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Indian Society and Social Issues (भारतीय समाज और सामाजिक मुद्दे): January 2023 UPSC Current Affairs | Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly PDF Download

संयुक्त राष्ट्र विश्व सामाजिक रिपोर्ट 2023

चर्चा में क्यों? 

संयुक्त राष्ट्र (UN) की विश्व सामाजिक रिपोर्ट 2023 के अनुसार, बढ़ती उम्र के मामलों में शीर्ष पर रहते हुए दुनिया भर में 65 वर्ष या उससे अधिक आयु के व्यक्तियों की संख्या अगले तीन दशकों में दोगुनी होने की संभावना है। 

रिपोर्ट की मुख्य विशेषताएँ

  • वृद्ध आबादी वर्ष 2050 में 1.6 बिलियन तक पहुँच जाएगी, जो वैश्विक आबादी का 16% से अधिक है। 
  • उत्तरी अफ्रीका, पश्चिम एशिया और उप-सहारा अफ्रीका में अगले तीन दशकों में वृद्ध लोगों की संख्या में सबसे तेज़ वृद्धि होने की उम्मीद है। 
  • साथ ही यूरोप और उत्तरी अमेरिका को मिलाकर अब वृद्ध व्यक्तियों की संख्या सबसे अधिक है।
  • यह जनसांख्यिकीय बदलाव युवा और वृद्ध देशों में वृद्धावस्था सहायता की वर्तमान व्यवस्था पर सवाल खड़ा करता है
  • लैंगिक असमानता वृद्धावस्था में भी बनी रहती है। आर्थिक रूप से महिलाओं की औपचारिक श्रम बाज़ार भागीदारी के निचले स्तर, कम कामकाज़ी जीवन और कार्य के वर्षों के दौरान कम वेतन बाद के जीवन में अधिक आर्थिक असुरक्षा का कारण बनते हैं।

वृद्ध जनसंख्या

  • परिचय:  
    • इससे तात्पर्य समय के साथ बढ़ रहे समाज में वृद्ध/बुज़ुर्ग व्यक्तियों के अनुपात से है।
    • यह सामान्यतः जनसंख्या के अनुपात से मापा जाता है जो निर्धारित आयु से अधिक है, जैसे कि 65 वर्ष या उससे अधिक
  • भारत में स्थिति:  
    • राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग के अनुसार, भारत की जनसंख्या में बुज़ुर्गों की हिस्सेदारी (जो वर्ष 2011 में 9% के करीब थी) तेज़ी से बढ़ रही है और वर्ष 2036 तक 18% तक पहुँच सकती है।
    • स्वतंत्रता के बाद से भारत में जीवन प्रत्याशा वर्ष 1940 के दशक के अंत में जो कि लगभग 32 वर्ष थी, वर्तमान में दोगुने से अधिक बढ़कर 70 वर्ष हो गई है। 
  • वृद्ध जनसंख्या से संबद्ध समस्याएँ:  
    • स्वास्थ्य देखभाल की लागत: उम्र बढ़ने के साथ व्यक्ति में जीर्ण शारीरिक स्वास्थ्य स्थितियों की अधिक संभावना के साथ ही  उन्हें अधिक स्वास्थ्य सेवाओं की आवश्यकता होती है।
    • इससे सरकारों, बीमाकर्त्ताओं और व्यक्तियों के लिये स्वास्थ्य देखभाल लागत में वृद्धि हो सकती है।
    • सामाजिक सुरक्षा असंतुलन: वृद्ध जनसंख्या सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों पर दबाव डाल सकती है, क्योंकि जनसंख्या का एक छोटा हिस्सा कार्यशील है और तंत्र में योगदान दे रहा है, जबकि एक बड़ा हिस्सा सेवानिवृत्त हो रहा है और आश्रित होकर लाभ उठा रहा है।
    • इससे कर बढ़ाने या लाभों को कम करने का दबाव बढ़ सकता है।
    • मानसिक स्वास्थ्य संबंधी मुद्दे: हालिया सर्वेक्षण के अनुसार, 30%-50% बुज़ुर्गों में ऐसे लक्षण थे जो उन्हें शक्तिहीनता, अकेलेपन के कारण उदास करते हैं। 
    • अकेले रहने वाले बुज़ुर्गों में बड़ी संख्या महिलाओं की है, खासकर विधवाओं की। 
  • अन्य समस्याएँ: 
    • बच्चों द्वारा अपने बुज़ुर्ग माता-पिता के प्रति लापरवाही, सेवानिवृत्ति के कारण मोहभंग, शक्तिहीनता, अकेलापन, बेकारी और बुज़ुर्गों में अलगाव की भावना, पीढ़ीगत भिन्नता। 
  • वृद्धावस्था जनसंख्या से संबंधित वर्तमान योजनाएँ:
    • प्रधानमंत्री वय वंदना योजना (PMVVY) 
    • वृद्ध व्यक्तियों के लिये एकीकृत कार्यक्रम 
    • संपन्न परियोजना (SAMPANN Project) 
    • बुज़ुर्गों के लिये ‘SACRED’ पोर्टल 
    • Elder Line (अखिल भारतीय बुज़ुर्ग सहायता हेतु टोल फ्री नंबर)
    • मैड्रिड इंटरनेशनल प्लान ऑफ एक्शन ऑन लिविंग के आधार पर विश्व स्वास्थ्य संगठन और संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2021-2030 को अच्छे स्वास्थ्य के साथ उम्र बढ़ने अथवा जीवन जीने के दशक के रूप में घोषित किया है। यह वरिष्ठ नागरिकों के सशक्तीकरण की दिशा में एक सकारात्मक कदम है।

आगे की राह

  • स्वास्थ्य देखभाल और सामाजिक सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करना: वृद्ध नागरिकों की सहायता के लिये स्वास्थ्य देखभाल और सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों के लिये वित्तपोषण में वृद्धि किये जाने की आवश्यकता है।
  • इसके अलावा स्वस्थ उम्र और निवारक स्वास्थ्य देखभाल को बढ़ावा देने से पुरानी बीमारी का बोझ कम हो सकता है।
  • बुज़ुर्गों को वित्तीय सुरक्षा: वृद्ध नागरिकों को वित्तीय रूप से सुरक्षित करने के लिये पेंशन कवरेज में वृद्धि और पेंशन योजनाओं में सुधार करना।
  • CSR को बुज़ुर्गों के सशक्तीकरण से जोड़नाकॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्त्व के माध्यम से बुज़ुर्ग देखभाल सेवाओं के प्रावधान में निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।
  • निजी क्षेत्र बुज़ुर्ग नागरिकों की सहायता के लिये उम्र के अनुकूल बुनियादी ढाँचे और वातावरण के विकास में भी मदद कर सकता है। 
  • वृद्धावस्था स्वयं सहायता समूह: बुज़ुर्गों को सामाजिक और शारीरिक रूप से सक्रिय तथा व्यस्त रखने के लिये हथकरघा एवं हस्तशिल्प गतिविधियों से जुड़े स्थानीय स्तर पर वृद्धावस्था स्वयं सहायता समूहों का गठन किया जा सकता है।
  • स्थानीय स्तर पर समय-समय पर बोर्ड गेम कार्यक्रम भी आयोजित किये जा सकते हैं ताकि वृद्ध एवं युवा नागरिकों को एक साथ लाने वाली गतिविधियों के माध्यम से अंतर-पीढ़ी बंधन को बढ़ावा दिया जा सके।

खेलों में महिलाओं के समक्ष मुद्दे

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में कुछ खिलाड़ियों ने भारतीय कुश्ती संघ (WFI) के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए थे।

  • इस मामले में खेल मंत्रालय ने 72 घंटे के भीतर WFI से स्पष्टीकरण मांगा है, यदि WFI जवाब देने में विफल रहता है, तो मंत्रालय राष्ट्रीय खेल विकास संहिता, 2011 के प्रावधानों के अनुसार संघ के खिलाफ कार्रवाई शुरू करेगा।

ऐसे आरोपों का परिदृश्य

  • सूचना का अधिकार (RTI) आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2010 से 2020 के बीच भारतीय खेल प्राधिकरण (SAI) को यौन उत्पीड़न की 45  शिकायतें मिलीं जिनमें से 29 शिकायतें कोचों के खिलाफ थीं।
  • इनमें से कई रिपोर्ट किये गए मामलों में अभियुक्तों को सामान्य दंड के साथ उदारतापूर्वक छोड़ दिया गया था, जिसमें वेतन या पेंशन में मामूली कटौती तथा स्थानांतरण शामिल था।
  • कुछ मामलों में अभी तक कोई निर्णय नहीं हुआ है तथा कई वर्षों से चल रहे हैं और इनका कोई समाधान नहीं दिख रहा है।
  • खेल में दुर्व्यवहार का मामला वर्ष 2021 में जर्मनी में एक चुनावी मुद्दा था। संघीय संसद की खेल समिति ने मई 2021 में खेलों में भावनात्मक, शारीरिक और यौन हिंसा पर एक सार्वजनिक सुनवाई की मेज़बानी की। 
  • अब समय आ गया है कि भारत इस मुद्दे पर चर्चा करे तथा जंतर- मंतर पर खिलाड़ियों के विरोध प्रदर्शन का इंतज़ार न करे
  • 21वीं सदी में रहते हुए जहाँ हमने अपनी बोली लगाने के लिये रोबोट नियंत्रण तकनीक विकसित की है, अभी भी एक पहलू है जहाँ हम प्रगति की बात करते समय खुद को पिछड़ा हुआ पाते हैं- लिंग समानता। 

महिला खिलाड़ियों के समक्ष मुद्दे

  • वित्तपोषण और बजट:
    • पुरुष खिलाड़ियों की तुलना में महिला खिलाड़ियों को कम धन मिल पाता है, जिससे उनके लिये प्रतिस्पर्द्धा करना एवं लगातार कार्यक्रम चलाना मुश्किल हो जाता है।
  • उत्प्लावक लिंगवाद (Buoyant Sexism): 
    • महिलाओं को रोज़मर्रा के आधार पर लिंगवाद के कई मुद्दों का सामना करना पड़ता है, चाहे वह घर के बाहर कार्यस्थल हो या घर। उनके पहनावे, उनकी बातचीत व व्यवहार की निगरानी की जाती है और इन्हीं आधारों पर न्याय किया जाता है।
  • लैंगिक असमानता:
    • अपने सामाजिक अधिकारों की वकालत हेतु महिलाओं के प्रयासों के बावजूद उन्हें अभी भी पेशेवर मोर्चे पर विशेष रूप से खेल जगत में अपने पुरुष समकक्षों के समान सम्मान या मान्यता प्राप्त नहीं होती है।
  • पहुँच की कमी और महँगा:  
    • स्कूलों में शारीरिक शिक्षा की कमी तथा हाईस्कूल एवं कॉलेज दोनों में खेल के सीमित अवसरों का अर्थ है कि लड़कियों को खेल के लिये कहीं और देखना पड़ता है- जो उपलब्ध नहीं हैं या अधिक महँगे हैं।  
    • अक्सर घर के निकट पर्याप्त खेल सुविधाओं की कमी के कारण लड़कियों के लिये खेलों में भाग लेना अत्यंत कठिन हो जाता है।
  • सुरक्षा और परिवहन मुद्दे: 
    • खेलों में सम्मिलित होने के लिये स्थान के साथ-साथ सुविधाओं की आवश्यकता होती है, जो कई लड़कियों, विशेष रूप से घने शहरी क्षेत्रों में रहने वाली लड़कियों को जोखिम उठाकर खतरनाक इलाकों को पार कर या मीलों दूर स्थित अच्छी सुविधा की प्राप्ति हेतु यात्रा कर खेलों में सम्मिलित होने में असमर्थ बनाता है।
    • कोई सुरक्षित विकल्प न होने के कारण अन्य परिवारों के साथ कारपूलिंग जैसी परिस्थिति या लड़की के पास परिवार के साथ घर पर रहने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं होता है।
    • उदाहरण के लिये मणिपुर खेल पावरहाउस के लिये जाना जाता है, किंतु 48% महिला एथलीट अभ्यास स्थल तक पहुँचने हेतु 10 किमी. से अधिक की यात्रा करती हैं।
  • सामाजिक दृष्टिकोण और विरूपण:
    • हाल की प्रगति के बावजूद महिला एथलीटों के साथ वास्तविक या कथित यौन अभिविन्यास और लिंग पहचान के आधार पर भेदभाव बना हुआ है।  
    • खेल में लड़कियों को प्रारंभिक स्थिति में धमकी, सामाजिक अलगाव, नकारात्मक प्रदर्शन मूल्यांकन के कारण नुकसान का अनुभव हो सकता है।  
    • किशोरावस्था के दौरान "समलैंगिक" टैग का डर सामाजिक रूप से कमज़ोर कई लड़कियों को खेल से बाहर करने हेतु पर्याप्त है। 
  • गुणवत्तापूर्ण प्रशिक्षण की कमी:
    • लड़कियों को लड़को जितनी बेहतर सुविधाएँ नहीं प्राप्त हैं और खेलने का कोई इष्टतम समय नहीं निर्धारित किया जा सकता है
    • प्रशिक्षित एवं गुणवत्तायुक्त कोच की अनुपस्थिति, या कोच उन लड़कों के प्रशिक्षण पर अधिक ध्यान केंद्रित कर सकते हैं, जिनके पास प्रशिक्षण हेतु अधिक धन है।
    • लड़कों के समान लड़कियों को कई कार्यक्रमों के लिये धन नहीं मिलता है, जिससे विकास करने और खेल का आनंद लेने की उनकी क्षमता सीमित हो जाती है। संक्षेप में खेल अब "आनंददायक" नहीं हैं।
  • सकारात्मक रोल मॉडल की कमी:
    • वर्तमान में  लड़कियों द्वारा सशक्त महिला एथलीटों को रोल मॉडल मानने के स्थान पर उनकी बाह्य सुंदरता पर अधिक ध्यान दिया जाना
    • सहकर्मी का दबाव उस स्थिति में किसी भी उम्र की लड़कियों के लिये मुश्किल हो सकता है; जब उस दबाव का मुकाबला खेल और स्वस्थ शारीरिक गतिविधि में भाग लेने के लिये सशक्त प्रोत्साहन के साथ नहीं किया जाता है, परिणामतः यह लड़कियों द्वारा  खेल को पूरी तरह से छोड़ने का कारण बन सकता है।
  • सीमित मीडिया कवरेज:
    • महिला खेलों को अक्सर मीडिया में कम दिखाया जाता है, जिससे महिला एथलीटों के लिये पहचान और प्रायोजन के अवसर प्राप्त करना कठिन हो सकता है।
    • गर्भावस्था और मातृत्व:  
    • महिला एथलीटों को अक्सर मातृत्व और खेल कॅरियर के बीच संतुलन स्थापित करनेमें चुनौतियों का सामना करना पड़ता है
    • यह महिला एथलीटों के प्रशिक्षण और प्रतिस्पर्द्धा के अवसरों को प्रभावित कर सकता है

खेलों में अधिक महिला भागीदारी का महत्त्व

  • शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य: 
    • खेल पुरुष और महिला दोनों के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव डालते हैं।  
    • जो लड़कियाँ अपनी किशोरावस्था और शुरुआती वयस्कता के दौरान खेल में भाग लेती हैं, उनके जीवन में स्तन कैंसर होने की संभावना 20% कम हो जाती है।
  • लैंगिक समानता:  
    • खेलों में महिलाओं के लिये समान अवसर और संसाधन प्रदान कर हम उन बाधाओं और रूढ़ियों को तोड़ने में मदद कर सकते हैं जो जीवन के अन्य क्षेत्रों में महिलाओं की क्षमता व भागीदारी को सीमित करते हैं। 
    • खेल अपने बुनियादी रूप में संतुलित भागीदारी को प्रोत्साहित करता है और इसमें लैंगिक समानता को बढ़ावा देने की क्षमता है, SDG लक्ष्य संख्या 5 के अंतर्गत भी लैंगिक समानता प्राप्त करने और सभी को महिलाओं तथा लड़कियों को सशक्त बनाने की बात की गई है।
  • आर्थिक सशक्तीकरण:
    • खेलों में भाग लेने वाली महिलाओं को अक्सर शिक्षा और रोज़गार के अधिक अवसर मिलते हैं जो आर्थिक सशक्तीकरण की दिशा में अहम कदम हो सकता है। 
  • सामाजिक संदर्भों में सुधार:  
    • खेलों में महिलाओं की भागीदारी महिलाओं और उनकी क्षमताओं के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण को बदलने में भी मदद कर सकती है।
    • खेलों में महिलाओं की उत्कृष्टता, अन्य महिलाओं के लिये प्रेरिणा का स्रोत हो सकती है और साथ ही महिलाओं के प्रति रूढ़िवादिता को चुनौती दी जा सकती है।
  • प्रतिनिधित्त्व:  
    • खेलों में महिलाओं की भागीदारी, अन्य महिलाओं के लिये कोचिंग और प्रशासन सहित नेतृत्त्व संबंधी भूमिकाओं में बेहतर प्रतिनिधित्त्व प्रदान करने में मदद कर सकती है।
    • यह खेल को कॅरियर के रूप में अपनाने के लिये युवा लड़कियों के लिये एक प्रेरणा के रूप में भी काम कर सकता है।
  • समुदाय निर्माण:
    • खेल के माध्यम से लोगों को एकजुट किया जा सकता है और यह समाज के भीतर विभिन्न समूहों के बीच अधिक समझ एवं सम्मान को बढ़ावा दे सकता है।
    • महिलाओं के बीच खेलों की अधिक भागीदारी को बढ़ावा देकर, हम मज़बूत और अधिक समावेशी समुदायों के निर्माण में मदद कर सकते हैं।
  • यौन उत्पीड़न के लिये सुरक्षा उपाय
    • कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 
    • यौन उत्पीड़न से महिलाओं का संरक्षण (POSH) अधिनियम, 2013 
    • शी-बॉक्स
    • राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW)
    • यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO अधिनियम)

आगे की राह 

  • भारत में सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टिकोण के कारण खेल में महिलाओं की भागीदारी परंपरागत रूप से कम रही है। हालाँकि हाल के वर्षों में खेलों में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने और उन्हें प्रोत्साहित करने के प्रयास किये गए हैं, जैसे कि महिला एथलीटों के लिये वित्त एवं संसाधन में वृद्धि करने हेतु नीतियों का कार्यान्वयन, छोटी उम्र से ही लड़कियों को खेलों में भाग लेने के लिये प्रोत्साहित करने के लिये कार्यक्रमों का निर्माण।
  • इन प्रयासों के बावजूद भारत में खेल भागीदारी और प्रतिनिधित्त्व में लैंगिक समानता हासिल करने के मामले में अभी एक लंबा रास्ता तय करना शेष है।
  • भारत में खेल विकास की प्रक्रिया में हैं। विकास की इस दर को तेज़ करने के लिये समग्र दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होगी। बुनियादी ढाँचे के विकास, खेल प्रतिभाओं की पहचान करने, नियमित खेल का आयोजन करने और ज़मीनी स्तर पर जागरूकता पैदा करने के प्रयासों की आवश्यकता है।

कारागार सुधार

चर्चा में क्यों?  

हाल ही में प्रधानमंत्री ने खुफिया ब्यूरो (IB) द्वारा आयोजित पुलिस महानिदेशकों/महानिरीक्षकों के 57वें अखिल भारतीय सम्मेलन में कारागार प्रबंधन में सुधार के लिये कारागार सुधारों का सुझाव दिया तथा अप्रचलित आपराधिक कानूनों को निरस्त करने की सिफारिश की।  

प्रधानमंत्री के संबोधन की मुख्य बातें

  • उन्होंने एजेंसियों के बीच डेटा विनिमय को सुचारू बनाने के लिये राष्ट्रीय डेटा गवर्नेंस फ्रेमवर्क के महत्त्व पर ज़ोर दिया।
  • साथ ही पुलिस बलों को और अधिक संवेदनशील बनाना तथा उन्हें उभरती प्रौद्योगिकियों में प्रशिक्षित करना
  • उन्होंने बायोमेट्रिक्स आदि जैसे तकनीकी समाधानों का लाभ उठाने तथा पैदल गश्त जैसे पारंपरिक पुलिसिंग तंत्र को और मज़बूत करने की आवश्यकता के बारे में बात की।
  • उन्होंने उभरती चुनौतियों पर चर्चा करने तथा अपनी टीमों के बीच सर्वोत्तम प्रथाओं को विकसित करने के लिये राज्य/ज़िला स्तरों पर DGsP/IGsP सम्मेलन के मॉडल की नकल करने एवं सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करने हेतु राज्य पुलिस और केंद्रीय एजेंसियों के बीच सहयोग बढ़ाने पर भी ज़ोर दिया।

भारत में कारागार प्रशासन की स्थिति

  • परिचय:  
    • कारागार प्रशासन आपराधिक न्याय प्रणाली का एक महत्त्वपूर्ण घटक है। पिछली सदी में कैदियों के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में एक आदर्श बदलाव आया है।
    • दंडात्मक रवैये के साथ कारागार की पूर्व प्रणाली में जहाँ कैदियों को ज़बरन कैद किया जाता था और दंड के रूप में विभिन्न प्रकार की स्वतंत्रता से वंचित किया जाता था, कारागार और कैदियों के प्रति सामाजिक धारणा में बदलाव आया है।
    • इसे अब एक सुधार या सुधार सुविधा के रूप में माना जाता है जो स्वयं इंगित करती है कि कैदियों को दंडित करने की तुलना में उनके सुधार पर अधिक ज़ोर दिया जाता है।
  • भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली की संरचना:  
    • भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली उन सरकारी एजेंसियों से बनी है जो कानून लागू करती हैं, अपराधों पर  न्याय करती हैं और आपराधिक व्यवहार में बदलाव लाकर उसे सही करती हैं।
  • इसके चार उपतंत्र हैं:
    • विधायिका (संसद)
    • प्रवर्तन (पुलिस)
    • अधिनिर्णय (न्यायालय)
    • सुधार (जेल, सामुदायिक सुविधाएँ)
  • भारत में कारावास से संबंधित मुद्दे:
    • लंबित मामलों की संख्या: 2022 के रिकॉर्ड के अनुसार, न्यायपालिका के विभिन्न स्तरों पर भारतीय अदालतों में 4.7 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं।
    • इसके अलावा राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB)-प्रिजन स्टैटिस्टिक्स इंडिया के अनुसार, भारत में जेल की कुल आबादी का 67.2% ट्रायल कैदी के रूप में शामिल हैं।
    • औपनिवेशिक प्रकृति और अप्रचलित कानून: भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली के मूल और प्रक्रियात्मक दोनों पहलुओं को ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में राष्ट्र पर शासन करने के उद्देश्य से डिज़ाइन किया गया था।
    • इस आलोक में 19वीं सदी के इन कानूनों की प्रासंगिकता 21वीं सदी में बहस का विषय बनी हुई है।
    • सलाखों के पीछे अमानवीय व्यवहार: वर्षों से आलोचकों ने बार-बार जेल कर्मचारियों के उदासीन और यहाँ तक कि अमानवीय व्यवहार के बारे में शिकायत की है।
    • इसके अलावा हिरासत में बलात्कार और मौतों के कई उदाहरण सामने आए हैं, जिसके परिणामस्वरूप कैदियों के मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ है। 
    • भीड़भाड़: भारत में कई जेलों में भीड़भाड़ है, कैदियों को रखने हेतु निर्मित कारावासों में क्षमता से अधिक कैदियों को भरा जा रहा है।
    • उदाहरण के लिये वर्ष 2020 में यह बताया गया कि दिल्ली की तिहाड़ जेल, जिसकी क्षमता लगभग 7,000 कैदियों की है, में 15,000 से अधिक कैदी थे।
    • अपर्याप्त स्टाफ: भारत में कई जेलों में कर्मचारियों की कमी है, जिससे खराब स्थिति और सुरक्षा की कमी हो सकती है।  
    • उदाहरण के लिये वर्ष 2020 में यह बताया गया कि तमिलनाडु के चेन्नई में पुझल केंद्रीय कारागार में प्रत्येक 100 कैदियों के लिये केवल एक गार्ड है।
    • साथ ही कारागार अधिनियम 1894 एवं बंदी अधिनियम 1900 के अनुसार, प्रत्येक जेल में एक कल्याण अधिकारी एवं एक विधि अधिकारी होना चाहिये लेकिन इन अधिकारियों की भर्ती लंबित रहती है।

आगे की राह 

  • कारागारों को सुधारात्मक संस्थान बनाना: कारागारों को "सुधारात्मक संस्थानों" और पुनर्वास केंद्रों में बदलने का आदर्श नीतिगत नुस्खा तभी साकार हो सकता है जब अत्यधिक कार्यभार, अवास्तविक रूप से कम बजटीय आवंटन एवं प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों के संबंध में पुलिस की नासमझी जैसी समस्याओं का समाधान किया जाए।
  • कारागार सुधारों की सिफारिश: सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायमूर्ति अमिताव रॉय (सेवानिवृत्त) समिति की नियुक्ति की, जिसने कारागारों की भीड़भाड़ की समस्या को दूर करने के लिये निम्नलिखित सिफारिशें प्रस्तुत की हैं: 
  • कारागार में भीड़भाड़ की समस्या को दूर करने के लिये स्पीडी ट्रायल सबसे अच्छे तरीकों में से एक है।
  • प्रति 30 कैदियों के लिये कम-से-कम एक वकील होना चाहिये, जो कि फिलहाल नहीं है।
  • पाँच वर्ष से अधिक समय से लंबित छोटे-मोटे अपराधों से निपटने के लिये विशेष फास्ट-ट्रैक न्यायालयों की स्थापना की जानी चाहिये।
  • दलील सौदेबाज़ी (प्ली बार्गेनिंग) की अवधारणा, जिसके तहत किसी दंडनीय अपराध के लिये आरोपित व्यक्ति अपना अपराध स्वीकार कर कानून के तहत निर्धारित सज़ा से कम सज़ा प्राप्त करने के लिये अभियोजन से सहायता लेता है, को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
  • कारागार प्रबंधन में सुधार: इसमें कारागार कर्मचारियों को उचित प्रशिक्षण और संसाधन प्रदान करने के साथ-साथ निगरानी तथा उत्तरदायित्त्व के लिये प्रभावी प्रणाली लागू करना शामिल है।
  • इसमें कैदियों को स्वच्छ पेयजल, स्वच्छता और चिकित्सा जैसी बुनियादी सुविधाएँ प्रदान करना भी शामिल है।

खसरा और रूबेला

चर्चा में क्यों? 

भारत ने खसरा और रूबेला (MR) को वर्ष 2023 तक समाप्त करने का लक्ष्य निर्धारित किया था, जो विभिन्न कारणों से वर्ष 2020 की पूर्व निर्धारित समय-सीमा के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सका था।  

  • वर्ष 2019 में भारत ने वर्ष 2023 तक खसरा और रूबेला उन्मूलन का लक्ष्य निर्धारित किया था, यह अनुमान लगाते हुए कि वर्ष 2020 तक लक्ष्य की प्राप्ति नहीं की जा सकती है।

खसरा और रूबेला

  • खसरा: 
    • यह अत्यधिक संक्रामक विषाणुजनित रोग है और वैश्विक स्तर पर छोटे बच्चों की मृत्यु का मुख्य कारण है।
    • यह 1 सीरोटाइप वाले सिंगल स्ट्रैंडेड, आरएनए वायरस से घिरे होने के कारण होता है। इसे पैरामाइक्सोविरिडे (Paramyxoviridae) परिवार के जीनस मोरबिलीवायरस (Morbillivirus ) के सदस्य के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
    • यह आर्थिक रूप से कमज़ोर पृष्ठभूमि  के बच्चों के लिये विशेष रूप से खतरनाक है, क्योंकि यह कुपोषित और कम प्रतिरोधक क्षमता वाले बच्चों पर हमला करता है।
    • यह अंधापन, इंसेफलाइटिस, दस्त, कान के संक्रमण और निमोनिया सहित गंभीर जटिलताओं का कारण हो सकता है।
  • रूबेला: 
    • इसे जर्मन मीज़ल्स भी कहते हैं।
    • रूबेला एक संक्रामक, आमतौर पर हल्का वायरल संक्रमण है जो अक्सर बच्चों और युवा वयस्कों में होता है।
    • यह रूबेला वायरस के कारण होता है जो सिंगल स्ट्रैंडेड आरएनए वायरस से घिरा होता है।
    • गर्भवती महिलाओं में रूबेला संक्रमण मृत्यु या जन्मजात दोषों का कारण बन सकता है जिसे जन्मजात रूबेला सिंड्रोम (CRS) कहा जाता है जो अपरिवर्तनीय जन्म दोषों का कारण बनता है।
    • रूबेला खसरे के समान नहीं है, किंतु दोनों बीमारियों के कुछ संकेत और लक्षण समान हैं, जैसे कि लाल चकत्ते।
    • रूबेला खसरे की तुलना में एक अलग वायरस के कारण होता है और रूबेला संक्रामक या खसरा जितना गंभीर नहीं होता है।

खसरा और रूबेला का वैश्विक एवं भारतीय परिदृश्य

  • विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, खसरा वायरस विश्व के सबसे संक्रामक मानव विषाणुओं में से एक है, जिस कारण प्रतिवर्ष 1,00,000 से अधिक बच्चों की मौत होती है। रूबेला जन्म संबंधी विकार है और इसे वैक्सीन की मदद से रोका जा सकता है।
  • WHO के आँकड़ों के अनुसार, पिछले दो दशकों में टीके की अनुपलब्धता के कारण हुई वैश्विक स्तर पर 30 मिलियन से अधिक मौतों को टाला जा सकता था। 
  • वर्ष 2010-2013 के दौरान भारत ने 14 राज्यों में 9 महीने से 10 वर्ष की आयु के बच्चों के लिये चरणबद्ध खसरा टीकाकरण का आयोजन किया, जिसमें लगभग 119 मिलियन बच्चों का टीकाकरण किया गया।
  • मिशन इंद्रधनुष को वर्ष 2014 में गैर-टीकाकरण आबादी के टीकाकरण करने के लिये लॉन्च किया गया था।
  • भारत ने वर्ष 2017-2021 के दौरान खसरा और रूबेला उन्मूलन के लिये एक राष्ट्रीय रणनीतिक योजना को अपनाया।
  • इसी अवधि के दौरान सरकार ने रूबेला युक्त टीके (Rubella-Containing Vaccine- RCV) को नियमित टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल किया।
  • दिसंबर 2021 तक भूटान, DPR कोरिया, मालदीव, श्रीलंका और तिमोर-लेस्ते में खसरे को समाप्त करने की पुष्टि की गई है। मालदीव तथा श्रीलंका ने भी वर्ष 2021 में रूबेला को खत्म करने वाले देशों के रूप में अपनी स्थिति बनाए रखी है

खसरा और रूबेला की रोकथाम के उपाय

  • खसरा-रूबेला टीकाकरण: इस अभियान का लक्ष्य देश भर में लगभग 41 करोड़ बच्चों का टीकाकरण करना है और यह अब तक का सबसे बड़ा अभियान है।
  • 9 महीने से लेकर 15 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों को उनके पिछले खसरा/रूबेला टीकाकरण की स्थिति या खसरा/रूबेला रोग की स्थिति के बावजूद एक MR टीका लगाया जाता है।
  • अन्य पहलों में सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम (Universal Immunization Programme- UIP), मिशन इंद्रधनुष और सघन मिशन इंद्रधनुष शामिल हैं।
  • इन बीमारियों के लिये टीके खसरा-रूबेला (MR)खसरा-कण्ठमाला-रूबेला (MMR) अथवा खसरा-कण्ठमाला-रूबेला-वैरिसेला (MMRV) संयोजन के रूप में प्रदान किये जाते हैं।

मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता

चर्चा में क्यों?

विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organisation- WHO) के अनुसार, वर्ष 2019 में भारत में आत्महत्या दर 12.9/1,00,000 थी, जो क्षेत्रीय औसत 10.2 और वैश्विक औसत 9.0 से अधिक थी।

  • भारत में 15 से 29 वर्ष के बीच के लोगों की मृत्यु दर का मुख्य कारण आत्महत्या है। हालाँकि आत्महत्या के कारण खोया गया प्रत्येक जीवन बहुत अधिक कीमती है, लेकिन यह मुश्किल से ही देश के मानसिक स्वास्थ्य विशेष रूप से युवा वयस्कों को प्रभावित करने वाले मुद्दों को उजागर करता है। महिलाएँ इस समस्या से आमतौर पर अधिक प्रभावित होती हैं।

भारत में मानसिक स्वास्थ्य सेवा की स्थिति

  • परिचय:
    • मानसिक स्वास्थ्य में भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कल्याण शामिल है।
    • यह अनुभूति, धारणा और व्यवहार को प्रभावित करता है। साथ ही यह भी निर्धारित करता है कि कोई व्यक्ति तनाव, पारस्परिक संबंधों और निर्णय लेने की स्थिति का सामना कैसे करता है।
    • भारत में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य और स्नायु-विज्ञान संस्थान (National Institute of Mental Health and Neuro-Sciences) के आँकड़ों के अनुसार, कई कारणों से 80% से अधिक लोगों की मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच नहीं है।
  • मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित भारत सरकार की पहल:
    • राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (National Mental Health Program- NMHP): मानसिक विकारों की संख्या में वृद्धि तथा मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की कमी को देखते हुए सरकार द्वारा वर्ष 1982 में NMHP को अपनाया गया था।
    • मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम: मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 के एक भाग के रूप में प्रत्येक प्रभावित व्यक्ति के लिये सरकारी संस्थानों में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल और उपचार की सुविधा एवं पहुँच उपलब्ध है।
    • किरण हेल्पलाइन: वर्ष 2020 में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने मानसिक स्वास्थ्य सहायता प्रदान करने के लिये 24/7 टोल-फ्री हेल्पलाइन 'किरण' शुरू की।
    • मानस मोबाइल एप: भारत सरकार ने सभी आयु समूहों में मानसिक स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के लिये वर्ष 2021 में मानस (मानसिक स्वास्थ्य और सामान्यता वृद्धि प्रणाली) लॉन्च किया।
  • मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित मुद्दे:
    • सोशल मीडिया: गिने-चुने सोशल मीडिया के बढ़ते उपयोग के साथ युवाओं में तनाव और मानसिक अस्वस्थता के मामलों में वृद्धि देखी जा रही है।
    • सोशल मीडिया वास्तविक दुनिया से परे है और यह सार्थक गतिविधियों में निवेश को कम करता है।
    • इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह प्रतिकूल सामाजिक तुलना के माध्यम से आत्मसम्मान में कमी लाता है।
    • कोविड-19 महामारी: कोविड-19 महामारी के बाद से इस समस्या में और वृद्धि हुई है। लैंसेट में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, वर्ष 2020 और 2021 के बीच केवल एक वर्ष में वैश्विक स्तर पर इस महामारी के कारण अवसाद में 28% तथा चिंता संबंधी मामलों में 26% तक की वृद्धि हुई है।
    • स्कूल बंद होने और सामाजिक अलगाव के अतिरिक्त भविष्य संबंधी अनिश्चितता, वित्तीय एवं रोज़गार का नुकसान, दुख, बच्चों की देखभाल का बढ़ता बोझ आदि सभी के कारण भी युवा आयु समूहों के बीच अवसाद तथा चिंता में वृद्धि देखी गई है।
    • निर्धनता: मानसिक स्वास्थ्य का निर्धनता से करीबी रिश्ता होता है। गरीबी में रहने वाले लोगों को मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की स्थिति का अनुभव होने का खतरा अधिक होता है।
    • दूसरी ओर गंभीर मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों का सामना करने वाले लोगों को रोज़गार के नुकसान और स्वास्थ्य पर व्यय में वृद्धि के कारण गरीबी की ओर बढ़ने की अधिक संभावना है।
    • मानसिक स्वास्थ्य बुनियादी ढाँचे की कमी: वर्तमान में मानसिक बीमारियों वाले केवल 20-30% लोगों को पर्याप्त उपचार मिल पाता है।
    • इतने बड़े उपचार अंतराल का एक प्रमुख कारण संसाधनों की अपर्याप्तता है। सरकार के स्वास्थ्य बजट का 2% से भी कम मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के लिये उपलब्ध है।
    • साथ ही आवश्यक दवाओं की सूची में WHO द्वारा निर्धारित मानसिक स्वास्थ्य दवाओं की सीमित संख्या ही शामिल है

भारत में मानसिक स्वास्थ्य संवर्द्धन की पुनर्कल्पना

हमारे लोगों के मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा, संवर्द्धन और देखभाल के लिये एक तत्काल और अच्छी तरह से संसाधन युक्त "संपूर्ण समाज" के दृष्टिकोण की आवश्यकता है। यह निम्नलिखित चार स्तंभों पर आधारित होना चाहिये:

  • मानसिक स्वास्थ्य को कलंक न समझना: मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों को कलंक मानना, जो रोगियों को समय पर इलाज कराने से रोकता है और उन्हें शर्मनाक, अलग-थलग एवं कमज़ोर महसूस कराता है।
  • सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रम में मानसिक स्वास्थ्य को शामिल करना: तनाव को कम करने, स्वस्थ जीवनशैली को बढ़ावा देने, उच्च जोखिम वाले समूहों की जाँच और पहचान करने एवं परामर्श सेवाओं जैसे मानसिक स्वास्थ्य हस्तक्षेपों को मज़बूत करने के लिये उन्हें मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम का एक अभिन्न अंग बनाना।
  • स्कूलों पर विशेष ध्यान देना होगा।
  • इसके अलावा हमें उन समूहों पर विशेष ध्यान देना चाहिये जो मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं जैसे कि घरेलू या यौन हिंसा के शिकार, बेरोज़गार युवा, सीमांत किसान, सशस्त्र बलों के कर्मी तथा कठिन परिस्थितियों में कार्य करने वाले कर्मी।
  • मेंटल हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर: मेंटल हेल्थ केयर और इलाज के लिये एक मज़बूत इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करना। मानसिक स्वास्थ्य के बुनियादी ढाँचे और मानव संसाधनों में अंतराल को दूर करने के लिये पर्याप्त निवेश की आवश्यकता होगी।
  • कियायती पहलुओं पर काम करना: मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को सभी के लिये किफायती बनाया जाना चाहिये। वित्तीय सुरक्षा के बिना बेहतर कवरेज से असमान परिणाम उभरकर सामने आएंगे।
  • आयुष्मान भारत सहित सभी सरकारी स्वास्थ्य गारंटी योजनाओं में मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों की व्यापक संभव सीमा को शामिल किया जाना चाहिये।
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