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एक साम्राज्य की राजधानी : विजयनगर (An Imperial Capital: Vijayanagara) NCERT Solutions | NCERT Textbooks in Hindi (Class 6 to Class 12) - UPSC PDF Download

उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में)।

प्रश्न.1. पिछली दो शताब्दियों में हम्पी के भवनावशेषों के अध्ययन में कौन-सी पद्धतियों का प्रयोग किया गया है? आपके अनुसार यह पद्धतियाँ विरुपाक्ष मंदिर के पुरोहितों द्वारा प्रदान की गई जानकारी को किस प्रकार पूरक रहीं?

विजयनगर अर्थात् ‘विजय का शहर’ एक शहर तथा साम्राज्य दोनों के लिए प्रयुक्त नाम था। विजयनगर साम्राज्य की स्थापना 1336 ई० में हरिहर तथा बुक्का राय नामक दो भाइयों ने की थी। 1565 ई० में तालीकोटा के युद्ध के परिणामस्वरूप होने वाली भयंकर लूटपाट के कारण विजयनगर निर्जन हो गया था। 17वीं-18वीं शताब्दियों तक पहुँचते-पहुँचते यह नगर पूरी तरह से विनाश को प्राप्त हो गया, फिर भी कृष्णा-तुंगभद्री दोआब क्षेत्र के निवासियों की स्मृतियों में यह जीवित बना रहा। उन्होंने इसे हम्पी नाम से याद रखा। आधुनिक कर्नाटक राज्य का एक प्रमुख पर्यटन स्थल है, जिसे 1976 ई० में राष्ट्रीय महत्त्व के स्थान के रूप में मान्यता मिली। हम्पी के भग्नावशेषों के अध्ययन में पिछली दो शताब्दियों में अनेक पद्धतियों का प्रयोग किया गया है।
(i) हम्पी के भग्नावशेषों के अध्ययन में सर्वप्रथम सर्वेक्षण विधि का प्रयोग किया गया। 1800 ई० में ब्रिटिश इस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में नियुक्त एक अभियंता एवं पुराविद् कर्नल कॉलिन मैकेन्जी द्वारा हम्पी के भग्नाशेषों की ओर ध्यान आकर्षित किया गया। उन्होंने इस स्थान का पहला सर्वेक्षण मानचित्र बनाया।
(ii) कालान्तर में छाया चित्रकारों में हम्पी के भवनों के चित्रों का संकलन प्रारंभ कर दिया। 1856 ई० में अलेक्जेंडर ग्रनिलों ने हम्पी के पुरातात्त्विक अवशेषों के पहले विस्तृत चित्र लिए। इसके परिणामस्वरूप शोधकर्ता उनकी अध्ययन करने में समर्थ हो गए।
(iii) हम्पी की खोज में अभिलेखकर्ताओं ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। अभिलेखकर्ताओं ने 1836 ई० से ही यहाँ और हम्पी के मन्दिरों से दर्जनों अभिलेखों को एकत्र करना प्रारंभ कर दिया था।
(iv) हम्पी के भग्नावशेषों के अध्ययन में विदेशी यात्रियों के वृत्तान्तों का भी अध्ययन किया गया। इतिहासकारों ने इन स्रोतों का विदेशी यात्रियों के वृत्तांतों और तेलुगु, कन्नड़, तमिल एवं संस्कृत में लिखे गए साहित्य से मिलान किया। इनसे उन्हें साम्राज्य के इतिहास के पुनर्निर्माण में महत्त्वपूर्ण सहायता मिली।
(v) 1876 ई० में जे०एफ० फ्लीट ने पुरास्थल के मंदिर की दीवारों के अभिलेखों का प्रलेखन प्रारंभ किया। विरुपाक्ष मन्दिर के पुरोहितों द्वारा प्रदत्त सूचनाओं की पुष्टि ।

नि:संदेह ये पद्धतियाँ विरुपाक्ष मन्दिर के पुरोहितों द्वारा प्रदत्त सूचनाओं की पूरक थीं। उल्लेखनीय है कि मैकेन्जी द्वारा प्राप्त प्रारंभिक जानकारियाँ विरुपाक्ष मन्दिर और पम्पा देवी के मन्दिर के पुरोहितों की स्मृतियों पर आधारित थीं। उदाहरण के लिए, स्थानीय परंपराओं से पता चलता है कि तुंगभद्रा नदी के किनारे से लगे शहर के उत्तरी भाग की पहाड़ियों में स्थानीय मातृदेवी पम्पा देवी ने राज्य के संरक्षक देवता और शिव के एक रूप विरुपाक्ष से विवाह के लिए तपस्या की थी। विरुपाक्ष पम्पा की तपस्या से प्रसन्न होकर उनके सामने प्रकट हुए और उन्हें हेमकूट में आने का निमंत्रण दिया। परिणय सूत्र में बँध जाने के बाद पम्पा ने विरुपाक्ष से अनुरोध किया कि उस स्थल का नामकरण उनके नाम के आधार पर किया जाए। विरुपाक्ष ने अनुरोध मान लिया और तब से इस स्थल का नाम पम्पा हो गया। हम्पी इसका बदला हुआ थानीय नाम है।
आज भी प्रतिवर्ष विरुपाक्ष मन्दिर में इस विवाह समारोह का आयोजन अत्यधिक धूमधाम से किया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि चिरकाल से यह क्षेत्र अनेक धार्मिक मान्यताओं से संबद्ध था।। विद्वान इतिहासकारों का विचार है कि विजयनगर के स्थान का चुनाव वहाँ विरुपाक्ष और पम्पा देवी के मन्दिरों के अस्तित्व से प्रेरित होकर ही किया गया था। हमें याद रखना चाहिए कि विजयनगर के शासक विरुपाक्ष देवता के प्रतिनिधि के रूप में शासन करने का दावा करते थे। विजयनगर के सभी राजकीय आदेशों पर सामान्यतः कन्नड़ लिपि में ‘श्री विरुपाक्ष’ लिखा होता था। समकालीन स्रोतों से पता लगता है कि विजयनगर के शासक ‘हिन्दु सूरतराणा’ की उपाधि धारण करते थे, जो देवताओं से उनके घनिष्ठ संबंधों की परिचायक थी।


प्रश्न.2. विजयनगर की जल-आवश्यकताओं को किस प्रकार पूरा किया जाता था?

विजयनगर की जल-आवश्यकताओं को मुख्य रूप में तुंगभद्रा नदी से निकलने वाली धाराओं पर बाँध बनाकर पूरा किया जाता था। बाँधों से विभिन्न आकार के हौज़ों का निर्माण किया जाता था। इस हौज के पानी से न केवल आस-पास के खेतों को सींचा जा सकता था बल्कि इसे एक नहर के माध्यम से राजधानी तक भी ले जाया जाता था। कमलपुरम् जलाशय नामक हौज़ सबसे महत्त्वपूर्ण हौज़ था। तत्कालीन समय के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण जल संबंधी संरचनाओं में से एक, हिरिया नहर के भग्नावशेषों को आज भी देखा जा सकता है। इस नहर में तुंगभद्रा पर बने बाँध से पानी लाया जाता था और इस धार्मिक केंद्र से शहरी केंद्र को अलग करने वाली घाटी को सिंचित करने में प्रयोग किया जाता था। इसके अलावा झील, कुएँ, बरसत के पानी वाले जलाशय तथा मंदिरों के जलाशय सामान्य नगरवासियों के लिए पानी की आवश्यकताओं को पूरा करते थे।


प्रश्न.3. शहर के किलेबन्द क्षेत्र में कृषि क्षेत्र को रखने के आपके विचार में क्या फायदे और नुकसान थे?

विजयनगर शहर की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता इसकी विशाल एवं सुदृढ़ किलेबंदी थी। किलेबंदी की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता | यह थी कि इनसे केवल शहर को ही नहीं अपितु खेती के कार्य में प्रयोग किए जाने वाले आस-पास के क्षेत्र और जंगलों को भी घेरा गया था। अब्दुल रज्जाक के विवरण से भी किलेबन्द कृषि क्षेत्रों की पुष्टि होती है। शहर के किलेबन्द क्षेत्र में कृषि क्षेत्र को रखने के कई लाभ और नुकसान थे।

लाभ
(i) मध्यकाल में विजय प्राप्ति में घेराबन्दियों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता था। घेराबन्दियों का प्रमुख उद्देश्य प्रतिपक्ष को खाद्य सामग्री से वंचित कर देना होता था ताकि वे विवश होकर आत्मसमर्पण करने को तैयार हो जाएँ। घेराबन्दियाँ कई-कई महीनों तक और यहाँ तक कि वर्षों तक चलती रहती थीं। इस स्थिति में बाहर से खाद्यान्नों का आना दुष्कर हो जाता था। किलेबन्द क्षेत्र में कृषि क्षेत्र को रखने के परिणामस्वरूप शहर को अनाज की कमी का सामना नहीं करना पड़ता था।
(ii) इसके परिणामस्वरूप घेराबन्दी के लम्बे समय तक चलने की स्थिति में भी जनता को भुखमरी से बचाया जा सकता था। अतिरिक्त अनाज को अन्नागारों में रख दिया जाता था जिसका प्रयोग आवश्यकता के समय किया जा सकता था। इस प्रकार, स्थानीय जनता को अनाज की उपलब्धि होती रहती थी।
(iii) इसके परिणामस्वरूप खेतों में खड़ी फसलें शत्रु द्वारा किए जाने वाले विनाश से बच जाती थीं।
(iv) खेतों के किलेबन्द क्षेत्र में होने के कारण प्रतिपक्ष की खाद्यान्न आपूर्ति संकट में पड़ जाती थी, जिससे घेराबन्दी को लम्बे समय तक खींचना कठिन हो जाता था और उसे विवशतापूर्वक घेराबन्दी को उठाना पड़ता था।

हानियाँ
(i) कृषिक्षेत्र को किलेबन्द क्षेत्र में रखने की व्यवस्था बहुत महँगी थी। राज्य को इस पर ज्यादा धने-राशि व्यय करनी पड़ती थी।
(ii) किलेबन्द क्षेत्र में कृषि क्षेत्र होने के परिणामस्वरूप घेराबन्दी की स्थिति में बाहर रहने वाले किसानों के लिए खेतों में काम करना कठिन हो जाता था।
(iii) घेराबन्दी की स्थिति में कृषि के लिए आवश्यक बीज, उर्वरक, यंत्र आदि को बाहर के बाजारों से लाना प्रायः कठिन हो जाता था।
(iv) यदि शत्रु किलेबन्द क्षेत्र में प्रवेश करने में सफल हो जाता था तो खेतों में खड़ी फसल उसके विनाश का शिकार बन जाती थी।


प्रश्न.4. आपके विचार में महानवमी डिब्बा से सम्बद्ध अनुष्ठानों का क्या महत्त्व था?

महानवमी डिब्बा से संबद्ध अनुष्ठान सितंबर एवं अक्टूबर के शरद महीनों में 10 दिनों तक मनाया जाने वाला हिंदू त्योहार था। इस अनुष्ठान को उत्तर भारत में दशहरा, बंगाल में दुर्गा पूजा और प्रायद्वीपीय भारत में महानवमी के नाम से निष्पादित किए जाते थे। इस अवसर पर विजयनगर के शासक अपने रुतबे, ताकत तथा सत्ता की शक्ति का प्रदर्शन करते थे।
इस अवसर पर होने वाले अनुष्ठानों में मूर्तिपूजा, अश्व-पूजा के साथ-साथ भैंसों तथा अन्य जानवरों की बलि दी जाती थी। नृत्य, कुश्ती प्रतिस्पर्धा तथा घोड़ों, हाथियों तथा रथों व सैनिकों की शोभा यात्राएँ निकाली जाती थीं। साथ ही, प्रमुख नायकों और अधीनस्थ राजाओं द्वारा राजा को प्रदान की जाने वाली औपचारिक भेंट इस अवसर के प्रमुख आकर्षण थे। त्योहार के अंतिम दिन राजा सेनाओं का निरीक्षण करता था। साथ ही नए सिरे से कर निर्धारित किए जाते थे।


प्रश्न.5. चित्र 7.1 विरुपाक्ष मंदिर के एक अन्य स्तंभ का रेखाचित्र है। क्या आप कोई पुष्प-विषयक रूपांकन देखते हैं? किन जानवरों को दिखाया गया है? आपके विचार में उन्हें क्यों चित्रित किया गया है? मानव आकृतियों का वर्णन कीजिए।
एक साम्राज्य की राजधानी : विजयनगर (An Imperial Capital: Vijayanagara) NCERT Solutions | NCERT Textbooks in Hindi (Class 6 to Class 12) - UPSC

विरुपाक्ष मन्दिर के इस स्तम्भ को ध्यानपूर्वक देखने से पता लगता है कि इस स्तम्भ में अनेक पुष्पों के चित्रों के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षियों की आकृतियों को भी चित्रित किया गया है। इसमें मोर, घोड़ा जैसे पक्षियों और पशुओं की आकृतियाँ स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। ऐसा लगता है कि इस समय मन्दिर धार्मिक, सांस्कृतिक एवं अन्य गतिविधियों के केंद्र बिन्दु थे। मन्दिरों को अनेक प्रकार के चित्रों से सजाया जाता था। स्तम्भ पर की गई चित्रकारी को देखकर लगता है कि उस समय यह कला विशेष रूप से उन्नत थी। स्तम्भ पर बने चित्रों से स्पष्ट होता है कि उस समय मूर्तिपूजा का प्रचलन था। मन्दिरों में अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियों की पूजा की जाती थी। अनेक पशु-पक्षियों; जैसे-सिंह, मोर, उल्लू, गुरुड़ आदि को देवी-देवताओं के वाहन चित्र 71 . विरुपाक्ष मन्दिर का स्तम्भ मानकर उनकी भी पूजा की जाती थी।
वैष्णव धर्म और शैव धर्म उस समय के लोकप्रिय धर्म थे। वैष्णव धर्म में परमेश्वर के रूप में विष्णु की पूजा-आराधना की जाती थी। अवतारवाद की भावना–वैष्णव धर्म की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। इसमें विष्णु के अवतारों की पूजा पर बल दिया जाता था। यह विश्वास किया जाता था कि, जब-जब धरती पर पाप बढ़ जाते हैं और धर्म संकट में पड़ जाता है, तब-तब धरती और मानवता की रक्षा के लिए विष्णु अवतार लेते हैं। वैष्णव धर्म की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता विष्णु की पत्नी के रूप में लक्ष्मी अथवा श्री की परिकल्पना किया जाना था। लक्ष्बी की पूजा-आराधना धन-सम्पन्नता और समृद्धि की देवी के रूप में की जाती थी। शैव धर्म के साथ-साथ शाक्त, कार्तिकेय और गणपति जैसे सम्प्रदाय भी इस काल में पर्याप्त लोकप्रिय थे। वस्तुतः धार्मिक सहनशीलता इस काल की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में)

प्रश्न.6. ‘शाही केंन्द्र’ शब्द शहर के किस भाग के लिए प्रयोग किए गए हैं, क्या वे उस भाग का सही वर्णन करते हैं?

विशाल एवं सुदृढ़ किलेबन्दी विजयनगर शहर की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। हमें इस शहर की तीन-तीन किलेबंदियों का उल्लेख मिलता है। पहली किलेबन्दी के द्वारा केवल शहर को ही नहीं अपितु खेती के कार्य में प्रयोग किए जाने वाले आस-पास का क्षेत्र और जंगलों को भी घेरा गया था। सबसे बाहरी दीवार के द्वारा शहर के चारों ओर की पहाड़ियों को परस्पर जोड़ दिया गया था। दूसरी किलेबन्दी को नगरीय केन्द्र के आंतरिक भाग के चारों ओर किया गया था। एक तीसरी किलेबन्दी शासकीय केन्द्र अथवा ‘शाही केन्द्र’ के चारों ओर की गई थी। इसमें सभी महत्त्वपूर्ण इमारतें अपनी ऊँची चहारदीवारी से घिरी हुई थीं। शाही केन्द्र बस्ती के दक्षिण-पश्चिमी भाग में स्थित था। उल्लेखनीय है कि ‘शाही केन्द्र’ शब्द का प्रयोग शहर के एक भाग विशेष के लिए किया गया है। इसमें 60 से भी अधिक मंदिर और लगभग 30 महलनुमा संरचनाएँ थीं।
इन संरचनाओं और मन्दिरों के मध्य एक महत्त्वपूर्ण अंतर यह था कि मन्दिरों का निर्माण पूर्ण रूप से ईंट-पत्थरों से किया गया था, किंतु धर्मेतर भवनों के निर्माण में विकारी वस्तुओं का प्रयोग किया गया था। यह भी याद रखा जाना चाहिए कि, ये संरचनाएँ अपेक्षाकृत बड़ी थीं और इनका प्रयोग आनुष्ठानिक कार्यों के लिए नहीं किया जाता था। अंतः क्षेत्र में सर्वाधिक विशाल संरचना, ‘राजा का भवन’ है, किंतु पुरातत्वविदों को इसके राजकीय आवास होने का कोई सुनिश्चित साक्ष्य उपलब्ध नहीं हुआ है। इसमें दो सर्वाधिक प्रभावशाली मंच हैं, जिन्हें सामान्य रूप से ‘सभामंडप’ और ‘महानवमी डिब्बा’ के नाम से जाना जाता है। सभामंडप एक ऊँचा मंच है। इसमें लकड़ी के स्तंभों के लिए पास-पास और निश्चित दूरी पर छेद बनाए गए हैं। इन स्तंभों पर दूसरी मंजिल को टिकाया गया था। दूसरी मंजिल तक पहुँचने के लिए सीढ़ी का निर्माण किया गया था।
महानवमी डिब्बा एक विशाल मंच है जिसका निर्माण शहर के सबसे अधिक ऊँचे स्थानों में से एक पर किया गया था। इसमें एक वार्षिक राजकीय अनुष्ठान किया जाता था जो सितंबर और अक्टूबर के शरद मासों में इस दिन तक चलता रहता था। शाही केन्द्र में अनेक भव्य महल स्थित थे। इनमें से सर्वाधिक सुंदर भवन लोटस महल अथवा कमल महल था। यह नामकरण इस महल की सुंदरता एवं भव्यता से प्रभावित होकर अंग्रेज़ यात्रियों द्वारा किया गया था। संभवतः यह एक परिषद भवन था, जहाँ राजा और उसके परामर्शदाता विचार-विमर्श के लिए मिलते थे। कमल महल के समीप ही हाथियों का विशाल फीलखाना। (हाथियों के रहने का स्थान) था। शाही केन्द्र में अनेक सुंदर मन्दिर थे। इनमें से एक अत्यधिक सुंदर मंदिर हज़ार राम मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है।

‘शाही केंन्द्र’ शब्द का औचित्य :

कुछ विद्वानों का विचार है कि इस स्थान पर इतनी विशाल संख्या में मन्दिर मिले हैं कि इसे संभवत: ‘शाही केंन्द्र’ का नाम देना उचित प्रतीत नहीं होता। किंतु यदि हम निष्पक्षतापूर्वक तथ्यों का अध्ययन करते हैं तो यह भली-भाँति स्पष्ट हो जाता है कि ‘शाही केन्द्र’ शब्द का शहर के एक भाग विशेष के लिए प्रयोग किया जाना सही है। हमें याद रखना चाहिए कि धर्म और धार्मिक वर्गों की विजयनगर साम्राज्य के राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। धर्म की कठोर पालना का सिद्धांत विजयनगर साम्राज्य का एक प्रमुख अवयव एवं विशिष्ट लक्षण था।
विजयनगर के शासक इन देव स्थलों में प्रतिष्ठित देवी-देवताओं से संबंध के माध्यम से अपनी सत्ता को स्थापित करने और वैधता प्रदान करने का प्रयास कर रहे थे। अतः मन्दिरों और संप्रदायों को संरक्षण प्रदान करना उनकी प्रशासकीय नीति का एक महत्त्वपूर्ण अंग बन गया था। इसीलिए शाही केन्द्र में भी अनेक मंदिरों की स्थापना की गई थी। संभवत: हज़ार राम मन्दिर का निर्माण केवल राजा और राजपरिवार के सदस्यों के लिए किया गया था और इसीलिए इसकी स्थापना शाही केंन्द्र में की गई थी।


प्रश्न.7. कमल महल और हाथियों के अस्तबल जैसे भवनों का स्थापत्य हमें उनके बनवाने वाले शासकों के विषय में क्या बताता है?

विजयनगर के लगभग सभी शासकों की स्थापत्य कला में विशेष रुचि थी। मध्यकालीन अधिकांश राजधानियों के समान विजयनगर की संरचना में भी विशिष्ट भौतिक रूपरेखा तथा स्थापत्य शैली परिलक्षित होती है। अनेक पर्वतश्रृंखलाओं के मध्य स्थित विजयनगर एक विशाल शहर था। इसमें अनेक भव्य महल, सुन्दर आवास-स्थान, उपवन और झीलें थीं जिनके कारण नगर देखने में अत्यधिक आकर्षक एवं मनमोहक लगता था। बस्ती के दक्षिण-पश्चिमी भाग में शाही केन्द्र स्थित था जिसमें अनेक महत्त्वपूर्ण भवनों को बनाया गया था। लोटस महल अथवा कमल महल और हाथियों का अस्तबल इसी प्रकार की दो महत्त्वपूर्ण संरचनाएँ थीं। इन दोनों संरचनाओं से हमें उनके निर्माता शासकों की अभिरुचियों एवं नीतियों के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलती है। शाही केन्द्र के भव्य महलों में सर्वाधिक सुन्दर कमल महल था।
यह नामकरण इस महल की सुंदरता एवं भव्यता से प्रभावित होकर अंग्रेज़ यात्रियों द्वारा किया गया था। स्थानीय रूप से इस महल को चित्तरंजनी-महल के नाम से जाना जाता है। यह दो मंज़िलों वाला एक खुला चौकोर मंडप है। नीचे की मंज़िल में पत्थर का एक सुसज्जित अधिष्ठान है। ऊपर की मंज़िल में खिड़कियों वाले कई सुन्दर झरोखे हैं। कमल महल में नौ मीनारें थीं। बीच में सबसे ऊँची मीनार थी और आठ मीनारें उसकी भुजाओं के साथ-साथ थीं। महल की मेहराबों में इंडो-इस्लामी तकनीकों का स्पष्ट प्रभाव था, जो विज़यनगर शासकों की धर्म-सहनशीलता की नीति का परिचायक है। अभी तक विद्वान इतिहासकार इस विषय पर एकमत नहीं हो सके हैं कि इस महल का निर्माण किस प्रयोजन अथवा कार्य के लिए किया गया था।
संभवत: यह एक परिषद भवन था, जहाँ राजा और उसके परामर्शदाता विचार-विमर्श के लिए मिलते थे। हाथियों का विशाल फीलखाना (हाथियों का अस्तबल अथवा रहने का स्थान) कमल महल के समीप ही स्थित था। फीलखाना की विशालता से स्पष्ट होता है कि विजय नगर के शासक अपनी सेना में हाथियों को अत्यधिक महत्त्व देते थे। उनकी विशाल एवं सुसंगठित सेना में हाथियों की पर्याप्त संख्या थी। फीलखाना की स्थापत्य कला शैली पर इस्लामी स्थापत्य कला शैली का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इसके निर्माण में भारतीय इस्लामी स्थापत्य कला शैली का अनुसरण किया गया है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि विजय नगर के शासक धार्मिक दृष्टि से उदार एवं सहनशील थे।


प्रश्न.8. स्थापत्य की कौन-कौन सी परम्पराओं ने विजयनगर के वस्तुविदों को प्रेरित किया? उन्होंने इन परम्पराओं में किस प्रकार बदलाए किए?
अथवा किन्हीं दो स्थापत्य परंपराओं का उल्लेख कीजिए जिन्होंने विजयनगर के वास्तुविदों को प्रेरित किया। उन्होंने इन परंपराओं का मंदिर स्थापत्य में किस प्रकार प्रयोग किया? स्पष्ट किजिए।

विजयनगर के लगभग सभी शासकों की स्थापत्यकला में विशेष अभिरुचि थी। अतः उनके शासनकाल में स्थापत्यकला का विशेष विकास हुआ। स्थापत्य की परम्परागत सभी परम्पराओं ने विजयनगर के वास्तुविदों को प्रभावित किया, किन्तु उन्होंने आवश्यकता एवं समय के अनुसार इन परम्पराओं में अनेक परिवर्तन भी किए। विजयनगर अर्थात् ‘विजय का शहर’ एक शहर और राज्य दोनों के लिए प्रयुक्त नाम था। कृष्णदेव राय विजयनगर का महानतम शासक था। उसके काल में स्थापत्यकला का विशेष विकास हुआ। उसने अपनी माता के नाम पर विजयनगर के निकट नगलपुरम् नामक उपनगर की स्थापना की, जिसमें उसने अनेक भव्य भवनों एवं मंदिरों का निर्माण करवाया। उल्लेखनीय है कि विजयनगर साम्राज्य के राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन में धर्म और धार्मिक वर्गों का महत्त्वपूर्ण स्थान था।
राजा स्वयं को देवता विशेष का प्रतिनिधि बताते थे और स्वयं को ईश्वर से जोड़ने के लिए मन्दिर निर्माण की गतिविधियों को प्रोत्साहित करते थे। राजधानी के रूप में विजयनगर के स्थान का चुनाव भी संभवतः वहाँ विरुपाक्ष और पम्पा देवी के मन्दिरों के अस्तित्व से प्रेरित होकर किया गया था। इस काल में मन्दिर राजत्व के स्थायित्व के प्रमुख आधार थे। संप्रदायी मुखिया राजाओं और मन्दिरों के मध्य एक पुल का काम करते थे। परिणामस्वरूप विजयनगर साम्राज्य में मन्दिर स्थापत्यकला का विशेष विकास हुआ। प्राचीन काल से ही मंदिर निर्माण क्षेत्र में स्थापत्य की तीन प्रमुख शैलियों-नागर शैली, द्रविड़ शैली और बेसर शैली का प्रचलन था। ये तीनों शैलियाँ मन्दिरों के आकार-प्रकार और भौगोलिक विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करती थीं। नागर शैली के मन्दिर चौकोर आकार के होते थे, द्रविड़ शैली के मंदिर अष्टकोणीय होते थे और बेसर शैली के मन्दिर बहुकोणीय होते थे। सामान्य रूप से नागर शैली उत्तरी और द्रविड़ शैली दक्षिण मंदिर का प्रतिनिधित्व करती थी।
स्थापत्य की प्रचलित सभी परंपराओं ने विजयनगर के वास्तुविदों को प्रभावित किया। उन्होंने इनमें कुछ परिवर्तन भी किए। उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारतीय राजशाही में वंशपरंपरा की एक प्रमुख विशेषता वंश देवता की सामूहिक भक्ति थी। अतः 1350 ई०-1650 ई० की अवधि में दक्षिण भारत में अनेक महत्त्वपूर्ण मन्दिरों का निर्माण हुआ। विजयनगर के शासकों ने मन्दिरों से संबद्ध पूर्वकालिक परम्पराओं के अनुसरण के साथ-साथ उन्हें नवीनता प्रदान की तथा और विकसित किया। राजकीय प्रतिकृति मूर्तियों को मन्दिर में प्रदर्शित किया जाने लगा तथा राजा की मन्दिर यात्रा को महत्त्वपूर्ण राजकीय अवसर माना जाने लगा। गोपुरम् और मंडप जैसी विशाल संरचनाएँ इस काल के मंदिर स्थापत्य की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ बन गईं। इन संरचनाओं का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उदाहरण रायगोपुरम् अथवा राजकीय प्रवेशद्वारों में मिलता है।
गोपुरम् बहुत दूर से ही मन्दिर होने का संकेत देते थे। इनकी ऊँचाई और भव्यता के सामने केन्द्रीय देवालयों की दीवारें प्रायः बौनी-सी प्रतीत होती थीं। मंदिर परिसर में स्थित देवस्थलों के चारों ओर मंडप और लम्बे स्तम्भों वाले गलियारे भी बनाए जाने लगे। विजयनगर के शासकों ने विरुपाक्ष के प्राचीन मंदिर में गोपुरम् और मंडप जैसी अनेक संरचनाओं को जोड़कर इसके आकार को और अधिक बढ़ा दिया। कृष्णदेव राय ने अपने राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में मुख्य मन्दिर के सामने एक भव्य मंडप का निर्माण करवाया। इस मंडप को सुंदर उत्कीर्ण चित्रों वाले स्तम्भों से सुसज्जित किया गया था। इसके पूर्वी गोपुरम् के निर्माण का श्रेय भी कृष्णदेव राय को ही दिया जाता है। मन्दिर में कई सभागारों का निर्माण करवाया गया था। सभागारों का प्रयोग विभिन्न प्रकार के कार्यों के लिए किया जाता था।
कुछ सभागारों में संगीत, नृत्य और नाटकों के विशेष कार्यक्रमों को देखने के लिए देवताओं की मूर्तियों को रखा जाता था। कुछ अन्य सभागारों में देवी-देवताओं के विवाह समारोहों का आयोजन किया जाता था तो कुछ का प्रयोग देवी-देवताओं को झूला झुलाने के लिए किया जाता था। विजयनगर के वास्तुविदों ने दिल्ली सुल्तानों के स्थापत्य की दो महत्त्वपूर्ण विशेषताओं का समावेश अपनी स्थापत्यशैली में किया। किलेबन्द बस्ती में जाने के लिए बनाए गए प्रवेश द्वार पर बनाई गई मेहराब और द्वार पर बना गुम्बद इस काल के प्रवेश द्वार स्थापत्य की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ थीं। इन दोनों विशेषताओं को दिल्ली सुल्तानों के स्थापत्य के चारित्रिक तत्व माना जाता है।
स्थापत्यकला की इस शैली का विकास इस्लामिक कला के विभिन्न क्षेत्रों की स्थानीय स्थापत्य की परम्पराओं के संपर्क में आने के परिणामस्वरूप हुआ था, अतः कला इतिहासकारों ने इसे स्थापत्य की इंडो-इस्लामिक कला शैली का नाम दिया है। इसी प्रकार विजय नगर के शहरी केन्द्र में उपलब्ध मकबरों एवं मस्जिदों की स्थापत्यकला शैली और हम्पी में उपलब्ध मन्दिरों के मंडपों के स्थापत्य में अनेक महत्त्वपूर्ण समानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। कमले महल की स्थापत्यकला शैली को भी इस्लामी स्थापत्यकला शैली ने पर्याप्त सीमा तक प्रभावित किया। कमल महल में नौ मीनारें थीं। बीच में सबसे ऊँची मीनार थी और आठ मीनारें उसकी भुजाओं के साथ-साथ थीं। महल की मेहराबों में इंडो-इस्लामी तकनीकों का स्पष्ट प्रभाव झलकता है।


प्रश्न.9. अध्याय के विभिन्न विवरणों से आप विजयनगर के सामान्य लोगों के जीवन की क्या छवि पाते हैं?

अध्याय के विभिन्न विवरणों से विजयनगर के सामान्य लोगों के जीवन के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलती है। इस दृष्टि से 15वीं शताब्दी में विजयनगर शहर की यात्रा करने वाले निकोलों दे कॉन्ती (इतालवी व्यापारी), अब्दुरज्जाक (फारस के राजा का दूत), अफानासी निकितिन (रूस का एक व्यापारी) और 16वीं शताब्दी में विजयनगर जाने वाले दुआर्ते बरबोसा, डोमिंगो पेस तथा फर्नावो नूनिज के विवरण विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। इन विवरणों से पता चलता है कि, समाज सुसंगठित था। समाज में वर्ण-व्यवस्था का प्रचलन था, जिसमें ब्राह्मणों का स्थान सर्वश्रेष्ठ माना जाता था। उन्हें राज्य की सैनिक एवं असैनिक सेवाओं में उच्च पद प्रदान किए जाते थे तथा उन्हें किसी भी अपराध के लिए मृत्युदंड नहीं दिया जाता था। ब्राह्मण जिन स्थानों पर रहते थे, वहाँ भूमि पर उनका नियंत्रण था। उस भूमि पर आश्रित लोग भी उनके नियंत्रण में थे।
पुजारी-वर्ग की हैसियत से उन्हें समाज में विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त थी। असंख्य वैदिक मन्दिरों के आविर्भाव के कारण मन्दिर अधिकारियों के रूप में ब्राह्मणों की शक्ति में बहुत अधिक वृद्धि हो गई थी। विजयनगर युग में किसान सामाजिक व्यवस्था का आधार था, जिस पर समाज के सभी अन्य वर्ग निर्भर थे। विभिन्न अभिलेखों में शेट्टी और चेट्टी नामक एक समूह का भी उल्लेख मिलता है। यह प्रमुख व्यापारी वर्ग था, जो अत्यधिक धनी एवं संपन्न था। समाज में दास प्रथा को भी प्रचलन था। दास-दासियों का क्रय-विक्रय होता था। ऐसा प्रतीत होता है कि सामान्य लोग छप्पर वाले कच्चे घरों में रहते थे। 16वीं शताब्दी में पुर्तगाली यात्री बारबोसा ने सामान्य लोगों के आवासों का वर्णन करते हुए लिखा था, “लोगों के अन्य आवास छप्पर के हैं, पर फिर भी सुदृढ़ हैं और व्यवसाय के आधार पर कई खुले स्थानों वाली लम्बी गलियों में व्यवस्थित हैं।”
विजयनगर में विभिन्न सम्प्रदायों और विभिन्न समुदायों के लोग रहते थे। विजयनगर के लगभग सभी शासक-वर्ग धर्म-सहिष्णु थे। उन्होंने बिना किसी भेद-भाव के सभी मंदिरों को अनुदान प्रदान किए। बारबोसा ने कृष्णदेव राय के साम्राज्य में प्रचलित न्याय और समानता के व्यवहार की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि “राजा इतनी आजादी देता है कि कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छानुसार आ-जा सकता है और अपने धर्म के अनुसार जीवन व्यतीत कर सकता है। उसे उसके लिए किसी प्रकार की नाराजगी नहीं झेलनी पड़ती है और न उसके बारे में यह जानकारी हासिल करने की कोशिश की जाती है कि वह ईसाई है। अथवा यहूदी, मूर है या नास्तिक।” अधिकांश जनसंख्या हिन्दू धर्म की अनुयायी थी।
बौद्ध, जैन, मुसलमान एवं ईसाई भी पर्याप्त संख्या में थे। विजयनगर के सभी शासकों ने सभी धर्मों के अनुयायियों के प्रति सहनशीलता की नीति का अनुसरण किया। समाज में स्त्रियों का सम्मानजनक स्थान था। वे साम्राज्य के राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में भाग लेती थीं। स्त्रियाँ लिए शिक्षा का प्रबंध था। कुछ स्त्रियाँ उच्च कोटि की शिक्षा भी प्राप्त करती थीं। स्त्रियाँ संगीत, नृत्य तथा अन्य ललित कलाओं में पुरुषों की अपेक्षा अधिक पारंगत थीं। धनी और संपन्न लोगों में बहु-विवाह की प्रथा प्रचलित थी। समाज में बाल-विवाह का प्रचलन था। सती प्रथा भी प्रचलन में थी। उच्च वर्गों की स्त्रियाँ पति की मृत्यु पर उसके शव के साथ जलकर सती हो जाती थीं।
शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों प्रकार का भोजन किया जाता था। ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य जातियों के लिए खान-पान के प्रतिबंध नहीं थे। लोग आमोद-प्रमोद प्रिय थे। वे उत्सवों एवं मेलों में उत्साहपूर्वक भाग लेते थे। उनके प्रकार के खेलों द्वारा मनोरंजन किया जाता था। कुश्ती, घुड़दौड़ आदि पशु-पक्षियों के युद्ध भी आमोद-प्रमोद के साधन थे। विजयनगर साम्राज्य में उद्योग-धंधे एवं व्यापार-वाणिज्य उन्नत अवस्था में थे। कताई-बुनाई करना, लोहे के अस्त्र-शस्त्र बनाना आदि प्रमुख उद्योग थे। इत्र निकालना भी एक महत्त्वपूर्ण उद्योग था। समुद्र के तटवर्ती क्षेत्रों में नमक बनाने और मोती निकालने का उद्योग व्यापक स्तर पर किया जाता था। वास्तुकला, शिल्पकला और चित्रकला द्वारा भी अनेक लोग अपना जीविकोपार्जन करते थे। आंतरिक तथा विदेशी व्यापार उन्नत अवस्था में थे। व्यापारी शक्तिशाली संघों और निगमों में संगठित थे।
अब्दुर्रज्ज़ाक के अनुसार विजयनगर साम्राज्य में तीन सौ बंदरगाह थे। विजयनगर की प्रसिद्धि विशेष रूप से मसालों, वस्त्रों एवं रत्नों के बाजारों के लिए थी। नूनिज के विवरण के अनुसार इसकी हीरे की खाने विश्व में सबसे बड़ी थीं। नगरों में अनेक बाजार होते थे, जिनमें व्यापारियों द्वारा व्यवसाय किया जाता था। विशेष वस्तुओं के पृथक बाजार होते थे। व्यापार से प्राप्त राजस्व राज्य की आय का एक महत्त्वपूर्ण साधन था। इस प्रकार की विवरण विजयनगर के जनसामान्य के जीवन के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी प्रदान करते हैं।

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