प्रश्न.1. औपनिवेशिक काल के वन प्रबंधन में आए परिवर्तनों ने इन समूहों को कैसे प्रभावित किया :
(i) झूम खेती करने वालों को
झूम खेती करने वालों को बलपूर्वक वनों में उनके घरों से विस्थापित कर दिया गया। उन्हें अपने व्यवसाय बदलने पर मजबूर किया गया जबकि कुछ ने परिवर्तन का विरोध करने के लिए बड़े और छोटे विद्रोहों में भाग लिया।
(ii) घुमंतू और चरवाहा समुदायों को
उनके दैनिक जीवन पर नए वन कानूनों का बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। वन प्रबंधन द्वारा लाए गए बदलावों के कारण नोमड एवं चरवाहा समुदाय के लोग वनों में पशु नहीं चरा सकते थे, कंदमूल व फल एकत्र नहीं कर सकते थे और शिकार तथा मछली नहीं पकड़ सकते थे। यह सब गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था। इसके फलस्वरूप उन्हें लकड़ी चोरी करने को मजबूर होना पड़ता और यदि पकड़े जाते तो उन्हें वन रक्षकों को घूस देनी पड़ती। इनमें से कुछ समुदायों को अपराधी कबीले भी कहा जाता था।
(iii) लकड़ी और वन-उत्पादों का व्यापार करने वाली कंपनियों को
उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ तक इंग्लैण्ड में बलूत के वन लुप्त होने लगे थे जिसने शाही नौसेना के लिए लकड़ी की आपूर्ति की किल्लत पैदा कर दी। 1820 तक अंग्रेजी खोजी दस्ते भारत की। वन-संपदा का अन्वेषण करने के लिए भेजे गए। एक दशक के अंदर बड़ी संख्या में पेड़ों को काट डाला गया और बहुत अधिक मात्रा में लकड़ी का भारत से निर्यात किया गया। व्यापार पूर्णतया सरकारी अधिनियम के अंतर्गत संचालित किया जाता था। ब्रिटिश प्रशासन ने यूरोपीय कंपनियों को विशेष अधिकार दिए कि वे ही कुछ निश्चित क्षेत्रों में वन्य उत्पादों में व्यापार कर सकेंगे। लकड़ी/ वन्य उत्पादों का व्यापार करने वाली कुछ कंपनियों के लिए यह फायदेमंद साबित हुआ। वे अपने फायदे के लिए अंधाधुंध वन काटने में लग गए।
(iv) बागान मालिकों को
यूरोप में इन वस्तुओं की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए प्राकृतिक वनों के बड़े क्षेत्रों को चाय, कॉफी, रबड़ के बागानों के लिए साफ कर दिया गया। औपनिवेशी सरकार ने वनों पर अधिकार कर लिया और इनके बड़े क्षेत्रों को कम कीमत पर यूरोपीय बाग लगाने वालों को दे दिए। इन। क्षेत्रों की बाड़बंदी कर दी गई और वनों को साफ करके चाय व कॉफी के बाग लगा दिए गए। बागान के मालिकों ने मजदूरों को लंबे समय तक और वह भी कम मजदूरी पर काम करवा कर बहुत लाभ कमाया। नए वन्य कानूनों के कारण मजदूर इसका विरोध भी नहीं कर सकते थे क्योंकि यही उनकी आजीविका कमाने का एकमात्र जरिया था।
(v) शिकार खेलने वाले राजाओं और अंग्रेज अफसरों को
ब्रिटिश लोग बड़े जानवरों को खतरनाक समझते थे और उनको विश्वास था कि खतरनाक जानवरों को मार कर वे भारत को सभ्य बनाएँगे। वे बाघ, भेड़िये और अन्य बड़े जानवरों को मारने पर यह कह कर इनाम देते थे कि वे किसानों के लिए खतरा थे। परिणामस्वरूप खतरनाक जंगली जानवरों के शिकार को प्रोत्साहित किया गया जैसे कि बाघ और भेड़िया आदि। 80,000 बाघ, 1,50,000 तेंदुए और 2,00,000 भेड़िए 1875 से 1925 की अवधि के दौरान इनाम के लिए मार डाले गए। सरगुजा के महाराज ने सन् 1957 तक अकेले ही 1,157 बाघों और 2,000 तेंदुओं का शिकार किया था। एक अंग्रेजी प्रशासक जॉर्ज यूल ने 400 बाघों का शिकार किया।
प्रश्न.2. बस्तर और जावा के औपनिवेशिक वन प्रबंधन में क्या समानताएँ हैं?
बस्तर में वन प्रबंधन अंग्रेजों के हाथों में और जावा में डचों के हाथों में था। किन्तु दोनों सरकारों का उद्देश्य एक ही था।
दोनों ही सरकारें अपनी जरूरतों के लिए लकड़ी चाहती थीं और उन्होंने अपने एकाधिकार के लिए काम किया। दोनों ने ही ग्रामीणों को घुमंतू खेती करने से रोका। दोनों ही औपनिवेशिक सरकारों ने स्थानीय समुदायों को विस्थापित करके वन्य उत्पादों का पूर्ण उपयोग कर उनको पारंपरिक आजीविका कमाने से रोका।
बस्तर के लोगों को आरक्षित वनों में इस शर्त पर रहने दिया गया कि वे लकड़ी का काम करने वाली कंपनियों के लिए काम मुफ्त में किया करेंगे। इसी प्रकार के काम की माँग जावा में ब्लैन्डाँगडिएन्स्टेन प्रणाली के अंतर्गत पेड़ काटने और लकड़ी ढोने के लिए ग्रामीणों से की गई।
जब दोनों स्थानों पर जंगली समुदायों को अपनी जमीन छोड़नी पड़ी तो विद्रोह हुआ जिन्हें अंततः कुचल दिया गया। जिस प्रकार 1770 में जावा में कलंग विद्रोह को दबा दिया गया उसी प्रकार 1910 में बस्तर का विद्रोह भी अग्रेजों द्वारा कुचल दिया गया।
प्रश्न.3. सन् 1880 से 1920 के बीच भारतीय उपमहाद्वीप के वनाच्छादित क्षेत्र में 97 लाख हेक्टेयर की गिरावट आयी। पहले के 10.86 करोड़ हेक्टेयर से घटकर यह क्षेत्र 9.89 करोड़ हेक्टेयर रह गया था। इस गिरावट में निम्नलिखित कारकों की भूमिका बताएँ।
(i) रेलवे
1850 में रेलवे के विस्तार ने एक नई माँग को जन्म दिया। औपनिवेशिक व्यापार एवं शाही सैनिक टुकड़ियों के आवागमन के लिए रेलवे आवश्यक था। रेल के इंजन चलाने के लिए इंधन के तौर पर एवं रेलवे लाइन बिछाने के लिए स्लीपर (लकड़ी के बने हुए) जो कि पटरियों को उनकी जगह पर बनाए रखने के लिए आवश्यक थे, सभी के लिए लकड़ी चाहिए थी। 1860 के दशक के बाद से रेलवे के जाल में तेजी से विस्तार हुआ। जैसे-जैसे रेलवे पटरियों का भारत में विस्तार हुआ, अधिकाधिक मात्रा में पेड़ काटे गए। 1850 के दशक में अकेले मद्रास प्रेसीडेंसी में स्लीपरों के लिए 35,000 पेड़ सालाना काटे जाते थे। आवश्यक संख्या में आपूर्ति के लिए सरकार ने निजी ठेके दिए। इन ठेकेदारों ने बिना सोचे-समझे पेड़ काटना शुरू कर दिया और रेल लाइनों के इर्द-गिर्द जंगल तेजी से गायब होने लगे।
(ii) जहाज़ निर्माण
उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ तक इंग्लैण्ड में बलूत के जंगल गायब होने लगे थे जिसने अंततः शाही जल सेना के लिए लकड़ी की आपूर्ति में समस्या पैदा कर दी। समुद्री जहाजों के बिना शाही सत्ता को बचाए एवं बनाए रखना कठिन हो गया था। इसलिए, 1820 तक अंग्रेजी खोजी दस्ते भारत की वन-संपदा का अन्वेषण करने के लिए भेजे गए। एक दशक के अंदर बड़ी संख्या में पेड़ों को काट डाला गया और बहुत अधिक मात्रा में लकड़ी को भारत से निर्यात किया गया।
(iii) कृषि विस्तार
उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में औपनिवेशिक सरकार ने सोचा कि वन अनुत्पादक थे। वनों की भूमि को व्यर्थ समझा जाता था जिसे जुताई के अधीन लाया जाना चाहिए ताकि उस भूमि से राजस्व और कृषि उत्पादों को पैदा किया जा सकता था और इस तरह राज्य की आय में बढ़ोतरी की जा सकती थी। यही कारण था कि 1880 से 1920 के बीच खेती योग्य भूमि के क्षेत्रफल में 67 लाख हेक्टेयर की वृद्धि हुई।
उन्नीसवीं सदी में बढ़ती शहरी जनसंख्या के लिए वाणिज्यिक फसलों जैसे कि जूट, चीनी, गेहूँ। एवं कपास की माँग बढ़ गई और औद्योगिक उत्पादन के लिए कच्चे माल की जरूरत पड़ी। इसलिए अंगेजों ने सीधे तौर पर वाणिज्यिक फसलों को बढ़ावा दिया। इस प्रकार भूमि को जुताई के अंतर्गत लाने के लिए वनों को काट दिया गया।
(iv) व्यावसायिक खेती
वाणिज्यिक वानिकी में प्राकृतिक वनों में मौजूद विभिन्न प्रकार के पेड़ों को काट दिया गया। प्राचीन वनों के विभिन्न प्रकार के पेड़ों को उपयोगी नहीं माना गया। उनके स्थान पर एक ही प्रकार के पेड़ सीधी लाइन में लगाए गए। इन्हें बागान कहा जाता है। वन अधिकारियों ने जंगलों का सर्वेक्षण किया, विभिन्न प्रकार के पेड़ों के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र का आंकलन किया और वन प्रबंधन के लिए कार्ययोजना बनाई। उन्होंने यह भी तय किया कि बागान का कितना क्षेत्र प्रतिवर्ष काटा जाए। इन्हें काटे जाने के बाद इनका स्थान “व्यवस्थित वन लगाए जाने थे। कटाई के बाद खाली जमीन पर पुनः पेड़ लगाए जाने थे ताकि कुछ ही वर्षों में यह क्षेत्र पुनः कटाई के लिए। तैयार हो जाए।
(v) चाय-कॉफी के बगान
यूरोप में इन वस्तुओं की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए प्राकृतिक वनों के बड़े क्षेत्रों को चाय, कॉफी, रबड़ के बागानों के लिए साफ कर दिया गया। औपनिवेशी सरकार ने वनों पर अधिकार कर लिया और इनके बड़े क्षेत्रों को कम कीमत पर यूरोपीय बाग लगाने वालों को दे दिए। इन। क्षेत्रों की बाड़बंदी कर दी गई और वनों को साफ करके चाय व कॉफी के बाग लगा दिए गए। बागान के मालिकों ने मजदूरों को लंबे समय तक और वह भी कम मजदूरी पर काम करवा कर बहुत लाभ कमाया। घुमंतू खेती करने वाले जले हुए वनों की जमीन पर बीज बो देते और पुनः पेड़ उगाते। जब ये चले जाते तो वनों की देखभाल करने के लिए कोई भी नहीं बचता था, एक ऐसी चीज जो इन्होंने अपने पैतृक गाँव में प्राकृतिक रूप से की होती थी।
(vi) आदिवासी और किसान
वे सामान्यतः घुमंतू खेती करते थे जिसमें वनों के हिस्सों को बारी-बारी से काटा एवं जलाया जाता है। मानसून की पहली बरसात के बाद राख में बीज बो दिए जाते हैं। यह प्रक्रिया वनों के लिए हानिकारक थी। इसमें हमेशा जंगल की आग का खतरा बना रहता था,
प्रश्न.4. युद्ध से जंगल क्यों प्रभावित होते हैं?
युद्धों से वनों पर कई कारणों से प्रभाव पड़ता है :
(i) भारत में वन विभाग ने ब्रिटेन की लड़ाई की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अंधाधुंध वन काटे। इस अंधाधुंध विनाश एवं राष्ट्रीय लड़ाई की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वनों की कटाई वनों को प्रभावित करती है क्योंकि वे बहुत तेजी से खत्म होते हैं जबकि ये | दोबारा पैदा होने में बहुत समय लेते हैं।
(ii) जावा में जापानियों के कब्जा करने से पहले, डचों ने ‘भस्म कर भागो नीति अपनाई जिसके तहत आरा मशीनों और सागौन के विशाल लट्ठों के ढेर जला दिए गए जिससे वे जापानियों के हाथ न लगें। इसके बाद जापानियों ने वन्य-ग्रामवासियों को जंगल काटने के लिए बाध्य करके वनों का अपने युद्ध कारखानों के लिए निर्ममता से दोहन किया। बहुत से गाँव वालों ने इस अवसर का लाभ उठा कर जंगल में अपनी खेती का विस्तार किया। युद्ध के बाद इंडोनेशियाई वन सेवा के लिए इन जमीनों को वापस हासिल कर पाना कठिन था।
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