सशस्त्र बल और व्यभिचार
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि सशस्त्र बल व्यभिचारी कृत्यों के लिये अपने अधिकारियों/कर्मियों के खिलाफ कार्रवाई कर सकते हैं, जबकि व्यभिचार का अपराध सशस्त्र बलों पर लागू नहीं होता है।
- सितंबर 2018 में जोसेफ शाइन निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यभिचार को अपराध बनाने वाली IPC की धारा 497 को असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया जो महिलाओं को उनके पति से कमतर मानती है जिससे समानता के अधिकार का उल्लंघन होता था।
हालिया निर्णय:
- सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि वर्ष 2018 का फैसला केवल IPC की धारा 497 और व्यभिचार से संबंधित CrPC की धारा 198 (2) की वैधता से संबंधित था तथा सेना, नौसेना एवं वायु सेना अधिनियमों के संबंध में "प्रभाव पर विचार करने का कोई मामला नहीं था"।
- तीनों सेवाओं- सेना, नौसेना और वायु सेना के रक्षाकर्मियों को विशेष कानून, सेना अधिनियम, नौसेना अधिनियम और वायु सेना अधिनियम द्वारा शासित किया गया था।
- ये विशेष कानून उन कार्मिकों के मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंध लगाते हैं, जो अत्यधिक अनुशासन की आवश्यकता वाली विशिष्ट स्थिति में कार्य करते हैं।
- तीनों कानून संविधान के अनुच्छेद 33 द्वारा संरक्षित हैं, जो सरकार को सशस्त्र बलों के कर्मियों के मौलिक अधिकारों को संशोधित करने की अनुमति देता है।
- खंडपीठ ने मामले में अंतिम आदेश देते हुए यह स्पष्ट किया कि जोसेफ शाइन निर्णय उन सशस्त्र बलों के सदस्यों पर लागू नहीं होता है जिन पर 'अशोभनीय आचरण' करने का आरोप है और इस प्रकार अपील को खारिज़ कर दिया गया
महत्त्व
- व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से हटाना सशस्त्र सेवाओं के सदस्यों को व्यभिचारी गतिविधियों का दोषी बनाने से रोक सकता है। जब जवानों और अधिकारियों को शत्रुतापूर्ण वातावरण में तैनात किया जाता है, तो अन्य अधिकारी बेस कैंप में परिवारों की देखभाल करते हैं एवं व्यभिचारी या अनैतिक व्यवहार में संलग्न होने के परिणामों को निर्दिष्ट करने वाले कानून तथा नियम अनुशासन बनाए रखने में सहायता करते हैं।
- एक सहकर्मी की पत्नी के साथ व्यभिचार करने वाले सशस्त्र सेवा के सैनिकों को इस अशोभनीय कार्य करने के लिये उनकी नौकरी से बर्खास्त किया जा सकता है।
व्यभिचार
परिचय:
- व्यभिचार को एक विवाहित महिला/पुरुष द्वारा पति या पत्नी के अलावा किसी अन्य साथी के साथ स्वैच्छिक यौन संबंध के रूप में परिभाषित किया गया है।
IPC की धारा 497:
- कोई भी व्यक्ति जो किसी अन्य व्यक्ति की पत्नी के साथ उस व्यक्ति की सहमति या जानकारी के बिना यौन क्रिया में संलग्न होता है, वह व्यभिचार का अपराध करता है और सज़ा के अधीन है। इस गतिविधि को बलात्कार नहीं कहा जाना चाहिये।
- कानून उस महिला को दंडित नहीं करता है, क्योंकि वह मान कर चलता है कि केवल पुरुष ही एक महिला को यौन क्रिया के लिये फुसला सकता है और यह ऐसे में पति की सहमति के बिना पत्नी के यौन संबंधों के कारण पति को पीड़ित मानता है, जबकि महिला को पति द्वारा किये गए समान कृत्य के संबंध में सुरक्षा प्राप्त नहीं है।
भारतीय सशस्त्र बलों में व्यभिचार पर रोक हेतु प्रावधान:
- जहाँ तक भारतीय सशस्त्र बलों की बात है, सैन्यकर्मी व्यभिचार पर कानून सहित IPC के प्रावधानों के अधीन हैं। इसके अलावा भारतीय सेना की अपनी आचार संहिता और नियम हैं जो व्यभिचार तथा अनैतिक व्यवहार के अन्य रूपों पर रोक लगाते हैं।
- भारतीय सशस्त्र बल व्यभिचार के लिये प्रशासनिक कार्रवाई, अनुशासनात्मक कार्रवाई, या कोर्ट-मार्शल सहित कई तरह के दंड दे सकते हैं।
- ऐसे मामलों से निपटने के लिये नियम और प्रक्रियाएँ भारतीय सैन्य न्याय प्रणाली द्वारा स्थापित की जाती हैं।
सीलबंद कवर न्यायशास्त्र
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court- SC) ने अडानी-हिंडनबर्ग मामले से संबंधित सरकार के "सीलबंद कवर (Sealed Cover)" सुझाव को खारिज़ कर दिया है।
- केंद्र सरकार ने पहले बाज़ार नियामक ढाँचे का आकलन करने और अडानी-हिंडनबर्ग मुद्दे से संबंधित उपायों की सिफारिश करने हेतु समिति के सदस्यों के नाम प्रस्तावित किये थे।
- लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने पारदर्शिता बनाए रखने हेतु सीलबंद कवर/लिफाफे में नामों पर किसी भी सुझाव को स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
सीलबंद कवर न्यायशास्त्र
परिचय:
- यह सर्वोच्च न्यायालय और कभी-कभी निचली न्यायालयों द्वारा उपयोग की जाने वाली एक प्रथा है, जिसके तहत सरकारी एजेंसियों से ‘सीलबंद लिफाफों या कवर’ में जानकारी मांगी जाती है और यह स्वीकार किया जाता है कि केवल न्यायाधीश ही इस सूचना को प्राप्त कर सकते हैं।
- यद्यपि कोई विशिष्ट कानून ‘सीलबंद कवर’ के सिद्धांत को परिभाषित नहीं करता है, सर्वोच्च न्यायालय इसे सर्वोच्च न्यायालय के नियमों के आदेश XIII के नियम 7 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 123 से उपयोग करने की शक्ति प्राप्त करता है।
- न्यायालय मुख्यतः दो परिस्थितियों में सीलबंद कवर में जानकारी मांग सकता है:
- जब कोई जानकारी चल रही जाँच से जुड़ी होती है,
- जब इसमें व्यक्तिगत अथवा गोपनीय जानकारी शामिल हो, जिसके प्रकटीकरण से किसी व्यक्ति की गोपनीयता या विश्वास का उल्लंघन हो सकता है।
- सर्वोच्च न्यायालय नियमों के आदेश XIII का नियम सं. 7:
- यदि मुख्य न्यायाधीश अथवा न्यायालय कुछ सूचनाओं को सीलबंद कवर में रखने का निर्देश देते हैं या इसे गोपनीय प्रकृति का मानते हैं, तो किसी भी पक्ष को इस प्रकार की जानकारी की सामग्री तक पहुँच की अनुमति नहीं दी जाएगी, सिवाय इसके कि मुख्य न्यायाधीश स्वयं आदेश दें कि विरोधी पक्ष को इसकी अनुमति दी जाए।
- यदि किसी सूचना का प्रकाशन जनता के हित में नहीं है तो उस सूचना को गोपनीय रखा जा सकता है।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 123:
- राज्य के मामलों से संबंधित आधिकारिक अप्रकाशित दस्तावेज़ संरक्षित होते हैं और एक सार्वजनिक अधिकारी को ऐसे दस्तावेज़ों का खुलासा करने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता है।
- अतिरिक्त परिस्थितियाँ जिनमें गोपनीय या गुप्त रूप से जानकारी मांगी जा सकती है, उनमें ऐसी स्थितियाँ शामिल हैं जिनमें इसका प्रकटीकरण चल रही किसी जाँच को प्रभावित करने क्षमता रखता हो, उदाहरण के लिये, कोई ऐसी जानकारी जो पुलिस केस में शामिल जानकारी से संबंधित हो।
सीलबंद कवर न्यायशास्त्र से संबंधित मुद्दे:
- पारदर्शिता की कमी:
- सीलबंद कवर न्यायशास्त्र कानूनी प्रक्रिया में पारदर्शिता और उत्तरदायित्त्व को सीमित कर सकता है, क्योंकि सीलबंद कवर में प्रस्तुत साक्ष्य अथवा तर्क जनता या अन्य पार्टियों के लिये उपलब्ध नहीं होते हैं।
- यह एक खुले न्यायालय की धारणा के विरुद्ध है, जिसमे आम जनता द्वारा निर्णय की समीक्षा की जा सकती है।
- विविध पहुँच:
- सीलबंद कवर न्यायशास्त्र का उपयोग एक असमान स्थितियाँ उत्पन्न कर सकता है, क्योंकि जिन पक्षों के पास सीलबंद कवर में जानकारी तक पहुँच है, उन्हें उन लोगों पर लाभ हो सकता है जिनके पास नहीं है।
- जवाब देने का सीमित अवसर:
- जिन पक्षों को सीलबंद लिफाफे में दी गई जानकारी की जानकारी नहीं है, उनके पास इसमें प्रस्तुत सबूतों या तर्कों का जवाब देने या चुनौती देने का अवसर नहीं उपलब्ध हो सकता है, जो उनके मामले को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करने की उनकी क्षमता को कमज़ोर कर सकता है।
- दुर्व्यवहार का जोखिम:
- सीलबंद कवर न्यायशास्त्र का दुरुपयोग उन पक्षों द्वारा किया जा सकता है जो ऐसी जानकारी को छिपाना चाहते हैं जो वैध रूप से गोपनीय नहीं है, या जो कानूनी प्रक्रिया में अनुचित लाभ प्राप्त करने के लिये इसका उपयोग करते हैं।
- निष्पक्ष परीक्षण में हस्तक्षेप:
- सीलबंद कवर न्यायशास्त्र का उपयोग निष्पक्ष ट्रायल (सुनवाई) के अधिकार में हस्तक्षेप कर सकता है, क्योंकि पार्टियों के पास निर्णय लेने की प्रक्रिया में विचार किये जाने वाले सभी प्रासंगिक सबूतों या तर्कों तक पहुँच नहीं हो सकती है।
- मनमानी प्रकृति:
- सीलबंद कवर अलग-अलग न्यायाधीशों पर निर्भर होते हैं जो सामान्य अभ्यास के बजाय किसी विशेष मामले में एक बिंदु की पुष्टि करना चाहते हैं। यह अभ्यास को तदर्थ और मनमाना बनाता है।
सीलबंद न्यायशास्त्र पर SC की क्या टिप्पणियाँ
- पी. गोपालकृष्णन बनाम केरल राज्य वाद (2019):
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि आरोपी द्वारा दस्तावेज़ों का खुलासा करना संवैधानिक रूप से अनिवार्य है, भले ही जाँच जारी हो क्योंकि दस्तावेज़ों से मामले की जाँच में सफलता मिल सकती है।
- INX मीडिया वाद (2019):
- वर्ष 2019 में INX मीडिया मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रवर्तन निदेशालय (ED) द्वारा सीलबंद लिफाफे में जमा किये गए दस्तावेज़ों के आधार पर पूर्व केंद्रीय मंत्री को जमानत देने से इनकार करने के अपने फैसले को आधार बनाने के लिये दिल्ली उच्च न्यायालय की आलोचना की थी।
- इसने इस कार्रवाई को निष्पक्ष सुनवाई की अवधारणा के खिलाफ बताया।
- कमांडर अमित कुमार शर्मा बनाम भारत संघ वाद (2022):
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि, 'प्रभावित पक्ष को संबंधित सामग्री का खुलासा नहीं करना और न्यायिक प्राधिकरण को सीलबंद लिफाफे में इसका खुलासा करना; एक खतरनाक मिसाल कायम करता है। न्यायिक प्राधिकारी को सीलबंद लिफाफे में संबंधित सामग्री का खुलासा करने से निर्णय की प्रक्रिया अस्पष्ट और अपारदर्शी हो जाती है।
आगे की राह
- सीलबंद न्यायशास्त्र का उपयोग उचित प्रक्रिया, निष्पक्ष परीक्षण और खुले न्याय के सिद्धांतों के साथ सावधानीपूर्वक संतुलित किया जाना चाहिये, और मामले की विशिष्ट परिस्थितियों के लिये उचित और आनुपातिक होना चाहिए।
- न्यायालयों और न्यायाधिकरणों को यह भी सुनिश्चित करना चाहिये कि जिन पक्षों को सीलबंद लिफाफे की जानकारी नहीं है, उन्हें अपना पक्ष पेश करने और उसमें प्रस्तुत साक्ष्यों या तर्कों को चुनौती देने का उचित अवसर दिया जाए।
दल-बदल में स्पीकर की भूमिका
चर्चा में क्यों?
सर्वोच्च न्यायालय ने 15 फरवरी, 2023 को महाराष्ट्र संकट 2022 से संबंधित एक मामले और क्या स्वयं निष्कासन के नोटिस का सामना कर रहा स्पीकर/अध्यक्ष अपनी विधानसभा में विधायकों को अयोग्य घोषित कर सकता है, पर सुनवाई करते हुए कहा कि अयोग्यता पर फैसला लेने हेतु स्पीकर को पहला अधिकार होना चाहिये।
- इससे पहले वर्ष 2016 में नबाम रेबिया मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि निष्कासन के नोटिस का सामना करने वाला अध्यक्ष या उपाध्यक्ष विधायकों के खिलाफ अयोग्यता की कार्यवाही तय नहीं कर सकता है।
अध्यक्ष की भूमिका पर वाद-विवाद:
- पिछले तीन वर्षों से लोकसभा अध्यक्ष की अध्यक्षता में अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारियों का सम्मेलन संविधान की 10वीं अनुसूची में वर्णित अध्यक्ष की भूमिका की समीक्षा कर रहा है, जो सांसदों और विधायकों की अयोग्यता से संबंधित है।
- चर्चाओं का मुख्य केंद्रबिंदु इस मामले में विधानसभा स्पीकर की गरिमा को सुरक्षित करना है। कई पीठासीन अधिकारियों ने विचार व्यक्त किया है कि उसकी भूमिका सीमित होनी चाहिये और दल-बदल के मामलों को तय करने हेतु अन्य तंत्र विकसित किया जाना चाहिये।
- एक प्रस्ताव पर चर्चा की जा रही है कि अयोग्यता के मुद्दे को संबंधित राजनीतिक दलों पर छोड़ दिया जाए क्योंकि वे विधायकों को टिकट देते हैं।
- वर्ष 2021 में देहरादून में अध्यक्षों के सम्मेलन के दौरान कई प्रतिभागियों ने अपनी चिंताओं को व्यक्त किया और उन कमियों की ओर इशारा किया जो अक्सर अध्यक्ष की भूमिका को प्रभावित करती हैं।
भारतीय संविधान की 10वीं अनुसूची
परिचय:
- भारतीय संविधान की 10वीं अनुसूची, जिसे दलबदल विरोधी कानून के रूप में भी जाना जाता है, वर्ष 1985 में 52वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़ा गया था।
- यह वर्ष 1967 के आम चुनावों के बाद दल-बदलने वाले विधायकों द्वारा कई राज्य सरकारों को गिराने की प्रतिक्रिया थी।
- यह दल-बदल के आधार पर संसद (सांसदों) और राज्य विधानसभाओं के सदस्यों की अयोग्यता से संबंधित प्रावधानों को निर्धारित करता है।
अपवाद:
- यह सांसद/विधायकों के एक समूह को दल-बदल हेतु दंडित किये बिना किसी अन्य राजनीतिक दल में शामिल होने (यानी विलय) की अनुमति देता है।
- और यह दल बदलने वाले विधायकों को प्रोत्साहित करने या स्वीकार करने के लिये राजनीतिक दलों को दंडित नहीं करता है।
- वर्ष 1985 के अधिनियम के अनुसार, किसी राजनीतिक दल के निर्वाचित सदस्यों में से एक-तिहाई द्वारा 'दलबदल' को 'विलय' माना जाता था।
- 91वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 ने इसे बदल दिया और अब किसी दल के कम- से-कम दो-तिहाई सदस्यों को "विलय" के पक्ष में होना चाहिये ताकि कानून की नज़र में इसकी वैधता हो।
विवेकाधिकार:
- दल-बदल के आधार पर अयोग्यता के प्रश्नों पर निर्णय सदन के सभापति या अध्यक्ष द्वारा लिया जाता है, जो 'न्यायिक समीक्षा' के अधीन है।
- हालाँकि कानून कोई समय-सीमा प्रदान नहीं करता है जिसके भीतर पीठासीन अधिकारी को दल-बदल मामले का फैसला करना होता है।
- दल-बदल का आधार:
- यदि कोई निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है।
- यदि वह अपने राजनीतिक दल द्वारा जारी किसी निर्देश के विपरीत सदन में मतदान करता/करती है या मतदान से दूर रहता/रहती है।
- यदि कोई स्वतंत्र रूप से निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल होता है।
- यदि कोई नामित सदस्य छह माह की समाप्ति के बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल होता है।
निष्कर्ष:
- दल-बदल के मामलों में अध्यक्ष की भूमिका सरकार और लोकतांत्रिक प्रणाली की स्थिरता एवं अखंडता सुनिश्चित करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि अध्यक्ष को ऐसे मामलों पर निर्णय लेते समय निष्पक्ष तरीके से कार्य करना होता है तथा निर्णय प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों व संविधान के प्रावधानों द्वारा निर्देशित होना चाहिये।
एक चुनाव में दो सीटों पर चुनाव लड़ने पर रोक नहीं
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने "संसदीय संप्रभुता" और "राजनीतिक लोकतंत्र" का मामला बताते हुए आम या विधानसभा चुनावों में उम्मीदवारों को एक से अधिक निर्वाचन क्षेत्रों से लड़ने से रोकने की मांग वाली याचिका को खारिज कर दिया है।
- याचिका में जनप्रतिनिधित्त्व अधिनियम, 1951 की धारा 33 (7) की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी, जिसमें कहा गया था कि सरकारी खजाने पर अतिरिक्त बोझ डालना अनुचित है क्योंकि उम्मीदवार यदि दोनों सीटों पर जीत जाता है तो उसे एक सीट छोड़नी होगी तथा उपचुनाव अनिवार्य रूप से होगा।
वर्तमान कानून
- जनप्रतिनिधित्त्व कानून (RPA) में ऐसा कोई प्रासंगिक प्रावधान नहीं है जिसके लिये इस मामले में न्यायालय के हस्तक्षेप की आवश्यकता हो और यह मामला 'पूरी तरह से विधायी दायरे' और 'नीति के दायरे' में आता है।
- यह संसद की इच्छा पर निर्भर है जो यह निर्धारित करती है कि इस तरह के विकल्प देकर राजनीतिक लोकतंत्र को आगे बढ़ाया जाए है या नहीं।
- कई सीटों से चुनाव लड़ने के विभिन्न कारण हो सकते हैं, जिसमें विधायी क्षेत्र में संतुलन स्थापित करना तथा संसदीय लोकतंत्र को संवर्द्धित करना शामिल है।
- यह मुद्दा संसदीय संप्रभुता के दायरे में आता है।
- इसमें कहा गया है कि संसद ने वर्ष 1996 में कानून में संशोधन कर निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या दो तक सीमित कर दी थी, जबकि पहले एक उम्मीदवार कितनी भी सीटों पर चुनाव लड़ सकता था।
- संसद पहले ही हस्तक्षेप कर चुकी है। संसद निश्चित रूप से पुनः हस्तक्षेप कर सकती है। जब वह ऐसा करना उचित समझेगी तो कार्यवाही की जाएगी। किसी की ओर से निष्क्रियता का कोई प्रश्न ही नहीं है।
दोहरी उम्मीदवारी से संबंधित प्रावधान
- जनप्रतिनिधित्त्व अधिनियम, 1951 की धारा 33(7) के अनुसार, एक उम्मीदवार अधिकतम दो निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लड़ सकता है।
- वर्ष 1996 तक अधिक निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लड़ने की अनुमति दी गई थी तब दो निर्वाचन क्षेत्रों पर सीमा निर्धारण हेतु RPA में संशोधन किया गया था।
- वर्ष 1951 के बाद से कई राजनेताओं ने एक से अधिक सीटों से चुनाव लड़ने के लिये इस कारक का उपयोग किया है- कभी प्रतिद्वंद्वी के वोट को विभाजित करने हेतु, कभी देश भर में अपनी पार्टी की शक्ति का दावा करने के लिये, कभी उम्मीदवार की पार्टी के पक्ष में निर्वाचन क्षेत्रों के आसपास के क्षेत्र में पक्ष में लहर पैदा करने हेतु और लगभग सभी दलों द्वारा धारा 33(7) का शोषण किया गया है।
दोहरी उम्मीदवारी से संबंधित मुद्दे
- संसाधनों की बर्बादी:
- कई निर्वाचन क्षेत्रों में प्रचार करना और चुनाव लड़ना उम्मीदवार तथा सरकार दोनों के लिये संसाधनों एवं धन की बर्बादी हो सकती है।
- किसी एक निर्वाचन क्षेत्र को छोड़ने के बाद तुरंत वहाँ उपचुनाव कराया जाता है, जो सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ाता है।
- उदाहरण के लिये वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वड़ोदरा और वाराणसी दोनों सीटों पर जीत हासिल करने के बाद वड़ोदरा में अपनी सीट छोड़ दी, जिस कारण वहाँ उपचुनाव हुआ।
- हितों पर मतभेद:
- एक से अधिक ज़िलों में चुनाव लड़ने से हितों को लेकर मतभेद हो सकता है क्योंकि उम्मीदवार प्रत्येक ज़िले पर समान समय और ध्यान देने में सक्षम नहीं हो सकता है।
- विरोधाभासी प्रावधान:
- RPA की धारा 33(7) एक ऐसी स्थिति की ओर ले जाती है जहाँ इसे उसी अधिनियम के दूसरे खंड- विशेष रूप से धारा 70 द्वारा नकार दिया जाएगा।
- जबकि 33(7) उम्मीदवारों को दो सीटों से चुनाव लड़ने की अनुमति देता है, धारा 70 उम्मीदवारों को लोकसभा/राज्यसभा में दो निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्त्व करने से प्रतिबंधित करती है।
- मतदाताओं में भ्रम:
- विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में मतदाता इस बात को लेकर भ्रमित हो सकते हैं कि कौन-सा उम्मीदवार उनका प्रतिनिधित्त्व करता है या उन्हें किसका समर्थन करना चाहिये।
- भ्रष्टाचार की धारणा:
- कई निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव लड़ने से उम्मीदवार के इरादों पर भी संदेह हो सकता है और यह आभास हो सकता है कि वह भ्रष्ट है, क्योंकि उम्मीदवार अपने चुने जाने की संभावना को पुष्ट करने के लिये ऐसा कर सकते हैं।
- लोकतंत्र के लिये खतरा:
- दोहरी उम्मीदवारी को लोकतंत्र के लिये खतरे के रूप में देखा जा सकता है, क्योंकि यह निष्पक्ष और समान प्रतिनिधित्त्व के सिद्धांत को कमज़ोर कर सकता है।
आगे की राह
- निर्वाचन आयोग ने धारा 33(7) में संशोधन की सिफारिश की ताकि एक उम्मीदवार को केवल एक सीट से चुनाव लड़ने की अनुमति मिल सके।
- ऐसा वर्ष 2004, 2010, 2016 और 2018 में किया गया था।
- एक ऐसी प्रणाली तैयार की जानी चाहिये जिसमें यदि कोई उम्मीदवार दो निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लड़ता है और दोनों में जीत जाता है, तो वह किसी एक निर्वाचन क्षेत्र में बाद में कराए जाने वाले उपचुनाव का वित्तीय भार वहन करेगा।
- यह राशि विधानसभा चुनाव के लिये 5 लाख रुपए और लोकसभा चुनाव हेतु 10 लाख रुपए होगी।
- "एक व्यक्ति, एक वोट" का सिद्धांत भारतीय लोकतंत्र का मूल सिद्धांत है। हालाँकि अब समय आ गया है कि इस सिद्धांत को "एक व्यक्ति, एक वोट; एक उम्मीदवार, एक निर्वाचन क्षेत्र" में संशोधित और विस्तारित किया जाए
उपसभापति की अनुपस्थिति
चर्चा में क्यों?
सर्वोच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका (PIL) पर केंद्र से जवाब मांगा है, जिसमें कहा गया है कि वर्ष 2019 से 17वीं (वर्तमान) लोकसभा के लिये उपाध्यक्ष का चुनाव नहीं करना "संविधान की मूल भावना के खिलाफ" है।
- राजस्थान, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और झारखंड सहित पाँच राज्यों की विधानसभाओं में भी यह पद खाली पड़ा है
संवैधानिक प्रावधान:
- अनुच्छेद 93 कहता है कि लोकसभा पद रिक्त होते ही अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के रूप में सेवा के लिये दो सदस्यों को नियुक्त करेगी। हालाँकि यह समय-सीमा निर्दिष्ट नहीं करता है।
- अनुच्छेद 178 में किसी राज्य की विधानसभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के लिये संबंधित स्थिति शामिल है।
विषय पर विभिन्न दृष्टिकोण
- विशेषज्ञ:
- विशेषज्ञ बताते हैं कि अनुच्छेद 93 और 178 दोनों में "होगा” (Shall) शब्द का उपयोग किया गया है, यह दर्शाता है कि संविधान के तहत स्पीकर और डिप्टी स्पीकर का चुनाव अनिवार्य है।
- संघ सरकार:
- सरकार का तर्क है कि डिप्टी स्पीकर के लिये "तत्काल आवश्यकता" नहीं है क्योंकि सदन में सामान्य रूप से "विधेयक पारित किये जा रहे हैं और चर्चा हो रही है"।
- इसके अलावा विभिन्न दलों से चुने गए नौ सदस्यों का एक पैनल है जो सभापति को सदन चलाने में सहायता करने के लिये अध्यक्ष के रूप में कार्य कर सकता है।
क्या न्यायपालिका मामले में हस्तक्षेप कर सकती है?
- अनुच्छेद 122 के अनुसार, "संसद में किसी भी कार्यवाही की वैधता प्रक्रिया में कथित अनियमितता के आधार पर उसे न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जा सकता।"
- न्यायालय आमतौर पर संसद के प्रक्रियात्मक आचरण में हस्तक्षेप नहीं करता है। हालाँकि विशेषज्ञों का तर्क है कि न्यायालय के पास कम-से-कम यह जाँच करने का अधिकार है कि डिप्टी स्पीकर के पद के लिये कोई चुनाव क्यों नहीं हुआ है क्योंकि संविधान में "जितनी जल्दी हो सके" चुनाव की परिकल्पना की गई है।
उपाध्यक्ष के संबंध में प्रावधान
- निर्वाचन:
- लोकसभा में उपाध्यक्ष का चुनाव लोकसभा की प्रक्रिया तथा कार्य-संचालन नियमों के नियम 8 द्वारा शासित होता है।
- उपाध्यक्ष का चुनाव लोकसभा द्वारा अध्यक्ष के चुनाव के ठीक बाद अपने सदस्यों में से किया जाता है। उपाध्यक्ष के चुनाव की तिथि अध्यक्ष द्वारा निर्धारित की जाती है।
- निर्धारित समय-सीमा:
- उपाध्यक्ष का चुनाव आमतौर पर दूसरे सत्र में होता है तथा सामान्यतः वास्तविक एवं अपरिहार्य बाधाओं के कारण इसमें और देरी नहीं होती है।
- कार्यकाल की अवधि और पदमुक्ति:
- अध्यक्ष की तरह ही उपाध्यक्ष भी आमतौर पर लोकसभा के कार्यकाल (5 वर्ष) तक अपने पद पर बना रहता है।
- उपाध्यक्ष निम्नलिखित तीन मामलों में अपना पद पहले खाली कर सकता है:
- यदि वह लोकसभा का सदस्य नहीं रहता है।
- यदि वह अध्यक्ष को पत्र लिखकर इस्तीफा दे देता है।
- यदि उसे लोकसभा के सभी तत्कालीन सदस्यों के बहुमत से पारित प्रस्ताव द्वारा हटा दिया जाता है। ऐसा प्रस्ताव उपाध्यक्ष को 14 दिन की अग्रिम सूचना देने के बाद ही पेश किया जा सकता है।
- उपाध्यक्ष की स्थिति:
- अनुच्छेद 95 के अनुसार, उपाध्यक्ष, अध्यक्ष का पद रिक्त होने पर उसके कर्तव्यों का निर्वहन करता है और सदन की बैठक से अध्यक्ष के अनुपस्थित रहने की स्थिति में उपाध्यक्ष उसके स्थान पर कार्य करता है। दोनों ही मामलों में वह अध्यक्ष की सभी शक्तियों का प्रयोग करता है।
- उपाध्यक्ष, अध्यक्ष का अधीनस्थ नहीं होता है। वह सीधे सदन के प्रति उत्तरदायी होता है। नतीजतन यदि उनमें से कोई भी इस्तीफा देना चाहता है, तो उन्हें अपना इस्तीफा सदन को प्रस्तुत करना होगा, जिसका अर्थ है कि अध्यक्ष, उपाध्यक्ष को इस्तीफा देता है।
उपाध्यक्ष की आवश्यकता
- निरंतरता बनाए रखना: जब भी अध्यक्ष अनुपस्थित होता है या अध्यक्ष का पद रिक्त हो जाता है तो उपाध्यक्ष कार्यालय की निरंतरता बनाए रखता है।
- सदन का प्रतिनिधित्त्व: यदि अध्यक्ष त्यागपत्र दे देता है तो वह अपना त्यागपत्र उपसभापति को सौंप देता है।
- यदि उपाध्यक्ष का पद रिक्त होता है तो महासचिव त्यागपत्र प्राप्त करता है और सदन को इसकी सूचना देता है।
- लोकसभा के पीठासीन अधिकारियों हेतु नियमों के अनुसार राजपत्र और बुलेटिन में इस्तीफा अधिसूचित किया जाता है।
- विपक्ष को मज़बूत करना: वर्ष 2011 से उपसभापति का पद विपक्षी दल को देने की परंपरा रही है।
- हालाँकि संवैधानिक रूप से उपसभापति विपक्ष या बहुमत दल से हो सकता है।
जन प्रतिनिधित्त्व अधिनियम, 1951 के तहत भ्रष्ट आचरण
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले के अनुसार, किसी चुनावी उम्मीदवार द्वारा योग्यता के संबंध में भ्रामक जानकारी प्रदान करना जन प्रतिनिधित्त्व अधिनियम, 1951 के तहत भ्रष्ट आचरण नहीं है।
- न्यायालय के अनुसार, भारत में कोई व्यक्ति उम्मीदवार की शैक्षिक पृष्ठभूमि के आधार पर प्रतिनिधियों का चयन नहीं करता है।
मामला:
- वर्ष 2017 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक फैसला दिया था, जिसमें कहा गया था कि शैक्षणिक योग्यता से संबंधित झूठी जानकारी की घोषणा मतदाताओं के चुनावी अधिकारों के मुक्त अभ्यास में हस्तक्षेप नहीं करती है। इस संबंध में फैसले को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जानी थी।
- याचिका में कहा गया है कि चुनावी उम्मीदवार धारा 123 (2) के तहत "भ्रष्ट आचरण" के तहत दोषी है क्योंकि अपनी उत्तरदायित्त्व (Liabilities) तथा नामांकन के अपने हलफनामे में शैक्षिक योग्यता सही होने का खुलासा न कर चुनावी अधिकारों के मुक्त अभ्यास में हस्तक्षेप किया है।
- इसमें यह भी तर्क दिया कि धारा 123 (4) के तहत एक "भ्रष्ट आचरण" किया गया जिसमें उम्मीदवार द्वारा अपने चरित्र के बारे में तथ्य का झूठा बयान प्रकाशित करने और अपने चुनाव के परिणाम को प्रभावित करने के लिये जान-बूझकर इसका उपयोग किया गया था।
- सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका को यह कहते हुए "अमान्य" घोषित कर दिया कि एक उम्मीदवार की योग्यता के बारे में गलत जानकारी प्रदान करना RPA, 1951 की धारा 123 (2) और धारा 123 (4) के तहत "भ्रष्ट आचरण" नहीं माना जा सकता है।
RPA, 1951 के तहत "भ्रष्ट आचरण"
- अधिनियम की धारा 123:
- RPA अधिनियम की धारा 123 के अनुसार, "भ्रष्ट आचरण" वह है जिसमें एक उम्मीदवार चुनाव जीतने की अपनी संभावनाओं को बेहतर बनाने के लिये कुछ इस प्रकार की गतिविधियों में शामिल हो जाते हैं, जिसके अंतर्गत रिश्वत, अनुचित प्रभाव, झूठी जानकारी, और धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर भारतीय नागरिकों के विभिन्न वर्गों के बीच घृणा, "दुश्मनी की भावनाओं को बढ़ावा देना अथवा ऐसा प्रयास करना शामिल है।"
- धारा 123 (2):
- यह धारा 'अनुचित प्रभाव (undue influence)' से संबंधित है, जिसे "किसी भी चुनावी अधिकार के मुक्त अभ्यास के साथ उम्मीदवार (किसी परिस्थिति में उम्मीदवार द्वारा स्वयं अथवा कभी कभी उसके प्रतिनिधित्त्वकर्त्ताओं या संबद्ध व्यक्तियों) द्वारा किसी भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप के रूप में परिभाषित किया गया है।"
- इसमें चोटिल करने/हानि पहुँचाने, सामाजिक अस्थिरता और किसी भी जाति अथवा समुदाय से निष्कासन की धमकी भी शामिल हो सकती है।
- धारा 123 (4):
- यह चुनाव परिणामों को प्रभावित करने वाली भ्रामक जानकारी के प्रकाशन पर प्रतिबंध लगाने हेतु "भ्रष्ट आचरण" की परिभाषा को और व्यापक बनाता है।
- अधिनियम के प्रावधानों के तहत एक निर्वाचित प्रतिनिधि को कुछ अपराधों हेतु जैसे- भ्रष्ट आचरण के आधार पर, चुनाव खर्च घोषित करने में विफल रहने पर और सरकारी अनुबंधों या कार्यों में संलग्न होने का दोषी ठहराए जाने पर अयोग्य घोषित किया जा सकता है।
अतीत में न्यायालय ने जिन प्रथाओं को भ्रष्ट आचरण के रूप में माना
- अभिराम सिंह बनाम सी.डी. कॉमाचेन केस:
- वर्ष 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने 'अभिराम सिंह बनाम सी.डी. कॉमाचेन मामले में माना कि धारा 123 (3) के अनुसार (जो इसे प्रतिबंधित करता है) अगर उम्मीदवार के धर्म, जाति, वंश, समुदाय या भाषा के नाम पर वोट मांगे जाते हैं तो चुनाव रद्द कर दिया जाएगा।
- एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ:
- वर्ष 1994 में 'एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ' में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था कि RPA अधिनियम, 1951 की धारा 123 की उपधारा (3) का हवाला देते हुए धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों में धर्म का अतिक्रमण सख्ती से प्रतिबंधित है।
- एस. सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु राज्य:
- वर्ष 2022 में सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2013 के 'एस. सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु राज्य' फैसले पर पुनर्विचार करते हुए यह माना कि मुफ्त उपहारों के वादों को एक भ्रष्ट आचरण नहीं कहा जा सकता है।
- हालाँकि इस मामले पर अभी फैसला होना है।
जनप्रतिनिधित्त्व कानून 1951:
- प्रावधान:
- यह चुनाव के संचालन को नियंत्रित करता है।
- यह सदनों की सदस्यता हेतु योग्यताओं और अयोग्यताओं को निर्दिष्ट करता है,
- यह भ्रष्ट प्रथाओं और अन्य अपराधों को रोकने के प्रावधान करता है।
- यह चुनावों से उत्पन्न होने वाले संदेहों और विवादों को निपटाने की प्रक्रिया निर्धारित करता है।
- महत्त्व:
- यह अधिनियम भारतीय लोकतंत्र के सुचारु संचालन हेतु महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह प्रतिनिधि निकायों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों के प्रवेश पर रोक लगाता है, इस प्रकार भारतीय राजनीति को अपराध की श्रेणी से बाहर कर देता है।
- अधिनियम में प्रत्येक उम्मीदवार को अपनी संपत्ति और देनदारियों की घोषणा करने तथा चुनाव खर्च का लेखा-जोखा रखने की आवश्यकता होती है। यह प्रावधान सार्वजनिक धन के उपयोग या व्यक्तिगत लाभ हेतु शक्ति के दुरुपयोग में उम्मीदवार की जवाबदेही एवं पारदर्शिता सुनिश्चित करता है।
- यह बूथ कैप्चरिंग, रिश्वतखोरी या दुश्मनी को बढ़ावा देने आदि जैसे भ्रष्ट आचरणों पर रोक लगाता है, जो चुनावों की वैधता और स्वतंत्र तथा निष्पक्ष संचालन सुनिश्चित करता है तथा किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की सफलता हेतु आवश्यक है।
- अधिनियम के तहत केवल वे राजनीतिक दल जो RPA अधिनियम, 1951 की धारा 29A के तहत पंजीकृत हैं, चुनावी बॉण्ड प्राप्त करने हेतु पात्र हैं, इस प्रकार राजनीतिक फंडिंग के स्रोत को ट्रैक करने एवं चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिये यह एक तंत्र प्रदान करता है।