(i) हमारे समकालीन दौर में दर्शन का काम संज्ञानात्मक एवं अस्तित्व के सवाल पूछकर उस जवाब तक पहुंचना है जो कि लोगों की भलाई की प्राप्ति के लिए उनके विकल्पों एवं कार्यों को सकारात्मक रूप से प्रभावित कर विकास को बढ़ावा दे सके और विकास के लिए शासन एक अनिवार्य नींव है। प्रत्येक देश कुछ निश्चित मूल्यों द्वारा मार्गदर्शित होता है जैसे कि; समतावाद, निष्पक्षता, न्याय, पारस्परिकता एवं सहिष्णुता जो कि लोगों एवं सरकार द्वारा संजोये जाते हैं और इन मूल्यों के प्रति राष्ट्रीय समर्पण शासन के तत्व एवं गुणवत्ता को व्यापक रूप से प्रभावित करते हैं।
(ii) शासन शब्द यूनानी क्रिया 'Kuber naw' से व्युत्पन्न है जिसका तात्पर्य है 'रास्ते पर लाना या संचालित करना या चीजों को नियंत्रित करना'। इसका प्रथम प्रयोग प्लेटो ने उपमा के तौर पर किया था। इसे अरस्तु के कार्यों में देखा जा सकता है जिसने शासन को ऐसे राज्य के बारे में वर्णन किया जो कि नीतिशास्त्रीय एवं न्यायी गर्वनर द्वारा शासित होता है। उसके मुताबिक राज्य मनुष्य के सर्वोत्तम अच्छाईयों एवं नैतिक कर्तव्यों का निर्वहन करता था। यूनानी दार्शनिक मानते थे कि राज्य (शासन) एक अनिवार्य संस्था है, क्योंकि सिर्फ राज्य के अन्तर्गत हम जीवन के अपने लक्ष्यों की पूर्ति कर सकते हैं। प्लेटो के अनुसार मात्र आदर्श राज्य (शासन) में ही हम खुशहाल और संतुष्ट जीवन यापन कर सकते हैं। प्लेटो का मत था कि कल्याणकारी राज्य के लिए आवश्यक है कि वह अपने अधिक से अधिक नागरिकों की इच्छा का प्रतिनिधित्व करे। प्लेटो ने इसके लिए राज्य के जिन सद्गुणों की बात की है, वे हैं; साहस, ज्ञान, सहिष्णुता तथा न्याय।
(iii) न्याय की अधिकतम संभाव्यता को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि राज्य में राजनीतिक दर्शन की प्रमुख शर्तों का पालन होता हो। अरस्तु मानते थे कि परिवार और गाँव का अस्तित्व जीवन की सुरक्षा तथा सहयोग के लिए था, लेकिन राज्य का अस्तित्व सिर्फ जीवन के लिए नहीं था, बल्कि सुखमय जिन्दगी के लिए था। राज्य मनुष्य के सर्वोत्तम अच्छाईयों और नैतिक कर्तव्यों का निर्वहन करता था। इस प्रकार यूनानियों के लिए राज्य या शासन मात्र प्रादेशिक या राजनीतिक ईकाई नहीं था बल्कि विशेष उद्देश्यों और लक्ष्यों की एक नैतिक ईकाई था। मनुष्य को अच्छी जिन्दगी जीने के लिए योग्य बनाता था। यूनानियों ने आदर्श राज्य की अवधारणा को विकसित किया और इस आदर्श राज्य के आलोक में वे सभी विद्यमान राज्यों को व्यवस्थित करना चाहते थे। आदर्श राज्य का उद्देश्य सामान्य अच्छाई थी और यह नागरिकों को उनकी प्रवृत्ति और सामर्थ्य के आधार पर जीवन जीने के योग्य बनाता था। आधुनिक युग में बेंथम ने राज्य का उद्देश्य 'अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख'निरूपित करते हुये परोक्ष दृष्टि से कल्याणकारी राज्य या शासन के सिद्धांत को प्रतिपादित किया।
(iv) दार्शनिक आधार किसी भी विषयवस्तु अथवा प्रवृत्ति के मूल व उनके अंतर्निहित गुणों (inherent qualities) उद्देश्यों, मान्यताओं, दृष्टिकोण को उजागर करता है। किसी भी संस्था व संगठन के दार्शनिक आधारों की खोज व विश्लेषण से प्रतिबद्धता के स्तर का भी पता चलता है। शासन व्यवस्था व ईमानदारी (Probity) के दार्शनिक आधारों का मूल्यांकन भी इसी दृष्टिकोण से आवश्क हो जाता है। भारत में शासन व्यवस्था का दार्शनिक आधार भारतीय संविधान की प्रस्तावना में स्पष्ट रूप से वर्णित है।
ये दार्शनिक आधार हैं:-
जनकेन्द्रित शासन का आदर्श रखना।
लोकतांत्रिक शासन प्रणाली जिसमें जनता की सहभागिता को सुनिश्चित करने के लिए निर्वाचनों के माध्यम
से प्रतिनिधिमूलक शासन (representative) की स्थापना करना।
पंथनिरपेक्षीय शासन प्रणाली जो कि भारत में विविधता का सम्मान करने व सहिष्णुता के विकास की दृष्टि
से आवश्यक है।
विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धर्म को मानने, अंगीकार करने, प्रचार करने की स्वतंत्रता।
भारत के लोगों में बंधुत्व व भाईचारे की भावना के विकास के लिए प्रयास जिसे मूल कर्तव्यों के प्रावधान के तहत मूर्तमान किया गया।
सामाजिक व आर्थिक न्याय का मार्ग प्रशस्त करने के लिए समाजवाद भारतीय शासन प्रणाली का दार्शनिक आधार बना।
(v) इस प्रकार भारत में विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के तहत् समतामूलक समाज (egalitarian society) की स्थापना एक दार्शनिक आधार के रूप में विद्यमान रहा है।
(vi) भारतीय शासन प्रणाली मानव गरिमा, मानवाधिकारों, लैंगिक न्याय, सामाजिक न्याय व सुरक्षा के दार्शनिक आधारों पर संचालित व गतिशील रही है। उदाहरण के लिए स्त्रियों का सम्मान वह दार्शनिक आधार है जिसने भारतीय शासन प्रणाली को महिला सशक्तीकरण हेतु अपेक्षित कानूनों का निर्माण करने के लिए प्रेरित किया। ईमानदारी का दार्शनिक आधार भी इसी प्रकार भारतीय स्थितियों के संदर्भ में स्पष्ट किया जा सकता है। परिवार, शिक्षण संस्थान विशेष रूप से ईमानदारी के गुणों को विकसित करने वाले सामाजिक उपकरण रहे हैं और ऐसे गुणों को अपनाकर भारतीय राजनीति में अनेक राजनेताओं ने ईमानदारी के आदर्श रखे। बुद्ध व महावीर के जीवन दर्शन, अशोक का धम्म, गांधी की कार्यपद्धति, लाल बहादुर शास्त्री की कार्यप्रणाली आवश्यकता को रेखांकित करने में महत्वपूर्ण रहे हैं।
(vii) ईमानदारी से अच्छी लोक छवि (public image) का निर्माण होता है, विश्वसनीयता, व साख, बढ़ती है, जो प्रशासन के लिए अत्यंत आवश्यक है। लोक सेवकों की ईमानदारी व बेहतर आचरण जनांदोलनों के उभरने के अवसरों को सीमित करता है और जनता व शासन के मध्य बेहतर संबंधों के निर्माण की दृष्टि से प्रभावी भूमिका निभाता है।
'सहाय साध्यं राजत्वं चद्रमेंकं न वर्तते।
कुर्वीत सचिवांत स्मान्तेषां च श्रृणायंतम।।'
परिवेष्टित समस्त पृथ्वी के शासन करने में समर्थ होता है।
शासन की मंत्रणा को गुप्त रखने पर विशेष जोर देते हुये कौटिल्य कहता है कि जब तक फल पक न
जाए उसके स्वरूप का बहुत प्रदर्शन न करें, अन्यथा सिद्धि में बाधा होगी।
उच्छिणेत मंत्रभेदी अर्थात् उचित का सब समर्थन करते हैं। अनुचित, अपरिपक्व तथा पक्षपात की सर्वत्र निंदा होती है। पक्षपात विहीन शासन ही वस्तुतः शासन है जो चिर कीर्ति प्रदान करता है सभी प्रशंसा करते हैं। उचित मार्ग का चयन करने वालों की पशु-पक्षी भी सहायता करते हैं।
आइन-ए-अकबरी में बादशाह का वर्णन नूर-ए-इलाही (खुदा से निकली रोशनी), आफ़ताब से फूटी किरण, ब्रह्माण्ड को रोशन करने वाले, आदि के रूप में किया गया है। इस प्रकाश या नूर को धारण करने से अनेक श्रेष्ठ गुण प्रवाहित होते हैं।
1. भारतीय दार्शनिक अवधारणा क्या है और शासन व्यवस्था और ईमानदारी के लिए इसका क्या महत्व है? |
2. शासन व्यवस्था क्या है और इसका महत्व क्या है? |
3. ईमानदारी क्या है और शासन व्यवस्था में इसका क्या महत्व है? |
4. भारतीय दार्शनिक अवधारणाओं का उपयोग शासन व्यवस्था में कैसे किया जा सकता है? |
5. शासन व्यवस्था और ईमानदारी के बीच क्या संबंध है और यह क्यों महत्वपूर्ण है? |
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