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अभ्यास प्रश्न: अनुच्छेद लेखन | हिंदी व्याकरण - कक्षा 10 - Class 10 PDF Download

1. ग्लोबल वार्मिंग-मनुष्यता के लिए खतरा

  • ग्लोबल वार्मिंग क्या है ?
  • ग्लोबल वार्मिंग के कारण
  • ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव
  • समस्या का समाधान।

गत एक दशक में जिस समस्या ने मनुष्य का ध्यान अपनी ओर खींचा है, वह है-ग्लोबल वार्मिंग। ग्लोबल वार्मिंग का सीधा-सा अर्थ है है-धरती के तापमान में निरंतर वृद्धि। यद्यपि यह समस्या विकसित देशों के कारण बढ़ी है परंतु इसका नुकसान सारी धरती को भुगतना पड़ रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के कारणों के मूल हैं-मनुष्य की बढ़ती आवश्यकताएँ और उसकी स्वार्थवृत्ति। मनुष्य प्रगति की अंधाधुंध दौड़ में शामिल होकर पर्यावरण को अंधाधुंध क्षति पहुँचा रहा है। कल-कारखानों की स्थापना, नई बस्तियों को बसाने, सड़कों को चौड़ा करने के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई की गई है।

इससे पर्यावरण को दोतरफा नुकसान हुआ है तो इन गैसों को अपनाने वाले पेड़-पौधों की कमी से आक्सीजन, वर्षा की मात्रा और हरियाली में कमी आई है। इस कारण वैश्विक तापमान बढ़ता जा रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण एक ओर धरती की सुरक्षा कवच ओजोन में छेद हुआ है तो दूसरी ओर पर्यावरण असंतुलित हुआ है। असमय वर्षा, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सरदी-गरमी की ऋतुओं में भारी बदलाव आना ग्लोबल वार्मिंग का ही प्रभाव है।

इससे ध्रुवों पर जमी बरफ़ पिघलने का खतरा उत्पन्न हो गया है जिससे एक दिन प्राणियों के विनाश का खतरा होगा, अधिकाधिक पौधे लगाकर उनकी देख-भाल करनी चाहिए तथा प्रकृति से छेड़छाड़ बंद कर देना चाहिए। इसके अलावा जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण करना होगा। आइए इसे आज से शुरू कर देते हैं, क्योंकि कल तक तो बड़ी देर हो जाएगी।

2. बच्चों की शिक्षा में माता-पिता की भूमिका

  • शिक्षा और माता-पिता
  • शिक्षा की महत्ता
  • उत्तरदायित्व
  • शिक्षाविहीन नर पशु समान।

संस्कृत में एक श्लोक है-

माता शत्रु पिता वैरी, येन न बालो पाठिता।
न शोभते सभा मध्ये हंस मध्ये वको यथा।।

अर्थात वे माता-पिता बच्चे के लिए शत्र के समान होते हैं जो अपने बच्चों को शिक्षा नहीं देते। ये बच्चे शिक्षितों की सभा में उसी तरह होते हैं जैसे हंसों के बीच बगुला। एक बच्चे के लिए परिवार प्रथम पाठशाला होती है और माता-पिता उसके प्रथम शिक्षक। माता-पिता यहाँ अभी अपनी भूमिका का उचित निर्वाह तो करते हैं पर जब बच्चा विद्यालय जाने लायक होता है तब कुछ माता पिता उनके शिक्षा-दीक्षा पर ध्यान नहीं देते हैं और अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते हैं। ऐसे में बालक जीवन भर के लिए निरक्षर की विशेष महत्ता एवं उपयोगिता है।

शिक्षा के बिना जीवन अंधकारमय हो जाता है। कभी वह साहकारों के चंगल में फँसता है तो कभी लोभी दकानदारों के। उसके लिए काला अक्षर भैंस बराबर होता है। वह समाचार पत्र. पत्रिकाओं, पुस्तकों आदि का लाभ नहीं उठा पाता है। उसे कदम-कदम पर कठिनाइयों का सामना करना पडता है ऐसे में माता-पिता का उत्तरदायित्व है कि वे अपने बच्चों के पालन-पोषण के साथ ही उनकी शिक्षा की भली प्रकार व्यवस्था करें। कहा गया है कि विद्याविहीन नर की स्थिति पशुओं जैसी होती है, बस वह घास नहीं खाता है। शिक्षा से ही मानव सभ्य इनसान बनता है। हमें भूलकर भी शिक्षा से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए।

3. समाचार-पत्र एक : लाभ अनेक

  • जिज्ञासा पूर्ति का सस्ता एवं सुलभ साधन
  • रोज़गार का साधन
  • समाचार पत्रों के प्रकार
  • जानकारी के साधन ।

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह अपने समाज और आसपास के अलावा देश-दुनिया की जानकारी के लिए जिज्ञासु रहता है। उसकी इस जिज्ञासा की पूर्ति का सर्वोत्तम साधन है-समाचार-पत्र, जिसमें देश-विदेश तक के समाचार आवश्यक चित्रों के साथ छपे होते हैं। सुबह हुई नहीं कि शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में समाचार पत्र विक्रेता घर-घर तक इनको पहुँचाने में जुट जाते हैं। कुछ लोग तो सोए होते हैं और समाचार-पत्र दरवाजे पर आ चुका होता है।

अब समाचार पत्र अत्यंत सस्ता और सर्वसुलभ बन गया है। समाचार पत्रों के कारण लाखों लोगों को रोजगार मिला है। इनकी छपाई, ढुलाई, लादने-उतारने में लाखों लगे रहते हैं तो एजेंट, हॉकर और दुकानदार भी इनसे अपनी जीविका चला रहे हैं। इतना ही नहीं पुराने समाचार पत्रों से लिफ़ाफ़े बनाकर एक वर्ग अपनी आजीविका चलाता है। छपने की अवधि पर समाचार पत्र कई प्रकार के होते हैं।

प्रतिदिन छपने वाले समाचार पत्रों को दैनिक, सप्ताह में एक बार छपने वाले समाचार पत्रों को साप्ताहिक, पंद्रह दिन में छपने वाले समाचार पत्र को पाक्षिक तथा माह में एक बार छपने वाले को मासिक समाचार पत्र कहते हैं। अब तो कुछ शहरों में शाम को भी समाचार पत्र छापे जाने लगे हैं। समाचार पत्र हमें देश-दुनिया के समाचारों, खेल की जानकारी मौसम तथा बाज़ार संबंधी जानकारियों के अलावा इसमें छपे विज्ञापन भी भाँति-भाँति की जानकारी देते हैं।

4. भ्रष्टाचार का दानव

  • भ्रष्टाचार क्या है?
  • देश के लिए घातक
  • भ्रष्टाचार का दुष्प्रभाव
  • लोगों की भूमिका।

भ्रष्टाचार दो शब्दों ‘भ्रष्ट’ और ‘आचार’ के मेल से बना है, जिसका अर्थ है-नैतिक एवं मर्यादापूर्ण आचारण से हटकर आचरण करना। इस तरह का आचरण जब सत्ता में बैठे लोगों या कार्यालयों के अधिकारियों द्वारा किया जाता है तब जन साधारण के लिए समस्या उत्पन्न हो जाती है। पक्षपात करना, भाई-भतीजावाद को प्रश्रय देना, रिश्वत माँगना, समय पर काम न करना, काम करने के बदले अनुचित माँग रख देना, भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं।

भ्रष्टाचार समाज और देश के लिए घातक है। दुर्भाग्य से आज हमारे समाज में इसकी जड़ें इतनी गहराई से जम चुकी हैं कि इसे उखाड़ फेंकना आसान नहीं रह गया है। भ्रष्टाचार के कारण देश की मान मर्यादा कलंकित होती है। इसे किसी देश के लिए अच्छा नहीं माना जाता है। भ्रष्टाचार के कारण ही आज रिश्वतखोरी, मुनाफाखोरी, चोरबाज़ारी, मिलावट, भाई-भतीजावाद, कमीशनखोरी आदि अपने चरम पर हैं।

इससे समाज में विषमता बढ़ रही है। लोगों में आक्रोश बढ़ रहा है और विकास का मार्ग अवरुद्ध होता जा रहा है। इसके कारण सरकारी व्यवस्था एवं प्रशासन पंगु बन कर रह गए हैं। भ्रष्टाचार मिटाने के लिए लोगों में मानवीय मूल्यों को प्रगाढ़ करना चाहिए। इसके लिए नैतिक शिक्षा की विशेष आवश्यकता है। लोगों को अपने आप में त्याग एवं संतोष की भावना मज़बूत करनी होगी। यद्यपि सरकारी प्रयास भी इसे रोकने में कारगर सिद्ध होते हैं पर लोगों द्वारा अपनी आदतों में सुधार और लालच पर नियंत्रण करने से यह समस्या स्वतः कम हो जाएगी।

5. बढ़ती जनसंख्या : प्रगति में बाधक

  • जनसंख्या वृद्धि बनी समस्या
  • संसाधनों पर असर
  • वृद्धि के कारण
  • जनसंख्या रोकने के उपाय।

किसी राष्ट्र की प्रगति के लिए जनसंख्या एक महत्त्वपूर्ण संसाधन होती है, पर जब यह एक सीमा से अधिक हो जाती है तब यह समस्या का रूप ले लेती है। जनसंख्या वृद्धि एक ओर स्वयं समस्या है तो दूसरी ओर यह अनेक समस्याओं की जननी भी है। यह परिवार, समाज और राष्ट्र की प्रगति पर बुरा असर डालती है।

जनसंख्या वृद्धि के साथ देश के विकास की स्थिति ‘ढाक के तीन पात वाली’ बनकर रह जाती है। प्रकृति ने लोगों के लिए भूमि वन आदि जो संसाधन प्रदान किए हैं, जनाधिक्य के कारण वे कम पड़ने लगते हैं तब मनुष्य प्रकृति के साथ खिलवाड़ शुरू कर देता है। वह अपनी बढ़ी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वनों का विनाश करता है।

इससे प्राकृतिक असंतुलन का खतरा पैदा होता है जिससे नाना प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। जनसंख्या वृद्धि के लिए हम भारतीयों की सोच काफ़ी हद तक जिम्मेदार है। यहाँ की पुरुष प्रधान सोच के कारण घर में पुत्र जन्म आवश्यक माना जाता है। भले ही एक पुत्र की चाहत में छह, सात लड़कियाँ क्यों न पैदा हो जाएँ पर पुत्र के बिना न तो लोग अपना जन्म सार्थक मानते हैं और न उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती दिखती है।

इसके अलावा अशिक्षा. गरीबी और मनोरंजन के साधनों का अभाव भी जनसंख्या वृद्धि में योगदान देता है। जनसंख्या वृद्धि रोकने के लिए लोगों का इसके दुष्परिणामों से अवगत कराकर जन जागरूकता फैलाई जानी चाहिए। सरकार द्वारा परिवार नियोजन के साधनों का मुफ़्त वितरण किया जाना चाहिए तथा ‘जनसंख्या वृद्धि’ को पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए।

6. सादा जीवन उच्च विचार

  • भारतीय संस्कृति और सादा जीवन उच्च विचार
  • महत्ता
  • महापुरुषों ने अपना सादा जीवन उच्च विचार
  • वर्तमान स्थिति।

भारतीय संस्कृति को समृद्धशाली और लोकप्रिय बनाने में जिन तत्त्वों का योगदान है उनमें एक है-सादा जीवन उच्च विचार। सादा जीवन उच्च विचार रहन-सहन की एक शैली है जिससे भारतीय ही नहीं विदेशी तक प्रभावित हुए हैं। प्राचीनकाल में हमारे देश के ऋषि मुनि भी इसी जीवन शैली को अपनाते थे। भारतीयों को प्राचीनकाल से ही सरल और सादगीपूर्ण जीवन पसंद रहा है।

इनके आचरण में त्याग, दया, सहानुभूति, करुणा, स्नेह उदारता, परोपकार की भावना आदि गुण विद्यमान हैं। मनुष्य के सादगीपूर्ण जीवन के लिए इन गुणों की प्रगाढ़ता आवश्यक है। भारतीयों का जीवन किसी तप से कम नहीं रहा है क्योंकि उनके विचारों में महानता और जीवन में सादगी रही है। प्राचीनकाल से ही यह नियम बना दिया गया था कि जीवन के आरंभिक 25 वर्ष को ब्रहमचर्य जीवन के रूप में बिताया जाय।

इस काल में बालक गुरुकुलों में रहकर सादगी और नियम का पाठ सीख जाता था। इनका जीवन ऐशो-आराम और विलासिता से कोसों दूर हुआ करता था। यही बाद में भारतीयों के जीवन का आधार बन जाता था। महात्मा गांधी, सरदार पटेल आदि का जीवन सादगी का दूसरा नाम था। वे एक धोती में जिस सादगी से रहते थे वह दूसरों के लिए आदर्श बन गया। वे दूसरों के लिए अनुकरणीय बन गए।

अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन भी सादगीपूर्ण जीवन बिताते थे। दुर्भाग्य से आज लोगों की सोच में बदलाव आ गया है। अब सादा जीवन जीने वालों को गरीबी और पिछड़ेपन का प्रतीक माना जाने लगा है। अब लोगों की पहचान उनके कपड़ों । लोग उपभोग को ही सुख मान बैठे हैं। सुख एकत्र करने की चाहत में अब जीवन तनावपूर्ण बनता जा रहा है।

7. मनोरंजन के साधनों की बढ़ती दुनिया

  • मनोरंजन की आवश्यकता
  • मनोरंजन के प्राचीन साधन
  • मनोरंजन के साधनों में बदलाव
  • आधुनिक साधनों के लाभ-हानियाँ।

मनुष्य श्रमशील प्राणी है। वह आदिकाल से श्रम करता रहा है। इस श्रम के उपरांत थकान उत्पन्न होना स्वाभाविक है। पहले वह भोजन की तलाश एवं जंगली जानवरों से बचने के लिए श्रम करता था। बाद में उसकी आवश्यकता बढ़ीं अब वह मानसिक और शारीरिक श्रम करने लगा। श्रम की थकान उतारने एवं ऊर्जा प्राप्त करने के लिए मनोरंजन की आवश्यकता महसूस हुई।

इसके लिए उसने विभिन्न साधन अपनाए। प्राचीन काल में मनुष्य पशु-पक्षियों के माध्यम से अपना मनोरंजन करता था। वह पक्षी और जानवर पालता था। उनकी बोलियों और उनकी लड़ाई से वह मनोरंजन करता था। इसके अलावा शिकार करना भी उसके मनोरंजन का साधन था। इसके बाद ज्यों-ज्यों समय में बदलाव आया, उसके मनोरंजन के साधन भी बढ़ते गए।

मध्यकाल तक मनुष्य ने नृत्य और गीत का सहारा लेना शुरू किया। नाटक, गायन, वादन, नौटंकी, प्रहसन काव्य पाठ आदि के माध्यम से वह आनंदित होने लगा। खेल तो हर काल में मनोरंजन का साधन रहे हैं। आज मनोरंजन के साधनों में भरपूर वृद्धि हुई है। अब तो मोबाइल फ़ोन पर गाने सुनना, फ़िल्म देखना, सिनेमा जाना, देशाटन करना, कंप्यूटर का उपयोग करना, चित्रकारी करना, सरकस देखना, पर्यटन स्थलों का भ्रमण करना उसके मनोरंजन में शामिल हो गया है।

मनोरंजन के आधुनिक साधन घर बैठे बिठाए व्यक्ति का मनोरंजन तो करते हैं पर व्यक्ति में मोटापा, रक्तचाप की समस्या, आलस्य, एकांतप्रियता और समाज से अलग-थलग रहने की प्रवृत्ति उत्पन्न कर रहे हैं।

8. त्योहारों का बदलता स्वरूप

  • मानव जीवन और त्योहार
  • भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग
  • त्योहार में आते बदलाव
  • हमारा दायित्व,
  • वर्तमान स्वरूप।

मनुष्य और त्योहारों का अटूट संबंध है। मनुष्य अपने थके हारे मन को उत्साहित एवं आनंदित करने के साथ ही ऊर्जान्वित करने के लिए त्योहार मनाने का कोई न कोई बहाना खोज ही लेता है। कभी महीना बदलने पर, कभी नई ऋतु आने पर और कभी फ़सल पकने की आड़ में मनुष्य प्राचीन समय से त्योहार मनाता आया है।

ये त्योहार, मानव के सुख-दुख, हँसी-खुशी, उल्लास आदि व्यक्त करने का साधन भी होते हैं। त्योहार हमारे संस्कृति के अभिन्न अंग बन गए हैं। इनके माध्यम से हमारी संस्कृति की झलक मिलती है। त्योहारों के अवसर पर प्रयुक्त परिधान, रहन-सहन का ढंग, नृत्य-गायन की कलात्मकता आदि में संस्कृति के दर्शन होते हैं। ये त्योहार हमारी एकता को मजबूत बनाते हैं। वर्तमान में भौतिकवाद के कारण बदलाव आया है।

लोगों की भागम भरी जिंदगी की व्यस्तता और काम से बचने की प्रवृत्ति के कारण अब त्योहार उस हँसी-खुशी उल्लास से नहीं मनाए जाते हैं, जैसे पहले मनाए जाते थे। आज लोगों के मन में धर्म-जाति भाषा क्षेत्रीयता और संप्रदाय की कट्टरता के कारण दूरियाँ बढ़ी हैं। अब तो त्योहारों के अवसर पर दंगे भड़कने का भय स्पष्ट रूप से लोगों को आतंकित किए रहता है।

इस कारण लोग इन त्योहारों को जैसे-तैसे मनाकर इतिश्री कर लेते हैं। त्योहारों को हँसी-खुशी मनाने के लिए धार्मिक कट्टरता त्यागनी चाहिए तथा प्रकृति से निकटता बनाने का प्रयास करना चाहिए। हमें इस तरह त्योहार मनाने का प्रयास करना चाहिए जिससे सभी को खुशी मिल सके।

9. दहेज प्रथा : एक सामाजिक समस्या

  • दहेज क्या है?
  • दहेज का बदलता स्वरूप
  • दहेज प्रथा कितनी घातक
  • दहेज प्रथा की रोकथाम।

भारतीय संस्कृति के मूल में छिपी है-कल्याण की भावना। इसी भावना के वशीभूत होकर प्राचीनकाल में कन्या का पिता अपनी बेटी की सुख-सुविधा हेतु कुछ वस्त्र-आभूषण और धन उसकी विदाई के समय स्वेच्छा से दिया करता था। कालांतर में यही रीति विकृत हो गई। इसी विकृति को दहेज नाम दिया गया। धीरे-धीरे लोगों ने इसे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ लिया।

सभ्यता और भौतिकवाद के कारण लोगों में धन लोलुपता बढ़ी है जिसने इस प्रथा को विकृत करने में वही काम किया जो आग में घी करता है। वर पक्ष के लोग कन्या पक्ष से खुलकर दहेज माँगने लगे और समाज की नज़र बचाकर बलपूर्वक दहेज लेने लगे जिससे इस प्रथा ने दानवी रूप ले लिया। आज स्थिति यह है कि समाज में लड़कियों को बोझ समझा जाने लगा है।

लोग घर में कन्या का जन्म किसी अपशकुन से कम नहीं समझते हैं। इससे समाज की सोच में विकृति आई है। दहेज प्रथा हमारे समाज के लिए अत्यंत घातक है। इस प्रथा के कारण ही जन्मी-अजन्मी लड़कियों को मारने का चलन शुरू हो गया। आज का समय तो जन्मपूर्व ही कन्या भ्रूण की हत्या करा देता है। इसमें असफल रहने के बाद वह जन्म के बाद कन्याओं के पालन-पोषण में दोहरा मापदंड अपनाता है।

वह लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा, खान-पान और अन्य सुविधाओं के साथ ही उनके साथ व्यवहार में हीनता दिखाता है। दहेज प्रथा के कारण ही असमय नव विवाहिताओं को अपनी जान गवानी पड़ती है। मनुष्यता के लिए इससे ज़्यादा कलंक की बात क्या होगी कि अनेक लड़कियाँ बिन ब्याही रह जाती हैं या उन्हें बेमेल विवाह के लिए बाध्य होना पड़ता है।

दहेज प्रथा रोकने के लिए केवल सरकारी प्रयास ही काफ़ी नहीं हैं। इसके लिए युवा वर्ग को आगे आना होगा और दहेज रहित-विवाह प्रथा की शुरूआत करके समाज के सामने अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करना होगा।

10. समय का महत्त्व

  • समय की पहचान
  • समय पर काम न करने पर पछताना व्यर्थ
  • समय का सदुपयोग-सफलता का सोपान
  • आलस्य का त्याग।

एक सूक्ति है–’समय और सूक्ति किसी की प्रतीक्षा नहीं करते हैं।’ ये आते और जाते रहते हैं, चाहे कोई इनका लाभ उठाए या नहीं पर गुणवान लोग समय की महत्ता समझकर समय का लाभ उठाते हैं। एक चतुर मछुआरा अपने जाल और नाव के साथ ज्वार की प्रतीक्षा करता है और उसका लाभ उठाता है। जो लोग समय पर काम नहीं करते हैं उनके हाथ पछताने के सिवा कुछ भी नहीं लगता है।

समय बीतने पर काम करने से उसकी सफलता का आनंद सूख जाता है। ऐसे ही लोगों के लिए गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है-‘समय चूकि वा पुनि पछताने।’ का बरखा जब कृषि सुखाने। अर्थात् समय पर काम करने से चक कर पछताना उसी तरह है जैसा कि फ़सल सखने के बाद वर्षा होने से वह हरी नहीं हो पाती है। जो व्यकि सदुपयोग करते हैं वे हर काम में सफल होते हैं।

शत्रु आक्रमण का जो देश मुकाबला नहीं करता वह गुलाम होकर रह जाता है, समय पर बीज न बोने वाले किसान की फ़सल अच्छी नहीं होती है और समय पर वर्षा न होने से भयानक अकाल पड़ जाता है। इस तरह निस्संदेह समय का उपयोग सफलता का सोपान है। समय पर काम करने के लिए आवश्यक है-आलस्य का त्याग करना। आलस्य भाव बनाए रखकर समय पर काम पूरा करना कठिन है। अतः हमें आलस्य भाव त्यागकर समय का सदुपयोग करना चाहिए।

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FAQs on अभ्यास प्रश्न: अनुच्छेद लेखन - हिंदी व्याकरण - कक्षा 10 - Class 10

1. अनुच्छेद लेखन क्या है?
उत्तर: अनुच्छेद लेखन एक लेखन रूप है जिसमें विषय के बारे में विस्तार से बताया जाता है। इसमें संबंधित जानकारी, तथ्य, उदाहरण और आपत्तियाँ शामिल हो सकती हैं। अनुच्छेद लेखन का उद्देश्य पाठकों को एक विषय के बारे में जानकारी प्रदान करना होता है।
2. अनुच्छेद लेखन के क्या उदाहरण हैं?
उत्तर: अनुच्छेद लेखन के कई उदाहरण हो सकते हैं। इनमें से कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं: - चरित्र विशेषण: एक विशिष्ट व्यक्ति, जगह या वस्त्र के बारे में जानकारी। - व्यापारिक अनुच्छेद: उत्पाद, सेवाओं, या कंपनी के बारे में विस्तृत जानकारी। - विज्ञान अनुच्छेद: वैज्ञानिक तथ्यों, प्रयोगों, या आविष्कारों के बारे में लिखा जाना। - इतिहास अनुच्छेद: एक व्यक्ति, घटना, या सामयिकी के बारे में विस्तार से लिखा जाना। - शिक्षा अनुच्छेद: शिक्षा के महत्व, तकनीक, या नवीनतम विद्यालय की व्यवस्था के बारे में जानकारी।
3. अनुच्छेद लेखन के लिए कौन-से तत्व महत्वपूर्ण होते हैं?
उत्तर: अनुच्छेद लेखन के लिए कुछ महत्वपूर्ण तत्व हैं जो इसकी मान्यता और प्रभाव को बढ़ाते हैं। इनमें शामिल हैं: - संरचना: अनुच्छेद को एक संरचित ढंग से लिखना चाहिए, जिसमें प्रारंभिक वाक्य, मध्य भाग, और निष्कर्ष शामिल हों। - समय: अनुच्छेद को विचारशीलता और संयोजन के साथ लिखना चाहिए, ताकि पाठक आसानी से समझ सकें। - शब्दकोश: विशेषतः जटिल शब्दों को सरल शब्दों में परिवर्तित करना चाहिए, ताकि पाठकों को समझने में कोई समस्या न हो। - वाक्य रचना: सुगम और सामान्य वाक्य रचना का उपयोग करना चाहिए, ताकि पठनयों को सहज और स्पष्ट लगे।
4. अनुच्छेद लेखन के लिए मुझे कौन-सी भाषा का उपयोग करना चाहिए?
उत्तर: अनुच्छेद लेखन के लिए आपको सरल और सुगम भाषा का उपयोग करना चाहिए। भाषा को सामान्य और स्पष्ट रखें ताकि पाठक आसानी से समझ सकें। अनुच्छेद को वाक्य रचना का पालन करते हुए लिखना चाहिए, जहां प्रत्येक वाक्य एक संयुक्त विचार को प्रकट करता है।
5. अनुच्छेद लेखन के लिए कौन-कौन से संगठनात्मक उपकरणों का उपयोग कर सकते हैं?
उत्तर: अनुच्छेद लेखन के लिए आप कई संगठनात्मक उपकरणों का उपयोग कर सकते हैं। ये उपकरण इसकी संरचना और ढांचे को सुधारने में मदद करते हैं। कुछ महत्वपूर्ण संगठनात्मक उपकरण निम्नलिखित हैं: - अंकित खंड: अनुच्छेद की विषय सूची या ढांचा तैयार कर
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