविधान के तीसरे भाग में छह मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है। ये अधिकार हैं:
मौलिक अधिकार का उद्देश्य वस्तुतः राजनीतिक लोकतंत्र की भावना को प्रोत्साहन देना है। यह कार्यपालिका और विधायिका के मनमाने कानूनों पर निरोधक की तरह काम करते हैं। उल्लंघन की स्थिति में इन्हें न्यायालय के माध्यम से लागू किया जा सकता है। जिस व्यक्ति के मौलिक अधिकार का हनन हुआ है, वह सीधे सर्वोच न्यायालय की शरण में जा सकता है, जो अधिकारों की रक्षा के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा व उत्प्रेषण जैसे अभिलेख या रिट जारी कर सकता है। हालांकि मौलिक अधिकार कुछ सीमाओं के दायरे में आते हैं लेकिन वे अपरिवर्तनीय भी नहीं हैं। संसद इन्हें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से समाप्त कर सकती है अथवा इनमें कटौती भी कर सकती है। अनुच्छेद 20-21 द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छोड़कर राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान इन्हें स्थगित किया जा सकता है।
डॉ. बी.आर. अंबेडकर के अनुसार, राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांत भारतीय संविधान की अनूठी विशेषता है। इनका उल्लेख संविधान के चौथे भाग में किया गया है। इन्हें मोटे तौर पर तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-सामाजिक, गांधीवादी तथा उदार- बौद्धिका नीति-निदेशक तत्वों का कार्य सामाजिक व आर्थिक लोकतंत्र को बढ़ावा देना है। इनका उद्देश्य भारत में एक ‘कल्याणकारी राज्य’ की स्थापना करना है। हालांकि मौलिक अधिकारों की तरह इन्हें कानून रूप में लागू नहीं किया जा सकता। संविधान में कहा गया है कि देश की शासन व्यवस्था में ये सिद्धांत मौलिक हैं और यह देश की जिम्मेदारी है कि वह कानून बनाते समय इन सिद्धांतों को अपनाए। इसलिए इन्हें लागू करना राज्यों का नैतिक कर्तव्य है किंतु इनकी पृष्ठभूमि में वास्तविक शक्ति राजनैतिक है, अर्थात् जनमत। मिनर्वा मिल्स मामले (1980) “में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि,” भारतीय संविधान की नींव मौलिक अधिकारों और नीति-निदेशक सिद्धांतों के संतुलन पर रखी गई है। ”
भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष है। इसलिए यह किसी धर्म विशेष को भारत के धर्म के तौर पर मान्यता नहीं देता।
संविधान के निम्नलिखित प्रावधान भारत के धर्मनिरपेक्ष लक्षणों को दर्शाते हैं:
धर्मनिरपेक्षता की पश्चिमी अवधारणा धर्म (चर्च) और राज्य (राजनीति) के बीच पूर्ण अलगाव रखती है। धर्मनिरपेक्षता की यह नकारात्मक अवधारणा भारतीय परिवेश में में लागू नहीं हो सकती क्योंकि यहां का समाज बहु धर्मवादी है। इसलिए भारतीय संविधान में सभी धर्मों को समान आदर अथवा सभी धर्मों की समान रूप से रक्षा करते हुए धर्मनिरपेक्षता के सकारात्मक पहलू को शामिल किया गया है। इसके अलावा संविधान ने विधायिका में धर्म के आधार पर कुसौं का आरक्षण देने वाले पुराने धर्म आधारित प्रतिनिधित्व को भी समाप्त कर दिया है। हालांकि संविधान अनुसूचित जाति और जनजाति को उचित प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए अस्थायी आरक्षण प्रदान करता है।
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान-सभा में कहा था कि संसदीय प्रणाली से हमारा अभिप्राय एक व्यक्ति एक वोट से है, जिस पर गंभीरतापूर्वक विचार करके संविधान के रचनाकारों ने साफ वयस्क मताधिकार (Universal Adult Franchise) की पद्धति अपनाई थी, ताकि प्रत्येक भारतीय को बिना किसी भेदभाव के मतदान के समान अधिकार प्राप्त हों।
एक संघीय राज्य में आमतौर पर नागरिक दोहरी नागरिकता रख सकते हैं जैसा कि संयुक्त राज्य अमेरिका में होता है। लेकिन भारतीय संविधान में केवल एक ही नागरिकता का प्रावधान है। इसका अर्थ है कि प्रत्येक भारतीय, भारत का नागरिक है, चाहे उसका निवास स्थान या जन्म स्थान कुछ भी हो। अगर कोई नागरिक किसी घटक राज्य जैसे झारखंड, उत्तरांचल या छत्तीसगढ़ का नागरिक नहीं है, जिससे वह संबंधित हो सकता है, लेकिन वह भारत का नागरिक बना रहता है। भारत के सभी नागरिक देश में कहीं भी रोजगार प्राप्त करने के हकदार हैं और भारत के सभी हिस्सों में समान रूप से सभी अधिकारों का उपयोग कर सकते हैं। संविधान निर्माताओं ने जानबूझकर क्षेत्रवाद और अन्य विघटनकारी प्रवृत्तियों को खत्म करने के लिए एकल नागरिकता का विकल्प चुना था। एकल नागरिकता ने निस्संदेह भारत के लोगों में एकता की भावना पैदा की है।
भारतीय संविधान केवल विधाविका, कार्यपालिका व सरकार (केन्द्र और राज्य) न्यायिक अंग ही उपलब्ध कराता है। बल्कि वह कुछ स्वतंत्र निकायों की स्थापना भी करता है। इन्हें संविधान ने भारत सरकार के लोकतांत्रिक तंत्र के महत्वपूर्ण स्तंभों के रूप में परिकल्पित किया है।
ऐसे कुछ स्वतंत्र निकाय निम्नलिखित हैं:
आपातकाल की स्थिति से प्रभावशाली ढंग से निपटने के लिए भारतीय संविधान में राष्ट्रपति के लिए बृहद आपातकालीन प्रावधानों की व्यवस्था है। इन प्रावधानों को संविधान में शामिल करने का उद्देश्य है-देश की संप्रभुता, एकता, अखण्डता और सुरक्षा, संविधान एवं देश के लोकतांत्रिक ढांचे को सुरक्षा प्रदान करना।
संविधान में तीन प्रकार के आपातकाल की विवेचना की गई है:
इन प्रावधानों को शामिल करने के पीछे तर्कसंगतता देश की संप्रभुता, एकता, अखंडता और सुरक्षा, लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था और संविधान की रक्षा करना है। आपातकाल के दौरान, केंद्र सरकार सर्व-शक्तिशाली हो जाती है और राज्य केंद्र के पूर्ण नियंत्रण में चले जाते हैं। संघीय (सामान्य समय के दौरान) से एकात्मक (आपातकाल के दौरान) राजनीतिक व्यवस्था का इस तरह का परिवर्तन भारतीय संविधान की एक अनूठी विशेषता है।
मूल रूप से, भारतीय संविधान में दोहरी राजव्यवस्था प्रदान की गई थी और इसमें केंद्र और राज्यों के संगठन और शक्तियों के संबंध में प्रावधान थे। बाद में, 73वें और 74वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम (1992) ने सरकार के एक तीसरे स्तर (अर्थात, स्थानीय सरकार) को जोड़ा है, जो दुनिया के किसी भी अन्य संविधान में नहीं पाया जाता है। 1992 के 73वें संशोधन अधिनियम ने संविधान में एक नया भाग IX और एक नई अनुसूची 11 जोड़कर, पंचायतों (ग्रामीण स्थानीय सरकार) को संवैधानिक मान्यता दी। इसी प्रकार, 1992 के 74वें संशोधन अधिनियम ने संविधान में एक नया भाग IX-A और एक नई अनुसूची 12 जोड़कर नगर पालिकाओं (शहरी स्थानीय सरकार) को संवैधानिक मान्यता प्रदान की।
2011 के 97वें संविधान संशोधन अधिनियम ने सहकारी समितियों को संवैधानिक दर्जा और संरक्षण प्रदान किया।
इस संदर्भ में, इसने संविधान में निम्नलिखित तीन परिवर्तन किए:
देश में सहकारी समितियां लोकतांत्रिक, पेशेवर, स्वायत्त और आर्थिक रूप से सुदृढ़ तरीके से कार्य करें, यह सुनिश्चित करने के लिए नए भाग IX-B में विभिन्न प्रावधान किए गए हैं। यह बहु-राज्य सहकारी समितियों के संबंध में संसद को और अन्य सहकारी समितियों के संबंध में राज्य विधानसभाओं को उपयुक्त कानून बनाने का अधिकार देता है।
भारतीय संविधान लोकतंत्र के सिद्धांत पर जनता का, जनता द्वारा तथा जनता के हित के लिए रचा गया है। संविधान में स्पष्टत: यह उल्लिखित है कि भारतीय संघ एवं उसकी समस्त इकाइयों में अंतिम सत्ता जनता के हाथों में रहेगी।
भारतीय समाज में नारियाँ सदियों से शोषित और पीड़ित रही हैं। उन्हें प्रायः ऐसा कोई अधिकार नहीं दिया गया था, जिसके आधार पर वे अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रख पाती। भारतीय संविधान में उन्हें विना किसी भेदभाव के पुरुषों के समान अधिकार दिए गए हैं।
अव संविधान के अनुसार, सरकारी नौकरियों में भी पुरुषों एवं नारिणों में कोई भेदभाव नहीं बरता जाता। पुरुषों के समान महिलाओं को भी जन-प्रतिनिधि चुनने का वयस्क मताधिकार प्राप्त है। यहाँ तक कि महिलाओं के लिए पंचायतों तथा नगरपालिकाओं के निवचिन में एक-तिहाई सीटों पर आरक्षण है।
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1. संविधान की प्रमुख विशेषताएं क्या हैं? |
2. संविधान की मुख्य विशेषताओं का उदाहरण दें। |
3. संविधान क्यों महत्वपूर्ण है? |
4. संविधान के संशोधन की प्रक्रिया क्या है? |
5. संविधान के बिना क्या हो सकता है? |
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