- इसका लक्ष्य "मजबूत और प्रभावी आईपीआर कानून का निर्माण करना था, जो बड़े जनहित के साथ सही मालिकों के हितों को संतुलित करता है"।
- इसका उद्देश्य " सेवा-उन्मुख आईपीआर प्रशासन को आधुनिक और मजबूत करना " था।
- फोकस "आईपीआर उल्लंघन का मुकाबला करने के लिए प्रवर्तन और न्यायिक तंत्र को मजबूत करने के लिए" था।
- ट्रिब्यूनल सुधारों के हिस्से के रूप में बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड (आईपीएबी) को अप्रैल 2021 में भंग कर दिया गया था, और इसके अधिकार क्षेत्र को फिर से उच्च न्यायालयों में स्थानांतरित कर दिया गया था।
- समर्पित आईपी बेंच ("आईपी डिवीजन") की स्थापना की गई, जो कि आईपीआर विवादों के त्वरित निपटान के लिए आईपीआर मोर्चे पर देश की अग्रणी अदालत है।
- भारतीय पेटेंट कार्यालय के बुनियादी ढांचे और ताकत में सुधार के लिए सचेत प्रयास किए जाते हैं ।
- ऐसा प्रतीत होता है कि देश की पेटेंट स्थापना ने एक बहुत ही अलग संदेश दिया है - यह क्रमशः सार्वजनिक स्वास्थ्य और राष्ट्रीय हित की कीमत पर फार्मास्युटिकल क्षेत्र में पेटेंट-मित्र के बजाय, पेटेंटधारक की मित्र साबित करने के लिए प्रति अधिक झुकी हुयी दिखाई देती है।
- विधायी सुरक्षागार्डों के बावजूद, पेटेंट एक्ट जो 1999 और 2005 के मध्य राष्ट्रीय हितों को सुरक्षित करने के लिए लाया गया था, यह 20 वर्षों के लिए उत्पाद पेटेंट देने के भारत के निर्णय को संतुलित करता हैI
- पेटेंट अधिनियम की धारा 3(डी), 53(4), और 107ए जैसे प्रावधान स्पष्ट रूप से 2002 और 2005 के बीच पेटेंट के गलत अभ्यास को रोकने के लिए पेश किए गए थे, जिनका फार्मास्युटिकल "इनोवेटर" कंपनियों ने संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे पेटेंट-अनुकूल न्यायालयों में सफलतापूर्वक सहारा लिया था ।
- भारतीय पेटेंट कार्यालय द्वारा मधुमेह, कैंसर, हृदय रोगों और अन्य गंभीर बीमारियों के उपचार से सम्बन्धित दवाओं पर पेटेंट को नवप्रवर्तक दवा के लिए कम्पनियों द्वारा प्रदान किया जाना जारी है।
- वे सामान्य निर्माताओं के वैधानिक अधिकारों की कीमत पर और रोगियों के नुकसान के लिए अदालतों के माध्यम से नियमित रूप से लागू होते हैं।
- नोवार्टिस एजी बनाम भारत संघ और अन्य (2013) मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू न करना भी चिंताजनक है, जिसमें शीर्ष अदालत ने अधिनियम की धारा 3(डी) को शामिल करने के पीछे विधायी मंशा पर प्रकाश डाला थाI जो अप्रासंगिक घटकों को जोड़कर या उनमें परिवर्तन कर (जो किसी भी तरह से दवा की चिकित्सीय प्रभावकारिता को नहीं बढ़ाता है।) दवा पर नवीन पेटेंट पाकर, पेटेंट पर एकाधिकार कर, सदाबहार पेटेंट प्राप्त करने से रोंकता हैI
- हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय पेटेंट कार्यालय और अधीनस्थ अदालतों दोनों से किसी के लिए भी कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकाल सका है, बल्कि यह जेनरिक संस्करणों के प्रवेश में देरी को बढ़ावा देता है।
- यह भारत जैसे देशों में रोगियों के लिए सस्ती दवाओं की उपलब्धता पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है, जहां अधिकांश मध्यम वर्ग या निम्न परिवार अस्पताल जाने के बाद अपनी मेहनत की कमाई खर्च कर गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन को बाध्य होते हैं।
- यह समझा जाना चाहिए कि पेटेंट अधिनियम जैसे आईपी विधान केवल आईपी अधिकार स्वामियों के लाभ के लिए नहीं हैं।
- पेटेंट अधिनियम में अंतर्निहित प्रतिदान का इच्छित लाभार्थी ( जिसे "पेटेंट समझौता" के रूप में जाना जाता है) वह समाज है जो बाजार के खिलाड़ियों के बीच गतिशील नवाचार-आधारित प्रतिस्पर्धा से लाभान्वित होने की उम्मीद करता है ।
- पेटेंट एकाधिकार, इनोवेटर्स को इस उम्मीद में दिया जाता है कि वे जनता के लिए कुछ नया, आविष्कारशील और औद्योगिक मूल्य प्रकट करते हैं, जिसे पेटेंट एकाधिकार की समाप्ति के बाद पेटेंट से लाइसेंस की आवश्यकता के बिना जनता उपयोग कर सकती है।
- सैद्धांतिक रूप में, पेटेंटकर्ताओं और समाज के बीच यह लेन-देन, सार्वजनिक डोमेन में ज्ञान के सामान्य पूल को बढ़ाता है।
- पेटेंट समझौते के पीछे अन्य आर्थिक धारणा यह है कि इससे बाजार के खिलाड़ियों के बीच नवाचार-संचालित प्रतिस्पर्धा शुरू होने की उम्मीद है, जिसके परिणामस्वरूप उपभोग करने वाली जनता के लिए गुणवत्तापूर्ण विकल्पों की सूची लम्बी हो गयी है।
- हालांकि, जब एक सदाबहार पेटेंट, पेटेंट कार्यालय द्वारा दिया जाता है और अदालतों द्वारा लागू किया जाता है, तो पेटेंट सौदा एक फौस्टियन सौदा (एक समझौता जिसमें एक व्यक्ति ज्ञान, धन या अन्य लाभ प्राप्त करने के लिए अपने आध्यात्मिक मूल्यों, या नैतिक सिद्धांतों को छोड़ देता है) बन जाता है क्योंकि इसके परिणामस्वरूप एकाधिकार की बीस साल की अवधि का अवैध विस्तार होता हैI
- यह, बदले में, बाजार में प्रतिस्पर्धा को कम करता है और पेटेंटकर्ताओं को समाज से, अनुमति से अधिक कमाने में सक्षम बनाता है।
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