17. आधुनिक नारी
नारी मात्र सौंदर्य और प्रेम की ही प्रतिमूर्ति नहीं रही है, आज उसका दबदबा इतना बढ़ गया है कि पुरुष उसके बढ़ते हुए अस्तित्व को देखकर स्वयं रसोई घर में केवल हाथ नहीं बँटाता है, अपितु रसोई घर का दायित्व भी संभालने लगा है। यही पुरुष पुरुषत्व के कारण रसोई के कार्य को अपने लिए हेय समझता था। दूसरी ओर नारी ने रसोई से ही नहीं, घर की चारदीवारी से बाहर निकल अपनी प्रतिभा को नए रूपों में प्रस्तुत किया है, जिसका परिणाम यह हुआ है कि पुरुष अब नारियों के स्थान रसोई के कार्य को सँभाल कर नारी के लिए चाय परोसते हुए गौरव का अनुभव करने लगा है। इसलिए तो डॉ. वीरेश ने कविता के माध्यम से इस प्रकार कहा है
नारी के बढ़ते हुए
तानाशाही घटा टोप में
विवश नर अब हेटा है
अरुणिम, क्रोधान्वित, रक्तिम
मुख के भय से नर
रसोई में जा बैठा है।
कभी अबला कही जाने वाली नारी अब सबला है। प्रत्येक क्षेत्र को अपने प्रभाव क्षेत्र में लेकर अपनी शक्ति, अपनी योग्यता, प्रखरता, अपनी क्षमता का प्रदर्शन किया है और निरंतर कर रही है। जमीन से लेकर आकाश तक अपना प्रभुत्व स्थापित किया है। हिमालय की चोटी को छूने वाली बछंद्री पाल, आकाश की ऊँचाई को छूने वाली कल्पना-चावला, देश के स्वाभिमान को बढ़ाने वाली राजनीति, कूटनीति और युद्धनीति के लिए सिंह वाहिनी के रूप में जानी जाने वाली श्रीमती इंदिरा गांधी, प्रशासनिक क्षेत्र में अलग पहचान बनाने वाली आई.पी.एस. महिला किरण बेदी, खेल के क्षेत्र में प्रभुत्व स्थापित कर चुकी उड़न परी पी.टी. ऊषा और देश के सर्वोच्च पद पर आसीन रह चुकी श्रीमती प्रतिभा पाटिल आदि, से स्पष्ट है कि नारी अब प्रत्येक दायित्व को सँभालने में समर्थ है। वह अब शक्ति की पर्याय बन गई है। वह पुरुषों के लिए प्रेरणा बन गई है। इतिहास के पृष्ठों को पढ़कर देश-प्रेम में भी आगे रही है। इतिहास के पृष्ठों में रानी लक्ष्मी बाई, रानी सारंधा, होल्कर आदि वीरांगनाओं को पढ़कर देश के लिए कुर्बान होने के लिए तत्पर रहती है। वायुसेना और थल सेना में जाने के लिए मचलने लगी है। नारियों के उत्साह को देखकर अपने पुरुषत्व का डींग हाँकने वाले पुरुष दाँतों तले अंगुली दबाने लगा है।
पौराणिक और ऐतिहासिक विवरणों में नारी शक्ति पर अंकुश की चर्चाएँ की गई हैं। उन परंपराओं को नारियों ने एक ओर अप्रत्याशित सराहनीय कार्य कर झुठलाया है तो दूसरी ओर नारी की बढ़ती हुई उच्छृखलता ने जीवन जीने की कला से मनुष्य और अपनी पाश्विक प्रवृत्ति को प्रेरित किया है। जीवन जीने की नई-नई कलाओं के माध्यम से इसी उच्छृखल नारियों ने पशु प्रवृत्ति को अपनाने में कोई संकोच नहीं किया। इसी नारी ने सौंदर्य-प्रदर्शन की नई-नई परिभाषाएँ प्रस्तुत कर अपने सौंदर्य की कीमत वसूलती हुई कंपनियों के विज्ञापन में सर्वत्र दिखाई देती हैं। उनकी इस उच्छृखलता को देखकर ही शायद ‘उपकार’ फिल्म में विवश होकर फिल्माया गया होगा कि एक के पास तन ढकने के लिए वस्त्र नहीं है और एक को तन ढकने का शौक नहीं है। नारी की ऐसी बढ़ती हई उच्छृखलता नारी-जाति को कलंकित कर रही है-यह कहना शायद अनुचित नहीं है। नारी-जाति से इस उच्छृखलता को अलग करके देखा जाए तो नारी राष्ट्र की, सृष्टि की सम्माननीय, ईश्वर-निर्मित प्राणिजगत की सर्वश्रेष्ठ रचना है।
आधुनिक नारी को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि यह यदि अपनी ऐसी ही संघर्ष और उत्साह की प्रवृत्ति बनाए रहती है, तो शीघ्र ही पुरुष वर्ग को पीछे छोड़ देगी, किंतु तुरंत ही उसके दूसरे रूप उच्छंखलता की ओर विचार जाता है कि देश, समाज और अपने नारी समाज के पतन का कारण भी बन सकती है। नारी की प्रगति आधुनिकता के नाम पर कभी कानून का, कभी अपने सौंदर्य से उपजी सहानुभूति का अनुचित लाभ उठाते हुए अमर्यादित हेकड़ होती जा रही है, उससे संदेह होता है कि उसका भविष्य कितना उज्ज वल होगा। नारी प्रगति को देखकर सचमुच में प्रसन्नता होती है क्योंकि नारी के विविध रूप हैं, वह एक माता है, वह किसी की प्रिय पुत्री है तो किसी की बेटी है तो किसी की बहन है तो किसी की पत्नी। सर्वत्र अपनत्व है। अपने की प्रगति देख किसे प्रसन्नता नहीं होती है। यह प्रसन्नता तभी तक रहती है जब वह प्रगति के साथ मर्यादित रहती है।
18. मेरा प्रिय कवि
हिंदी साहित्य जगत में अनेक प्रख्यात कवि हुए हैं, जिनकी प्रतिभा युगों तक सराही जाती रहेगी। इन महान कवियों ने समाज को ऐसे संदेश दिए हैं, जिनसे मानव समाज उनका चिर ऋणी बन गया। ऐसे अनेक महाकवि हुए हैं जिन्हें सदियाँ बीत जाने पर भी सम्मान के साथ सराहा जाता है। ऐसे ही थे–महाकवि तुलसीदास गोस्वामी। उनके प्रति आकर्षण होने का कारण है कि जीवन के प्रारंभिक काल से या कहा जाए कि जन्मते ही जिस पर आपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा था, वह उन विषम परिस्थितियों में जीवित रह सका। अन्य बहुत से कवियों की तरह उनके जन्मकाल और स्थान के बारे में संदेह बना रहा है। अधिकतर विद्वानों ने उनकी रचनाओं के आधार पर बताने का प्रयास किया है कि उनका जन्म सन् 1532 ई. में शूकर क्षेत्र (सोरों) जनपद में हुआ था। उनके जन्म लेने के बाद से ही ऐसी अप्रत्याशित घटनाएँ घटीं, जिनके कारण इनका जीवन संघर्षपूर्ण हो गया। इनके पिता आत्माराम और माता हुलसी बाई थीं। कहा जाता है कि इनके मुँह से पहली बार ‘राम’ निकला, इसलिए इनका नाम रामबोला पड़ गया। गाँव के दकियानूसी लोगों ने बत्तीस दाँत साथ होने से गाँव के लिए अपशकुन माना जिससे उनके माता-पिता को उन्हें लेकर गाँव छोड़ना पड़ा।
कुछ अन्य अनहोनी घटनाओं के कारण तुलसी को उनके माता-पिता ने भटकने के लिए छोड़ दिया। समाज में लोकोक्ति प्रचलित है कि ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’ नियति ने करवट बदला, भटकते हुए बालक पर एक सहृदय आचार्य श्री नरहरि’ की दृष्टि पड़ी। तुलसी से आचार्य नरहरि या नरहरि से तुलसी धन्य हो गए और तुलसी की यहीं से कायापलट शुरू हो गई। भटकता हुआ बालक आगे चलकर, संस्कृत और हिंदी भाषा के सुयोग्य और सम्माननीय आचार्य हो गए। बादल सूर्य को कब तक ढककर रख सकता है, तुलसी की प्रतिभा को कब तक छिपाया जा सकता था। कालांतर में स्वयं ही उनकी प्रतिभा से लोग प्रभावित होने लगे, ईष्र्यालु ईर्ष्या करने लगे।
तुलसी की नियति में कुछ और ही था। इनका विवाह भी हुआ। आशा और कल्पना के विपरीत पत्नी से भी धकियाए गए। पत्नी की यह अवमानना उनके जीवन के लिए प्रेरणा और वरदान बन गई। पत्नी ने अपमानित ही नहीं किया, अपितु शिक्षा भी दे दी
अस्थि चर्म मम देहतिय, तामे ऐसी प्रीति।
ऐसी जो श्रीराम में, होती न तो भवभीति ॥
यहाँ से तुलसी की दशा बदल गई, सोच बदल गई। श्रीराम के प्रति विश्वास, श्रद्धा इतना बढ़ा कि उससे हटकर कुछ और सोचना ही बंद कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि मानव समाज को अमर ग्रंथ, घर-घर की शोभा का ग्रंथ, ‘रामचरितमानस’ दे दिया, जिसकी सराहना उनके प्रति ईर्ष्या रखने वाले व्यक्तियों को भी विवश होकर करनी पड़ी। इस अमर ग्रंथ ने उन्हें जन-जन का हृदयसम्राट बना दिया। इस तरह उनकी पत्नी रत्नावली की अवहेलना उनके लिए ऐसी प्रेरणा बनी, जिसे वे आजीवन भुला न सके।
आचार्य तुलसीदास जी ऐसे महाकवि थे जो विनम्रता की प्रतिमूर्ति थे, धुन के पक्के थे, आपदाओं में धैर्य बनाए रखने में समर्थ थे। अपने आराध्य के प्रति विश्वास के आधार पर बड़े से बड़े आघातों को सरलता से सहन करते चले गए। विषमताओं में भी अपनी विनम्रता और धैर्य को नहीं छोड़ा। महाकाव्य रामचरित मानस के माध्यम से जीवन के प्रत्येक पहलू को छूकर मनुष्य को नई दिशा दी। अतः ऐसे महाकवि मेरे ही नहीं, अपितु जन-जन के प्रिय और हृदय सम्राट बन गए।
19. गणतंत्र दिवस
ऐतिहासिक दृष्टि से दो तारीखों का विशेष महत्त्व है, जिन्हें हम राष्ट्रीय पर्व के नाम से जानते हैं। एक 15 अगस्त, जिस दिन स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है, दूसरा 26 जनवरी जिस दिन गणतंत्र दिवस मानाया जाता है। 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाने का अपना इतिहास है। कांग्रेस के वर्ष 1929 के लाहौर अधिवेशन के अध्यक्ष जवाहर लाल नेहरू ने रावी के तट पर पूर्ण स्वराज्य की घोषणा करते हुए 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस मनाने का आह्वान किया था। आगामी वर्ष में 26 जनवरी, 1930 को स्वतंत्रता दिवस मनाया गया था। स्वतंत्रता के बाद तय हुआ कि अपना संविधान हो, अपना तंत्र हो। संविधान सभा के द्वारा अथक प्रयास से 2 वर्ष से अधिक समय में भारतीय संविधान तैयार हुआ और 26 जनवरी, 1930 के स्वतंत्रता दिवस को ध्यान में रखते हुए इसी दिन संविधान लागू किया गया और इस दिन गणतंत्र दिवस मनाने का निश्चय किया गया।
प्रथम गणतंत्र दिवस 26 जनवरी, 1950, अपनी अलग छटा बिखेरता हुआ राष्ट्रपति भवन की नई उमंग की कहानी कहता है। गुरुवार 26 जनवरी, 1950 की सुबह, राष्ट्रपति भवन के दरबार हाल में देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने भारत को गणतंत्र घोषित किया। उस दिन सी. राजगोपालाचारी ने अपने देश को गणराज्य संबोधित करते हुए कहा-‘इंडिया, दैट इज भारत” तो राष्ट्रपति का दरबार हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। इसके बाद 31 तोपों से सलामी दी गई। उसके बाद राष्ट्रपति श्री राजेंद्र प्रसाद जी ने देश के नाम पहला संबोधन किया-‘आज हमारे देश के लंबे और विविधतापूर्ण इतिहास में पहली बार हम उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में केप कोमोरिन और पश्चिम में काठियावाड़ और कच्छ से लेकर पूर्व में कोकोनाड़ा और कामरूप तक एक संविधान के दायरे में है। इस देश में प्राकृतिक संपदा है और उसका इस्तेमाल इस देश के लोगों के लिए किया जाएगा। हमारे पास यह निबंध लेखन अवसर आया है कि हम अपनी विशाल आबादी को खुशहाल और संपन्न बना सकें और इस तरह दुनिया में शांति के प्रयासों में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकें। राष्ट्रपति बग्घी में बैठकर जनता के बीच से गुजरे। इरविन स्टेडियम पहुँचकर झंडों को सलामी कर सेना की सलामी ली।
राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस को मनाने की अलग परंपरा है। इस दिन भारतीय प्रगति, एकता व शौर्य का प्रदर्शन किया जाता है। भारत की राजधानी नई दिल्ली में इंडिया गेट पर इस उत्सव की पराकाष्ठा देखने को मिलती है। इस दिन इसी स्थान पर महामहिम राष्ट्रपति का आगमन होता है, 21 तोपों से सलामी दी जाती है। तीनों सेनाओं की राष्ट्रपति को सलामी दी जाती है। संपूर्ण देश के लगभग सभी प्रांतों की झाँकियाँ प्रस्तुत की जाती हैं। सभी झाँकियाँ भारत की विविधता और संपन्नता की कहानी बयाँ करती हैं। मनुष्यों में इतना उत्साह होता है कि इसे देखने के लिए दूर-दराज से भीड़ उमड़ पड़ती है। आकाश से फूल बरसाता हुआ हेलीकॉप्टर, उड़ते हुए, अपनी गड़गड़ाहट से आकाश को गुंजायमान करते हुए विमान, आकाश में शोभा बिखेरते हुए गुब्बारे आदि की मनोहारी छटा, तरहतरह के टैंक और तोपें, अनुशासित मार्च करती हुई सेनाओं की टुकड़ियाँ, विद्यालयों के छात्रों द्वारा प्रस्तुत किए जाते हुए रंगारंग कार्यक्रम आदि भारत की संपन्नता को कहते हुए दिखाई देते हैं। यह सब यात्राएँ विजय पथ से आती हुई लंबी यात्रा पूरी करके लाल किले तक पहुँच जाती हैं। सब जगह सड़कों, गलियों में चहल-पहल दिखाई नहीं देती है। सभी दूरदर्शन से चिपके गणतंत्र दिवस की झाँकियाँ देख प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।
प्रत्येक जन को अपनी संस्कृति के अनुसार जीने का अधिकार है। जब अपनी संस्कृति को भूल दूसरों का अनुकरण करने लगते हैं। तो अपनी गरिमा धीरे-धीरे भूल जाते हैं। अपनी गरिमा बनी रहे, अपनी पहचान बनी रहे-इसलिए उन्हें याद करने के लिए पर्व मनाए। जाते हैं। प्रतिवर्ष गणतंत्र दिवस हमें यही संदेश देता है कि जिन संघर्षों के बाद घुटन से निकल कर स्वतंत्रता की, राहत की साँस ली है वह अक्षुण्ण बनी रहे, इसके लिए सदैव सचेत रहना चाहिए। आपसी भेदभाव को भुलाकर एक मंत्र, एक सूत्र में बँधे रहकर एकजुटता बनाए रखने का यह पर्व प्रतिवर्ष संदेश देता है और याद दिलाता है अपनी संस्कृति, अपने देश की गरिमा सदैव बनी रहे।
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