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The Hindi Editorial Analysis - 6th July 2022 | Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly - UPSC PDF Download

हिरासत में होने वाली मौत


संदर्भ

पुलिस बर्बरता और हिरासत में की जाने वाली हिंसा के मामले में भारत का बदतर रिकॉर्ड रहा है । वर्ष 2001 से 2018 के बीच पुलिस हिरासत में 1,727 लोगों की मौत हो गई लेकिन इन मामलों के लिए केवल 26 पुलिसकर्मियों को ही दोषी ठहराया गया।

  • अपराधों की जाँच हेतु वैज्ञानिक तरीकों को अपनाने के लिए पुलिसकर्मियों को प्रशिक्षण देने पर समय और धन के वृहत व्यय के बावजूद हिरासत में मौतें होना आम है। ऐसा इसलिए है क्योंकि पुलिसकर्मी अलग-अलग पृष्ठभूमि और अलग-अलग दृष्टिकोणों के मानव हैं।

हिरासत में होने वाली मौतों से हमारा क्या तात्पर्य है?

  • हिरासत में होने वाली मौतें या ‘कस्टडियल डेथ’ (Custodial Deaths) से तात्पर्य है पुलिस हिरासत में अथवा मुकदमे की सुनवाई के दौरान न्यायिक हिरासत में अथवा कारावास में दंड भोगने के दौरान व्यक्तियों की मृत्यु।
    • यह बात गुप्त नहीं है कि पुलिस जब अपनी पूछताछ के दौरान प्राप्त निष्कर्षों से संतुष्ट नहीं होती तो कई बार यातना और हिंसा का भी सहारा लेती हैं जिससे संदिग्ध व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है।

भारत में हिरासत में होने वाली मौतों का परिदृश्य

  • राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आँकड़ों के अनुसार, पिछले 20 वर्षों में देश भर में हिरासत में 1,888 मौतें हुईं, पुलिसकर्मियों के विरुद्ध 893 मामले दर्ज किये गए और 358 पुलिसकर्मियों के विरुद्ध आरोप पत्र दाखिल किये गए। लेकिन आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार इसी अवधि में केवल 26 पुलिसकर्मियों को ही दोषी ठहराया गया।
  • उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा को छोड़कर पूरे देश में में और कहीं भी इस तरह की मौतों के लिए किसी भी पुलिसकर्मी को दोषी नहीं ठहराया गया था।

हिरासत में होने वाली मौतों के संभावित कारण क्या हो सकते हैं?

  • प्रबल कानून का अभाव:
    • भारत में अत्याचार विरोधी कानून (Anti-torture Legislation) मौजूद नहीं है, न ही हिरासत में हिंसा (Custodial Violence) को अपराध घोषित किया गया है, जबकि दोषी पुलिसकर्मियों/अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई की स्थिति भी असंतोषजनक है।
  • संस्थागत चुनौतियाँ:
    • संपूर्ण कारागार प्रणाली अंतर्निहित रूप से अस्पष्ट है और पारदर्शिता को कम अवसर देती है।
    • भारत अति वांछित कारागार सुधार लाने में भी विफल रहा है और कारागार बदतर स्थिति, भीड़भाड़, कर्मियों की भारी कमी और जेलों में हिंसा/आघात के विरुद्ध न्यूनतम सुरक्षा उपायों के अभाव से ग्रस्त बने हुए हैं।
  • चरम बलप्रयोग:
    • राज्य यातना देने सहित चरम बलप्रयोग की प्रवृत्ति रखता है जिसका शिकार हाशिये पर स्थित समुदाय होते हैं। राज्य आंदोलनों में भाग लेने वाले या विचारधाराओं का प्रचार करने वाले उन लोगों को नियंत्रित करने के लिए भी बलप्रयोग का सहारा लेता है जिन्हें राज्य अपने विरुद्ध मानता है या खतरे के रूप में देखता है।

हिरासत (Custody) के संबंध में कौन-से प्रावधान उपलब्ध हैं?

  • संवैधानिक प्रावधान:
    • अनुच्छेद 21:
      (i) अनुच्छेद 21 में कहा गया है कि ‘‘किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।’’
      (ii) भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 (प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण) के तहत यातना से संरक्षण एक मूल अधिकार है।
    • अनुच्छेद 22:
      (i) अनुच्छेद 22 ‘‘कुछ दशाओं में गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण’’ प्रदान करता है।
      (ii) भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22(1) के तहत किसी व्यक्ति को अपनी रुचि के विधि व्यवसायी से परामर्श लेने और प्रतिरक्षा कराने का मूल अधिकार भी प्राप्त है।

हिरासत में पूछताछ के संबंध में प्रौद्योगिकी की भूमिका

  • ब्रेन फ़िंगरप्रिंट सिस्टम (BFS):
    • BFS एक प्रकार की लाई-डिटेक्शन तकनीक है जिसके माध्यम से किसी व्यक्ति की मस्तिष्क तरंगों को मापा जाता है ताकि यह पता लगाया जा सके कि पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देते समय कोई व्यक्ति सच कह रहा है या नहीं।
    • यह तकनीक जाँच एजेंसियों को जटिल मामलों में सुराग खोजने में मदद करती है।
  • रोबोट:
    • निगरानी के लिए और बम का पता लगाने के लिए पुलिस विभाग द्वारा रोबोट का अधिकाधिक इस्तेमाल किया जा रहा है।
    • कई विशेषज्ञ मानते हैं कि पूछताछ में रोबोट मानव पूछताछकर्ता के समान या उससे बेहतर भूमिका निभा सकते हैं।
      (i) संभव है कि संदिग्ध व्यक्ति सच उजागर करने के लिए पुलिस की तुलना में स्वचालित संवादी रोबोटों के प्रति अधिक ग्रहणशील हों।
      (ii) AI और सेंसर तकनीक से लैस रोबोट संदिग्धों के साथ एक सहज संबंध बना सकते हैं, चापलूसी, शर्मसार करने और दबाव डालने जैसी प्रेरक तकनीकों का उपयोग कर सकते हैं और बॉडी लैंग्वेज का रणनीतिक इस्तेमाल कर सकते हैं।
  • AI:
    • आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) और मशीन लर्निंग (ML) पूछताछ के उपकरण के रूप में उभर रहे हैं। AI मानवीय भावनाओं का पता लगा सकता है और व्यवहार का पूर्वानुमान कर सकता है।
    • जब पुलिस संदिग्धों के साथ अमानवीय व्यवहार कर रही हो तो ML तत्काल वरिष्ठ अधिकारियों को सचेत कर सकता है।
  • संबंधित चिंताएँ:
    • प्रौद्योगिकी के उपयोग के साथ ही पूर्वाग्रह का जोखिम, स्वचालित पूछताछ रणनीति से संबद्ध शंका, मशीन लर्निंग एल्गोरिदम द्वारा व्यक्तियों एवं समुदायों को लक्षित करने का खतरा और निगरानी हेतु इसके दुरुपयोग का संकट मौजूद है।
    • जबकि पुलिस और कानून प्रवर्तन एजेंसियों के लिए उपलब्ध प्रौद्योगिकियों में लगातार सुधार हो रहा है, यह एक सीमित साधन ही है जो हिरासत में होने वाली मौतों को पूरी तरह समाप्त नहीं कर सकता।

आगे की राह

  • भारत को ‘यातना के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन’ की पुष्टि करनी चाहिए।
    • यह किसी भी प्रकार की गिरफ्तारी, हिरासत या कारावास के लिए विचारणीय व्यक्तियों के संबंध में हिरासत और उसके प्रति व्यवहार के औपनिवेशिक नियमों, विधियों, प्रथाओं और व्यवस्थाओं की एक व्यवस्थित समीक्षा को अनिवार्य करेगा।
    • इसका अर्थ यह भी होगा कि पीड़ितों के लिए ‘बोर्ड ऑफ विजिटर्स’ जैसी संस्थाओं के अलावा निवारण और मुआवजे की विशेष व्यवस्था स्थापित की जाएगी।
  • पुलिस सुधार:
    • स्वतंत्रता से वंचित करने संबंधी मामलों में शामिल अधिकारियों को शिक्षित करने और प्रशिक्षण देने के लिए भी दिशानिर्देश तैयार किये जाने चाहिए क्योंकि यातना को प्रभावी ढंग से तब तक नहीं रोका जा सकता जब तक कि पुलिस तंत्र का वरिष्ठ स्तर ऐसे मुद्दों की गंभीरता का अनुमान नहीं लगाएगी और वर्तमान अभ्यासों में बदलाव नहीं लाएगी।
  • कारागार तक पहुँच:
    • स्वतंत्र और योग्य व्यक्तियों को वस्तुस्थिति की समीक्षा और निरीक्षण के लिए हिरासत/निरोध स्थलों तक असीमित और नियमित पहुँच की अनुमति दी जानी चाहिए।
    • पुलिस थानों (पूछताछ कक्ष सहित) में सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएँ।
    • गैर-आधिकारिक आगंतुकों (Non-Official Visitors- NOVs) द्वारा औचक निरीक्षण को भी अनिवार्य बनाया जाना चाहिए जो हिरासत में यातना के विरुद्ध एक निवारक उपाय के रूप में कार्य करेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने भी वर्ष 2015 में श्री दिलीप के. बसु मामले में अपने ऐतिहासिक निर्णय में इसका सुझाव दिया था।
  • विधि आयोग की 273वीं रिपोर्ट का कार्यान्वयन:
    • रिपोर्ट में अनुशंसा की गई है कि हिरासत में प्रताड़ना करने के आरोपित—चाहे वे पुलिसकर्मी हों, सैन्य या अर्द्धसैन्य बल के कर्मी हों, पर केवल प्रशासनिक कार्रवाई के बजाय आपराधिक मुकदमा चलाया जाना चाहिए ताकि एक प्रभावी निरोध की स्थापना हो।
  • अन्य उपाय:
    • नीति निर्माताओं द्वारा कानूनी अधिनियमों, प्रौद्योगिकी, जवाबदेही, प्रशिक्षण और सामुदायिक संबंधों, सभी को शामिल करते हुए एक बहुआयामी रणनीति तैयार की जानी चाहिये।
    • पुलिस ज्यादतियों पर अंकुश लगाने के लिए कानूनी सहायता पाने के संवैधानिक अधिकार और निःशुल्क कानूनी सहायता सेवाओं की उपलब्धता के बारे में जानकारी का प्रसार आवश्यक है।
      (i) इसके लिए हर थाने/कारागार में डिस्प्ले बोर्ड और आउटडोर होर्डिंग लगाना उपयुक्त होगा।
    • यदि भारत विधि के शासन द्वारा शासित समाज के रूप में बने रहना चाहता है तो न्यायपालिका के लिए यह अनिवार्य है कि वह अत्यधिक विशेषाधिकार प्राप्त और सबसे कमज़ोर लोगों के बीच न्याय की पहुँच के अंतराल को भरने के उपाय करे।
      (ii) भारत में न्याय की अभिगम्यता केवल एक आकांक्षी लक्ष्य नहीं है, न्यायपालिका को इसे व्यावहारिक रूप से साकार करने के लिए सरकार के विभिन्न अंगों के साथ मिलकर कार्य करने की ज़रूरत है।
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