(i) भूकम्प भू-पृष्ठ पर होने वाला आकस्मिक कंपन है, जो भू-गर्भ में चट्टानों के लचीनेपन या समस्थिति (Isostasy) के कारण होने वाले समायोजन का परिणाम होता है। यह प्राकृतिक व मानवीय दोनों ही कारणों से हो सकता है। प्राकृतिक कारणों में ज्वालामुखी क्रिया, विवर्तनिक अस्थिरता, संतुलन स्थापना के प्रयास, वलन व भ्रंशन व भूगर्भिक गैसों का फैलाव आदि शामिल किए जाते हैं। प्रत्येक चट्टान में तनाव सहने की एक क्षमता होती है। उसके बाद यदि तनाव बल और अधिक हो जाए, तो चट्टान टूट जाता है तथा टूटा हुआ भाग पुनः अपने स्थान पर वापस आ जाता है। इस प्रकार चट्टान में भ्रंशन की घटनाएं होती हैं एवं भूकम्प आते हैं।
(ii) कृत्रिम या मानव निर्मित भूकम्प मानवीय क्रियाओं की अवैज्ञानिकता के परिणाम होते हैं। इस संदर्भ में विवर्तनिक रूप से अस्थिर प्रदेशों में सड़कों, बांधों, विशाल जलाशयों आदि के निर्माण का उदाहरण लिया जा सकता है। इसके अलावा परमाणु परीक्षण भी भूकम्प के लिए उत्तरदायी हैं।
(iii) भूकम्प आने के पहले वायुमंडल में 'रेडॉन' गैसों की मात्रा में वृद्धि हो जाती है। अत: इस गैस की मात्रा में वृद्धि का होना उस प्रदेश विशेष में भूकम्प आने का संकेत होता है। जिस जगह से भूकम्पीय तरंगें उत्पन्न होती है उसे 'भूकम्प मूल' (Focus) कहते हैं तथा जहां सबसे पहले भूकम्पीय लहरों का अनुभव किया जाता है, उसे भूकम्प केन्द्र (Epi-Centre) कहते हैं।
(iv) भूकम्प के दौरान जो ऊर्जा भूकम्प मूल से निकलती है, उसे 'प्रत्यास्थ ऊर्जा' (Elstic Energy) कहते हैं। भूकम्प के दौरान कई प्रकार की भूकम्पीय तरंगें (Seismic Waves) उत्पन्न होती है, जिन्हें 3 श्रेणियों में रखा जा सकता है -
- प्राथमिक अथवा लम्बात्मक तरंगें (Primary of Longitudinal Waves)
ये अनुदैर्ध्य तरंगें हैं एवं ध्वनि तरंगों की भाँति चलती है। इन्हें 'P' तरंगें भी कहा जाता है। तीनों भूकम्पीय लहरों में सर्वाधिक तीव्र गति इसी की होती है। यह ठोस के साथ-साथ तरल माध्यम में भी चल सकती है, यद्यपि ठोस की तुलना में तरल माध्यम में इसकी गति मंद हो जाती है। - अनुप्रस्थ अथवा गौण तरंगें (Secondary of Transverse Waves)
इन्हें 'S' तरंगें भी कहा जाता है। ये प्रकाश तरंगों की भाँति चलती हैं। ये सिर्फ ठोस माध्यम में ही चल सकती है, तरल माध्म में प्रायः लुप्त हो जाती है। चूंकि ये पृथ्वी के क्रोड से गुजर नहीं पाती, अतः 'S' तरंगों से पृथ्वी के क्रोड के तरल होने के सम्बंध में अनुमान लगाया जाता है। 'p' तरंगों की तुलना में इसकी गति 40 प्रतिशत कम होती है। - धरातलीय तरंगें (Surface or Long Period Waves)
ये अत्यधिक प्रभावशाली एवं सबसे लम्बा मार्ग तय करने वाली तरंगें हैं जो पृथ्वी के केवल ऊपरी भाग को प्रभावित करती है तथा इसका प्रभाव सबसे अधिक विनाशकारी होता है एवं ये देर से पहुंचने वाली तरंगें हैं। इसे 'L' तरंगें भी कहा जाता है।
(v) जिन संवेदनशील यंत्रों द्वारा भूकम्पीय तरंगों की तीव्रता मापी जाती है उन्हें 'भूकम्प लेखी' या 'सिस्मोग्राफ' (Seismograph) कहते हैं, इसके तीन स्केल (scale) हैं -
- रॉसी-फेरल स्केल (Rossy Feral Scale) - इसके मापक 1 से 11 रखे गए थे।
- मरकेली स्केल (Mercali Scale): यह अनुभव प्रधान स्केल है। इसके 12 मापक हैं।
- रिक्टर स्केल (Richter Scale): यह गणितीय मापक (Logarithmic) है, जिसकी तीव्रता 0 से 9 तक होती है और रिक्टर स्केल पर प्रत्येक अगली इकाई पिछली इकाई की तुलना में 10 गुना अधिक तीव्रता रखता है।
समान भूकम्पीय तीव्रता वाले स्थानों को मिलाने वाली रेखा को 'समभूकम्प रेखा' (Isoseismal Lines) कहते हैं। एक ही समय पर आने वाले भूकम्पीय क्षेत्रों को मिलाने वाली रेखा होमोसीस्मल लाइन (Homoseismal Lines) कहलाती है। -
भूकम्पों का विश्व वितरण
विश्व में भूकम्पों का वितरण उन्हीं क्षेत्रों से संबंधित है जो अपेक्षाकृत कमजोर तथा अव्यवस्थित हैं। भूकम्प के ऐसे क्षेत्र मोटे तौर पर दो विवर्तनिकी घटनाओं से संबंधित है - प्लेट के किरानों के सहारे तथा अंशों के सहारे। विश्व में भूकम्प की कुछ विस्तृत पेटियां इस प्रकार हैं
- प्रशान्त महासागरीय तटीय पेटी (Circum Pacific Belt)
यह विश्व का सबसे विस्तृत भूकम्प क्षेत्र है जहां पर सम्पूर्ण विश्व के 63 प्रतिशत भूकम्प आते हैं। इस क्षेत्र में चिली, कैलिफोर्निया, अलास्का, जापान, फिलीपींस, न्यूजीलैंड आदि आते हैं। यहां भूकम्प का सीधा सम्बंध प्लेटीय अभिसरण, भूपर्पटी के चट्टानी संस्तरों में भ्रंशन तथा ज्वालामुखी सक्रियता से है। - मध्य महाद्वीपीय पेटी (Mid-Continental Belt)
इस पेटी में विश्व के 21 प्रतिशत भूकम्प आते हैं। यह प्लेटीय अभिसरण (Convergence) का क्षेत्र है एवं इसमें आने वाले अधिकांश भूकम्प संतुलनमूलक तथा अंशमूलक हैं। यह पट्टी केप वर्डे से शुरू होकर अटलांटिक महासागर, भूमध्यसागर को पारकर आल्प्स, काकेशस, हिमालय जैसी नवीन पर्वत श्रेणियों से होते हुए दक्षिण की ओर मुड़ जाती है और दक्षिणी पूर्वी द्वीपों में जाकर प्रशान्त महासागरीय पेटी में मिल जाती है। भारत का भूकम्प क्षेत्र इसी पेटी के अन्तर्गत सम्मिलित किया जाता है। - मध्य अटलांटिक पेटी (Mid-Atlantic Belt)
यह मध्य अटलांटिक कटक में आइसलैण्ड (उत्तर) से लेकर बोवेट द्वीप (दक्षिण) तक विस्तृत है। इनमें सर्वाधिक भूकम्प भूमध्यरेखा के आसपास पाये जाते हैं। सामान्यतः इस पेटी में कम तीव्रता के भूकम्प आते हैं जिनका सम्बंध प्लेटों के अपसरण (Divergence) व रूपांतरण (Transformed) भंशों से है।
1. भारत में भूकम्प
- भारत में भूकम्पों का मुख्य कारण है, भारतीय प्लेट का यूरेशियाई प्लेट के साथ टकराना। इसके अतिरिक्त यह धीरे-धीरे वामावर्त (एंटीक्लॉकवाइज) दिशा में घूम रही है। इस घूर्णन और स्थानान्तरण के परिणामस्वरूप ब्लूचिस्तान में तथा भारत-म्यांमार पर्वतमालाओं में पाश्विक सर्पण (लेटरल स्लिप) होता है, जिससे इन क्षेत्रों में भूकम्प की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। हिमालय का पर्वतीय भाग एवं उत्तर का मैदानी भाग भूकम्प की दृष्टि से अत्यधिक संवेदनशील क्षेत्र है, जिससे यहां पर प्रायः भूकम्प आते रहते हैं। पिछली एक सदी में इस क्षेत्र में अनेक बड़े भूकम्प आ चुके हैं, जिनमें असम, कांगड़ा, बिहार, नेपाल व उत्तरकाशी में आए भूकम्प शामिल हैं।
- भारत का प्रायद्वीपीय पठार अपेक्षाकृत अधिक स्थिर भू–भाग है और यह न्यूनतम भूकम्पों का क्षेत्र माना गया है। कुछ समय पहले भू-वैज्ञानिकों ने एक नया सिद्धान्त प्रतिपादित किया जिसके अनुसार, लातूर और उस्मानाबाद (महाराष्ट्र) के नजदीक भीमा (कृष्णा) नदी के साथ-साथ भ्रंश रेखा विकसित हुई है। जहां ऊर्जा संग्रह होता है तथा इसकी विमुक्ति भूकम्प का कारण बनती है।
- कोयना, लातूर तथा जबलपुर के भूकम्पों ने प्रायद्वीपीय भारत में भूगर्भिक स्थिरता पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है। अब यह माना जाने लगा है कि भारत का कोई भी प्रदेश, भूकम्प रहित नहीं है, क्योंकि भारतीय प्लेट के उत्तरी खिसकाव के कारण एवं उससे उत्पन्न दबाव जनित बल से पठारी भाग के आंतरिक भागों में ऊर्जा तरंगों का प्रभाव बढ़ा है। जब यह ऊर्जा बाहर विनिर्मुक्त होने का प्रयास करता है, तो भारतीय प्लेट में भ्रंश निर्माण की स्थितियां बनती है। यही कारण है कि भूगर्भिक रूप से स्थिर भारतीय प्लेट में भी अनेक भ्रंश उत्पन्न हो गए हैं, जहां बड़े भूकम्प आने की आशंका रहती है। भारतीय अफ्रीकन प्लेट के संगम पर स्थित होने के कारण विगत समय में गुजरात राज्य अनेक बार भीषण भूकम्पों का शिकार हुआ। 2001 में कच्छ के भुज क्षेत्र में आए भूकम्प का मुख्य कारण, इसका सर्वाधिक भूकम्प संभावित क्षेत्र (जोन V) में स्थित होना है। इस क्षेत्र में छोटे-छोटे प्लेटों के अन्तरप्लेटीय गतिविधियों के कारण दबावजनित बल उत्पन्न होता रहता है।
- इसके अतिरिक्त मानवीय क्रियाओं के कारण ही भारत में भूकम्प की आशंका बनी रहतती है। बड़े बांध, समस्थितिजनक बल (Isostatic Force) उत्पन्न करते हैं, जिनसे जल-संग्रहण क्षेत्र या उसके आस-पास भूकम्प आने की आशंका बढ़ जाती है। 1967 ई. में महाराष्ट्र के कोयना में आया भूकम्प इसका उदाहरण है।
2. भूकम्पीय क्षेत्रों का नवीन वर्गीकरण
भारतीय मानक ब्यूरो ने देश के 54 प्रतिशत क्षेत्र को नए मानकों का निर्धारण कर पांच के स्थान पर 4 भूकम्पीय क्षेत्र (Seismic Zone) में विभाजित किया है। यह नया वर्गीकरण मॉडिफाइड इंटेंसिटी (MM) स्केल पर आधारित है। MM स्केल का आधार भूकम्प की वजह से पृथ्वी की सतह पर होने वाला असर है। देश के नए भूकम्पीय क्षेत्र मानचित्र में जोन-I समाप्त हो गया है एवं केवल जोन - II, III IV तथा V रह गए हैं।
3. भूकम्प के प्रभाव
- भूकम्प का प्रभाव सदैव विध्वंशक होता है। केवल बसे हुए क्षेत्रों में आने वाला भूकम्प ही आपदा का संकट बनता है। भूकम्प के कारण प्राकृतिक पर्यावरण में कई तरह के परिवर्तन हो जाते हैं। भूकम्पीय तरंगों से धरातल पर दरारें पड़ जाती हैं। क्षेत्र के अपवाह तंत्र में उल्लेखनीय परिवर्तन भी देखे जा सकते हैं। नदियों के मार्ग बदल जाने से बाढ़ आ जाती है। जलापूर्ति से सम्बंधित वितरण संपर्क (Network) तथा जलाशयों के टूट जाने से गंभीर समस्याएं पैदा हो जाती है। आग बुझाने में प्रयुक्त आपूर्ति लाइनें असुरक्षित होने की स्थिति में अग्नि सेवा (Fire Service) को प्रभावित कर देती है। पहाड़ी क्षेत्रों में भू-स्खलन हो जाते हैं तथा भारी मात्रा में चट्टानी मलबा नीचे आ जाता है। हिमानियां फट जाती हैं तथा इससे हिमस्राव सुदूर स्थित स्थानों तक हो जाता है।
- भूकम्प का मानवीय जीवन एवं अन्य जीव-जंतुओं पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। सड़कों और पुलों, रेल पटरियों, हवाई पट्टियों तथा सम्बंधित बुनियादी सेवाओं के टूट जाने के कारण परिवहन नेटवर्क पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। बिजली तथा संचार से सम्बंधित सभी संपर्क प्रभावित हो जाते हैं, जिसके कारण ट्रांसमिशन, टॉवर, ट्रांसपोंडर काम करना बंद कर देता है। कभी-कभी नगर तथा गांव पूर्णतया नष्ट हो जाते हैं, हजारों-लाखों की संख्या में लोगों की मृत्यु हो जाती है तथा सम्पूर्ण जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। उदाहरण के लिए वर्ष 1993 में लातूर में आए भूकम्प से 40,000 लोगों की मृत्यु हो गई।
4.भूकम्प से बचने के उपाय
भूकम्प एक प्राकृतिक आपदा है, जो मानव के वश में नहीं है। हम भूकम्प को न तो नियंत्रित कर सकते हैं और न ही उसे रोक सकते हैं । अतः इसके लिए विकल्प यह है कि इस आपदा से निपटने की तैयारी रखी जाए और इसके प्रभाव को कम करने का प्रयास किया जाए। भूकम्प न्यूनीकरण के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं -
- भूकम्प संभावित क्षेत्रों में भूकम्प आकलन व सूचना केन्द्रों की स्थापना, ताकि वहां के निवासियों को सूचित किया जा सके।
- जीपीएस (Global Positioning System) की सहायता से विवर्तनिक प्लेटों की हलचल का पता लगाया जा सकता है।
- भवनों का डिजाइन इस प्रकार तैयार करना चाहिए कि वे भूकम्प के झटकों को सहन कर सके।
- देश में भूकम्प संभावित क्षेत्रों का मानचित्र तैयार करना ओर संभावित जोखिम की सूचना लोगों तक पहुंचाना तथा उन्हें इसके प्रभाव को कम करने के बारे में शिक्षित करना।
- ग्रामीण क्षेत्रों के लिए सस्ते भूकम्परोधी मकानों के निर्माण की दिशा में अनुसंधान पर बल दिया जाना।
- भूकम्परोधी मानकों के अनुसार भवन एवं अन्य संरचनाओं का निर्माण करना । इस दिशा में अन्तर्राष्ट्रीय अनुभवों से सीख ली जा सकती है। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका में मकानों के नींव में भूकम्पीय झटकों को अवशोषित करने के लिए रबड़ एंव इस्पात की परतों का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार जापान में भूकम्प प्रवण क्षेत्र की ईमारतों में कंक्रीट के स्थान पर लकड़ी का प्रयोग अधिक किया जा सकता है।
- सामुदायिक स्तर पर दक्षता निर्माण तथा तैयारी पर बल देना एवं तैयारी की जांच के लिए समय-समय पर छद्म अभ्यास (Mock Drill) का आयोजन किया जाना।
- निचले स्तर तक आपदा प्रबंधन हेतु उपकरणों की उपलब्धता सुनिश्चित करना।
- समुदाय के कुछ लोगों को प्राथमिक चिकित्सा का प्रशिक्षण देना तथा चलित चिकित्सालयों का प्रबंध किया जाना।
- ऐसे क्षेत्रों में ऊँची इमारतें बड़े औद्योगिक संस्थान और अवैज्ञानिक शहरीकरण को बढ़ावा न देना।
- भूकम्प क्षेत्र में भूकम्प प्रतिरोधी इमारतों का निर्माण अनिवार्य करना तथा सुभेद्य क्षेत्रों में हल्की निर्माण सामग्री का प्रयोग करना।
भारत में आपदा प्रबंधन राज्य सरकार का उत्तरदायित्व है, जिसके लिए प्रत्येक राज्य ने अलग-अलग नीतियां बनाई है। इसी आधार पर प्रभावित क्षेत्रों में राहत एवं पुनर्वास का कार्य किया जाता है, जिसके अन्तर्गत निम्नलिखित बिन्दु शामिल हैं -
- क्षतिग्रस्त घरों की मरम्मत कराने के लिए अनदान देना।
- क्षतिग्रस्त कृषि उपकरणों को पुनः प्राप्त करने के लिए अनुदान देना।
- राहत शिविरों की व्यवस्था कराना, स्वच्छ पेय जल एवं खाद्य पदार्थों की व्यवस्था करना।
- भूकम्प पीड़ितों को दवाइयां उपलब्ध कराना।
- भूकम्प में मृतकों के परविारों को अनुग्रह राशि उपलब्ध कराना।
- मूलभूत सुविधाओं का निरंतर ध्यान रखना।
- क्षतिग्रस्त फसलों की भरपाई के लिए अनुग्रह राशि उपलब्ध कराना।
- भूकम्प से पीड़ित एवं जीवित बचे लोगों की शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक पुनरूत्थान (Recovery) करना।
- मलबे में दबे लोगों को खोजने तथा उनके दबने की जगह का पता लगाने के लिए विशेषज्ञों तथा समुन्नत इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का प्रावधान करना।
- भूकम्प द्वारा सबसे अधिक क्षतिग्रस्त मण्डलों एवं सघन आबादी वाले क्षेत्रों में राहत कार्य केन्द्रित होना चाहिए।
भारत द्वारा भूकम्प प्रबंधन की दिशा किए गए प्रयास
भूकम्प को रोकना तथा भूकम्प की अचूक भविष्यवाणी असंभव है। अतः भूकम्प प्रबंधन हेतु निम्नलिखित उपायों पर बल दिया जाना चाहिए -
- BARC (Bhabha Atomic Research Centre) द्वारा गौरीबिदानूर (कर्नाटक), दिल्ली तथा ट्रॉम्बे में स्थित केन्द्रों में भूकम्पीय गतिविधियों की निगरानी तथा भूकम्पीय तरंगों के अध्ययन एवं विश्लेषण की दिशा में अनुसंधान किया जा रहा है।
- भूकम्प की आशंका के आधार पर क्षेत्रों का निर्धारण किया गया है तथा विभिन्न क्षेत्रों में भूमि उपयोग, भवन एवं अन्य संरचनाओं के विकास के नियंत्रित एवं विनियमित करने के लिए कानून बनाए गए हैं।
- भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा भूकम्प प्रभावित क्षेत्रों में भवन आदि के निर्माण हेतु मानक निर्धारित किए गए हैं।
- कम लागत वाले भूकम्परोधी मकानों के निर्माण पर बल दिया जा रहा है। गुजरात में कच्छ भूकम्प के पश्चात् इस प्रकार के मकान हजारों की संख्या में बनाए गए हैं।
- भूकम्प अभियांत्रिकी शिक्षा के अन्तर्गत वास्तुविदों (आर्किटेक्ट) तथा अभियंताओं को शिक्षित करने की दिशा में कार्य किया जा रहा है।
- पुराने मकानों को भूकम्परोधी बनाने के लिए रेट्रोफिटिंग पर बल दिया जा रहा है, जिसमें प्राथमिक अस्पताल, स्कूल आदि को दी गई है।
- शैक्षिक अभियान एवं संचार माध्यमों के द्वारा जागरूकता के कार्यक्रम चलाए गए हैं, जिसके अन्तर्गत भूकम्प के दौरान किए जाने वाले तथा न किए जाने वाले कार्यों की सूची प्रकाशित की गई है।
- Geological Survey of India द्वारा सक्रिय भ्रंशों तथा भू-संचलन पर नजर रखने के लिए 300 GPS स्टेशन स्थापित किए गए हैं।
- भूकम्प की भविष्यवाणी की दिशा में प्रयास किए जा रहा है। भूकम्प के पूर्व कुओं के जलस्तर में परिवर्तन पर अनुसंधान किया जा रहा है। कोयना क्षेत्र में 6 से 7 किमी गहरे छिद्र का निर्माण किया गया है, ताकि भूकम्प के पूर्व, भूकम्प के दौरान तथा भूकम्प पश्चात् भू-गर्भ में होने वाले भौतिक तथा रासायनिक परिवर्तन का अध्ययन किया जा सके।