लोक सेवा के प्रतिदर्श | नीतिशास्त्र, सत्यनिष्ठा एवं अभिवृत्ति for UPSC CSE in Hindi PDF Download

1. साधकीय भूमिका

लोक सेवाओं को अपने संचालन में मूलतः साधकीय भूमिका निभानी चाहिए। इस अर्थ में यह नीति-निर्धारण तथा कार्यान्वयन में कर्ता नहीं बल्कि अधिकरण मात्र है। इसलिए यह सार्वभौम रूप से अपेक्षित होता है और एक बड़ी सीमा तक स्वीकार भी किया जाता है कि इन सेवाओं का अभिकल्पन एवं संयोजन ऐसा होना चाहिए कि वे राजनीतिक नेतृत्व एवं नीतिगत संघटकों की और सुसंगत और स्वैच्छिक अनुक्रिया कर सकें। सारभूत रूप में यह बात प्रशासनिक व्यवस्था पर राजनीतिक विचारधारा का ही परिचायक है।

2.  निष्पक्ष भूमिका


  • लोक सेवाओं की निष्पक्ष भूमिका उनकी साधकीय भूमिका के अनुरूप ही होती है। यह स्पष्ट है कि लोक सेवाओं को अपनी संरचनात्मक एवं प्रकार्यात्मक ढाँचे के तहत ही काम करना होता है। उन्हें अपने दृष्टिकोण एवं क्रियाकलाप में 'निष्पक्षता' का परिचय देना होता है। उन्हें अपने आचार-व्यवहार में अपने-अपने राजनीतिक मूल्यों से प्रभावित नहीं होना चाहिए।
  • लोक सेवा अधिकारी वस्तुनिष्ठ, भावुकता-रहित और निष्पक्ष विशेषज्ञ-समूह होते हैं जिन्हें अपना कार्य पूर्ण कटुता, दक्षता एवं समर्पण भावना के साथ करना होता है। 
  • नीतियों तथा उनके क्रियान्वयन से संबंधित निर्णय एक बार कर लिये जाने के बाद अधिकारियों को यही देखना होता है कि वे कार्यक्रम को अमली रूप देने के लिए सारे सुलभ साधनों के अधिकतम सीमा तक उपयोग का प्रयास करें। दूसरे शब्दों में, उन्हें कोई राजनीतिक पक्ष नहीं लेना चाहिए और न ही उन्हें इस बात की अनुमति मिलनी चाहिए।
  • नीतिगत रणनीतियों का, निश्चयन करते समय अवश्य ही व्यक्तिगत मूल्य-निर्णय प्रभावी होते हैं, लेकिन इसके बाद नहीं। राजनीतिक निष्पक्षता सरकारी कर्मचारियों, सेवाओं के लिए पूर्व शर्त है और दलगत राजनीति को इससे दूर ही रखा जाना चाहिए। 
  • इस प्रकार सहकारी कर्मचारियों से सरकार द्वारा निर्मित नीतियों पर अमल करने की ही अपेक्षा की जाती है। वे न तो कार्यक्रमों के राजनीतिक अंतर्वस्तु के लिए जिम्मेंदार होते हैं और न सार्वजनिक जीवन में उन्हें इसकी पुष्टि करनी होती है।

3.  प्रतिबद्ध भूमिका


क्या सरकारी कर्मचारियों को किसी दल, शासक दल अथवा दल के किसी व्यक्ति के प्रति बौद्धिक, भावनात्मक अथवा विचारात्मक रूप से प्रतिबद्ध होना चाहिए? उनकी प्रतिबद्धता का स्वरूप क्या होना चाहिए? लोक सेवाओं की प्रतिबद्ध भूमिका के समुचित बोध के लिए इन प्रश्नों का उत्तर आवश्यक है। इस विषय पर विभिन्न विचार व्यक्त किए गए हैं।

  •  एक तो सामान्य धारणा के अनुसार प्रतिबद्धता का आशय होता है, सरकार के नीतिगत उद्देश्यों से बौद्धिक सहमति होना। 
  • दूसरा यह विचार सामने आता है कि प्रतिबद्धता एक नयी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से होनी चाहिए जिसका विकास एवं पोषण लोक सेवकों के कैरियर द्वारा होना चाहिए तीसरे दृष्टिकोण के अनुसार प्रतिबद्धता का संबंध राज्य के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दर्शन से होना चाहिए, अन्य आधुनिकीकरण एवं राष्ट्र निर्माण कार्यक्रमों के अतिरिक्त चौथे दृष्टिकोण के अनुसार प्रतिबद्धता एक आदर्श रूप में देश के संविधान से होनी चाहिए जो कि नीतियों के अनुसरण, अनुपालन के प्रसंग में जनगण की सामूहिक मेंघा का प्रतिनिधी रूप बनता है। 
  • एक अन्य दृष्टिकोण के अनुसार प्रतिबद्धता का संबंध लोक सेवा अधिकारियों की अंतश्चेतना, उनकी आस्था, सांस्कृतिक एवं आचारगत मूल्यों और न्याय एवं औचित्य के बोध से होता है।
  • प्रायः ऐसा देखा गया है कि लोक सेवक पदोन्नति व त्वरित प्रगति की लालसा से किसी दल विशेष के प्रति निष्ठावान हो जाते हैं जो उनके लोक सेवा कार्यों को प्रभावित करते हैं। लोक सेवकों को संविधान में उल्लेखित उद्देश्यों, आदर्शों के अनुरूप सेवा निर्वहन करना चाहिये।

4. अनामता भूमिका

  • नियम के अनुसार यह अपेक्षा की जाती है कि मंत्री संसद में लोक सेवकों के कार्यों के लिए उत्तरदायी होगा। इस प्रकार लोक सेवक संसद की आलोचना से बच जाता है। 
  • मंत्री को अपने निश्चित आदेशों का पालन करने वाले अधिकारी का संरक्षण करना होता है। 
  • मंत्री, अधिकारी के गलत कार्यों के लिए जवाबदेह भी बनता है। इस प्रकार अनामता सिद्धांत मंत्रिपद से संबंधित दायित्व के साथ चलता है। इसका अर्थ है कि सार्वजनिक कर्मचारी पृष्ठभूमि में ही बना रहता है, वह सामने आकर राजनीति में प्रमुख भूमिका नहीं अपना सकता। उन्हें अपरिचितता के वातावरण में काम करना होता है। यह बात उन्हें ईमानदार तथा वस्तुनिष्ठ निर्णय करने में सहायता करती है।

5. व्यावसायिक भूमिका

  • लोक अधिकारियों की नियुक्ति उनके ज्ञान, दाता, विशेषज्ञता, अनुभव, सामर्थ्य एवं योग्यता को ध्यान में रखकर की जाती है। 
  • उन्हें विकास कार्यक्रमों का असली रूप देने के लिए उत्साह के साथ अपनी सारी कार्यकुशलता का प्रयोग करना चाहिए, उनको प्रशिक्षण भी इस प्रकार का दिया जाना चाहिए कि वे अपनी समूची सुलभ मानसिक, भौतिक एवं तकनीकी क्षमता को सर्वाधिक प्रभावी एवं दक्ष रूपों में प्रयोग कर सकें व कम समय में ही सीमित संसाधन से अधिकतम उपलब्धि की जा सके। 
  • व्यावसायिक श्रेष्ठता, परिणाम प्रेरणा तथा बौद्धिक निष्ठा उनका उद्देश्य होना चाहिए।

लोक सेवा की चुनौतियाँ व अपेक्षित सुधार

  • किसी भी देश की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक सफलता में उस देश के शासन व शासन को चलाने वाले नौकरशाहों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। हमारे देश में ऐसी अवधारणा है कि देश के समावेशी विकास के निराशाजनक भारतीय रिकॉर्ड के पीछे लोक सेवकों का कमजोर प्रदर्शन एक बड़ा कारण रहा है। 
  • देश की प्रशासनिक मशीनरी लोकोन्मुखी सेवाएं दे पाने में असफल रही है, जो नौकरशाही में विद्यमान अक्षमताओं के कारण है। 
  • द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (कार्मिक प्रशासन, 2008 की 10वीं रिपोर्ट) ने महसूस किया कि अक्सर प्रणालीगत अवरोध अनावश्यक जटिलताएँ और अति केन्द्रीकरण ने लोक सेवकों को सकारात्मक परिणाम प्राप्त करने की दिशा में अप्रभावी और निरूपाय बना कर रख दिया है। दूसरी और अधिकारों का दुरूपयोग, नकारात्मक शक्ति प्रदर्शन, कानून का उल्लंघन, निरंकुशता और असंज्ञयक मूल्यों पर लगाम नहीं कसी जा सकी है। 
  • नौकरशाही की इस समस्या के एक बड़े हिस्से के मूल में वह संजालनुमा व्यवस्था है, जो हमें  ब्रिटिश शासन प्रणाली से मिला है जो (पारम्परिक नौकरशाही) वर्तमान जरूरतों के प्रति उन्मुखी नहीं होती। क्योंकि उस प्रणाली में लाल फीताशाही और औपचारिकताएँ गुथी हुई होती है। वे परम्पराओं से चलती हैं, और यथास्थितिवाद की पोषक होती है।
  • वर्तमान समय में जहाँ कम्प्यूटर, इलेक्ट्रॉनिक्स, और संचार के क्षेत्र में समय और स्थान की अहमियत सबसे ज्यादा है, वहाँ ऐसी संस्थाओं की मांग बढ़ी है, जो लोगों को उच्च गुणवत्तायुक्त सेवा देने में सक्षम हो और जटिल वैश्विक दुनिया में विविध प्रकार की चुनौतियों का सामना करने को तैयार हों। अत: आवश्यकता है कि प्रभावी लोक सेवा के लिये नया लोक प्रबंधन मॉडल (संजालिक नौकरशाही मॉडल के विपरीत) अपनाया जाये। नये लोक प्रबंधन के दर्शन का प्रमुख अवयव प्राधिकार सत्ता को नकारना, प्रदर्शन और ग्राहकों का ध्यान केन्द्रित करना है।
  • भारत में कई उच्चस्तरीय समितियाँ और आयोग बनें हैं जिनमें मौजूद प्रख्यात लोगों ने लोक प्रबंधन प्रणाली में सुधारों से सम्बन्धित कई अनुशंसाएँ की हैं। लेकिन वे अभी तक पूर्णतया लागू नहीं हो पायी हैं। देश की लोक सेवाओं की कमजोर कार्यप्रणाली के प्रमुख कारणों में से जिम्मेदारी का अभाव, पुराने कानून, नियम और प्रविधियाँ, केन्द्रीकरण का उच्चतम स्तर, कमजोर कार्यसंस्कृति, व्यावसायिक, मानसिकता का अभाव और सेवाओं का राजनीतिकरण आदि प्रमुख है।

लोक सेवा में सुधार/सुझाव

  1. लोक सेवकों को जिम्मेंदार बनाना
    लोक सेवकों के कमजोर प्रदर्शनों के प्रमुख कारणों में से एक जिम्मेंदारी का अभाव है। लोक सेवक की जिम्मेंदारियाँ, प्रोन्नति और कैरियर की वृद्धि को अधिकारी के वास्तविक कार्यप्रदर्शन के आधार पर जोड़कर, लोक सेवा में प्रतिस्पर्धा बढ़ाकर और सख्त अनुशासनात्मक व्यवस्था स्थापित कर तय की जा सकती है। 
  2. प्रदर्शन पर जोर
    आज लोक सेवाओं को कठिन परिश्रम और मेंधावी कार्यों के लिये पुरस्कृत करने पर कम ही जोर दिया जाता है। प्रोन्नति के नियमों के अनुसार ज्यादा निर्भरता वार्षिक गोपनीयता रिपोर्ट पर होती है, और निश्चित समय आने पर सभी को प्रोन्नति मिल जाती है और इससे सामान्यता सभी को ही बढ़ावा मिलता है। आवश्यकता है कि सिविल सेवाओं में भी सैन्य सेवाओं की तरह संख्यात्मक रेटिंग की जानी चाहिये और प्रदर्शन के मूल्यांकन के लिये तीसरे पक्ष को शामिल किया जाना चाहिये। सरकारी सेवक की प्रोन्नति, कैरियर की वृद्धि और सेवा नियमितीकरण को पूरी तरह उसके काम के वास्तविक प्रदर्शन से जोड़ा जाये और अक्षम लोगों को बाहर का रास्ता दिखाया जाये। 
  3. प्रभावी अनुशासनात्मक शासन की स्थापना
    वर्तमान में लोक सेवा आचार व अनुशासनात्मक कानून के प्रावधान में इतनी कमियाँ हैं कि कर्मी के दुर्व्यवहार और अनुशासनहीनता के आधार पर कार्यवाही करना कठिन हो जाता है। इससे प्रशासन में खराब कार्य संस्कृति और अक्षमता को बढ़ावा मिलता है। वर्तमान में जरूरत इस बात की है कि अनुशासनात्मक कार्यवाईयों को इस तरह के प्रावधानों से लैस किया जाये कि प्राकृतिक न्याय के आदर्शों का पालन करते हुये गलत कर्मियों को दण्डित किया जा सके।
  4. कार्य संस्कृति में बदलाव
    वर्तमान में अधिकांश विभाग कमजोर कार्य संस्कृति और कम उत्पादकता के कारण प्रभावी लोक सेवा देने में अक्षम हैं। सरकारी कार्यालयों में कम उत्पादक कार्यों की एक वजह यह भी है कि काम का तरीका अमानवीय है। अधिकांश कर्मी काम के ज्ञाता कर्मी होते हैं, और बड़े अधिकारी जैसा कहते हैं वे वैसा ही करते हैं। वे उनकी समुचित अवहेलना नहीं कर सकते। उन्हें प्रेरक तरीके से कुछ जिम्मेंवारियाँ तथा निर्णय लेने के अधिकार देकर सशक्त करने की जरूरत है। आवश्यकता इस बात की है, कि सरकारी मशीनरी को चुस्त-दुरूस्त और आधुनिक सुविधाओं से युक्त एक कार्य दक्ष तरीके में बदलकर कार्यालयों में बाबू संस्कृति खत्म की जाये। 
  5. नियमों व प्राविधियों को सुचारू बनाना
    नागरिकों के दैनिक जीवन से जुड़े अधिकांश कामों से जुड़े नियम और कानून पुराने और अप्रचलित हैं। इससे लोक सेवकों को काम में देरी करने और लोगों को प्रताड़ित करने का मौका मिल जाता है। इनके नियमों को अद्यतन, सरल, बनाया जाना चाहिये व लोक सेवकों के विशेषाधिकारों को काम किया जाना चाहिये।
  6. लोक सेवकों पर विश्वास प्रदर्शन आधारित संगठन
    वर्तमान में सरकार का कामकाज अति केन्द्रित है और तमाम स्थिति में आमूल-चूल बदलाव की जरूरत है और इस क्षेत्र में काम कर रहे लोगों को वास्तविक निर्णयों की स्वतंत्रता दिये जाने की जरूरत है। उनके प्रति विश्वास बनाये रखने की जरूरत है और परिणाम प्राप्त करने के लिये उनकी क्षमताओं पर भरोसा करने की जरूरत है।

लोक सेवा विधेयक-2011
लोक सेवा विधेयक 2011, प्रशासन में जवाबदेहिता, निष्पक्षता व कार्य मूल्यांकन के लिये लाया गया, जिसमें निम्नलिखित प्रावधान हैं:

  • लोक सेवाओं की उपलब्धता एक निश्चित समय में उपलब्ध कराना।
  • प्रत्येक सार्वजनिक प्राधिकारी द्वारा उसकी स्थापना की तिथि से 5 माह की अवधि में नागरीक चार्टर प्रकाशित करने की अनिवार्यता।
  • 30 दिनों की अवधि में शिकायतों का निवारण करना।
  • एक लोक शिकायत निवारण आयोग की स्थापना करना जिसमें मुख्य आयुक्त के अतिरिक्त अधिकतम

    10 आयुक्त सदस्य होंगे। 

  • लोक प्राधिकारी के अर्थ में सभी संवैधानिक व विधिक प्राधिकारी, अधिसूचना द्वारा स्थापित प्राधिकारी व सार्वजनिक निजी भागीदारी मॉडल के तहत स्थापित प्राधिकारी शामिल होंगे। 

  • प्राधिकारी की कार्यप्रणाली, सेवा आपूर्ति की विफलता व किसी विधि/नियम/कार्यक्रम के उल्लंघन में कोई भी नागरिक, लोक सेवा अधिकारी की शिकायत कर सकता है।

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