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Geography (भूगोल): January 2023 UPSC Current Affairs | भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

स्वीडन में खोजे गए दुर्लभ मृदा तत्त

चर्चा में क्यों?

  • हाल ही में स्वीडन की सरकारी स्वामित्व वाली खनन कंपनी LKAB ने यूरोप में दुर्लभ मृदा तत्त्वों के सबसे बड़े भंडार की खोज की है।

खोज का महत्त्व 

  • स्वीडन के उत्तरी क्षेत्र में स्थित किरुना के डिपो में लगभग 1 मिलियन मीट्रिक टन दुर्लभ मृदा ऑक्साइड का भंडार है।
  • यह खोज हरित संक्रमण के लिये आवश्यक आयातित कच्चे माल पर कम निर्भरता की यूरोप की महत्त्वाकांक्षा को बल देती है।
  • वर्तमान में यूरोप में दुर्लभ मृदा तत्त्वों का खनन नहीं किया जाता है और यह ज़्यादातर उन्हें अन्य क्षेत्रों से आयात करता है।
  • BBC की एक रिपोर्ट के अनुसार, यूरोपीय संघ (European Union- EU) द्वारा उपयोग किये जाने वाले दुर्लभ मृदा तत्त्व का 98% चीन द्वारा निर्यात किया गया था। 
  • यह खोज यूरोपीय संघ के साथ-साथ अन्य पश्चिमी देशों के लिये भी महत्त्वपूर्ण साबित हो सकती है क्योंकि ये देश दुर्लभ मृदा तत्त्वों के आयात के लिये चीन पर अपनी निर्भरता कम करना चाहते हैं।   

दुर्लभ मृदा तत्त्व

  • परिचय:  
    • यह 17 धातु तत्त्वों का एक समूह है। इनमें स्कैंडियम और यट्रियम के अलावा आवर्त सारणी में 15 लैंथेनाइड्स शामिल हैं जो लैंथेनाइड्स के समान भौतिक एवं रासायनिक गुणों से युक्त हैं। 
  • महत्त्व:  
    • वे उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्सकंप्यूटर और नेटवर्कसंचारस्वच्छ ऊर्जा, उन्नत परिवहन, स्वास्थ्य देखभाल, पारिस्थितिक संरक्षण और राष्ट्रीय रक्षा प्रौद्योगिकियों के लिये महत्त्वपूर्ण हैं। 
    • स्कैंडियम का उपयोग टेलीविज़न और फ्लोरोसेंट लैंप में किया जाता है। 
    • गठिया (Rheumatoid Arthritis) और कैंसर के इलाज के लिये दवाओं में यट्रियम का उपयोग किया जाता है।  
    • इन तत्त्वों का उपयोग अंतरिक्ष शटल घटकोंजेट इंजन टर्बाइन और ड्रोन में भी किया जाता है।
    • नासा के अंतरिक्ष शटल कार्यक्रम के लिये सबसे प्रचुर मात्रा में उपलब्ध दुर्लभ मृदा तत्त्व सेरियम महत्त्वपूर्ण है। 
    • इसके अलावा आंतरिक दहन प्रक्रिया वाली कारों से इलेक्ट्रिक वाहनों की ओर संक्रमण के कारण भी इस प्रकार के तत्त्वों की मांग में वृद्धि हुई है। 
  • चीन का एकाधिकार:
    • चीन ने समय के साथ दुर्लभ मृदा धातुओं पर वैश्विक प्रभुत्त्व हासिल कर लिया है, यहाँ तक कि एक बिंदु पर इसने दुनिया की 90% दुर्लभ मृदा धातुओं का उत्पादन किया था।
    • वर्तमान में हालाँकि यह 60% तक कम हो गया है और शेष मात्रा का उत्पादन अन्य देशों द्वारा किया जाता है, जिसमें क्वाड (ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान और संयुक्त राज्य अमेरिका) देश शामिल हैं।
    • वर्ष 2010 के बाद जब चीन ने जापान, अमेरिका और यूरोप की रेयर अर्थ्स शिपमेंट पर रोक लगा दी तो एशिया, अफ्रीका व लैटिन अमेरिका में छोटी इकाइयों के साथ-साथ ऑस्ट्रेलिया एवं अमेरिका में उत्पादन इकाइयाँ शुरू की गईं।
  • भारत में दुर्लभ मृदा तत्त्व:
    • भारत के पास दुनिया के दुर्लभ मृदा भंडार का 6% है, यह वैश्विक उत्पादन के केवल 1% का उत्पादन करता है तथा चीन से ऐसे खनिजों की अपनी अधिकांश आवश्यकताओं को पूरा करता है।
    • इंडियन रेयर अर्थ्स लिमिटेड (IREL) प्राथमिक खनिज के खनन एवं निष्कर्षण के लिये प्रमुख रूप से ज़िम्मेदार है जिसमें दुर्लभ मृदा तत्त्व शामिल हैं जैसे- मोनाज़ाइट समुद्र तट रेत, जो कई तटीय राज्यों में पाए जाते हैं।
    • IREL का मुख्य फोकस परमाणु ऊर्जा विभाग को मोनाज़ाइट से निकाले गए थोरियम को उपलब्ध कराना है।

जोशीमठ में भूस्खलन

चर्चा में क्यों? 

बद्रीनाथ और हेमकुंड साहिब की ओर जाने वाले यात्रियों के लिये एक महत्त्वपूर्ण केंद्र जोशीमठ में भूस्खलन एवं ज़मीन धँसने के कारण चिंतित स्थानीय लोगों द्वारा प्रदर्शन किया गया। 

  • इस शहर को भूस्खलन-धँसाव क्षेत्र घोषित किये जाने के साथ ही जोशीमठ में भूस्खलन से प्रभावित घरों में रहने वाले 60 से अधिक निवासियों को अस्थायी राहत केंद्रों में स्थानांतरित कर दिया गया था।

जोशीमठ

  • जोशीमठ उत्तराखंड के चमोली ज़िले में ऋषिकेश-बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग (NH-7) पर स्थित एक पहाड़ी शहर है।  
  • राज्य के अन्य महत्त्वपूर्ण धार्मिक और पर्यटन स्थलों के अलावा यह शहर बद्रीनाथ, औली, फूलों की घाटी (Valley of Flowers) एवं हेमकुंड साहिब की यात्रा करने वाले पर्यटकों के लिये रात्रि विश्राम स्थल के रूप में भी जाना जाता है।जोशीमठ, जो सेना की सबसे महत्त्वपूर्ण छावनियों में से एक है, भारतीय सशस्त्र बलों के लिये अत्यधिक सामरिक महत्त्व रखता है। 
  • शहर (उच्च जोखिम वाला भूकंपीय क्षेत्र-V) के माध्यम से धौलीगंगा और अलकनंदा नदियों के संगम, विष्णुप्रयाग से एक उच्च ढाल के साथ बहती हुई धारा आती है।
  • यह आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मुख्य मठों में से एक है, अन्य मठ उत्तराखंड के बद्रीनाथ में जोशीमठ, ओडिशा के पुरी और कर्नाटक के श्रींगेरी में हैं।
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जोशीमठ की समस्याओं का कारण

  • पृष्ठभूमि: 
    • दीवारों और इमारतों में दरार पड़ने की घटना पहली बार वर्ष 2021 में दर्ज की गई, जबकि उत्तराखंड के चमोली ज़िले में भूस्खलन एवं बाढ़ की घटनाएँ निरंतर रूप से देखी जा रही थीं।
    • रिपोर्टों के अनुसार, उत्तराखंड सरकार के विशेषज्ञ पैनल ने वर्ष 2022 में पाया कि जोशीमठ के कई हिस्सों में मानव निर्मित और प्राकृतिक कारकों के कारण इस प्रकार की समस्या उत्पन्न हो रही है।
    • यह पाया गया कि व्यावहारिक रूप से शहर के सभी ज़िलों में संरचनात्मक खामियाँ हैं और अंतर्निहित सामग्री के नुकसान या गतिविधियों के परिणामस्वरूप पृथ्वी की सतह के धीरे-धीरे या अचानक धँसने अथवा विलय हो जाने जैसे परिणाम देखने को मिलते रहने की संभावना है।
  • कारण: 
    • एक प्राचीन भूस्खलन स्थल: वर्ष 1976 की मिश्रा समिति की रिपोर्ट के अनुसार, जोशीमठ मुख्य चट्टान पर नहीं बल्कि रेत और पत्थर के जमाव पर स्थित है। यह एक प्राचीन भूस्खलन क्षेत्र पर स्थित है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अलकनंदा एवं धौलीगंगा की नदी धाराओं द्वारा कटाव भी भूस्खलन के कारकों के अंतर्गत आते हैं।
    • समिति ने भारी निर्माण कार्य, ब्लास्टिंग या सड़क की मरम्मत के लिये बोल्डर हटाने और अन्य निर्माण, पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी।
    • भौगोलिक स्थिति: क्षेत्र में बिखरी हुई चट्टानें पुराने भूस्खलन के मलबे जिसमें बाउलडर, नीस चट्टानें और ढीली मृदा शामिल है, से ढकी हुई हैं, जिनकी धारण क्षमता न्यून है।
    • ये नीस चट्टानें अत्यधिक अपक्षयित प्रकृति की होती हैं और विशेष रूप से मानसून के दौरान पानी से संतृप्त होने पर इनके रंध्रों पर उच्च दबाव बन जाता है फलस्वरूप इनका संयोजी मूल्य कम हो जाता है।
    • निर्माण गतिविधियाँ: निर्माण कार्य में वृद्धि, पनबिजली परियोजनाओं और राष्ट्रीय राजमार्ग के चौड़ीकरण ने पिछले कुछ दशकों में ढलानों को अत्यधिक अस्थिर बना दिया है।
    • भू-क्षरण: विष्णुप्रयाग से बहने वाली धाराओं और प्राकृतिक धाराओं के साथ हो रहा चट्टानी  फिसलन, शहर में भूस्खलन के अन्य कारण हैं।
  • प्रभाव: 
    • कम-से-कम 66 परिवारों ने शहर छोड़ दिया है, जबकि 561 घरों में दरारें आने की सूचना है। एक सरकारी अधिकारी ने कहा कि अब तक 3000 से अधिक लोग प्रभावित हुए हैं।

जोशीमठ को बचाने हेतु संभावित उपाय

  • विशेषज्ञ क्षेत्र में विकास और पनबिजली परियोजनाओं को पूरी तरह से बंद करने की सलाह देते हैं लेकिन निवासियों को तत्काल सुरक्षित स्थान पर स्थानांतरित किये जाने की आवश्यकता है और बदलते भौगोलिक कारकों को समायोजित करने के लिये शहर की योजना फिर से बनाई जानी चाहिये।
  • ड्रेनेज योजना सबसे बड़े कारकों में से एक है जिसका अध्ययन और पुनर्विकास करने की आवश्यकता है। शहर खराब जल निकासी एवं सीवर प्रबंधन से ग्रस्त है चूँकि अधिकांशतः शहरी अपशिष्ट, मृदा को दूषित कर रहा है, जिससे मृदा की संरचना कमज़ोर हो जाती है। राज्य सरकार ने सिंचाई विभाग को इस मुद्दे पर गौर करने और जल निकासी व्यवस्था के लिये एक नई योजना बनाने को कहा है।
  • विशेषज्ञों ने मृदा की क्षमता को बनाए रखने के लिये विशेष रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में पुनर्रोपण का भी सुझाव दिया है। जोशीमठ को बचाने के लिये सीमा सड़क संगठन (BRO) जैसे सैन्य संगठनों की सहायता से सरकार और नागरिक निकायों द्वारा एक समन्वित प्रयास किये जाने की आवश्यकता है।
  • हालाँकि लोगों को स्थानीय घटनाओं के बारे में चेतावनी देने के लिये राज्य में पहले से ही मौसम पूर्वानुमान तकनीक मौजूद है, किंतु इसके कवरेज में सुधार की आवश्यकता है। 
  • उत्तराखंड में मौसम की भविष्यवाणी, उपग्रहों और डॉप्लर वेदर रडार (ऐसे उपकरण जो वर्षा का पता लगाने एवं उसके स्थान और तीव्रता को निर्धारित करने के लिये विद्युत चुंबकीय ऊर्जा का उपयोग करते हैं) के माध्यम से की जाती है। 
  • राज्य सरकार को वैज्ञानिक अध्ययनों को भी अधिक गंभीरता से लेने की आवश्यकता है, जो वर्तमान संकट के कारणों की स्पष्ट रूप से व्याख्या करते हैं। तभी राज्य अपने विकास बाधाओं को खत्म कर पाएगा।
  • भूमि अवतलन (Land Subsidence)
    • भूमि अवतलन/अधोगमन पृथ्वी की सतह का धीरे-धीरे धँसना या अचानक धँसना है।
    • अवतलन- भूमिगत सामग्री के संचलन के कारण ज़मीन का धँसना पानी, तेल, प्राकृतिक गैस या खनिज संसाधनों को पंपिंग, फ्रैकिंग या खनन गतिविधियों द्वारा ज़मीन से बाहर निकालने के कारण होता है।
    • भूकंप, मृदा संघनन, हिमनदों के समस्थानिक समायोजन, अपरदन, सिंकहोल या विलियन रंध्र के गठन और वायु द्वारा निक्षेपित मृदा में जल का मिलना (एक प्राकृतिक प्रक्रिया जिसे लोयस के रूप में जाना जाता है) जैसी प्राकृतिक घटनाओं के कारण भी अवतलन हो सकता है।
    • अधोगमन बहुत बड़े क्षेत्रों जैसे पूरे राज्य या प्रांत या बहुत छोटे क्षेत्रों जैसे या आँगन के कोने में हो सकता है।
  • भूस्खलन: 
    • भूस्खलन को पृथ्वी के ढलान के नीचे की ओर व्यापक रूप से मृदा, चट्टान और मलबे के संचलन के रूप में परिभाषित किया गया है।
    • भूस्खलन बृहत क्षरण का एक प्रकार है, जो गुरुत्त्वाकर्षण के प्रत्यक्ष प्रभाव के तहत मृदा और चट्टान की नीचे की ओर गति को दर्शाता है।
    • भूस्खलन शब्द में ढलान की गति के पाँच तरीके शामिल हैं: गिरना, लुढ़कना, खिसकना, प्रसार और प्रवाहित होना।

विनिर्मित रेत

चर्चा में क्यों?  

रेत की कमी की समस्या के अपने अभिनव समाधान के लिये कोल इंडिया लिमिटेड (CIL) सुर्खियों में है। विनिर्मित रेत (M-Sand) के उत्पादन के लिये यह कंपनी पत्थरों के महीन कण, कोयला खदानों के अधिभार/ ओवरबर्डन (OB) से प्राप्त रेत और ओपनकास्ट कोयला खनन के दौरान हटाई गई मृदा का उपयोग कर रही है।

  • यह न केवल अपशिष्ट पदार्थों का पुनरुपयोग करता है बल्कि प्राकृतिक रेत खनन की आवश्यकता को भी कम करता है और कंपनी के लिये अतिरिक्त राजस्व का स्रोत निर्मित करता है।

विनिर्मित रेत (M-सैंड) के लाभ

  • लागत-प्रभावशीलता: प्राकृतिक रेत के उपयोग की तुलना में विनिर्मित रेत का उपयोग करना अधिक सस्ता हो सकता है, क्योंकि इसे कम लागत पर बड़ी मात्रा में उत्पादित किया जा सकता है।
  • स्थिरता: निर्मित रेत आकार में एक समान दानेदार हो सकती है, जो उन निर्माण परियोजनाओं हेतु लाभदायक हो है जिनके लिये एक विशिष्ट प्रकार के रेत की आवश्यकता होती है।
  • पर्यावरणीय लाभ: विनिर्मित रेत का उपयोग प्राकृतिक रेत के खनन की आवश्यकता को कम कर सकता है। प्राकृतिक रेत के खनन के नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभाव हो सकते हैं। 
  • इसके अलावा कोयले की खदानों से ओवरबर्डन का उपयोग करने से उन सामग्रियों का पुन: उपयोग करने में मदद मिल सकती है जिन्हें अन्यथा अपशिष्ट माना जाता है। 
  • कम पानी की खपत: निर्मित रेत का उपयोग निर्माण परियोजनाओं के लिये आवश्यक पानी की मात्रा को कम करने में मदद कर सकता है, क्योंकि इसे उपयोग करने से पहले धोने की आवश्यकता नहीं होती है।
  • अन्य लाभ: वाणिज्यिक उपयोग के अलावा उत्पादित रेत का उपयोग भूमिगत खानों में किया जाएगा जो सुरक्षा और संरक्षण को बढ़ाता है। 
  • इसके अलावा नदियों से कम रेत निष्कर्षण चैनल बेड और किनारों के कटाव को कम करेगा तथा जल आवास की रक्षा करेगा

भारत में रेत खनन की स्थिति

  • परिचय:  
    • खान और खनिज (विकास और विनियम) अधिनियम, 1957 (MMDR अधिनियम) के तहत रेत को "गौण खनिज" के रूप में वर्गीकृत किया गया है और गौण खनिजों पर प्रशासनिक नियंत्रण राज्य सरकारों के पास है। 
    • नदियाँ और तटीय क्षेत्र रेत के मुख्य स्रोत हैं, और देश में निर्माण तथा बुनियादी ढाँचे के विकास के कारण हाल के वर्षों में इसकी मांग में काफी वृद्धि हुई है।
    • पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने वैज्ञानिक रेत खनन तथा पर्यावरण के अनुकूल प्रबंधन प्रथाओं को बढ़ावा देने के लिये "सतत् रेत खनन प्रबंधन दिशा-निर्देश 2016" जारी किये हैं। 
  • भारत में रेत खनन से संबंधित मुद्दे: 
    • पर्यावरण क्षरण: रेत खनन से आवास और पारिस्थितिक तंत्र का विनाश हो सकता है, साथ ही नदी के किनारों और तटीय क्षेत्रों का क्षरण भी हो सकता है। 
    • जल की कमी: रेत खनन के कारण जल स्तर में कमी आ सकती है और पीने तथा सिंचाई के लिये जल की उपलब्धता की समस्या उत्पन्न हो सकती है।
    • उदाहरण के लिये राजस्थान में रेत खनन से लूनी नदी के जल स्तर में गिरावट आई है, जिस कारण आस-पास के गाँवों की पेयजल आपूर्ति काफी प्रभावित हुई है।
    • बाढ़: अत्यधिक रेत खनन से नदी के तल उथले हो सकते हैं, जिससे बाढ़ का खतरा बढ़ सकता है।  
    • उदाहरण के लिये बिहार राज्य में रेत खनन के कारण कोसी नदी में बाढ़ आने की समस्या बनी रहती है, जिससे फसलों और संपत्ति की क्षति होती है।
    • भ्रष्टाचार: रेत खनन अत्यधिक लाभदायक गतिविधि है और खनन पट्टों के आवंटन तथा विनियमों के प्रवर्तन में भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी के कई उदाहरण सामने आते ही रहते हैं। 

आगे की राह

  • सतत् खनन पद्धतियाँ: पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम करने वाले वैज्ञानिक तरीकों और उपकरणों का उपयोग करके पर्यावरण की दृष्टि से सतत् तरीके से रेत खनन किया जा सकता है।  
  • इसमें ड्रेजिंग (नदी, नहर आदि के तल पर जमा कीचड़ को विशेष मशीन से साफ करने की प्रक्रिया) और खनन तकनीकों का उपयोग शामिल किया जा सकता है जो नदी तल को प्रभावित नहीं करते हैं या फिर नदी की रेत के विकल्प के रूप में निर्मित रेत का उपयोग भी एक अच्छा कदम हो सकता है।
    • नियमन और प्रवर्तन: सरकार कानून के माध्यम से रेत खनन को विनियमित कर सकती है और अवैध खनन के लिये सख्त दंड लागू अथवा प्रावधान  कर सकती है।  
  • इसमें एक नियामक निकाय का गठन भी शामिल किया जा सकता है जो खनन गतिविधियों पर नज़र रखे और कानूनों तथा विनियमों का अनुपालन सुनिश्चित करे। 
  • सामुदायिक भागीदारी: रेत खनन से संबंधित निर्णय लेने की प्रक्रिया में स्थानीय समुदायों को शामिल किया जा सकता है, जो उनकी चिंताओं को दूर करने में मदद कर सकता है और यह सुनिश्चित कर सकता है कि उनकी आजीविका पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। 
    • अभिनव समाधान: रेत खनन से संबंधित मुद्दों के समाधान हेतु सरकार अभिनव समाधान तलाश सकती है।
  • उदाहरण के लिये अवैध खनन का पता लगाने और रोकने हेतु खनन गतिविधियों की निगरानी के लिये ड्रोन एवं सैटेलाइट इमेजरी का उपयोग किया जा सकता है।

भारत में बाँधों की स्थिति

चर्चा में क्यों?

भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) की एक नई रिपोर्ट के अनुसार, चंबल नदी (मध्य प्रदेश) पर निर्मित गांधी सागर बाँध की तत्काल मरम्मत कराए जाने की आवश्यकता है।

नियमित जाँच का अभाव, गैर-कार्यात्मक उपकरण और चोक नालियाँ वर्षों से बाँध को नुकसान पहुँचाने वाले प्रमुख कारक हैं

प्रमुख बिंदु

  • परिचय:
    • बड़े बाँध बनाने के मामले में भारत दुनिया में तीसरे नंबर पर है।
    • अब तक बनाए गए 5,200 से अधिक बड़े बाँधों में से लगभग 1,100 बड़े बाँध पहले ही 50 वर्ष की आयु तक पहुँच चुके हैं और कुछ तो 120 वर्ष से अधिक पुराने हैं।
    • ऐसे बाँधों की संख्या वर्ष 2050 तक बढ़कर 4,400 हो जाएगी।
    • इसका अर्थ है कि देश के बड़े बाँधों में से 80% के अप्रचलित होने की संभावना है, क्योंकि वे 50 वर्ष से 150 वर्ष पुराने हो जाएंगे।
    • सैकड़ों-हज़ारों मध्यम एवं छोटे बाँधों की स्थिति और भी खतरनाक है क्योंकि उनका जीवन बड़े बाँधों की तुलना में कम होता है।
    • उदाहरण: कृष्णा राजा सागर बाँध वर्ष 1931 में बनाया गया था और अब 90 वर्ष पुराना है। इसी तरह, मेट्टूर बाँध वर्ष 1934 में बनाया गया था और अब 87 वर्ष पुराना है। ये दोनों जलाशय पानी की कमी वाले कावेरी नदी बेसिन में स्थित हैं।

भारत के पुराने बाँधों से संबंधित मुद्दे

  • वर्षा पैटर्न के अनुसार निर्मित: 
    • भारतीय बाँध बहुत पुराने हैं और पिछले दशकों के वर्षा पैटर्न के अनुसार बनाए गए हैं। हाल के वर्षों में बेमौसम वर्षा ने उन्हें असुरक्षित बना दिया है।
    • लेकिन सरकार बाँधों को वर्षा, बाढ़ चेतावनी जैसी सूचना प्रणाली से लैस कर रही है और सभी प्रकार की दुर्घटनाओं से बचने के लिये आपातकालीन कार्य योजना तैयार कर रही है।
  • भंडारण क्षमता में कमी:
    • जैसे-जैसे बाँधों की आयु बढ़ती है, जलाशयों में मिट्टी पानी का स्थान ले लेती है। इसलिये भंडारण क्षमता के संबंध में किसी भी प्रकार का कोई दावा प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है, जैसा कि 1900 और 1950 के दशकों में देखा गया था।
    • भारतीय बांँधों में जल भंडारण स्थान में अप्रत्याशित रूप से अधिक तेज़ी के साथ कमी आ रही है।
  • त्रुटिपूर्ण डिज़ाइन:
    • अध्ययन बताते हैं कि भारत के कई बाँधों का डिज़ाइन त्रुटिपूर्ण है।
    • भारतीय बाँधों के डिज़ाइन में अवसादन विज्ञान (Sedimentation Science) को सही ढंग से व्यवस्थित नहीं किया गया है अर्थात् डिज़ाइन में इसका अभाव देखने को मिलता है। जिस कारण से बाँध की जल भंडारण क्षमता में कमी आती है।
  • अवसाद/गाद की उच्च दर:
    • यह निलंबित अवसादों की वृद्धि एवं तलछटों पर महीन अवसादों का जमाव (अस्थायी या स्थायी)  जहाँ कि वे अवांछनीय हैं, दोनों को संदर्भित करता है।
  • परिणाम:
    • खाद्य सुरक्षा पर प्रभाव: जलाशयों में जब मिट्टी जमा होने लगती है, तो उस स्थिति में जल की आपूर्ति ठप हो जाती है। ऐसे में समय बीतने के साथ-साथ फसल क्षेत्र को प्राप्त होने वाले जल की मात्रा में कमी आनी शुरू हो सकती है।
    • इसके परिणामस्वरूप सकल सिंचित क्षेत्र का आकार सिकुड़ जाता है और यह क्षेत्र वर्षा अथवा भू-जल पर निर्भर हो जाता है जिसके कारण भू-जल के अनियंत्रित दोहन को बढ़ावा मिलता है।
    • किसानों की आय पर प्रभाव: बाँधों की जल संग्रहण क्षमता में कमी के कारण सिंचाई की प्रक्रिया और फसल की पैदावार गंभीर रूप से प्रभावित हो सकती है, ऐसे में पर्याप्त आवश्यक हस्तक्षेप के अभाव में किसानों की आय में भी भारी कमी आएगी। 
    • इसके अलावा पानी फसल की उपज और ऋण, फसल बीमा और निवेश के लिये  एक महत्त्वपूर्ण  कारक है।
    • बाढ़ के मामलों में वृद्धि: बाँधों के जलाशयों में गाद जमा होने की उच्च दर इस तर्क को पुष्ट करती है कि देश में कई नदी बेसिनों के जलाशयों के लिये डिज़ाइन की गई बाढ़ नियंत्रण प्रणालियाँ पहले ही काफी हद तक नष्ट हो चुकी हैं, जिसके कारण बाँधों के अनुप्रवाह में बाढ़ की आवृत्ति में वृद्धि हुई है।  

बाँध सुरक्षा की आवश्यकता

  • लोगों की जान बचाने के लिये:
    • पुराने बाँध आस-पास के क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिये चिंता का कारण बन सकते हैं।
  • निवेश की सुरक्षा:
    • इस महत्त्वपूर्ण भौतिक बुनियादी ढाँचे में भारी सार्वजनिक निवेश की सुरक्षा के साथ-साथ बाँध परियोजनाओं और राष्ट्रीय जल सुरक्षा से प्राप्त लाभों की निरंतरता सुनिश्चित करने हेतु बाँधों की सुरक्षा भी महत्त्वपूर्ण है।
  • भारत में जल संकट का समाधान:
    • भारत की बढ़ती आबादी के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन से जुड़े भारत के जल संकट के उभरते परिदृश्य में भी बाँधों की सुरक्षा महत्त्वपूर्ण है।
  • संबंधित पहलें:
    • बाँध सुरक्षा विधेयक, 2019: राज्यसभा ने हाल ही में बाँध सुरक्षा विधेयक, 2019 पारित किया है।
    • यह विधेयक बाँध की विफलता से संबंधित आपदा की रोकथाम हेतु निर्दिष्ट बाँध की निगरानी, निरीक्षण, संचालन और रखरखाव का प्रावधान करता है और उनके सुरक्षित कामकाज को सुनिश्चित करने के लिये संस्थागत तंत्र को स्थापित करने का  भी प्रावधान करता है।.
    • बाँध पुनर्वास और सुधार परियोजना (डीआरआईपी चरण II): यह एक स्थायी तरीके से चयनित मौजूदा बाँधों और संबद्ध उपकरणों की सुरक्षा एवं प्रदर्शन में सुधार करने से संबंधित है।

आगे की राह 

  • बाँध सुरक्षा सुनिश्चित करने में सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू वास्तविक हितधारकों के विचारों को ध्यान में रखते हुए जवाबदेही और पारदर्शिता का अस्तित्त्व है।
  • परिचालन सुरक्षा के संदर्भ में यह तय किया जाता है कि एक बाँध को कैसे संचालित किया जाना चाहिये तथा जब एक बाँध प्रस्तावित किया जाता है तो उसे पर्यावरणीय परिवर्तनों जैसे कि गाद तथा वर्षा पैटर्न के आधार पर नियमित अंतराल पर अपग्रेड करने की आवश्यकता होती है क्योंकि बाँध में आने वाली बाढ़ की आवृत्ति और तीव्रता के साथ-साथ स्पिलवे क्षमता बदल सकती है।
  • नियम वक्र भी पब्लिक डोमेन में होना चाहिये ताकि लोग इसके सही कामकाज़ पर नजर रख सकें और इसकी अनुपस्थिति में सवाल उठा सकें।
  • इसके अलावा भारत में हर नदी के रास्ते में कई बाँध आते हैं, इसलिये संचालन के संदर्भ में बाँध की सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु प्रत्येक अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम बाँध का संचयी मूल्यांकन होना चाहिये।

शीत लहर

चर्चा में क्यों?

दिल्ली और उत्तर पश्चिम भारत के अनेक हिस्से वर्ष 2023 की शुरुआत से ही शीत लहर की चपेट में हैं।

  • इस महीने का न्यूनतम तापमान 8 जनवरी को 1.9 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया था, जो 15 वर्षों में जनवरी माह का दूसरा सबसे न्यूनतम तापमान था।
  • दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में अधिक कोहरा तथा बादलों की कमी के कारण क्षेत्र में कड़ाके की ठंड पड़ रही है।

शीत लहर के ज़िम्मेदार कारक

  • बड़े पैमाने पर कोहरा:
    • भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के अनुसार, जनवरी 2023 में उत्तर भारत में सामान्य तापमान से अधिक ठंड के प्रमुख कारकों में से एक बड़े पैमाने पर कोहरा है।
    • कोहरा लंबे समय तक बना रहता है जो सूर्य की रोशनी को सतह तक पहुँचने से रोकता है और विकिरण संतुलन को प्रभावित करता है। दिन के समय में गर्मी नहीं होती है तथा फिर रात का प्रभाव होता है।
  • धुँधली रातें:
    • धुँधली या बादल भरी रातें आमतौर पर गर्म रातों से संबंधित होती हैं, लेकिन अगर कोहरा दो या तीन दिनों तक रहता है, तो रात में भी ठंड शुरू हो जाती है।
    • हल्की हवाएँ और भूमि की सतह के पास उच्च नमी सुबह के समय भारत-गंगा के मैदानी इलाकों के बड़े हिस्से में कोहरे की चादर के निर्माण में योगदान दे रही है।
  • पछुआ हवाएँ:
    • चूँकि इस क्षेत्र में पश्चिमी विक्षोभ का कोई महत्त्वपूर्ण प्रभाव नहीं है, इसलिये ठंडी उत्तर-पश्चिमी हवाएँ भी कम तापमान में योगदान दे रही हैं।
    • दोपहर में लगभग 5 से 10 किमी. प्रति घंटे की रफ्तार से चलने वाली पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी हवाएँ भी तापमान गिरावट में योगदान दे रही हैं।

शीत लहर

  • परिचय:
    • 24 घंटों के भीतर तापमान में तेज़ी से गिरावट को शीत लहर कहते है, फलस्वरूप कृषि, उद्योग, वाणिज्य और सामाजिक गतिविधियों के लिये अत्यधिक सुरक्षा की आवश्यकता होती है।
  • शीत लहर की स्थिति:
    • मैदानी इलाकों के लिये शीतलहर की घोषणा तब की जाती है जब न्यूनतम तापमान 10 डिग्री सेल्सियस या उससे कम हो और लगातार दो दिनों तक सामान्य से 4.5 डिग्री सेल्सियस कम हो।
    • 'अत्यंत' ठंडा दिन तब माना जाता है जब अधिकतम तापमान सामान्य से कम-से-कम 6.5 डिग्री कम होता है।
    • तटीय स्थानों पर न्यूनतम तापमान 10 डिग्री सेल्सियस शायद ही कभी होता है। ठंडी हवा की गति के आधार पर न्यूनतम तापमान कुछ डिग्री कम हो जाता है जो स्थानीय लोगों के लिये परेशानी का कारण बनता है।
    • हवा के तापमान पर शीतलन प्रभाव के माप को विंड चिल फैक्टर कहते है।
  • भारत का मुख्य शीत लहर क्षेत्र:
    • 'प्रमुख शीत लहर' क्षेत्र के अंतर्गत पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और तेलंगाना आदि आते हैं।
  • भारत में शीत लहर का कारण:
    • क्षेत्र में बादलों के आच्छादन का अभाव: बादल कुछ उत्सर्जित अवरक्त विकिरण को वापस परावर्तित कर देते हैं, जिससे पृथ्वी गर्म हो जाती है, किंतु बादलों की अनुपस्थिति से क्षेत्र में यह प्रक्रिया नहीं हो पाती है।
    • ऊपरी हिमालय में बर्फबारी से इन क्षेत्रों की ओर ठंडी हवाओं का चलना।
    • इस क्षेत्र में ठंडी हवा का अधोगमन (Subsidence): ठंडी एवं शुष्क वायु का पृथ्वी की सतह के पास नीचे की ओर गति हवाओं का अधोगमन (Subsidence of Air) कहलाता है।
    • ला नीना: प्रशांत महासागर इस समय ला नीना की स्थिति का सामना कर रहा है। ला नीना प्रशांत महासागर के ऊपर होने वाली एक जटिल मौसमी घटना है जिसका विश्व भर के मौसम पर व्यापक असर पड़ता है, यह स्थिति शीत लहर को प्रोत्साहित करती है।
    • ला नीना वर्षों के दौरान ठंड की स्थिति अत्यंत तीव्र हो जाती है और शीत लहर की आवृत्ति एवं क्षेत्र बढ़ जाता है।
    • पश्चिमी विक्षोभ: पश्चिमी विक्षोभ भारत में शीत लहर का कारण बन सकता है। पश्चिमी विक्षोभ मौसम प्रणालियाँ हैं जो भूमध्य सागर में उत्पन्न होती हैं और पूर्व की ओर प्रवाहित होती हैं, जो भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में ठंडी हवाएँ, वर्षा और बादल का निर्माण करती हैं। इन विक्षोभ से तापमान में गिरावट आ सकती है एवं शीत लहर की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। हालाँकि सभी पश्चिमी विक्षोभ शीत लहर की स्थिति उत्पन्न नहीं करते हैं।

रोगाणुरोधी-प्रतिरोधी गोनोरिया

चर्चा में क्यों?  

हाल ही में केन्या में रोगाणुरोधी-प्रतिरोधी गोनोरिया का प्रकोप देखा गया।

  • शोधकर्त्ताओं ने चेतावनी दी है कि यह संक्रमण कुछ मामलों में स्पर्शोन्मुख है जो प्रजनन प्रणालियों को स्थायी क्षति सहित महत्त्वपूर्ण स्वास्थ्य चुनौतियों का कारण बन सकता है।

गोनोरिया

  • गोनोरिया एक यौन संचारित संक्रमण (STI) है जो जीवाणु नीसेरिया गोनोरिया के कारण होता है।
  • यह पुरुषों और महिलाओं दोनों को संक्रमित कर सकता है और जननांगों, मलाशय और गले को प्रभावित कर सकता है।
  • यदि उपचार नहीं किया जाता है तो गोनोरिया गंभीर स्वास्थ्य समस्याएँ पैदा कर सकता है, जिसमें बाँझपन और मानव इम्यूनोडेफिशिएंसी वायरस (HIV) संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है। 
  • विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, यह क्लैमाइडिया के बाद दुनिया भर में यौन संचरित दूसरी सबसे आम बीमारी है
  • गोनोरिया का उपचार आमतौर पर एंटीबायोटिक दवाओं से किया जाता है, लेकिन जीवाणु कई उन दवाओं के प्रति तेज़ी से प्रतिरोधी हो गए हैं जो कभी प्रभावी थे।

रोगाणुरोधी प्रतिरोध (AMR)

  • परिचय: 
    • रोगाणुरोधी प्रतिरोध (Antimicrobial Resistance-AMR) का तात्पर्य किसी भी सूक्ष्मजीव (बैक्टीरिया, वायरस, कवक, परजीवी आदि) द्वारा एंटीमाइक्रोबियल दवाओं (जैसे- एंटीबायोटिक्स, एंटीफंगल, एंटीवायरल, एंटीमाइरियल और एंटीहेलमिंटिक्स) जिनका उपयोग संक्रमण के इलाज के लिये किया जाता है, के खिलाफ प्रतिरोध हासिल कर लेने से है। 
    • इसके अलावा, सूक्ष्मजीव जो रोगाणुरोधी प्रतिरोध विकसित करते हैं, उन्हें कभी-कभी "सुपरबग" के रूप में जाना जाता है।
  • कारण: 
    • खराब संक्रमण नियंत्रण और अपर्याप्त स्वच्छता। 
    • एंटीबायोटिक दवाओं का अति प्रयोग और खराब गुणवत्ता वाली दवाओं का बार-बार उपयोग। 
    • बैक्टीरिया के आनुवंशिक उत्परिवर्तन। 
    • नई रोगाणुरोधी दवाओं के अनुसंधान और विकास में निवेश की कमी
  • प्रभाव: 
    • AMR संक्रमण फैलाने और इलाज हेतु जोखिम दर में वृद्धि करता है, जिससे लंबी बीमारी, विकलांगता और मृत्यु तक हो जाती है। 
    • यह स्वास्थ्य देखभाल लागत को भी बढ़ाता है और स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों की स्थिरता को खतरे में डालता है
  • भारत में मान्यता: 
    • राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 रोगाणुरोधी प्रतिरोध की समस्या पर प्रकाश डालती है और इसे संबोधित करने के लिये प्रभावी कार्रवाई का आह्वान करती है। 
    • स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (MoHFW) ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के साथ मंत्रालय के सहयोगी कार्य के लिये शीर्ष 10 प्राथमिकताओं में से एक के रूप में AMR की पहचान की है। 
    • भारत ने क्षय रोग, वेक्टर जनित रोग, एक्वायर्ड इम्युनोडेफिशिएंसी सिंड्रोम (एड्स) आदि कार्यक्रमों में रोग पैदा करने वाले रोगाणुओं में दवा प्रतिरोध के उद्भव की निगरानी कार्य शुरू किया है। 
  • सरकारी पहल:
    • AMR रोकथाम पर राष्ट्रीय कार्यक्रम: यह कार्यक्रम वर्ष 2012 में शुरू किया गया था। इस कार्यक्रम के तहत राज्य मेडिकल कॉलेज में प्रयोगशालाओं की स्थापना करके AMR निगरानी नेटवर्क को मज़बूत किया गया है।
    • AMR पर राष्ट्रीय कार्ययोजना: यह स्वास्थ्य दृष्टिकोण पर केंद्रित है और अप्रैल 2017 में विभिन्न हितधारक मंत्रालयों/विभागों को शामिल करने के उद्देश्य से शुरू किया गया था।
    • AMR सर्विलांस एंड रिसर्च नेटवर्क (AMRSN): इसे वर्ष 2013 में लॉन्च किया गया था ताकि देश में दवा प्रतिरोधी संक्रमणों के सबूत और प्रवृत्तियों तथा पैटर्न का अनुसरण किया जा सके। 
    • एंटीबायोटिक प्रबंधन कार्यक्रम: भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (Indian Council of Medical Research- ICMR) ने अस्पताल वार्डों और ICU में एंटीबायोटिक दवाओं के दुरुपयोग तथा अति प्रयोग को नियंत्रित करने के लिये भारत में एक पायलट परियोजना पर एंटीबायोटिक स्टीवर्डशिप कार्यक्रम शुरू किया है।

निष्कर्ष

सार्वजनिक स्वास्थ्य को बनाए रखने और दवा प्रतिरोधी संक्रमणों के प्रसार को रोकने के लिये रोगाणुरोधी प्रतिरोध को नियंत्रित करना महत्त्वपूर्ण है। इसके लिये रोगाणुरोधी दवाओं के उपयोग को केवल उचित मामलों तक सीमित करना, संक्रमण पर नियंत्रण स्थिति में सुधार करना, अनुसंधान और विकास में निवेश करना एवं अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देने जैसे उपायों को लागू करना महत्त्वपूर्ण है।

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FAQs on Geography (भूगोल): January 2023 UPSC Current Affairs - भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi

1. स्वीडन में खोजे गए दुर्लभ मृदा तत्त क्या हैं?
उत्तर. स्वीडन में खोजे गए दुर्लभ मृदा तत्त को स्वीडिश नाम से जाना जाता हैं। यह मृदा तत्त एक विशेष प्रकार की धातु या खनिज होती है जो स्वीडन के भूमि में पायी जाती हैं। इसका उपयोग अक्सीजन उत्पादन और इलेक्ट्रॉनिक्स में होता हैं।
2. जोशीमठ में भूस्खलन क्या हैं?
उत्तर. जोशीमठ में भूस्खलन एक प्राकृतिक आपदा है जो धरती की सतह को उठाने के कारण होती हैं। यह एक भूकंप या भूचाल के फलस्वरूप हो सकता हैं और जोशीमठ में खासकर जलमग्निक गतिविधियों के कारण हो सकता हैं। इसके परिणामस्वरूप भूमि तथा निवासियों को नुकसान पहुंच सकता हैं।
3. विनिर्मित रेत क्या होती हैं?
उत्तर. विनिर्मित रेत उस रेत को कहते हैं जिसे मनुष्य ने संशोधन या प्रक्रियाओं के माध्यम से बनाया या तैयार किया हैं। इसे अक्सर निर्माण क्षेत्रों में इस्तेमाल किया जाता हैं, जैसे कि इमारत निर्माण, सड़क निर्माण, और अन्य इंजीनियरिंग कार्यों में।
4. भारत में बाँधों की स्थिति क्या हैं?
उत्तर. भारत में बाँधों की स्थिति अत्यंत महत्वपूर्ण हैं चूंकि ये प्राकृतिक आपदाओं से निपटने, जल संचयन और बिजली उत्पादन के लिए आवश्यक होते हैं। हालांकि, कुछ बाँध अभी भी अविकसित हैं और कुछ बाँध अपूर्ण बन रहे हैं, जो भारत को जल संसाधन के प्रबंधन में चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा हैं।
5. शीत लहर क्या होती हैं?
उत्तर. शीत लहर एक प्रकार की प्राकृतिक आपदा हैं जो शीतात्मक क्षेत्रों में देखी जा सकती हैं। जब गति वायुमंडल के कारण अत्यधिक होती हैं, तो वायुमंडल में ऐसी लहरें उत्पन्न होती हैं जो ठंडी और तेज हवाओं के साथ आती हैं। ये लहरें खतरनाक हो सकती हैं और उच्चतम तापमान का कारण बन सकती हैं।
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