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अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नैतिक मुद्दे तथा आचारगत चिंताएँ | नीतिशास्त्र, सत्यनिष्ठा एवं अभिवृत्ति for UPSC CSE in Hindi PDF Download

अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नैतिक मुद्दे


आज ध्यान देने योग्य जो नैतिक समस्याएँ हैं उनका संबंध अंतर्राष्ट्रीय संबंध से भी है जिनमें किसी देश या समूह द्वारा हिंसा के प्रयोग न्यायोचित ठहराने के सवाल से लेकर विश्व के आर्थिक लाभ एवं बोझों के वितरण तक के मुद्दे शामिल हैं। इस विषय की प्रासंगिकता को इसी से समझा जा सकता है कि अमेरिका स्थित 'कार्नेगी काउंसिल ऑन इंटरनेशनल इथिक्स' विगत दस वर्षों से अंतर्राष्ट्रीय मामलों में इथिक्स विषय पर एक पत्रिका नियमित रूप से प्रकाशित कर रहा है। इसका कारण भी है। विगत शताब्दियों में सरकारी निकायों द्वारा किये गये चुनाव, हमारे आज के विश्व को प्रभावी रूप में प्रभावित करते हैं। इस नयी शताब्दी में हम कई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। करेंगे जिनमें शमिल हैं; राजनीतिक हिंसा, खासकर अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी नेटवर्क से; संसाधन सुनिश्चित करने के लिए आक्रामक तरीके तथा नरसंहार एवं मानव अल्पविकास के मध्य में असफल अंतर्राष्ट्रीय अहस्तक्षेप। प्रौद्योगिकी में उन्नयन के कारण, जो कि अच्छे एवं बुरे, दोनों लक्ष्यों को साधने में मदद करेगा, ये चुनौतियाँ अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के नैतिक पहलुओं को पुर्नपरिभाषित करेगा।
अंतर्राष्ट्रीय नीतिशास्त्र की मौजूदा स्थिति कई कारकों का परिणाम है। परमाणु अस्त्र की खोज एवं परमाणु असों के होड़ ने मौलिक नैतिक मुद्दों को उठाया जो कि द्वितीय विश्वयुद्ध के आरंभ से लेकर पूरे शीत युद्ध के दौरान चर्चा का विषय बना रहा। वियतनाम में अमेरिकी अनुभव ने कई दार्शनिका को युद्ध में लड़ने की नैतिकता पर सोचने के लिए विवश किया। देशों की लगातार बढ़ रही अंतनिर्भरता ने वैश्विक न्याय के मुद्दे और ऐसे मुद्दे को उभारा जिसकी उपेक्षा कठिन है। 

हस्तक्षेप की नीति 
जब एक देश दूसरे देश के आंतरिक मामलों में बलपूर्वक दखल देता है, तो ऐसे कार्यों को हस्तक्षेप कहा जाता है। हस्तक्षेप का एक उदाहरण क्यूबा के द्वीप से स्पेन को अपने सैनिक हटाने की माँग अमेरिका द्वारा की थी, उस समय वहाँ स्पेन के शासन के विरूद्ध बगावत थी। प्रायः सभी शक्तिशाली राष्ट्रों ने किसी न किसी समय कमजोर पड़ोसियों के मामलों में हस्तक्षेप किया है। कुछ अन्तर्राष्ट्रीय अधिवक्ताओं के अनुसार देश को अन्य देश के मामलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार है, जब कभी उसे अपनी या अपने नागरिकों की सम्पत्ति या व्यक्तियों की शांति और सुरक्षा को खतरा दिखाई देता है।
अन्तर्राष्ट्रीय कानून में हस्तक्षेप का अर्थ एक राज्य द्वारा अन्य राज्य के आंतरिक मामलों में या दो अन्य राज्यों के बीच संबंधों में हस्तक्षेप से है। कई संधियों द्वारा विशेषकर अमेरिकी रिपब्लिकों में यह औपचारिक रूप से निषिद्ध है और इसे सार और न्यायसंगत दृष्टि से गैर-कानूनी रूप में वर्णित किया गया है। 

अग्रिम हमले 
अग्रिम हमला, किसी राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र को धमकी देने के प्रतिक्रियास्वरूप की गई सैन्य कार्यवाही है, जिसका उद्देश्य धमकी देने वाले राष्ट्र से उत्पन्न होने वाले संभावित खतरों से स्वयं को बचाना है।

समस्याएँ 
अग्रिम हमला बुद्ध के सिद्धांत का दो प्रकार से उल्लंघन करता है। 

  1. यह सैन्य बलों के साथ दूसरे पक्ष द्वारा हमला करने से पहले किया जाता है, यह हमलावर द्वारा अपना पक्ष मजबूत करने के लिए किया जाता है। 
  2. यह आमतौर पर युद्ध की औपचारिक घोषणा से पहले किया जाता है। 

संभव समाधानः एक नैतिक विशेषज्ञ 'माइकल वर्जर' (Walzer) ने अग्रिम हमले के औचित्य को सिद्ध करने के लिए कुछ स्थितियाँ बताई हैं

  1. हमला करने का स्पष्ट इरादा। 
  2. बुद्ध की सक्रिय तैयारी जो, सकारात्मक खतरे के रूप में बदल जाए। 

यदि देर से हमला किया जाए तो हारने की संभावना बढ़ जाएगी।

अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में आचारगत चिंताएँ 

वायुयान अपहरण तथा इससे संबद्ध नैतिक/आचारगत चिंताएँ
गैर-राज्य अभिकर्ताओं (Non-State actors) अथवा आतंकवादियों व अनैतिक कृत्य के अंतर्गत आता है। समूचा अंतर्राष्ट्रीय समुदाय वायुयान अपहरण की घटनाओं से चिंतित रहा है। वायुयान के लोगों के जान-माल की क्षति, वायुयान को बम विस्फोट से उड़ा देना अथवा वायुयान अपहरण को राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बलैकमेलिंग के अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करना एक गंभीर समस्या के रूप में उभरी।

वायुयान यात्रा की सुरक्षा के विरुद्ध आतंकवाद के कार्य में भयानक वृद्धि के कारण वायुसेवाओं में अवैध हस्तेसप की कार्य दमन करने के लिए चार अभिसमय तथा नवाचार का निर्माण किया गया है। ये निम्नवत् है

  1. वायुयान पर कारित अपराध तथा कतिपय अन्य कार्य अभिसमय, 1963 (टोक्यो अभिसमय)। 
  2. वायुयान का अवैध ग्रहण दमन अभिसयम, 1970 (हेग अभिसमय) 
  3. नागरिक विमानन की सुरक्षा के विरुद्ध विधिविरुद्ध कार्य दमन निवारण अभिसयम, 1971 (मान्ट्रियल अभिसमय) 
  4. मान्ट्रियल अभिसमय अनुपूरक प्रोटोकाल, 1988

विधि विरुद्ध हस्तक्षेप के आपराधिक कार्यों के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय नागरिक विमानन की सुरक्षा करने के लिए 1991 में चौथे अभिसयम अर्थात् खोज के प्रयोजन के लिए प्लास्टिक विस्फोटकों का अंकन अभिसमय का निर्माण किया गया। 

अंतर्राष्ट्रीय रूप से संरक्षित व्यक्तियों (Internationally protected persons) के विरुद्ध कार्य के संदर्भ में नैतिक चिंताएँ
अंतर्राष्ट्रीय रूप से संरक्षित व्यक्तियों जैसे राष्ट्राध्यक्षों, मंत्रियों व सचिवों के विरुद्ध कार्य, हत्या बंधक बनाने की घटनाओं का अंतर्राष्ट्रीय समुदाय पर काफी व्यापक प्रभाव पड़ता है। इस स्थिति में शांति भंग होने, आपातकाल, सिविल वार जैसी स्थितियों तक के उभरने की संभावनाएं बनी रहती हैं। राजनीतिक अस्थिरता व राष्ट्र विरोधी तत्वों के षड्यंत्र करने के मंसूबों को बल मिलता है। अंतर्राष्ट्रीय, द्विपक्षीय संबंधों में कटुता को बल मिल सकता है।
इन्हीं परिप्रेक्ष्यों को ध्यान में रखकर संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 13 दिसंबर 1973 को राजनयिक अभिकर्ताओं (Diplomatic agents) को शामिल करके अन्तर्राष्ट्रीय रूप से संरक्षित व्यक्तियों के विरुद्ध अपराध के निवारण और दण्ड पर अभिसमय अंगीकार किया। अभिसमय 20 फरवरी, 1977 को प्रवृत्त हुआ। अभिसमय के 17 सितम्बर 2001 तक 107 राज्य पक्षकार थे। अभिसमय अन्तर्राष्ट्रीय रूप से संरक्षित व्यक्ति को राज्य के प्रमुख, विदेशी मामलों के मंत्री, राज्य या अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के प्रतिनिधि या कर्मचारी के रूप में परिभाषित करता है, जो अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अधीन आक्रमण से विशेष संरक्षण के हकदार हैं। अभिसमय के अंगीकरण का मुख्य उद्देश्य संरक्षण के हकदार व्यक्तियों के विरुद्ध कारित अपराध के दण्ड से न वचने योग्य बनाना था। अभिसमय प्रत्येक पक्षकार से समुचित शास्ति द्वारा उसे दण्डनीय बनाने की अपेक्षा करता है, जो गम्भीर प्रकृतिः का होता है, जैसे हत्या, अपहरण या अन्तर्राष्ट्रीय रूप से संरक्षित व्यक्तियों की स्वतन्त्रता पर आक्रमण, शासकीय परिसरों गैर-सरकारी आवासों या ऐसे व्यक्ति के परिवहन के साधनों पर उग्र आक्रमण, ऐसे आक्रमण को कारित करने की धमकी का प्रयल और सहअपराधी के रूप में भागीदारी व्यक्त करने वाला कार्य।
बंधक बनाने की समस्या (Problem of taking of Hostages)- कई मामलों में आतंकवादी ऐसे अपराध करते है, जिसमें व्यक्तिगत या राजनीतिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए व्यक्तियों को बन्धक बनते हैं। ऐसे अपराधों को नियंत्रित करने के लिए बन्धक बनाने के विरुद्ध अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमय संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा 17 दिसम्बर, 1979 को स्वीकार किया गया। अभिसमय के सितम्बर 17, 2001 तक 96 राज्य पक्षकार बन चुके थे। अभिसमय की उद्देशिका स्पष्ट रूप से प्रावधान करती है कि "बन्धक बनाना अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए गम्भीर चिन्ता का अपराध है" और "बन्धक बनाने तथा अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद के प्रदर्शन के सभी कार्यों के निवारण अभियोजन तथा दण्ड के लिए प्रभावी उपायों को खोजने तथा स्वीकार करने में राज्यों के मध्य अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग का विकास करना अत्यधिक आवश्यक है।"
अभिसमय प्रावधान करता है कि कोई व्यक्ति, जो तीसरे पक्षकार, अर्थात् राज्य अन्तर्राष्ट्रीय अन्तर सरकारी संगठन, न्यायिक या विधिक व्यक्ति/व्यक्तियों के समूह को बन्धक की नियुक्ति के अभिव्यक्ति या विवक्षित शर्त के रूप में किसी कार्य को करने से प्रविरत रहने के लिए विवश करने के लिए अन्य व्यक्ति का अभिग्रहण करता है और मारने, अपहत करने या निरोध को जारी रखने की धमकी देता है, इस अभिसमय के अन्तर्गत बन्धक बनाने के अपराध कारित करता है।
संयुक्त राष्ट्र के सहयुक्त कर्मचारियों को बचाव तथा सुरक्षा को सुनिश्चित करने का अभिसमय (१९९४)-
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने दिसम्बर 1994 को संयुक्त राष्ट्र तथा सहयुक्त कर्मचारियों की सुरक्षा के लिए अभिसमय को अंगीकार किया। अभिसमय में 29 अनुच्छेद शामिल हैं। अभिसमय में संयुक्त राष्ट्र के कर्मचारी, जो महासचिव द्वारा कार्यवाही के सैन्य, पलिस या गैर-सैन्य संघटक के रूप में संलग्न हैं या तैनात किये गये हैं तथा मिशन के पदाधिकारी तथा विशेषज्ञ, सहयुक्त कर्मचाशी शामिल हैं जिन्हें संयुक्त राष्ट्र कार्यवाही से सीधे संबंधित क्रियाकलापों को क्रियान्वित करने के लिए सरकार या अंतर्राष्ट्रीय संगठन द्वारा समनुदेशित किया गया है।
यह अभिसमय राज्यों पर संयुक्त राष्ट्र तथा सहयुक्त कर्मचारियों के विरुद्ध हत्या, व्यवपहरण या आक्रमण की धमकी के अपराधों पर अधिकारिता तथा सुरक्षा को सुनिश्चित करने के और पकड़े तथा विरुद्ध किये गये कर्मचारियों को छोड़ने के लिए राज्यों के कर्तव्यों को नियमित करता है।
इसके अतिरिक्त गंभीर अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे के रूप में यूएन महासभा ने 15 दिसम्बर 1997 को आतंकवारी बमबारी के निवारणार्थ एक अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय को अंगीकार किया और 9 दिसम्बर 1999 को महत्वपूर्ण रूप में आतंकवाद के वित्त पोषण के दमन के लिए अभिसमय को अंगीकार किया।

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में आतंकवाद व उससे जुड़े नैतिक प्रश्नों पर वैश्विक विमर्श
अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद की समस्या 1972 से ही संयुक्त राष्ट्र महासभा के विचाराधीन रही है। महासभा ने 23 दिसम्बर 1972 को निम्नलिखित मद को कार्यसूची में सम्मिलित करने की सिफारिश की और उसे 6वीं समिति के समक्ष प्रस्तुत किया गया था-अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद. जो मानव जीवन को संकटापन्न बनाता है या निर्दोष के जीवन को समाप्त करता है या मूल स्वतंत्रताओं को खतरे में डालता है, को रोकने के लिए उपचार और आतंकवाद के उन रूपों तथा हिंसा के कार्यों, दुख, कुंठा, शिकायत तथा निराशा में निहित है जो कुछ लोगों को मूल परिवर्तन को प्रभावी करने के प्रयास में मानव जीवन का बलिदान करने के लिए उत्प्रेरित करता है, जिसमें उनका भी जीवन शामिल है के अंतर्निहित कारणों का अध्ययन।
6वीं समिति के विचार-विमर्श में, विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधियों द्वारा भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण अपनाया गया। अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद तदर्थ समिति गठित करने का निश्चय किया जिसमें 35 सदस्य होंगे। इसी क्रम में आतंकवाद दमन यूरोपीय अभिसमय 4 अगस्त 1978 को प्रवृत्त हुआ जबकि दक्षिण एशियाई सहयोग संगठन (सार्क) के राज्यों ने 4 नवंबर, 1987 को काठमाण्डू में आंतकवाद दमन अभिसमय को अपनाने का निर्णय लिया। इस प्रकार स्पष्ट है कि वैश्विक व क्षेत्रीय स्तरों पर आतंकवाद के अमानवीय कृत्यों से निपटने के लिए वैधानिक स्तर पर प्रयास किये जाते रहे हैं।
व्यक्ति विरोधी खानों के प्रयोग, संचयन, उत्पादन और अंतरण के प्रतिषेध पर और उनके विनाश पर अभिसमय, 1997 - यह अभिसमय जो सामान्यतया व्यक्ति विरोधी (भूमि) खान या ओटावा अभिसमय के रूप में ज्ञात है, 18 सितम्बर, 1997 को ओसलो में अंगीकार किया गया था, जो 1 मार्च, 1999 से लागू हुआ। अभिसमय 31 दिसम्बर 2000 तक 109 राज्यों द्वारा अनुसमर्थित किया गया था। अभिसमय अनुच्छेद 2 के अधीन व्यक्ति विरोधी खान को ऐसे खान के रूप में परिभाषित करती है, जो व्यक्ति की उपस्थिति निकटता या सम्पर्क द्वारा विस्फोट किए जाने के लिए परिकल्पित है और यह एक या अधिक व्यक्तियों को असमर्थ बनाएगा, उपहत करेगा या मारेगा। व्यक्ति के विरुद्ध पान की उपस्थिति निकटता या सम्पर्क द्वारा निर्दिष्ट किए जाने के लिए परिकल्पिक, अर्थात् हस्तचालन के विरुद्ध युक्ति से सुसज्जित खानों को इस प्रकार के परिणामस्वरूप व्यक्ति विरोधी खान नहीं माना जाता।
अभिसमय अनुच्छेद के अधीन प्रावधान करता है कि प्रत्येक राज्य पक्षकार किसी परिस्थिति के अधीन निम्नलिखित को कभी भी नहीं करेंगे- (क) व्यक्ति विरोधी खानों का प्रयोग ( ख) व्यक्ति खानों का विकास, उत्पादन, अन्यथा अर्जन और संचयन (ग) इस अभिसमय के अधीन राज्य पक्षकार के लिए प्रतिषिद्ध किसी क्रियाकलाप में संलग्न करने के लिए किसी व्यक्ति की सहायता करना, प्रोत्साहित करना या किसी तरह से उत्प्रेरित करना प्रत्येक राज्य पक्षकार इस अभिसमय के प्रावधानों के अनुसार सभी व्यक्ति विरोधी खानों का विनाश करेंगे या विनाश को सुनिश्चित करेंगे। लेकिन उक्त कर्तव्य का अपवाद है जो अनुच्छेद 3 के अधीन अधिकथित किया गया है

  1. खान का पता लगाने खान की स्वच्छता विनाश तकनीकी के विकास में प्रशिक्षण के लिए और विनाश के लिए व्यक्ति विरोधी खानों के प्रति धारण और अन्तरण की अनुमति दी गयी है और 
  2. विनाश के प्रयोजन के लिए व्यक्ति विरोधी खानों की अनुमति दी।

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में अनेक अभिसमयों के माध्यम से मानव अधिकार, मानव गरिमा और शांतिपूर्ण सह अस्तित्व को मान्यता देने का प्रयास किया गया है ताकि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में मूल्यों के क्षरण की समस्या से निपटा जा सके।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में विस्थापित व्यक्ति ऐसे व्यक्तियों को कहा जाता है जो अपने ही राज्य की सीमा के अन्तर्गत एक क्षेत्र से राजनैतिक अथवा अन्य अत्याचारों के कारण भाग जाने के लिए मजबूर हो जाते है। विधिक रूप से ऐसे व्यक्ति, राज्य की प्रभुत्व सम्पन्नता के कारण सरकारों से ही संरक्षण की अपेक्षा कर सकते हैं। विस्थापित व्यक्तियों को शरणार्थी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि 1951 के शरणार्थी अभिसमय में शरणार्थी | उसी व्यक्ति को परिभाषित किया गया जो अपने मूलराज्य से जिसका कि वह नागरिक हैं, दूसरे राज्य में भाग जाता है। अत: विस्थापित व्यक्तियों को शरणार्थियों की प्रस्थिति प्राप्त नहीं होती और इसी कारण अभिसयम में लिखित प्रावधान उन पर लागू नहीं होते। इसके बावजूद कि उनके कई मानव अधिकारों का उल्लंघन उनके विस्थापित होने के कारण होता है।
अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत विस्थापित व्यक्तियों की समस्या पर न तो कोई अभिसमय है और न ही कोई घोषणा पत्र। इसका मुख्य कारण यह था कि विस्थापित व्यक्ति का मामला राज्य की आन्तरिक समस्या समझी जाती है और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कार्यवाही राज्य के अन्दर हस्तक्षेप माना जायेगा। इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (UNHCR) ने 1993 में विस्थापितों के लिए मार्गदर्शक सिद्धान्तों को तैयार किया जिसमें विस्थापित की समस्याओं को उसी समय सुलझाने का प्रयत्ल किया जायेगा जब कुछ शर्ते पूरी होगी। जैसे जब विस्थापित व्यक्ति उसी क्षेत्र में जाने को तैयार हों जहाँ से वे भागे हैं। बाद में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव कोफी भी अन्नान के विस्थापित व्यक्तियों के प्रतिनिधि फ्रांसिस डेंग ने भी विस्थापितों के लिए मार्गदर्शिका को तैयार किया जिसको उन्होंने 1956 में मानव अधिकार आयोग को पेश किया। आयोग ने उनके द्वारा तैयार हुए मार्गदर्शिका में और सुधार करने के लिए कहा।
उन्होंने इसमें सुधार कर 1998 में फिर से आयोग के समक्ष पेश किया। आयोग ने ढंग से उस मार्गदर्शिका के प्रावधानों पर राज्यों की सरकारों तथा अंतर्राज्यीय संगठनों से वार्ता करने के लिए कहा। ऐसी आशा की जाती है कि विस्थापितों के संबंध में विधि बनाने में, डेंग के बनाये गये सिद्धांतों का काफी योगदान रहेगा।
संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2001 में विस्थापित व्यक्तियों पर यूनिट (Unit on Internal displacement) की स्थापना की है जिसका कार्य संयुक्त राष्ट्र के सचिवालय को विस्थापित व्यक्तियों की स्थिति पर राय तथा सहायता देना होगा। यूनिट से यह अपेक्षा की जाती है कि वह विस्थापितों के संबंध में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव के प्रतिनिधि से संपर्क बनाये रहेंगे। 

अन्यदेशीय (Aliens) लोगों के मुद्दे 
अन्यदेशीय (Alien) शब्द का तात्पर्य उन व्यक्तियों से है जो किसी ऐसे राज्य में निवास करते है जिस राज्य के वे नागरिक नहीं है। इस प्रकार एक राज्य के वे नागरिक नहीं हैं। इस प्रकार एक राज्य के नागरिकों (राष्ट्रीयता प्राप्त) की दूसरे राज्य में उपस्थिति को विधिक रूप से अन्यदेशीय कहा जाता है। यूएन महासभा में मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा में प्रत्येक व्यक्ति को हर जगह विधि के समक्ष व्यक्ति के रूप में मान्यता प्राप्त करने की घोषणा की गयी थी। ऐसे व्यक्तियों के मानवाधिकारों की घोषणा को 13 दिसम्बर 1985 को अंगीकार किया गया जो उस देश के राष्ट्रीय नागरिक नहीं होते, जिससे वे निवास कर रहे होते हैं। ऐसे अन्यदेशीय लोगों के प्राण एवं देहिक सुरक्षा के अधिकार, एकान्तता, परिवार, गृह, फा-व्यवहार पर मनमानापूर्ण अथवा विधिविरुद्ध हस्तक्षेप के विरुद्ध संरक्षण के अधिकार, चिकित्सकीय अथवा वैज्ञानिक प्रयोग किये जाने से स्वतंत्रता प्रदान की गयी है।

देशज अथवा देशी लोगों (Indigenous peoples) के अधिकार का मुद्दा- देशज अथवा देशी लोगों से अभिप्राय उन व्यक्तियों से है जो किसी देश के ऐतिहासिक रूप से उपनिवेश साम्राज्य से भी पहले) मूल निवासी है और वे स्वयं को उन राज्यक्षेत्रों में रहने वाल समाजों के अन्य वर्गों से पृथक समझते हैं। विश्व के अधिकांश हिस्सों में देशी एवं जनजातीय लोग उस राज्य में रहने वाली शेष जनसंख्या के ही समान अपने मौलिक अधिकारों का उपभोग नहीं कर पाते हैं। अपनी निर्धनता एवं अशिक्षा के कारण वर्तमान समय में, वे समाज के दुर्बल वर्ग कहे जाते हैं। यह अनुमान लगाया गया है कि देशी लोगों की संख्या लगभग 30 करोड़ है और वे आस्ट्रेलिया से लेकर आर्कटिक तक 70 देशों में फैले हुए हैं। उनमें आधे से अधिक चीन एवं भारत में रहते हैं और करीब । करोड़ म्यांमार (5 बर्मा) में तथा 3 करोड़ दक्षिण अफ्रीका में रहते हैं। वर्तमान समय में संबंधित राज्यों द्वारा उन्हें सांस्कृतिक संरक्षण, भूमि एवं मानव अधिकार प्रदान किये जाने की आवश्यकता है। वियना घोषणा में देशज लोगों के अधिकारों की अभिवृद्धि एवं संरक्षण के महत्व को मान्यता प्रदान दी गयी है तथा यह कहा गया है कि राज्यों को अंतर्राष्ट्रीय विधि के अनुसार देशज लोगों के सभी मानव अधिकारों तथा मूलभूत स्वतंत्रताओं के सम्मान को समानता एवं बिना भेदभाव के आधार पर सुनिश्चित करने के लिए सकारात्मक कदम उठाना चाहिए और उनकी पृथक पहचान, संस्कृति एवं सामाजिक संगठन के मूल्य को मान्यता देनी चाहिए। पहली बार 1953 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने देशज एवं जनजातिय जनसंख्या के अधिकारों पर अभिसमय संख्या 107 को अंगीकार किया। इसी संस्था ने पुन: 1989 में स्वतंत्र देशों में देशज (आदिम) एवं जनजातीय लोगों से संबंधित अभिसमय संख्या 169 अपनाया था। यह अभिसमय स्वतंत्र देशों के ऐसे जनजातीय लोगों पर लागू होता है जिन्हें सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक दशा के कारण राष्ट्रीय समुदायों के अन्य वर्गों से पृथक रखा जाता है।

वयोवृद्ध व्यक्तियों के अधिकारों से संबंधित नैतिक मुद्दों पर अंतर्राष्ट्रीय विधायन

संयुक्त राष्ट्र संघ का संबंध न केवल व्यक्तियों के जीवन की गुणवत्ता से संबंधित है बल्कि समान रूप से इसका संबंध उनके दीर्घायु से भी है। मृत्यु दर में धीरे-धीरे कमी आ जाने के फलस्वरूप और जीवन की प्रत्याशा में वृद्धि हो जाने के कारण, यह आशा की जाती है कि अगले दो दशकों के दौरान विश्व के सभी देशों की जनसंख्या में 60 वर्ष अथवा उससे अधिक आयु के लोगों के अनुपात में वृद्धि हो जायेगी। संयुक्त राष्ट्र वयोवृद्धो की आवश्यकताओं व उनके समझ उपस्थिति चुनौतियों से निपटने हेतु प्रतिबद्ध रहा है।
संयुक्त राष्ट्र के समक्ष वयोवृद्ध व्यक्तियों के संबंध में पहली बार व्यक्तियों के संबंध में पहली बार अजेंटीना की पहल पर चर्चा 1948 में हुई। 1982 में वियना में वृद्ध जनों पर एक अंतर्राष्ट्रीय कार्य योजना अंगीकार किया गया। यूएन महासभा ने 16 दिसम्बर 1991 को संकल्प संख्या 49/91 द्वारा वयोवृद्धों के लिए सिद्धांतों को अंगीकार किया। इनमें कुछ मुख्य निम्नवत् है: 

  1. वयोवृद्ध व्यक्तियों को कार्य करने का अवसर तथा कार्य छोड़ने का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए। 
  2. वयोवृद्ध व्यक्तियों को समाज में अभिन्न भाग बने रहना चाहिए तथा ऐसी नीतियों के सृजन के समय सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिए जो उनके कल्याण को प्रभावित करती हो। 
  3. वयोवृद्ध व्यक्तियों के शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक कल्याण के उच्चतम स्तर को बनाये रखने में सहायता प्रदान करने के लिए स्वास्थ्य संबंधी देखभाल तक पहुंच होनी चाहिए। 
  4. वयोवृद्ध व्यक्तियों को अपनी संभाव्यताओं के पूर्ण विकास का अवसर तथा समाज के शैक्षणिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं मनोरंजन संबंधी संसाधनों तक पहुँच होनी चाहिए।

विकलांग व्यक्तियों से संबंधित मुद्दों पर अंतर्राष्ट्रीय विधायन 
वर्तमान समय में 500 करोड़ व्यक्तियों से अधिक विश्व की 10 प्रतिशत जनसंख्या दिव्यांगजन या विकलांग व्यक्तियों की है। उनमें से अनुमानित रूप से 80 प्रतिशत व्यक्ति विकासशील देशों में रहते है तथा वे मानसिक पा शारीरिक अक्षमता से ग्रस्त हैं। वे बुनियादी शैक्षणिक अवसरों से वंचित हैं तथा अक्सर उन्हें तुच्छ अथवा कम वेतन वाला कार्य मिलता है। सामाजिक दृष्टिकोण उन्हें सांस्कृतिक जीवन तथा सामान्य सामाजिक संबंधों से अलग कर देता है। 20 दिसम्बर 1971 को यूएन महासभा ने 'मानसिक रूप से अवरुद्ध व्यक्तियों के अधिकारों पर घोषणा' को अंगीकार किया और असमर्थ व्यक्तियों के देखभाल व पुनर्वास के अधिकार को मान्यता दी।
यूएन महासभा ने 17 दिसम्बर 1991 को मानसिक स्वास्थ्य देखरेख के सुधार एवं मानसिक बीमारी से प्रस्त व्यक्तियों के संरक्षण हेतु सिद्धांत अंगीकृत किया। उल्लेखनीय है कि महासभा ने 1981 को 'असमर्थ व्यक्तियों का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष' (International year of disabled) घोषित किया। महासमा ने 1991 में असशक्त व्यक्तियों से संबंधित एक विश्वव्यापी कार्ययोजना के क्रियान्वयन को आगे बढ़ाने के लिए एक लंबी रणनीति को निरुपित किया।
राष्ट्रीय अथवा जातीय, धार्मिक एवं भाषायी अल्पसंख्यकों से संबंधित व्यक्तियों के अधिकार:- जातीय, धार्मिक अथवा भाषायी अल्पसंख्यकों से संबंधित व्यक्तियों के अधिकारों से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय सिविल एक राजनीतिक अधिकार प्रसंविदा के अनुच्छेद-27 के प्रावधानों द्वारा प्रेरित होकर महासभा ने 18 दिसम्बर 1992 को जातीय, धार्मिक अथवा भाषाई अल्पसंख्यकों से संबंधित व्यक्तियों के अधिकारों की घोषणा की। इससे कह गया कि इस प्रकार के अल्पसंख्यकों के अधिकारों की अभिवृद्धि एवं संरक्षण उन राज्यों के राजनैतिक एवं सामाजिक स्थिरता में योगदान करेगा जिनमें वे रहते हैं घोषणा में 9 निम्नांकित अधिकारों का उल्लेख किया गया है:

  1. अल्पसंख्यकों का अस्तित्व और राष्ट्रीय अथवा जातीय, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं भाषायी पहचान को विधियों एवं अन्य उपायों द्वारा उनके सम्बन्धित राज्य क्षेत्रों के भीतर संरक्षित किया जायेगा। 
  2. अल्पसंख्यकों से सम्बन्धित व्यक्तियों में अपनी संस्कृति के उपभोग करने. अपने धर्म को मानने एवं  व्यवहार करने तथा अपनी भाषा का प्रयोग करने का अधिकार प्राप्त है। (अनुच्छेद 2) 
  3. अल्पसंख्यक अपने अधिकारों का प्रयोग व्यक्तिगत रूप से करने के साथ-साथ बिना किसी भेदभाव के साथ समुदाय में भी कर सकेंगे। (अनुच्छेद 3) 
  4. राज्यों को अल्पसंख्यकों को अपनी मातृभाषा के सीखने और अपने देश की आर्थिक प्रगति एव विकास में पूर्ण रूप से भाग लेने के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करना चाहिए। (अनुच्छेद-4) 
  5. अल्पसंख्यक समुदाय से सम्बन्धित व्यक्तियों को अपने स्वयं के संगठनों को स्थापित करने एवं रखरखाव करने का अधिकार प्राप्त है। (अनुच्छेद-2, परिच्छेद-4) 
  6. अल्पसंख्यक समुदाय से सम्बन्धित व्यक्तियों को अपने स्वयं के संगठनों को स्थापित करने एवं रखरखाव करने का अधिकार प्राप्त है। (अनुच्छेद-2 परिच्छेद-4)
  7. राज्यों के अल्पसंख्यक समुदाय से सम्बन्धित व्यक्तियों को अपनी मातृभाषा सीखने के लिए तथा अपने देश की आर्थिक उन्नति एवं विकास में पूर्णरूपेण भाग लेने के लिए उपयुक्त अवसर प्रदान करना चाहिए। (अनुच्छेद 1)

विषना में आयोजित 1993 में विश्व मानव अधिकार सम्मेलन में राज्यों एवं अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से राष्ट्रीय अथवा जातीय, धार्मिक एवं भाषायी अल्पसंख्यकों से संबंधित व्यक्तियों के अधिकारों की घेषाणा के अनुसार अभिवृद्धि करने एवं सरक्षण करने का अनुरोध किया गया। 

नरसंहार (Genocide) एक गंभीर अमानवीय व अनैतिक मुद्दे के रूप में 
नरसंहार शब्द की व्युत्पत्ति ग्रीक शब्द जेनोम (Genom) (जाति) और लैटिन शब्द साइड (Cide) (मारना) से हुई है। इस प्रकार नरसंहार ऐसा कार्य है जो पूर्ण रूप से या आंशिक रूप से राष्ट्रीय जातीय (ethinic) या मूल वंशीय या धार्मिक समूह इत्यादि को समाप्त करने के लिए किया जाता है।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा नरसंहार विषय पर संहिताकरण के लिए प्राथमिकता दी गयी। महासभा ने 1946 में नरसंहार विषय पर संहिताकरण के लिए प्राथमिकता दी गयी। महासभा ने 1946 में नरसंहार पर अभिसमय निर्मित करने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी और 1946 में ही संकल्प अंगीकार किया, जिसमें सर्वसम्मति से घोषणा की गयी कि नरंसहार मानवसमूह को मारना अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अधीन अपराध है। महासमा ने 1947 में इस प्रस्ताव की पुन: अभिपुष्टि की। महासभा ने 9 दिसम्बर 1948 को नरसंहार निवारण और दण्ड अभिसमय को अंगीकार किया, 12 जनवरी 1951 को लागू हुआ और अक्टूबर 10, 2001 तक इसके 133 राज्य पक्षकार बन चुके है। अभिसमय का मुख्य उद्देश्य नरसंहार को निवारित करना और इसके करने वाले व्यक्ति को दण्डित करना है चाहे वह युद्धकाल में किया गया हो, चाहे शान्तिकाल में।
अभिसमय के अनुच्छेद-1 के अधीन नरसंहार को अन्तर्राष्ट्रीय अपराध के दौरान किया गया था शान्ति के समय। अनुच्छेद-2 उन विनिर्दिष्ट कार्यों का उल्लेख करता है, जिन्हें नरसंहार कहा जायेगा। तदनुसार, नरसंहार राष्ट्रीय जातीय मूल वंशीय या धार्मिक समूह को करने वाले कार्य हत्या, गम्भीर शारीरिक दशा को उस स्थिति पर पहुंचना जहाँ जन्म को निवारित करने के लिए आशयित उपायों को करना जिससे पूर्णत: या अंशत शारीरिक विनाश हो और बच्चों का बलपूर्वक अन्तरण हो। राज्यों का नरसंहार के कार्यों को निवारित करना और दण्डित करना कर्तव्य है।
अभिसमय की उद्देशिका प्रावधान करती है कि नरसंहार अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अधीन अपराध है। यह संयुक्त राष्ट्र की भावना और उद्देश्य के प्रतिकूल है और निन्दा सभ्य विश्व द्वारा की गयी है। अभिसयम के अनुच्छेद-3 के अधीन नरसंहार, नरसंहार करने के षड्यंत्र करने के लिए लोगों को उत्तेजित करने और नरसंहार में सहअपराधिता के लिए दण्ड का प्रावधान किया गया है। इन अपराधों को करने वाले व्यक्ति दंडित किये जायेंगे, चाहे ये संवैधानिक रूप में उत्तरदायी शासक हो, लोक अधिकारी हों या गैर-सरकारी व्यक्ति हो।

यातना तथा अन्य क्रूरतापूर्ण, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार या दंड से संबंधित मुद्दे व अंतर्राष्ट्रीय विधायन - यातना सभी महाद्वीपों में दी जाती है किन्त राज्यों द्वारा अपनाये गये तरीके विल्कल भिन्न-भिन है। शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक यातना के कछ समान रूप है- अलग रखना (Isolation), पैरों के तलवों पर प्रहार करना, बिजली के झटके देना, सांस लेने में कठिनाई उत्पन्न कर देना, दांत तोड़ना, गर्म सलाखों से जलाना, अंग-विच्छेद करना, यौनिक यातना देना, औषधि संबंधी यातना आदि।
उल्लेखनीय है कि यातना अपराधियों, विधि प्रवर्तन तंत्र द्वारा दोषी ठहराये गये निर्दोष व्यक्तियों, गुप्तचरों, पुद्धबंदियों, शरणार्थियों विपक्षी नेताओं, पत्रकारों, जातीय अल्पसंख्यक नेताओं एवं अन्य व्यक्तियों को उनके पारिवारिक सदस्यों सहित दी जाती हैं तथा अवस्यक एवं बच्चों तक को यातना दी जाती है।
मानव अधिकारों को सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद-5 में और अंतर्राष्ट्रीय सिविल और राजनैतिक अधि कार संविदा के अनुच्छेद 7 में यह प्रावधान किया गया है कि किसी भी व्यक्ति को यातना नहीं दी जायेगी पा उसके साथ क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार नहीं किया जायेगा या उसे ऐसा दण्ड भी नहीं दिया जायेगा किन्तु उनमें न तो यातना शब्द को परिभाषित किया गया है और न ही यह स्पष्ट किया गया है कि कैसे यातना और अन्य क्रूरतापूर्ण अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार या दण्ड को समाप्त किया जायेगा। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 9 दिसम्बर, 1975 को यातना और अन्य क्रूर अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार या दण्ड की घोषणा होने से सभी व्यक्तियों के संरक्षण पर घोषणा को अंगीकार किया था।

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