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महात्मा गाँधी और राष्ट्रीय आन्दोलन (Mahatma Gandhi & The Nationalist Movement NCERT Solutions | NCERT Textbooks in Hindi (Class 6 to Class 12) - UPSC PDF Download

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न.1. महात्मा गाँधी ने स्वयं को सामान्य लोगों जैसा दिखाने के लिए क्या किया?

महात्मा गाँधी ने स्वयं को सामान्य लोगों जैसा दिखाने के लिए अनेक कदम उठाएगाँधी ने भारतीय जनता की दशा को सुधारने के लिए लगभग एक वर्ष तक देश के विभिन्न भागों को भ्रमण किया। गाँधी जी की प्रथम महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक उपस्थिति फरवरी 1916 ई० में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में हुई। गाँधी जी ने समारोह में उपस्थित भद्रजनों एवं अनुपस्थित लाखों गरीबों के मध्य दिन-प्रतिदिन बढ़ती हुई आर्थिक विषमता के प्रति चिंता व्यक्त की। समारोह में बोलते हुए गाँधी जी ने कहा, “हमारी मुक्ति केवल किसानों के माध्यम से ही हो सकती है। न तो वकील, न डॉक्टर और न ही जमींदार इसे सुरक्षित रख सकते हैं।” इस प्रकार गाँधी जी ने यह स्पष्ट कर दिया था कि वे भारतीय राष्ट्रवाद के विकास में संपूर्ण भारतीय जनता को साथ लेकर चलना चाहते थे। 1922 ई० तक गाँधी जी जन नेता बन चुके थे। सामान्यजन गाँधी जी के प्रशंसक थे और उन्हें सम्मानपूर्वक महात्मा जी’ कहते थे। गाँधी जी अन्य नेताओं के समान न तो सामान्य जनसमूह से अलग रहते थे और न ही उनसे अलग दिखते थे।
गाँधी जी सामान्य लोगों की ही भाषा बोलते थे और उनकी ही तरह के वस्त्र पहनते थे। सामान्यजनों के साथ गाँधी जी की पहचान उनके वस्त्रों से विशेष रूप से झलकती थी। उल्लेखनीय है कि अन्य राष्ट्रवादी नेता पाश्चात्य शैली के सूट अथवा भारतीय बन्दगला जैसे औपचारिक वस्त्रों को धारण करते थे। किन्तु गाँधी जी की वेशभूषा अत्यधिक सीधी-सादी थी। वे जनसामान्य के मध्य में एक साधारण-सी धोती में जाते थे।
1921 ई० में दक्षिण भारत की यात्रा के दौरान गाँधी जी ने अपना सिर मॅडवा लिया था और गरीबों के साथ तादात्म्य स्थापित करने के लिए वे सूती वस्त्र पहनने लगे थे। वे प्रतिदिन कुछ समय चरखा चलाने में व्यतीत करते थे। उल्लेखनीय है कि पारम्परिक भारतीय समाज में ऊँची जातियाँ सूतकताई के कार्य को अच्छा नहीं समझती थीं। जनसामान्य के प्रति गाँधी जी का दृष्टिकोण अत्यधिक सहानुभूतिपूर्ण था। उनकी सीधी-सादी जीवनशैली एवं हाथों से काम करने के प्रति उनका लगाव उन्हें जनसामान्य के बहुत निकट ले आया था।


प्रश्न.2. किसान महात्मा गाँधी को किस तरह देखते थे?

किसान गाँधी जी को अपना मसीहा एवं अनेक लोकोपकारी और चमत्कारिक शक्तियों से संपन्न समझते थे। गाँधी जी की चमत्कारिक शक्तियों के विषय में स्थान-स्थान पर अनेक प्रकार की अफ़वाहों का प्रसार हो रहा था। कुछ स्थानों पर जनसामान्य का यह विश्वास बन गया था कि राजा ने उन्हें किसानों के कष्टों को दूर करने तथा उनकी समस्याओं का समाधान करने के लिए भेजा है और उनके पास इतनी शक्ति थी कि वे सभी अधिकारियों के निर्देशों को अस्वीकृत कर सकते थे। कुछ अन्य स्थानों पर गाँधी जी की शक्ति को अंग्रेज बादशाह से भी अधिक बताया गया और यह दावा किया गया कि उनके आगमन से औपनिवेशिक शासक भयभीत होकर स्वतः ही भाग जाएँगे।
इस प्रकार की अफवाहें भी जोर पकड़ने लगीं कि किसी में भी गाँधी जी का विरोध करने की शक्ति नहीं थी और उनका विरोध करने वालों को भयंकर परिणाम भुगतने पड़ते थे। अनेक ग्रामों में यह अफ़वाह थी कि गाँधी जी की आलोचना करने वाले लोगों के घर रहस्यात्मक ढंग से गिर गए थे अथवा खेतों में खड़ी उनकी हरी-भरी फसल बिना किसी कारण के ही नष्ट हो गई थी। भारतीय जनसंख्या के एक विशाल भाग का निर्माण करने वाले किसान गाँधी जी की सात्विक जीवन-शैली तथा उनके द्वारा ग्रहण किए गए धोती और चरखा जैसे प्रतीकों से अत्यधिक प्रभावित थे। किसानों में गाँधी जी ‘गाँधी बाबा’, ‘गाँधी महाराज’ अथवा ‘महात्मा’ जैसे अनेक नामों से प्रसिद्ध थे। वे उन्हें अपना उद्धारक मानते थे और उनका विश्वास था कि गाँधी जी ही उन्हें भू-राजस्व की कठोर दरों तथा ब्रिटिश अधिकारियों की दमनात्मक गतिविधियों से बचा सकते हैं, वे उनकी मान-मर्यादा के रक्षक हैं तथा उनकी स्वायत्तता उन्हें वापस दिलवा सकते हैं।


प्रश्न.3. नमक कानून स्वतंत्रता संघर्ष का महत्त्वपूर्ण मुद्दा क्यों बन गया था?

नमक एक बहुमूल्य राष्ट्रीय संपदा थी जिस पर औपनिवेशिक सरकार ने अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया था। गाँधी जी की दृष्टि में यह एकाधिकार एक प्रकार से चौतरफा अभिशाप था। यह जनसामान्य को एक महत्त्वपूर्ण सुलभ ग्राम-उद्योग से ही वंचित नहीं कराता था अपितु प्रकृति द्वारा बहुतायत में उत्पादित संपदा का भी विनाश करता था। इसलिए गाँधी जी ने औपनिवेशिक शासन के विरोध के लिए नमक का प्रतीक रूप में चुनाव किया और शीघ्र ही नमक कानून स्वतंत्रता संघर्ष का एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बन गया।
इसके प्रमुख कारण इस प्रकार थेः
(i) नमक कानून ब्रिटिश भारत के सर्वाधिक घृणित कानूनों में से एक था। इसके अनुसार नमक के उत्पादन और विक्रय पर राज्य का एकाधिकार स्थापित था।
(ii) जनसामान्य नमक कानून को घृणा की दृष्टि से देखता था। प्रत्येक घर में नमक भोजन का एक अपरिहार्य अंग था। किन्तु भारतीयों द्वारा घरेलू प्रयोग के लिए भी स्वयं नमक बनाए जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। नमक कानून के कारण भारतीयों को विवशतापूर्वक दुकानों से ऊँचे मूल्यों पर नमक खरीदना पड़ता था।
(iii) नमक पर राज्य का एकाधिकार अत्यधिक अलोकप्रिय था। जनसामान्य में इस कानून के प्रति असंतोष व्याप्त था।
(iv) नमक उत्पादन पर सरकार के एकाधिकार ने लोगों को एक महत्त्वपूर्ण किन्तु सरलतापूर्वक उपलब्ध ग्राम-उद्योग से वंचित कर दिया था।


प्रश्न.4. राष्ट्रीय आंदोलन के अध्ययन के लिए अख़बार महत्त्वपूर्ण स्रोत क्यों है?

राष्ट्रीय आंदोलन के अध्ययन के स्रोतों में अख़बारों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनसे हमें राष्ट्रीय आंदोलन के अध्ययन में महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है।
(i) अंग्रेजी एवं विभिन्न भारतीय भाषाओं में छपने वाले समकालीन समाचार-पत्रों में राष्ट्रीय आंदोलन से संबंधित सभी । घटनाओं का विवरण मिलता है।
(ii) समाचार-पत्रों से राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
(iii) समाचार-पत्रों से राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति ब्रिटिश सरकार के दृष्टिकोण का पता लगता है।
(iv) समाचार-पत्रों द्वारा महात्मा गाँधी की गतिविधियों पर नजर रखी जाती थी क्योंकि गाँधी जी से संबंधित समाचारों को विस्तृत रूप से प्रकाशित किया जाता था। अतः समाचार-पत्रों से विशेष रूप से महात्मा गाँधी और राष्ट्रीय आंदोलन के विषय में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ उपलब्ध होती हैं।
(v) समाचार-पत्रों से यह भी पता लगता है कि जनसामान्य की राष्ट्रीय आंदोलन तथा गाँधी जी के विषय में क्या धारणा थी।
(vi) समाचार-पत्रों से राष्ट्रीय आंदोलन से संबंधित महत्त्वपूर्ण घटनाओं एवं नेताओं के विषय में पक्ष और विपक्ष दोनों के विचार मिलते हैं।
अतः इनकी सहायता से राष्ट्रीय आंदोलन के निष्पक्ष अध्ययन में महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है। किन्तु यह याद रखा जाना चाहिए कि समाचार-पत्रों में प्रकाशित विवरण अनेक पूर्वाग्रहों से युक्त थे। समाचार-पत्र प्रकाशित करनेवालों की अपनी राजनैतिक विचारधाराएँ थीं और विश्व के प्रति उनका अपना दृष्टिकोण था। उनके विचारों के आधार पर ही विभिन्न विषयों को प्रकाशित किया जाता था तथा घटनाओं की रिपोर्टिंग की जाती थी। इसलिए लंदन से प्रकाशित होनेवाले समाचार-पत्रों के विवरण भारतीय राष्ट्रवादी समाचार-पत्रों में छपनेवाले विवरणों के समान नहीं हो सकते थे।


प्रश्न.5. चरखे को राष्ट्रवाद का प्रतीक क्यों चुना गया?

गाँधी जी चरखे को एक आदर्श समाज के प्रतीक के रूप में देखते थे। वे प्रतिदिन अपना कुछ समय चरखा चलाने में व्यतीत करते थे। उनका विचार था कि चरखा गरीबों को पूरक आमदनी प्रदान करके उन्हें आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी बना सकता है। उन्होंने 13 नवम्बर, 1924 ई० को ‘यंग इंडिया’ में लिखा था-“मेरी आपत्ति मशीन के प्रति सनक से है। यह सनक श्रम बचाने वाली मशीनरी के लिए है। ये तब तक ‘श्रम बचाते रहेंगे, जब तक कि हज़ारों लोग बिना काम के और भूख से मरने के लिए सड़कों पर न फेंक दिए जाएँ। मैं मानव समुदाय के किसी एक हिस्से के लिए नहीं अपितु सभी के लिए समय और श्रम बचना चाहता हूँ; मैं धन का केन्द्रीकरण कुछ ही लोगों के हाथों में नहीं अपितु सभी के हाथों में करना चाहता हूँ।”
गाँधी जी ने 17 मार्च, 1927 ई० को ‘यंग इंडिया’ में लिखा था-“खद्दर मशीनरी को नष्ट नहीं करना चाहता अपितु यह इसके प्रयोग को नियमित करता है और इसके विकास को नियन्त्रित करता है। यह मशीनरी का प्रयोग सर्वाधिक गरीब लोगों के लिए उनकी अपनी झोंपड़ियों में करता है। पहिया अपने-आप में ही मशीनरी का एक उत्कृष्ट नमूना है।” वास्तव में, चरखे के साथ गाँधी जी भारतीय राष्ट्रवाद की सर्वाधिक स्थायी पहचान बन गए थे। वे अन्य राष्ट्रवादियों को भी चरखा चलाने के लिए प्रोत्साहित करते थे। चरखा जनसामान्य से संबंधित था और आर्थिक प्रगति का प्रतीक था, इसलिए इसे राष्ट्रवाद के प्रतीक के रूप में चुना गया।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में)

प्रश्न.6. असहयोग आंदोलन एक तरह का प्रतिरोध कैसे था?

असहयोग आंदोलन एक तरह का प्रतिरोध निम्नलिखित कारणों से था:
(i) 
असहयोग आंदोलन एक तरह का प्रतिरोध इसलिए था क्योंकि ब्रिटिश सरकार द्वारा थोपे गए रॉलेट एक्ट जैसे कानून के वापस लिए जाने के लिए जनआक्रोश या प्रतिरोध अभिव्यक्ति का लोकप्रिय माध्यम था।
(ii) असहयोग आंदोलन इसलिए भी प्रतिरोध आंदोलन था, क्योंकि राष्ट्रीय नेता उन अंग्रेज़ अधिकारियों को कठोर दंड दिलाना चाहते थे जो अमृतसर के जालियाँवाला बाग में शांतिपूर्ण प्रदर्शन में शामिल प्रदर्शनकारियों पर होने वाले अत्याचार के उत्तरदायी थे। उन्हें सरकार ने कई महीनों के बाद भी किसी प्रकार का दंड नहीं दिया था।
(iii) असहयोग आंदोलन इसलिए भी प्रतिरोध था, क्योंकि यह ख़िलाफत आंदोलन को सहयोग करके देश के दो प्रमुख धार्मिक समुदायों-हिंदू और मुसलमानों को मिलाकर औपनिवेशिक शासन के प्रति जनता के असहयोग को अभिव्यक्त करने का माध्यम था।
(iv) असहयोग आंदोलन इसलिए भी प्रतिरोध था, क्योंकि इसके द्वारा सरकारी नौकरियों, उपाधियों अवैतनिक पदों, सरकारी अदालतों, सरकारी संस्थाओं आदि का बहिष्कार किया जाना था। विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करके, सरकार द्वारा आयोजित चुनावों में भाग न लेकर, सरकारी करों का भुगतान न करके तथा सरकारी कानूनों की शांतिपूर्ण ढंग से अवहेलना करके ब्रिटिश शासन के प्रति अपना प्रतिरोध प्रकट करना चाहते थे।
(v) असहयोग आंदोलन ने सरकारी अदालतों का बहिष्कार करने के लिए सर्व साधारण और वकीलों को आह्वान किया। | गाँधी जी के इस आह्वान पर वकीलों ने अदालतों में जाने से मना कर दिया।
(vi) इस व्यापक लोकप्रिय प्रतिरोध का प्रभाव अनेक कस्बों और नगरों में कार्यरत श्रमिक वर्ग पर भी पड़ा। वे हड़ताल पर चले गए। जानकारों के अनुसार सन् 1921 में 396 हड़ताले हुईं जिनमें 6 लाख श्रमिक शामिल थे और इससे 30 लाख कार्य-दिवसों की हानि हुई।
(vii) असहयोग आंदोलन का प्रतिरोध देश के ग्रामीणों क्षेत्र में भी दिखाई दे रहा था। उदाहरण के लिए, उत्तरी आंध्र की | पहाड़ी जन-जातियों ने वन्य कानूनों की अवहेलना कर दी। अवध के किसानों ने कर नहीं चुकाया। कुमाऊँ के । किसानों ने औपनिवेशिक अधिकारियों का सामान ढोने से साफ मना कर दिया। इन आंदोलनों को कभी-कभी स्थानीय राष्ट्रवादी नेतृत्व की अवज्ञा करते हुए भी कार्यान्वित किया गया। इस प्रकार यह कहना उचित ही होगा कि असहयोग आंदोलन का प्रमुख उद्देश्य औपनिवेशिक शासन का प्रतिरोध करना था।


प्रश्न.7. गोलमेज सम्मेलन में हुई वार्ता से कोई नतीजा क्यों नहीं निकल पाया?

इतिहास के रिकॉर्ड के अनुसार ब्रिटिश सरकार ने 1930 से लेकर 1931 तक गोलमेज सम्मेलनों का आयोजन किया था। पहली गोलमेज वार्ता लंदन में नवंबर, 1930 में आयोजित की गई थी जिसमें देश के प्रमुख नेता शामिल नहीं हुए। इस कारण अंततः यह बैठक निरर्थक साबित हुई। इस गोलमेज की विफलता पर भारतीय इतिहास के विख्यात विद्वान लेखक प्रोफेसर विपिन चंद्र कहते हैं कि-“गाँधी जी लोगों के हृदय पर भगवान राम की तरह उस समय राज करते थे। जब राम ही लंदन में होने वाली सभा में नहीं पहुँचे तो रामलीला कैसे हो सकती थी।” सरकार भी जानती थी कि बिना प्रमुख नेताओं के लंदन में गोलमेज बुलाना निरर्थक होगा। अतः सरकार ने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन की तैयारी शुरू की। वायसराय लार्ड इर्विन ने जनवरी, 1931 में ही महात्मा गाँधी को जेल से रिहा कर दिया।
अगले ही महीने वायसराय इर्विन के साथ गाँधी जी की कई लंबी बैठकें हुई। इन्हीं बैठकों के बाद गाँधी-इर्विन समझौते पर सहमति बनी जिसकी शर्तों में सविनय अवज्ञा आंदोलन को वापस लेना, सारे कैदियों की रिहाई और तटीय क्षेत्रों में नमक उत्पादन की अनुमति देना आदि शर्ते शामिल थीं। रैडिकल राष्ट्रवादियों ने इस समझौते को द्वितीय गोलमेज की तैयारी के लिए सही वातावरण तैयार करने वाला नहीं मानकर गाँधी जी की भी कटु आलोचना की। क्योंकि ब्रिटिश सरकार से भारतीयों के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता का आश्वासन हासिल करने में गाँधी जी विफल रहे थे। यहाँ हमें याद रखना चाहिए कि लाहौर में रावी नदी के किनारे पर हुए वार्षिक अधिवेशन (1929) में कांग्रेस और राष्ट्रवादियों ने पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करने का लक्ष्य घोषित कर दिया था।
गाँधी जी को इस संभावित और घोषित लक्ष्य प्राप्ति के लिए वार्ताओं का आश्वासन मिला था। वस्तुतः भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन को जारी हुए लगभग 46 वर्ष (1885-1931) हो चुके थे। अब लोग पूर्ण स्वतंत्रता का वायदा विदेशी सरकार से चाहते थे। जो भी हो, दूसरा गोलमेज सम्मेलन 1931 के आखिर में ब्रिटेन की राजधानी लंदन में आयोजित हुआ। उसमें महात्मा गाँधी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ओर से प्रतिनिधित्व और नेतृत्व कर रहे थे। गाँधी जी का कहना था कि उनकी पार्टी पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करती है। इस दावे को तीन पार्टियों ने खुली चुनौती दे दी।
(i) मुस्लिम लीग को इस संदर्भ में कहना था कि वह भारत के मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हित में काम करती है।
(ii) भारत के 556 रजवाड़ों का दावा था कि कांग्रेस का उनके नियंत्रण वाले भू-भाग पर कोई अधिकार नहीं है।
(iii) तीसरी चुनौती डॉ० भीमराव अंबेडकर की तरफ से थी, जो बहुत बड़े वकील और विचारक थे।
उन्होंने कहा कि वह दलितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। महात्मा गाँधी और कांग्रेस पार्टी देश में तथाकथित दलित समझी और कही जाने  वाली नीची जातियों का प्रतिनिधित्व बिलकुल नहीं करते। परिणाम यह हुआ कि हर दल और नेता अपने-अपने पक्ष, विचार, तर्क और माँगें रखते रहे जिसका कुल मिलाकर नतीजा शून्य के रूप में सामने आया। गाँधी जी जैसे ही जहाज से बंबई उतरे तो उन्होंने कहा कि मैं खाली हाथ लौट आया हूँ और सरकार के अड़ियल रवैये के बाद हमें दुबारा से सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करना पड़ेगा और उन्होंने ऐसा ही किया।
भारत में नए वायसारय लार्ड विलिंग्डॉन को गाँधी जी से बिलकुल हमदर्दी नहीं थी। उसने एक निजी पत्र में स्पष्ट रूप से इस बात की पुष्टि की थी। विलिंग्डॉन ने लिखा था कि अगर गाँधी न होता तो यह दुनिया वाकई बहुत खूबसूरत होती। वह जो भी कदम उठाता है, उसे ईश्वर की प्रेरणा का परिणाम कहता है, लेकिन असल में उसके पीछे एक गहरी राजनीतिक चाल होती है। देखता हूँ कि अमेरिकी प्रेस उसको गजब का आदमी बताती है। लेकिन सच यह है कि हम निहायत अव्यावहारिक, रहस्यवादी और अंधविश्वासी जनता के बीच रह रहे हैं जो गाँधी को भगवान मान बैठी है…” इसी के साथ सविनय अवज्ञा आंदोलन तीसरे और अंतिम चरण में अगस्त, 1933 से 9 महीने तक चलता रहा।
गाँधी जी सहित अनेक प्रमुख नेता बंदी बना लिए गए। 1934 में निरुत्साहित जनता को देखकर गाँधी जी ने इस आंदोलन को बंद कर दिया। भारत में जिन दिनों गाँधी जी द्वारा सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाया जा रहा था, ब्रिटिश सरकार ने लंदन में तीसरी गोलमेज कांफ्रेंस बुलाई। इंग्लैण्ड की लेबर पार्टी ने इसमें भाग नहीं लिया। कांग्रेस पार्टी ने भी इस कांफ्रेंस का बहिष्कार किया। कुछ भारतीय प्रतिनिधि, जो सरकार की हाँ में हाँ मिलाने वाले थे, उन्होंने इस सम्मेलन में भाग लिया। सम्मेलन में लिए गए निर्णयों को श्वेत-पत्र (White Paper) के रूप में प्रकाशित किया गया और फिर इसके आधार पर 1935 का गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट पास किया गया।


प्रश्न.8. महात्मा गाँधी ने राष्ट्रीय आंदोलन के स्वरूप को किस तरह बदल डाला?

1919-1947 ई० के काल का भारतीय इतिहास में विशेष स्थान है। इसी काल में एक महान् विभूति महात्मा गाँधी ने सत्य और अहिंसा पर आधारित सत्याग्रह, असहयोग और सविनय अवज्ञा जैसे अस्त्र-शस्त्रों के साथ भारतीय रणनीति में प्रवेश किया और शीघ्र ही राष्ट्रीय आंदोलन के कर्णधार बन गए। 1919 से स्वतंत्रता प्राप्ति तक महात्मा गाँधी ही भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के केंद्रबिंदु बने रहे। गाँधी जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन का स्वरूप परिवर्तित हो गया और इसने जन संघर्ष का रूप धारण कर लिया। जनवरी, 1915 ई० में गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश लौट आए थे। दक्षिण अफ्रीका के संघर्ष ने गाँधी जी को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को नेतृत्व सँभालने के लिए तैयार कर दिया। दक्षिण अफ्रीका में प्राप्त की गई सफलताओं ने यह स्पष्ट कर दिया कि शांतिपूर्ण अवज्ञा और सत्याग्रह के द्वारा विरोधी पक्ष को आंदोलन की माँगें स्वीकार करने को बाध्य किया जा सकता है।
दक्षिण अफ्रीका में दीनहीन भारतीयों पर होने वाले अन्याय के विरुद्ध संघर्षशीलता ने गाँधी जी को विश्वास दिला दिया कि भारतीय जनता को देश की स्वतंत्रता जैसे महान् उद्देश्य के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध प्रबल संघर्ष छेड़ने और इस हेतु बलिदान देने के लिए तत्पर किया जा सकता है। दक्षिण अफ्रीका में प्राप्त की गई सफलताओं ने जनशक्ति के महत्त्व को स्पष्ट कर दिया। अतः भारत लौटने पर गाँधी जी ने देश की बहुसंख्यक कृषक जनता को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की ओर आकर्षित किया और उसे भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा से जोड़ा। दक्षिण अफ्रीका में गाँधी जी ने सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों पर आधारित सत्याग्रह नामक नवीन संघर्ष प्रणाली का विकास किया था। सत्याग्रह का शाब्दिक अर्थ है-सच्चाई पर दृढ़तापूर्वक अड़े रहना। गाँधी जी का संपूर्ण जीवन-दर्शन सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों पर आधारित था।
वह अहिंसा को प्रेम का स्वरूप मानते थे। उनको विश्वास था कि अहिंसा में सभी समस्याओं के निराकरण की अद्भुत शक्ति विद्यमान है। गाँधी जी की दृष्टि में अहिंसा कायरता और दुर्बलता की नहीं अपितु वीरता, दृढ़ता और निडरता की प्रतीक है। केवल निडर, वीर और दृढ़प्रतिज्ञ व्यक्ति ही इसका भली-भाँति प्रयोग कर सकते हैं। गाँधी जी की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था। वह सिद्धांत की अपेक्षा व्यवहार पर अधिक बल देते थे और साधनों की पवित्रता और श्रेष्ठता में विश्वास करते थे। उनका विचार था कि अच्छे साध्य की प्राप्ति के लिए साधन भी श्रेष्ठ होने चाहिए। गाँधी जी का जनसामान्य की संघर्ष शक्ति में दृढ़ विश्वास था। वे साम्राज्य की शक्ति का सामना मूक जनशक्ति द्वारा करना चाहते थे।
उनका विचार था कि केवल जमींदारों, डॉक्टरों अथवा वकीलों के प्रयत्नों से देश को स्वतंत्र नहीं कराया जा सकता। देश की स्वतंत्रता के लिए जनसामान्य को राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा में लाना नितांत आवश्यक था। वह महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार प्रदान करना चाहते थे और उन्हें राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा में सम्मिलित करना चाहते थे। हिंदू-मुस्लिम एकता, छुआछूत विरोधी संघर्ष और देश की महिलाओं की सामाजिक स्थिति को सुधारना, गाँधी जी के तीन महत्त्वपूर्ण लक्ष्य थे। गाँधी जी ने सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा के सिद्धांत पर आधारित संघर्ष की अपनी नवीन विधि का प्रयोग करके राष्ट्रीय आंदोलन को जनसामान्य को आंदोलन बना दिया। 1917-18 ई० की अवधि में गाँधी जी ने चम्पारन और खेड़ा के सत्याग्रहों में भाग लिया तथा अहमदाबाद के मिल मजदूरों की माँगों के समर्थन में संघर्ष किया।
1 अगस्त, 1920 ई० को। गाँधी जी ने औपनिवेशिक प्रशासन के विरुद्ध असहयोग आंदोलन प्रारंभ कर दिया। मार्च 1930 ई० को उन्होंने विरोध के प्रतीक के रूप में नमक का चुनाव करके सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ कर दिया और अगस्त 1942 ई० में भारत छोड़ो’ आंदोलन प्रारंभ करके अंग्रेज़ों को भारत छोड़ने के लिए विवश कर दिया। गाँधी जी के भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय भाग लेने से भारतीय राष्ट्रवाद का स्वरूप परिवर्तित होने लगा। हमें याद रखना चाहिए कि गाँधी जी के जन अनुरोध में किसी भी प्रकार का छल-कपट नहीं था। उनके कुशल संगठनात्मक गुणों ने भारतीय राष्ट्रवाद के आधार को और अधिक व्यापक बनाने में उल्लेखनीय योगदान दिया। भारत के भिन्न-भिन्न भागों में कांग्रेस की नई शाखाओं को खोला गया। रजवाड़ों अर्थात् देशी राज्यों में राष्ट्रवाद को प्रोत्साहन देने के लिए ‘प्रजामंडलों’ की स्थापना की गई। गाँधी जी ने राष्ट्रवादी भावनाओं के प्रसार तथा राष्ट्रवादी संदेश के संचार के लिए शासकों की भाषा के स्थान पर मातृभाषा का चुनाव किया। उल्लेखनीय है कि कांग्रेस की प्रांतीय समितियाँ ब्रिटिश भारत की कृत्रिम सीमाओं पर नहीं अपितु भाषायी क्षेत्रों के आधार पर स्थापित की गई थीं।
इन भिन्न-भिन्न उपायों ने देश के दूरवर्ती भागों में राष्ट्रवाद के प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इनके परिणामस्वरूप वे सामाजिक वर्ग भी राष्ट्रवाद का महत्त्वपूर्ण भाग बन गए, जो अभी तक इससे अछूते रहे थे। किसानों, श्रमिकों और कारीगरों ने हजारों की संख्या में राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेना प्रारंभ कर दिया। गाँधी जी के नेतृत्व में छेड़े गए असहयोग आंदोलन में छोटे-बड़े, स्त्री-पुरुष, हिंदू-मुसलमान, उदारपंथी, रूढ़िवादी सभी समान रूप से सम्मिलित हुए। इसी प्रकार सविनय अवज्ञा आंदोलन में जनसामान्य ने महत्त्वपूर्ण भाग लिया। दिल्ली में लगभग 1600 महिलाओं ने शराब की दुकानों पर धरना दिया। इस प्रकार भारत छोड़ो आंदोलन वास्तविक अर्थों में एक जन आंदोलन बन गया।
इसमें सामान्य भारतीयों ने लाखों की संख्या में भाग लिया। सामान्य भारतीयों के साथ-साथ कुछ अत्यधिक संपन्न व्यापारी एवं उद्योगपति भी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के समर्थक बन गए। वे यह बात भली-भाँति समझ गए कि स्वतंत्र भारत में वे लाभ उनके हो जाएँगे, जो आज उनके अंग्रेज प्रतिद्वन्द्वियों की झोली में जा रहे थे। परिणामस्वरूप, जी०डी० बिड़ला जैसे कुछ सुप्रसिद्ध उद्योगपति राष्ट्रीय आंदोलन का खुला समर्थन करने लगे, जबकि कुछ अन्य उद्योगपति इसके मूक समर्थक बन गए। इस प्रकार, कांग्रेस के अनुयायियों एवं प्रशंसकों में गरीब किसान और उद्योगपति दोन्में ही सम्मिलित थे। इस प्रकार गाँधी जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन वास्तविक अर्थों में एक आंदोलन बन गया।


प्रश्न.9. निजी पत्रों और आत्मकथाओं से किसी व्यक्ति के बारे में क्या पता चलता है? ये स्रोत सरकारी ब्योरों से किस तरह भिन्न होते हैं?

निजी पत्रों और आत्मकथाओं से किसी व्यक्ति के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। इनसे संबंधित व्यक्ति की विचारधारा एवं उसके जीवन-चरित्र के विषय में पर्याप्त सीमा तक सही अनुमान लगाया जा सकता है। उदाहरण के लिए गाँधी जी के पत्रों एवं उनकी आत्मकथा से गाँधी जी एवं उनकी विचारधारा को समझने में महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है। व्यक्तिगत पत्रों से हमें संबंधित व्यक्ति के व्यक्तिगत विचारों का परिचय मिलता है। पत्रों में लेखक अपने क्रोध, पीड़ा, असंतोष, बेचैनी, आशाओं एवं हताशाओं को व्यक्त कर सकता है, किन्तु सार्वजनिक वक्तव्यों में वह ऐसा नहीं कर सकता। उल्लेखनीय है कि गाँधी जी द्वारा अपने पत्र ‘हरिजन’ में लोगों से मिलने वाले पत्रों को प्रकाशित किया जाता था।
जवाहरलाल नेहरू को राष्ट्रीय आंदोलन की अवधि में अनेक लोगों ने पत्र लिखे थे। नेहरू जी ने उन पत्रों को संकलित करके उस संकलन को ‘ए बंच ऑफ ओल्ड लेटर्स’ (पुराने पत्रों का पुलिंदा) के नाम से प्रकाशित कराया था। इन पत्रों से पता लगता है कि 1920 के दशक में जवाहरलाल नेहरू समाजवादी विचारों से प्रभावित होने लगे थे। 1928 ई० में जब वे यूरोप से भारत वापस आए, तो उन पर समाजवाद का पर्याप्त प्रभाव था। भारत आने पर जब उन्होंने जयप्रकाश नारायण, नरेन्द्र देव और एन.जी. रंगा जैसे सुप्रसिद्ध समाजवादी नेताओं के साथ मिलकर कार्य करना प्रारम्भ किया, तो कांग्रेस में समाजवादियों एवं रूढ़िवादियों के मध्य एक खाई-सी उत्पन्न हो गई थी। 1936 ई० में कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के बाद नेहरू फासीवाद के कट्टर विरोधी हो गए थे और वे मजदूरों एवं किसानों की माँगों का समर्थन करने लगे थे।
नेहरू के समाजवादी वक्तव्यों से कांग्रेस के रूढ़िवादी नेता इतने अधिक चिन्तित थे कि उन्होंने राजेन्द्र प्रसाद और सरदार पटेल के नेतृत्व में कांग्रेस वर्किंग कमेटी से त्यागपत्र दे देने की भी धमकी दे दी थी। इन दोनों समाजवादी विचारों से प्रभावित युवा वर्ग और रूढ़िवादी वर्ग के मध्य टकराव की स्थिति उत्पन्न होने पर प्रायः गाँधी जी को मध्यस्थ का कार्य करना पड़ता था। इन पत्रों से कांग्रेस की आंतरिक कार्य-प्रणाली तथा राष्ट्रीय आंदोलन के स्वरूप के विषय में भी महत्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध होती है। इनसे स्पष्ट होता है कि वैचारिक मतभेद होते हुए भी। कांग्रेस के सभी प्रमुख नेताओं का उद्देश्य संगठन में एकता को बनाए रखना था। उल्लेखनीय है कि व्यक्ति-विशेष को लिखे जानेवाले पत्र व्यक्तिगत होते हैं, किन्तु कुछ रूपों में वे जनता के लिए भी होते हैं। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि प्रायः लोग व्यक्तिगत पत्रों में भी अपने विचारों को स्वतंत्रतापूर्वक व्यक्त नहीं कर सकते, क्योंकि उन्हें किसी भी पत्र के प्रकाशित हो जाने की आशंका बनी रहती है।
आत्मकथाओं से भी किसी व्यक्ति के जीवन तथा उसके विचारों के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। जब कोई व्यक्ति अपनी जीवनकथा लिखता है, तो उसे आत्मकथा कहा जाता है। किन्तु आत्मकथाओं के अध्ययन से किसी निष्कर्ष को निकालते हुए हमें यह सदैव याद रखना चाहिए कि आत्मकथाओं का लेखन प्रायः स्मृति के आधार पर किया जाता है। उनसे स्पष्ट होता है कि लेखक को क्या याद रहा, वह किन चीजों को महत्त्वपूर्ण समझता था, क्या याद रखना चाहता था अथवा अपने जीवन को औरों की दृष्टि में किस प्रकार दिखाना चाहता था। आत्मकथा का लेखन एक प्रकार से अपनी तसवीर को बनाना है। लेखक को आत्मकथा के लेखन में ईमानदार रहना चाहिए, किन्तु हमें वह सब भी देखने का प्रयत्न करना चाहिए, जिसे लेखक दिखाना नहीं चाहता; हमें ऐसे विषयों में उसकी चुप्पी के कारणों को समझने का प्रयास करना चाहिए।
सरकारी ब्योरों में भिन्नता निजी पत्रों एवं आत्मकथाओं तथा सरकारी ब्योरों में पर्याप्त भिन्नता पाई जाती है। निजी पत्रों और आत्मकथाओं में विभिन्न विचारों और घटनाओं को यथार्थ विवरण मिलता है। किन्तु सरकारी ब्योरों में विचारों एवं घटनाओं का निष्पक्ष विवरण उपलब्ध नहीं होता। हमें याद रखना चाहिए कि औपनिवेशिक शासन ऐसे तत्वों, जिन्हें वे अपने विरुद्ध समझते थे, पर सदैव कड़ी दृष्टि रखते थे। ऐसे तत्वों एवं उनकी गतिविधियों का विस्तृत उल्लेख हमें सरकारी रिपोर्टों में मिलता है। किन्तु उसे निष्पक्ष नहीं कहा जा सकता। इसका प्रमुख कारण यह है कि औपनिवेशिक अधिकारी ऐसे तत्वों एवं उनकी गतिविधियों को अपने दृष्टिकोण से देखते थे। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत पुलिसकर्मियों एवं अन्य अधिकारियों द्वारा लिखे गए पत्रों एवं रिपोर्टों को गोपनीय रखा जाता था। उल्लेखनीय है कि बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों से गृह-विभाग द्वारा पाक्षिक रिपोर्टे (हर पंद्रह दिन अथवा हर पखवाड़े में तैयार की जानेवाली रिपोर्ट) तैयार की जाने लगी थीं।
इन रिपोर्टों को स्थानीय क्षेत्रों से पुलिस से प्राप्त होनेवाली सूचनाओं के आधार पर तैयार किया जाता था। इन रिपोर्टों से यह भी स्पष्ट होता है कि समकालीन औपनिवेशिक अधिकारी किसी परिस्थिति विशेष को किस प्रकार देखते और समझते थे। राजद्रोह एवं विद्रोह की संभावना स्वीकार करते हुए भी वे इन आशंकाओं को आधारहीन बताकर स्वयं को आश्वस्त करना चाहते थे। नमक सत्याग्रह के काल की पाक्षिक रिपोर्टों का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि गृह-विभाग यह स्वीकार करने को कदापि तैयार नहीं था कि महात्मा गाँधी की गतिविधियों को व्यापक जनसमर्थन प्राप्त हो रहा था। उदाहरण के लिए, पुलिस की पाक्षिक रिपोर्टों में नमक यात्रा का चित्रण एक ऐसे नाटक एवं करतब के रूप में किया जा रहा था, जिसका प्रयोग ब्रिटिश शासन के विरुद्ध ऐसे लोगों को गोलबंद करने के लिए किया जा रहा था, जो वास्तव में इस शासन के विरुद्ध आवाज उठाने के इच्छुक नहीं थे, क्योंकि वे इस शासन के अंतर्गत सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे। पुलिस की पाक्षिक रिपोर्टों के अनुसार यह भारतीय नेताओं को एक हताश प्रयास था।
इस प्रकार, सरकारी ब्योरों के प्रत्येक विवरण को यथार्थ घटनाक्रम का वास्तविक उल्लेख नहीं माना जा सकता। वास्तव में, इन विवरणों से ऐसे अफसरों की आशंकाओं एवं बेचैनियों का परिचय मिलता है, जो किसी आंदोलन को नियंत्रित कर पाने में स्वयं को असमर्थ अनुभव कर रहे थे तथा जो उसके प्रसार को लेकर अत्यधिक चिंतित थे। वे यह निर्णय लेने में असमर्थ थे कि गाँधी जी को बंदी बनाया जाना चाहिए अथवा नहीं। वे यह भी नहीं समझ पा रहे थे कि गाँधी जी को बंदी बनाए जाने का परिणाम क्या होगा। इस प्रकार निष्कर्ष में यह कहा जा सकता है कि निजी पत्रों और आत्मकथाओं के विवरण सरकारी ब्योरों के विवरणों से अनेक रूपों में भिन्न होते हैं।

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