संदर्भ :
पर्यावरणीय निर्णयों के कार्यकारी प्राधिकरण के रूप में न्यायालय:
संविधान में निहित शक्तियों के पृथक्करण का उल्लंघन:
- भारत सरकार के सेवानिवृत्त सचिव और सेवानिवृत्त वन सेवा अधिकारियों की अध्यक्षता में केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (सीईसी) नामक एक विशेष सर्वोच्च न्यायालय की समिति द्वारा प्रस्ताव की और जांच की आवश्यकता होती है।
- यदि सीईसी को लगता है कि स्थायी समिति का निर्णय गलत है, तो वह अपनी राय के साथ अंतिम निर्णय, सर्वोच्च न्यायालय पर टाल सकती है। यह प्रक्रिया प्रथम दृष्टया संविधान में निहित शक्तियों के पृथक्करण का उल्लंघन करती है ।
पर्यावरण से संबंधित मामलों में सर्वोच्च न्यायालय की स्वीकृति के विभिन्न उदाहरण:
पर्यावरणीय निर्णयों पर सर्वोच्च न्यायालय के अधिनिर्णय से जुड़ी चिंताएँ:
- एक विशेष विशेषज्ञ न्यायाधिकरण के विपरीत, संवैधानिक न्यायालयों के पास किसी परियोजना की तकनीकी और वैज्ञानिक शुद्धता की जांच करने के लिए आवश्यक कौशल और विशेषज्ञता नहीं है।
- न्यायाधीशों को निर्णय लेने की प्रक्रिया की वैधता और औचित्य की जांच करने और निर्णय लेने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है।
- जैसा कि यूएस सुप्रीम कोर्ट ने डबर्ट बनाम मेरेल डॉव फार्मास्युटिकल्स इंक (1993) में देखा, "अदालत में सच्चाई की खोज और प्रयोगशाला में सच्चाई की खोज के बीच महत्वपूर्ण अंतर हैं। वैज्ञानिक निष्कर्ष सतत संशोधन के अधीन हैं। दूसरी ओर, कानून को विवादों को अंतत: और शीघ्रता से सुलझाना चाहिए।"
- न्यायिक आदेश केवल यह कहते हैं कि एक परियोजना को कुछ मानक शर्तों के अधीन अनुमति दी जाती है।
- परियोजना का लगभग कोई आलोचनात्मक मूल्यांकन नहीं है। फिर भी, अदालत की मंजूरी कार्यपालिका को उसके सामाजिक और पारिस्थितिक परिणामों के बावजूद काम के साथ आगे बढ़ने की खुली छूट हो जाती है।
- भारत के सर्वोच्च न्यायालय के पास मूल, अपीलीय और सलाहकार क्षेत्राधिकार है।
- प्रशासनिक निर्णय उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष न्यायिक समीक्षा के अधीन होते हैं जिन्हें एक मौलिक अधिकार के रूप में रखा गया है लेकिन एक बार जब सर्वोच्च न्यायालय एक वास्तविक नियामक व्यवस्था में पहला /या अंतिम अनुमोदन प्राधिकरण बन जाता है, तो किसी भी संबंधित नागरिक के लिए उच्च न्यायालयों, न्यायाधिकरणों और यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष इस मुद्दे को उठाने की शक्ति क्षीण पड़ जाती है।
- दूसरे शब्दों में, संविधान के अनुच्छेद 32 और 226 के तहत न्यायिक समीक्षा के माध्यम से सरकार के फैसले पर सवाल उठाने का, नागरिकों का मौलिक अधिकार छीन लिया गया है।
निष्कर्ष:
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