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आधुनिक विश्व में चरवाहे (Pastoralists in the Modern World) NCERT Solutions | NCERT Textbooks in Hindi (Class 6 to Class 12) - UPSC PDF Download

प्रश्न.1. स्पष्ट कीजिए कि घुमंतू समुदायों को बार-बार एक जगह से दूसरी जगह क्यों जाना पड़ता है? इस निरंतर आवागमन से पर्यावरण को क्या लाभ हैं?

घुमंतू समुदाय या खानाबदोश वे लोग हैं जो एक स्थान पर टिक कर नहीं रहते अपितु अपनी आजीविका के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते हैं। हम जानते हैं कि उनका जीवन मुख्यतः उनके पशुओं पर आधारित है। क्योंकि पूरे वर्ष किसी क्षेत्र में पर्याप्त मात्रा में पानी और चारा उपलब्ध नहीं। हो सकता था, इसलिए अपने पशुओं के लिए पानी और चारा खोजने के लिए उन्हें अपने पशुओं के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना पड़ता था। जब तक एक स्थान पर चरागाह उपलब्ध रहती, तब तक वे उस स्थान पर रहते, इसके बाद वे नए क्षेत्र में चले जाते।
उनका निरंतर आवागमन निम्नलिखित कारणों से लाभदायक है।
(i) यह चरागाहों को पुनः हरा-भरा होने और उसके अति–चारण से बचाने में सहायता करता है क्योंकि चरागाहें अतिचारण एवं लंबे प्रयोग के कारण बंजर नहीं बनतीं।
(i) यह विभिन्न क्षेत्रों की चरागाहों के प्रभावशाली प्रयोग में सहायता करता है।
(iii) यह खानाबदोश कबीलों को बहुत से काम जैसे कि खेती, व्यापार एवं पशुपालन करने का अवसर | प्रदान करता है।
(iv) उनके पशु मृदा को खाद उपलब्ध कराने में सहायता करते हैं।


प्रश्न.2. इस बारे में चर्चा कीजिए कि औपनिवेशिक सरकार ने निम्नलिखित कानून क्यों बनाए? यह भी बताइए कि इन कानूनों से चरवाहों के जीवन पर क्या असर पड़ा?
(i) परती भूमि नियमावाली

परती भूमि नियमावली : अंग्रेज सरकार चरागाहों की खेती की जमीन को अनुत्पादक मानती थी। यदि यह भूमि जुताई योग्य कृषि भूमि में बदल दी जाए तो खेती का क्षेत्रफल बढ़ने से सरकार की आय में और बढ़ोतरी हो सकती थी। इसके साथ ही इससे जूट (पटसन), कपास, गेहूं और अन्य खेतिहर चीजों के उत्पादन में भी वृद्धि हो जाती जिनकी इंग्लैंड में बहुत अधिक जरूरत रहती थी। सभी चरागाहों को अंग्रेज सरकार परती भूमि मानती थी क्योंकि उससे उन्हें कोई लगान नहीं मिलता था। इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से देश के विभिन्न भागों में परती भूमि विकास के लिए नियम बनाए जाने लगे। इन नियमों की सहायता से सरकार गैर–खेतिहर जमीन को अपने अधिकार में लेकर कुछ विशेष लोगों को सौंपने लगी। इन लोगों को विभिन्न प्रकार की छूट प्रदान की गईं और ऐसी भूमि पर खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। इनमें से कुछ लोगों को इस नई जमीन पर बसे गाँव का मुखिया बना दिया गया। इस तरह कब्जे में ली गई ज्यादातर जमीन चरागाहों की थी जिनका चरवाहे नियमित रूप से इस्तेमाल किया करते थे। इस तरह खेती के फैलाव से चरागाह सिमटने लगे जिसने चरवाहों के जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव डाला।

(ii) वन अधिनियम

उन्नीसवीं सदी के मध्य तक अलग-अलग प्रांतों में विभिन्न वन अधिनियम बनाए गए। जिसके अनुसार जंगलों को दो श्रेणियों में बाँट दिया गया :
आरक्षित वन : कुछ जंगल जो वाणिज्यिक रूप से कीमती लकड़ी जैसे कि देवदार एवं साल के पेड़ पैदा करते थे उन्हें ‘आरक्षित’ घोषित कर दिया गया था। चरवाहों का इन जंगलों में प्रवेश वर्जित था।
संरक्षित वन : इन वनों में चरवाहों को कुछ पारंपरिक अधिकार दिए गए थे लेकिन उनकी आवाजाही पर फिर भी बहुत से प्रतिबंध लगे हुए थे। चरवाहों को सरकार से अनुमति लेनी पड़ती थी। सरकार ने इन नियमों को इसलिए लागू किया क्योंकि यह सोचती थी कि इनके पशु वन की जमीन पर मौजूद छोटे पौधों को कुचल देते हैं और कोंपलों को खा जाते हैं। अब चरवाहों के लिए अपने पशुओं को वन-क्षेत्र में चराना बहुत कठिन हो गया। उनके पशुओं के लिए पर्याप्त चारा खोजना भी कठिन हो गया था। जंगलों में प्रवेश करने से पहले उन्हें सरकार से अनुमति लेनी पड़ती थी और अगर वे समय-सीमा का उल्लंघन करते थे तो उन पर जुर्माना लगा दिया जाता था।

(iii) अपराधी जनजाति अधिनियम

अंग्रेज सरकार खानाबदोश लोगों को संदेह की दृष्टि से देखती थी और उनके घुमक्कड़पन के कारण उनका अनादर करती थी। वे गाँव- गाँव जाकर बेचने वाले कारीगरों व व्यापारियों और अपने रेवड़ के लिए हर साल नए-नए चरागाहों की तलाश में रहने वाले, हर मौसम में अपनी रिहाइश बदल लेने वाले चरवाहों पर यकीन नहीं कर पाते थे। इसलिए औपनिवेशिक सत्ता खानाबदोश कबीलों को अपराधी मानती थी। 1871 में औपनिवेशिक सरकार ने अपराधी जनजाति अधिनियम (Criminal Tribes Act) पारित किया। इस कानून ने दस्तकारों, व्यापारियों और चरवाहों के बहुत सारे समुदायों को अपराधी समुदायों की सूची में रख दिया। वैध परमिट के बिना ऐसे समुदायों को उनके अधिसूचित गाँवों से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी। ग्राम्य पुलिस उन पर निरंतर नजर रखती थी।
इस अधिनियम ने उन्हें कुदरती और जन्मजात अपराधी घोषित कर दिया। इस अधिनियम के परिणामस्वरूप खानाबदोश समुदायों को उनके अधिसूचित गाँवों से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी और उन्हें कुछ खास अधिसूचित गाँवों/बस्तियों में बस जाने का आदेश दिया गया था। यह अधिनियम इन खानाबदोश समुदायों की घुमंतू क्रियाओं पर बहुत घातक प्रहार था।

(iv) चराई कर

अंग्रेज सरकार ने उन्नीसवीं सदी के मध्य में : चराई कर की शुरूआत की। ऐसा इसका राजस्व बढ़ाने के लिए किया गया था। भूमि, नदी के जल, नमक, व्यापार के सामान और यहाँ तक कि पशुओं पर भी कर लगा दिया गया था। किसी चराई क्षेत्र में घुसने से पहले किसी भी चरवाहे को अपना पास दिखाना पड़ता था और प्रत्येक पशु के लिए कर अदा करना पड़ता था। उसके पशुओं की संख्या और उसके द्वारा अदा किया गया कर उसके पास पर अंकित कर दिया जाता था। 1850 से 1880 के दशकों के बीच कर एकत्र करने के अधिकारों की ठेकेदारों में बोली लगा दी गई। ये ठेकेदार चरवाहों से अधिक कर वसूलने की कोशिश करते थे। 1880 तक सरकार चरवाहों से सीधे कर वसूलने लगे। अपनी आय बढ़ाने के लिए औपनिवेशिक सरकार ने पशुओं पर भी कर लगा दिए । परिणामस्वरूप चरवाहों को चरागाहों में चरने वाले प्रत्येक जानवर के लिए कर देना पड़ता था। चरवाहों को उच्च दरों पर कर देने कारण भी बहुत नुकसान होता था जो कि ठेकेदार अपने निजी लाभ के लिए उनसे वसूल करते थे। यह उनके लिए बहुत अधिक नुकसानदायक सिद्ध हुई।


प्रश्न.3. मासाई समुदाय के चरागाह उससे क्यों छिन गए? कारण बताएँ।

अफ्रीका में औपनिवेशिक शासन स्थापित हो जाने के कारण मासाई समुदाय के चरागाह उससे छिन गए। अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं तथा बंदिशों ने उनकी चरवाही एवं व्यापारिक दोनों ही गतिविधियों को बुरी तरह प्रभावित किया।
मासाई समुदाय के अधिकतर चरागाह उस समय छिन गए जब यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियों ने अफ्रीका को 1885 में विभिन्न उपनिवेशों में बाँट दिया श्वेतों के लिए बस्तियाँ बनाने के लिए मासाई लोगों की सर्वश्रेष्ठ चरागाहों को छीन लिया गया और मासाई लोगों को दक्षिण केन्या एवं उत्तर तंजानिया के छोटे से क्षेत्र में धकेल दिया गया। उन्होंने अपनी चरागाहों का लगभग 60 प्रतिशत भाग खो दिया। औपनिवेशिक सरकार ने उनके आवागमन पर विभिन्न बंदिशें लगाना प्रारंभ कर दिया। चरवाहों को भी विशेष आरक्षित स्थानों में रहने के लिए बाध्य किया गया। विशेष परमिट के बिना उन्हें इन सीमाओं से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी।
क्योंकि मासाई लोगों को एक निश्चित क्षेत्र में सीमित कर दिया गया था, इसलिए वे सर्वश्रेष्ठ चरागाहों से कट गए और एक ऐसी अर्ध-शुष्क पट्टी में रहने पर मजबूर कर दिया गया जहाँ सूखे की आशंका हमेशा बनी रहती थी।
उन्नीसवीं सदी के अंत में पूर्व अफ्रीका में औपनिवेशिक सरकार ने स्थानीय किसान समुदायों को अपनी खेती की भूमि बढाने के लिए प्रोत्साहित किया। जिसके परिणामस्वरूप मासाई लोगों की चरागाहें खेती की जमीन में तबदील हो गए।
मासाई लोगों के रेवड़ चराने के विशाल क्षेत्रों को शिकारगाह बना दिया गया (उदाहरणतः कीनिया में मासाई मारा व साम्बूरू नैशनल पार्क और तंजानिया में सेरेन्गेटी पार्क। इन आरक्षित जंगलों में चरवाहों का आना मना था। वे इन इलाकों में न तो शिकार कर सकते थे और न अपने जानवरों को ही चरा सकते थे। 14,760 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला सेरेनगेटी नैशनल पार्क भी मासाइयों के चरागाहों पर कब्जा करके बनाया गया था।


प्रश्न.4. आधुनिक विश्व ने भारत और पूर्वी अफ्रीकी चरवाहा समुदायों के जीवन में जिन परिवर्तनों को जन्म दिया उनमें कई समानताएँ थीं। ऐसे दो परिवर्तनों के बारे में लिखिए जो भारतीय चरवाहों और मसाई गड़रियों, दोनों के बीच समान रूप से मौजूद थे।

क्योंकि भारत और पूर्वी अफ्रीका दोनों ही यूरोपीय साम्राज्यवादी ताकतों के अधीन थे, इसलिए उनके शोषण का तरीका भी एक जैसा ही था।
(i) भारत और पूर्वी अफ्रीका के चरवाहा समुदाय खानाबदोश थे और इसलिए उन पर शासन करने वाली औपनिवेशिक शक्तियाँ उन्हें अत्यधिक संदेह की दृष्टि से देखती थीं। यह उनके और अधिक पतन का कारण बना।
(ii) दोनों स्थानों के चरवाहा समुदाय अपनी-अपनी चरागाहें कृषि भूमि को तरजीह दिए जाने के कारण खो बैठे। भारत में चरागाहों को खेती की जमीन में तबदील करने के लिए उन्हें कुछ चुनिंदा लोगों को दिया गया। जो जमीन इस प्रकार छीनी गई थी वे अधिकतर चरवाहों की चरागाहें थीं। ऐसे बदलाव चरागाहों के पतन एवं चरवाहों के लिए बहुत सी समस्याओं का कारण बन गए। इसी प्रकार अफ्रीका में भी मासाई लोगों की चरागाहें श्वेत बस्ती बसाने वाले लोगों द्वारा उनसे छीन ली गई और उन्हें खेती की जमीन बढ़ाने के लिए स्थानीय किसान समुदायों को हस्तांतरित कर दिया गया।
(iii) भारत और अफ्रीका दोनों में ही जंगलों को यूरोपीय शासकों द्वारा आरक्षित कर दिए गए और चरवाहों का इन जंगलों में प्रवेश निषेध कर दिया गया। ये आरक्षित जंगल इन दोनों देशों में अधिकतर उन क्षेत्रों में थे जो पारंपरिक रूप से खानाबदोश चरवाहों की चरागाह थे।
इस प्रकार, दोनों ही मामलों में औपनिवेशिक शासकों ने खेतीबाड़ी को प्रोत्साहन दिया जो अंततः चरवाहों की चरागाहों के पतन का कारण बनी।

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