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Indian Society and Social Issues (भारतीय समाज और सामाजिक मुद्दे): March 2023 UPSC Current Affairs | Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly PDF Download

भारत का आंतरिक प्रवासन

चर्चा में क्यों?

तमिलनाडु में हिंदी भाषी लोगों पर कथित हमलों के वीडियो सामने आने के बाद प्रवासी श्रमिकों के संभावित पलायन को लेकर चिंता उत्पन्न हो गई है।

  • उद्योग समूहों को यह चिंता है कि पलायन तमिलनाडु के औद्योगिक और विनिर्माण क्षेत्र को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा, एक अनुमान के अनुसार, वहाँ लगभग दस लाख प्रवासी कार्यरत हैं।

प्रवासन

  • परिचय:
    • अंतर्राष्ट्रीय प्रवासी संगठन के अनुसार, कोई भी व्यक्ति जो एक अंतर्राष्ट्रीय सीमा के पार या अपने सामान्य निवास स्थान से दूर किसी राज्य में पलायन करता है, तो उसे प्रवासी माना जाता है।
    • प्रवासन में आकार, दिशा, जनसांख्यिकी और आवृत्ति में परिवर्तनों का विश्लेषण करने से ज़मीनी स्तर पर प्रभावी नीतियों, कार्यक्रमों और परिचालन प्रतिक्रियाओं संबंधी नीति का निर्माण हो सकता है।
  • प्रवासन निर्धारित करने वाले कारक:
    • आपदाओं, आर्थिक कठिनाइयों, अत्यंत गरीबी या सशस्त्र संघर्ष की अधिक गंभीरता या आवृत्ति के परिणामस्वरूप या स्वैच्छिक या मजबूरन आंदोलन इसके कारक हो सकते हैं।
    • कोविड-19 महामारी हाल के वर्षों में पलायन के मुख्य कारणों में से एक है।
  • प्रवासन के 'पुश' और 'पुल' कारक:
    • पुश (प्रतिकर्षण) कारक वे हैं जो किसी व्यक्ति को मूल स्थान (आउट-माइग्रेशन) को छोड़ने एवं किसी अन्य स्थान पर पलायन करने के लिये मजबूर करते हैं जैसे- आर्थिक और सामाजिक कारण, किसी विशेष स्थान पर विकास की कमी।
    • पुल (प्रतिकर्षण) कारक उन कारकों को इंगित करते हैं जो प्रवासियों (इन-माइग्रेशन) को किसी क्षेत्र (गंतव्य) की ओर आकर्षित करते हैं जैसे कि रोज़गार के अवसर, रहने की बेहतर परिस्थितियाँ , निम्न या उच्च-स्तरीय सुविधाओं की उपलब्धता आदि।

माइग्रेशन के आँकड़े

  • 2011 की जनगणना:
    • भारत में आंतरिक प्रवासियों (अंतर-राज्य और राज्य दोनों के भीतर) की संख्या 45.36 करोड़ है, जो देश की कुल आबादी का 37% है।
    • वार्षिक शुद्ध प्रवासी प्रवाह (Annual Net Migrant Flows) कामकाज़ी उम्र की आबादी का लगभग 1% था।
    • भारत में इसमें 48.2 लाख लोग काम कर रहे थे। अनुमान के मुताबिक, वर्ष 2016 में यह 50 लाख से अधिक हो गई।
  • प्रवासन कार्य-समूह रिपोर्ट, 2017:
    • आवास एवं शहरी गरीबी उपशमन मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के 17 ज़िलों की पुरुष आबादी का शीर्ष 25% उत्प्रवास के लिये ज़िम्मेदार है।
    • इनमें से दस ज़िले उत्तर प्रदेश में, छह बिहार में और एक ओडिशा में है।
  • आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17:
    • बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे अपेक्षाकृत कम विकसित राज्यों में उच्च शुद्ध बाह्य प्रवासन की स्थिति है।
    • अपेक्षाकृत अधिक विकसित राज्य जैसे कि गोवा, दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक शुद्ध अप्रवासन को दर्शाते हैं।
    • दिल्ली क्षेत्र में सबसे ज़्यादा अप्रवासन हुआ, जिसमें वर्ष 2015-16 में आधे से अधिक अप्रवासन देखा गया।
    • जबकि उत्तर प्रदेश और बिहार का कुल बाह्य प्रवासन मेंआधा हिस्सा है।
  • भारत प्रवास रिपोर्ट 2020-21:
    • सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने जून 2022 में जारी एक अध्ययन में प्रवासियों एवं अल्पकालिक पर्यटकों पर डेटा संकलित किया।
    • जुलाई 2020-जून 2021 की अवधि के दौरान देश की 0.7% आबादी को 'अस्थायी अप्रवासियों के रूप में दर्ज किया गया था।
    • अस्थायी अप्रवासियों को उन लोगों के रूप में परिभाषित किया गया था जो मार्च 2020 के बाद अपने घरों में आए और कम-से-कम लगातार 15 दिनों से अधिक लेकिन छह महीने से कम समय तक वहाँ रहे।
    • महामारी के कारण इन 0.7% अस्थायी अप्रवासियों में से 84% से अधिक पुनः घर चले गए।
    • जुलाई 2020-जून 2021 में ऑल-इंडिया माइग्रेशन दर 28.9% थी, ग्रामीण क्षेत्रों में 26.5% प्रवासन दर और शहरी क्षेत्रों में 34.9% थी।
    • महिलाओं ने 47.9%की प्रवासन दर का एक उच्च हिस्सा दर्ज किया, जो ग्रामीण में 48% और शहरी क्षेत्रों में 47.8% है।
    • पुरुषों की प्रवासन दर 10.7% थी, जो ग्रामीण में 5.9% और शहरी क्षेत्रों में 22.5% है।
    • 86.8% महिलाएँ शादी के उपरांत पलायन करती हैं, जबकि 49.6% पुरुष रोज़गार की तलाश में पलायन करते हैं

प्रवास और प्रवासियों का महत्त्व

  • श्रम मांग और आपूर्ति: प्रवास श्रम की मांग और आपूर्ति में अंतराल को समाप्त करता है, दक्षता के साथ कुशल-अकुशल श्रम और सस्ते श्रम आवंटित करता है।
  • कौशल विकास: प्रवासन बाहरी दुनिया के साथ जोखिम और संवाद के माध्यम से प्रवासियों के ज्ञान और कौशल को बढ़ाता है।
  • जीवन की गुणवत्ता: प्रवासन रोज़गार और आर्थिक समृद्धि की संभावना को बढ़ाता है जो बदले में जीवन की गुणवत्ता में सुधार करता है।
  • आर्थिक प्रेषण: प्रवासी भी अतिरिक्त आय और प्रेषण घर वापस भेजते हैं, जिसका उनके मूल स्थान पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
  • सामाजिक प्रेषण: प्रवास लोगों के सामाजिक जीवन को बेहतर बनाने में मदद करता है, क्योंकि वे नई संस्कृतियों, रीति -रिवाज़ों और भाषाओं के बारे में सीखते हैं जो लोगों के बीच भाईचारे को बेहतर बनाने में मदद करते हैं एवं अधिक समानता तथा सहिष्णुता सुनिश्चित करते हैं।

प्रवासन से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?

  • वंचित वर्गों द्वारा सामना किये जाने वाले मामले:
    • जो लोग गरीब होते हैं या वंचित समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, उन्हें घुलना-मिलना आसान नहीं लगता।
  • सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलू:
    • कई बार प्रवासियों को मेज़बान क्षेत्र द्वारा आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता है और वे हमेशा दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में रहते हैं।
    • किसी नए देश में प्रवास करने वाले किसी भी व्यक्ति को कई चुनौतियों जैसे सांस्कृतिक अनुकूलन और भाषा की बाधाओं से लेकर गृह वियोग और अकेलेपन तक का सामना करना पड़ता है।
  • राजनीतिक अधिकारों और सामाजिक लाभों से वंचित:
    • प्रवासी श्रमिकों को मतदान के अधिकार जैसे अपने राजनीतिक अधिकारों का प्रयोग करने के कई अवसरों से वंचित रखा जाता है।
    • इसके अलावा पते का प्रमाण, मतदाता पहचान पत्र और आधार कार्ड प्रदान करने की आवश्यकता, जो उनके जीवन के अस्थायित्त्व के कारण कठिन कार्य है तथा उन्हें कल्याणकारी योजनाओं और नीतियों तक पहुँचने से वंचित करता है।
  • प्रवासन से संबंधित सरकारी पहल क्या हैं?
    • वर्ष 2021 में नीति आयोग ने अधिकारियों और नागरिक समाज के सदस्यों के एक कार्यकारी उपसमूह के साथ मिलकर राष्ट्रीय प्रवासी श्रम नीति का प्रारूप तैयार किया है।
    • वन नेशन वन राशन कार्ड (ONORC) परियोजना के विस्तार और किफायती किराये के आवास परिसरों (ARHC), प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना और ई-श्रम पोर्टल की शुरुआत ने आशा की किरण दिखाई है।
    • हालाँकि प्रवासियों का वृत्तांत भारत में अब भी दुखद है।

महिला, व्यवसाय और कानून 2023 रिपोर्ट

खबरों में क्यों?

विश्व बैंक की महिला, व्यवसाय और कानून 2023 रिपोर्ट में भारत ने क्षेत्रीय औसत से ऊपर स्कोर किया । भारत के लिए, रिपोर्ट ने भारत के मुख्य व्यापारिक शहर मुंबई में कानूनों और विनियमों पर डेटा का उपयोग किया।

  • भारत को आने-जाने की स्वतंत्रता, महिलाओं के काम के फैसले और शादी की बाधाओं से संबंधित कानूनों के लिए एक सही स्कोर प्राप्त हुआ।

महिला, व्यवसाय और कानून 2023 रिपोर्ट क्या है?

  • के बारे में: महिला, व्यवसाय और कानून 2023 वार्षिक रिपोर्ट की श्रृंखला में 9वां है जो 190 अर्थव्यवस्थाओं में महिलाओं के आर्थिक अवसर को प्रभावित करने वाले कानूनों और नियमों का विश्लेषण करता है।
  • महिला, व्यवसाय और कानून डेटा 1971 से 2023 की अवधि के लिए उपलब्ध है (कैलेंडर वर्ष 1970 से 2022)
  • संकेतक: इसके आठ संकेतक हैं- गतिशीलता, कार्यस्थल, वेतन, विवाह, पितृत्व, उद्यमिता, संपत्ति और पेंशन।
  • उपयोग: महिला, व्यवसाय और कानून 2023 में डेटा और संकेतक, कानूनी लैंगिक समानता और महिला उद्यमिता और रोजगार के बीच संबंध का प्रमाण बनाने के लिए उपयोग किया जाता है।
  • 2009 से, महिला, व्यवसाय और कानून लैंगिक समानता के अध्ययन को बढ़ा रहे हैं और महिलाओं के आर्थिक अवसरों और सशक्तिकरण में सुधार पर चर्चा कर रहे हैं।

रिपोर्ट के निष्कर्ष क्या हैं?

  • भारत:
    • डब्ल्यूबीएल सूचकांक स्कोर के साथ निम्न मध्यम आय समूह देश के रूप में भारत 100 में से 74.4 है।
    • 100 उच्चतम संभव स्कोर का प्रतिनिधित्व करता है।
    • भारत के लिए समग्र स्कोर दक्षिण एशिया (63.7) में देखे गए क्षेत्रीय औसत से अधिक है । दक्षिण एशिया क्षेत्र के भीतर, अधिकतम स्कोर 80.6 (नेपाल) देखा गया है।
    • भारत में, एक संपन्न नागरिक समाज ने भी अंतराल की पहचान करने, कानून का मसौदा तैयार करने और अभियानों, चर्चाओं और विरोध प्रदर्शनों के माध्यम से जनमत को संगठित करने में योगदान दिया, जिससे 2005 घरेलू हिंसा अधिनियम का अधिनियमन हुआ
  • विश्व स्तर पर:
    • केवल 14 ने एक पूर्ण 100 स्कोर किया: बेल्जियम, कनाडा, डेनमार्क, फ्रांस, जर्मनी, ग्रीस, आइसलैंड, आयरलैंड, लातविया, लक्जमबर्ग, नीदरलैंड, पुर्तगाल, स्पेन और स्वीडन।
    • 2022 में, वैश्विक औसत स्कोर 100 में से 76.5 है।
    • दुनिया भर में कामकाजी उम्र की लगभग 2.4 बिलियन महिलाएं ऐसी अर्थव्यवस्थाओं में रहती हैं जो उन्हें पुरुषों के समान अधिकार नहीं देती हैं।
    • सुधार की मौजूदा गति से, हर जगह कानूनी लैंगिक समानता तक पहुंचने में कम से कम 50 साल लगेंगे।
    • महिलाओं के लिए समान व्यवहार की प्रगति 20 वर्षों में अपनी सबसे कमजोर गति से गिर गई है।
    • अधिकांश सुधार माता-पिता और पिता के लिए सवैतनिक अवकाश बढ़ाने, महिलाओं के काम पर प्रतिबंध हटाने और समान वेतन को अनिवार्य बनाने पर केंद्रित थे।
    • कार्यस्थल और पितृत्व में अधिकांश सुधारों के साथ मापित क्षेत्रों में प्रगति भी असमान रही है।

भारत को किन क्षेत्रों पर ध्यान देने की आवश्यकता है?

  • वेतन, पेंशन, विरासत और संपत्ति के अधिकारों को प्रभावित करने वाले कानून। भारतीय कामकाजी महिला के वेतन और पेंशन को प्रभावित करने वाले कानून भारतीय पुरुषों के साथ समानता प्रदान नहीं करते हैं।
  • वेतन संकेतक में सुधार के लिए, भारत को समान मूल्य के काम के लिए समान पारिश्रमिक अनिवार्य करना चाहिए, महिलाओं को रात में काम करने की अनुमति देनी चाहिए, और महिलाओं को पुरुषों की तरह ही औद्योगिक नौकरी में काम करने की अनुमति देनी चाहिए।
  • भारत में महिलाओं के वेतन को प्रभावित करने वाले कानून, बच्चे होने के बाद महिलाओं के काम को प्रभावित करने वाले कानून, व्यवसाय शुरू करने और चलाने वाली महिलाओं पर प्रतिबंध, संपत्ति और विरासत में लिंग अंतर, और महिलाओं की पेंशन के आकार को प्रभावित करने वाले कानून, भारत कानूनी समानता में सुधार के लिए सुधारों पर विचार कर सकता है औरत।
  • उदाहरण के लिए, भारत के लिए सबसे कम अंकों में से एक महिलाओं के वेतन को प्रभावित करने वाले कानूनों को मापने वाले संकेतक पर है (WBL2023 वेतन संकेतक)।
  • विश्व स्तर पर, औसतन महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले केवल 77 प्रतिशत कानूनी अधिकार प्राप्त हैं।

सोशल प्रोटेक्शन फॉर चिल्ड्रेन: ILO-UNICEF

चर्चा में क्यों?

हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (International Labour Organization- ILO) और संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (United Nations Children's Fund- UNICEF) ने एक रिपोर्ट जारी की है जिसका शीर्षक है- “More than a billion reasons: The urgent need to build universal social protection for children”, जिसके अनुसार, 4 में से सिर्फ 1 बच्चा सामाजिक सुरक्षा द्वारा परिरक्षित है, जबकि शेष अन्य बच्चे गरीबी, बहिष्करण और बहुआयामी अभाव के शिकार हो जाते हैं।

सामाजिक सुरक्षा की आवश्यकता

  • सामाजिक सुरक्षा एक सार्वभौमिक मानव अधिकार है और गरीबी से मुक्त दुनिया हेतु एक पूर्व शर्त है।
  • यह दुनिया के सबसे कमज़ोर बच्चों को क्षमता प्राप्त करने में मदद देने का एक महत्त्वपूर्ण आधार भी है।
  • सामाजिक सुरक्षा भोजन, पोषण, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच बढ़ाने में मदद करती है।
  • यह बाल श्रम और बाल विवाह को रोकने में भी मदद कर सकती है एवं लैंगिक असमानता तथा बहिष्कार में अंतर्निहित कारणों को भी दूर कर सकती है।
  • यह घरेलू आजीविका का समर्थन करते हुए तनाव और यहाँ तक कि घरेलू हिंसा को भी कम कर सकती है।
  • यह आर्थिक गरीबी को खत्म कर उस कलंक और बहिष्करण को भी कम कर सकती है जिसका सामना कई गरीब बच्चे करते हैं, साथ ही बचपन में महसूस की गई वंचना को "कम-से-कम" करने में मदद कर सकती है।

रिपोर्ट के निष्कर्ष

समग्र परिदृश्य:

  • 0-18 वर्ष की आयु के 1.77 बिलियन बच्चों के लिये पारिवारिक नकद लाभ उपलब्ध नहीं है जो सामाजिक सुरक्षा प्रणाली का एक मौलिक स्तंभ है।
  • वयस्कों की तुलना में बच्चों के अत्यधिक गरीबी में रहने की संभावना दोगुनी होती है।
  • लगभग 800 मिलियन बच्चे 3.20 अमेरिकी डॉलर प्रतिदिन की गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे हैं और 1 बिलियन बच्चे बहु-आयामी गरीबी का सामना कर रहे हैं।
  • 0-15 वर्ष की आयु के केवल 26.4% बच्चों को सामाजिक सुरक्षा द्वारा परिरक्षित किया जा सका है, शेष 73.6% बच्चे गरीबी, बहिष्करण (Exclusion) एवं बहुआयामी अभावों में जी रहे हैं।
  • विश्व स्तर पर सभी 2.4 बिलियन बच्चों को स्वस्थ और खुश रहने के लिये सामाजिक सुरक्षा की आवश्यकता होती है।

सामाजिक सुरक्षा कवरेज:

  • वर्ष 2016 से 2020 के मध्य विश्व के हर क्षेत्र में बाल और परिवार सामाजिक सुरक्षा कवरेज दर गिर गई या फिर स्थिर हो गई, जिससे कोई भी देश वर्ष 2030 तक पर्याप्त सामाजिक सुरक्षा कवरेज के तहत सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) को प्राप्त करने में सफल नहीं हो सकता।
  • लैटिन अमेरिका और कैरिबियन देशों में कवरेज लगभग 51% से घट कर 42% हो गया है।
  • कई अन्य क्षेत्रों में कवरेज या तो स्थिर है या इसमें कमी आई है।

प्रभाव:

  • अत्यधिक संकट के कारण बड़ी संख्या में बच्चों के गरीबी में होने की आशंका है, जिस वजह से सामाजिक सुरक्षा उपायों में तत्काल वृद्धि किये जाने की आवश्यकता होगी।
  • बच्चों के लिये सामाजिक सुरक्षा की कमी के तत्काल और दीर्घकालिक प्रभाव होते हैं, इससे बाल श्रम एवं बाल विवाह जैसे अधिकारों के उल्लंघन की व्यापकता बढ़ जाती है, जिससे बच्चों की आकांक्षाओं तथा अवसरों में भी कमी आती है।
  • इसके अतिरिक्त इस अवास्तविक मानव क्षमता का सामान्य रूप से समुदाय, समाज और अर्थव्यवस्था पर अपरिहार्य प्रतिकूल तथा दीर्घकालिक प्रभाव पड़ता है।

सामजिक सुरक्षा का महत्त्व

  • कोविड-19 महामारी से पूर्व वयस्कों की तुलना में बच्चों के अत्यधिक गरीबी में रहने की संभावना दोगुनी से अधिक थी।
  • एक अरब बच्चे गरीबी के कई रूपों का अनुभव करते हैं जिनकी भोजन, पानी, स्वच्छता, आवास, स्वास्थ्य देखभाल, स्कूली शिक्षा और अन्य आवश्यकताओं तक पहुँच की कमी है।
  • कोविड-19 महामारी ने संकट के समय में सामाजिक सुरक्षा के महत्त्व को प्रदर्शित किया।
  • विश्व की लगभग प्रत्येक सरकार ने बच्चों और परिवारों की मदद करने के लिए या तो मौजूदा कार्यक्रमों का तेज़ी से अनुकूलन किया या नई सामाजिक सुरक्षा पहल की शुरुआत की।
  • अनाथों तथा बच्चों की बाल सहायता अनुदान (सीएसजी) राशि बढ़ाने के लिये दक्षिण अफ्रीका ने वर्ष 2022 में एक कल्याणकारी योजना बाल सहायता अनुदान (सीएसजी) टॉप-अप कार्यक्रम की शुरुआत की।
  • राष्ट्रीय "पीएम केयर्स फॉर चिल्ड्रन" योजना 10,793 पूर्ण अनाथों और 151,322 अर्द्ध-अनाथों के लिये उपायों का पैकेज है, जिसे 31 भारतीय राज्यों में अधिनियमित किया गया था। अब तक 4,302 बच्चे इस कार्यक्रम से लाभान्वित हुए हैं।

सुझाव

  • सभी बच्चों के लिये सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा की दिशा में कार्रवाई करना नीति निर्माताओं हेतु सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिये, जिन्हें उन कार्यक्रमों में भी शामिल किया जाना चाहिये जो बाल गरीबी की समस्या के समाधान की गारंटी प्रदान करते हैं।
  • अधिकारियों को राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों के माध्यम से बाल लाभ प्रदान करने की भी सलाह दी जाती है जो परिवारों को महत्त्वपूर्ण स्वास्थ्य और सामाजिक सेवाओं से जोड़ती हैं, जैसे गुणवत्ता वाली मुफ्त या सस्ती बाल-देखभाल।
  • घरेलू संसाधनों को जुटाकर बच्चों के लिये बजट आवंटन बढ़ाकर, माता-पिता एवं अभिभावकों हेतु सामाजिक सुरक्षा को मज़बूत करके और अच्छे काम एवं पर्याप्त कर्मचारी लाभ की गारंटी देकर योजनाओं के लिये स्थायी वित्तपोषण हासिल करने की आवश्यकता है।

ताजा जल की कमी पर बढ़ती चिंताएँ

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्किल ऑफ ब्लू एवं वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर (WWF) द्वारा जारी एक वैश्विक अध्ययन में 31 देशों के लगभग 30,000 लोगों का सर्वेक्षण कर ताजा जल की कमी की स्थिति का विश्लेषण किया गया।

  • अर्जेंटीना, दक्षिण कोरिया, वियतनाम, कोलंबिया, जर्मनी और पेरू के लोगों ने पिछले कुछ वर्षों में जल की कमी में सबसे अधिक वृद्धि दर्ज की है। 

प्रमुख बिंदु

  • 30% लोग ताजा जल की कमी के कारण अत्यधिक प्रभावित हैं।
  • 17 देशों में ताजा जल की कमी संबंधी चिंताएँ वर्ष 2014 के 49% से बढ़कर 2022 में 61% हो गई हैं।
  • ग्रामीण (28%) या कस्बों और उपनगरीय क्षेत्रों (26%) की तुलना में शहरी क्षेत्रों (32%) के ताजा जल की कमी से बहुत अधिक प्रभावित होने की संभावना है।
  • 38% लोगों का कहना है कि वे जलवायु परिवर्तन से व्यक्तिगत रूप से "काफी" प्रभावित हुए हैं।
  • जिन लोगों ने जलवायु परिवर्तन से व्यक्तिगत रूप से प्रभावित होने का दावा किया, उन्होंने सूखे को इसके सबसे चिंताजनक प्रभाव के रूप में अनुभव किया है।

भारत में ताजा जल की कमी की स्थिति?  

  • परिचय:  
    • भारत में हमेशा से ही ताजा जल का संकट रहा है। हालाँकि भारत में विश्व की जनसंख्या का 16% हिस्सा है, लेकिन देश के पास विश्व के ताजा जल संसाधनों का केवल 4% हिस्सा है।
    • नीति आयोग के अनुसार, बड़ी संख्या में भारतीय अत्यधिक जल संकट का सामना करते हैं।
    • उत्तर भारत, देश का सबसे अधिक आबादी वाला क्षेत्र है जहाँ वर्ष 2060 तक गंभीर अपरिवर्तनीय ताजा जल संकट की स्थिति उत्पन्न हो सकती है क्योंकि जलवायु परिवर्तन के कारण महत्त्वपूर्ण संसाधन की उपलब्धता में कमी आ सकती है।
  • मुद्दे:  
    • जल प्रदूषण में निरंतर वृद्धि: बड़ी मात्रा में घरेलू, औद्योगिक और खनन अपशिष्ट जल निकायों में प्रवाहित किये जाते हैं, जिससे जलजनित बीमारियाँ हो सकती हैं।
    • इसके अलावा जल प्रदूषण से सुपोषण (यूट्रोफिकेशन) की स्थिति उत्पन्न हो सकती है, जो जलीय पारिस्थितिक तंत्र को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है।
    • भूजल का अत्यधिक दोहन: केंद्रीय भूजल बोर्ड (2017) के अनुसार, भारत के 700 ज़िलों में से 256 में गंभीर या अतिदोहित भूजल स्तर की सूचना है।
    • कुएँ, तालाब और टैंक सूख रहे हैं क्योंकि अत्यधिक निर्भरता और अस्थिर खपत के कारण भूजल संसाधनों पर दबाब बढ़ रहा है। इससे जल संकट गहरा गया है।
    • संभावित ग्रामीण-शहरी संघर्ष: तीव्र शहरीकरण के परिणामस्वरूप शहरों का तेज़ी से विस्तार हो रहा है और ग्रामीण क्षेत्रों से वृहत् स्तर पर प्रवासियों के प्रवासन के कारण शहरों में जल के प्रति व्यक्ति उपयोग में वृद्धि हुई है, जिसके परिणामस्वरूप जल संकट को दूर करने के लिये ग्रामीण जलाशयों से शहरी क्षेत्रों में पानी स्थानांतरित किया जा रहा है। 
    • शहरी जल स्तर में गिरावट की प्रवृत्ति को देखते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि भविष्य में शहर मीठे पानी की उपलब्धता के लिये बड़े पैमाने पर ग्रामीण क्षेत्रों पर निर्भर होंगे, जिससे ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच संघर्ष हो सकता है।

जल प्रबंधन से संबंधित सरकार की पहलें

  • राष्ट्रीय जल नीति, 2012
  • प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना
  • जल शक्ति अभियान- कैच द रेन अभियान
  • अटल भूजल योजना 

आगे की राह 

  • सतत् भूजल प्रबंधन: भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण और घरेलू स्तर पर वर्षा जल संचयन, सतही जल और भूजल के संयुक्त उपयोग तथा जलाशयों के नियमन के लिये एक उचित तंत्र एवं ग्रामीण-शहरी एकीकृत परियोजनाओं को विकसित करने की आवश्यकता है।
  • जल संरक्षण क्षेत्र: जल संरक्षण क्षेत्र स्थापित करने और क्षेत्रीय, राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर जल निकायों की स्थिति का आकलन करने के लिये प्रभावी जल शासन तथा बेहतर डेटा अनुशासन पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
  • आधुनिक जल प्रबंधन तकनीकों का लाभ उठाना: सूचना प्रौद्योगिकी को जल संबंधी डेटा प्रणालियों से जोड़ा जा सकता है। साथ ही हाल के वर्षों में हुए अनुसंधान और प्रौद्योगिकी सफलताओं से उस जल को उपयोगी बनाना संभव बना दिया है जिसे उपभोग के लिये अनुपयुक्त माना जाता था।
  • सबसे अधिक उपयोग में लाई जाने वाली कुछ तकनीकों में इलेक्ट्रोडायलिसिस रिवर्सल (EDR)डिसैलिनाइज़ेशननैनोफिल्ट्रेशन और सौर तथा अल्ट्रा वॉयलेट फिल्ट्रेशन शामिल हैं।

राजनीति में महिलाओं के लिये आरक्षण

चर्चा में क्यों?  

हाल ही में एक राजनीतिक दल ने लंबे समय से लंबित महिला आरक्षण विधेयक को संसद में पेश करने का आह्वान किया।

  • राज्यसभा ने 9 मार्च, 2010 को महिला आरक्षण विधेयक पारित किया था। हालाँकि लोकसभा ने कभी भी विधेयक पर मतदान नहीं किया। इस विधेयक को समाप्त कर दिया गया क्योंकि यह अभी तक लोकसभा में लंबित था।

भारतीय राजनीति में महिलाओं के लिये आरक्षण की पृष्ठभूमि

  • राजनीति में महिलाओं के लिये आरक्षण का मुद्दा भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के समय सामने आया। वर्ष 1931 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में तीन महिला निकायों, नेताओं- बेगम शाह नवाज़ और सरोजिनी नायडू द्वारा नए संविधान में महिलाओं की स्थिति पर संयुक्त रूप से जारी आधिकारिक ज्ञापन प्रस्तुत किये गए थे।
  • महिलाओं के लिये राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना में वर्ष 1988 में सिफारिश की गई थी कि महिलाओं को पंचायत स्तर से लेकर संसद के स्तर तक आरक्षण प्रदान किया जाना चाहिये।
  • इन सिफारिशों ने संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के ऐतिहासिक अधिनियमन का मार्ग प्रशस्त किया, जो सभी राज्य सरकारों को क्रमशः पंचायती राज संस्थानों एवं इसके हर स्तर पर अध्यक्ष पदों तथा शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं हेतु एक-तिहाई सीटें आरक्षित करने का आदेश देती हैं। इन सीटों में एक-तिहाई सीटें अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के लिये आरक्षित हैं।
  • महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड और केरल जैसे कई राज्यों ने स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिये 50% आरक्षण सुनिश्चित करने हेतु कानूनी प्रावधान किये हैं।

महिला प्रतिनिधित्त्व विधेयक

  • विधेयक के बारे में: 
    • महिला आरक्षण विधेयक में महिलाओं के लिये लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं में 33% सीटें आरक्षित करने का प्रस्ताव है।
    • आरक्षित सीटों को राज्य या केंद्रशासित प्रदेश के विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में क्रमिक रूप से आवंटित किया जा सकता है।
    • इस संशोधन अधिनियम के लागू होने के 15 वर्ष बाद महिलाओं के लिये सीटों का आरक्षण समाप्त हो जाएगा।
  • आवश्यकता: 
    • ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2022 के अनुसार, भारत राजनीतिक अधिकारिता (संसद में महिलाओं का प्रतिशत और मंत्री पद) आयाम में 146 में से 48वें स्थान पर है।
    • इस रैंक के बावजूद भारत का स्कोर 0.267 है जो कि काफी कम है। इस श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ रैंकिंग वाले कुछ देशों का स्कोर कहीं बेहतर है। उदाहरण के लिये आइसलैंड 0.874 के स्कोर के साथ पहले स्थान पर है और बांग्लादेश 0.546 के स्कोर के साथ 9वें स्थान पर है।
    • महिलाओं का आत्म-प्रतिनिधित्त्व और आत्मनिर्णय का अधिकार।
    • विभिन्न सर्वेक्षणों के अनुसार, महिला पंचायती राज प्रतिनिधियों ने गाँवों में समाज के विकास और समग्र भलाई के लिये सराहनीय काम किया है तथा उनमें से कई निस्संदेह बड़े पैमाने पर काम करना चाहेंगी; हालाँकि वे भारत की राजनीतिक संरचना में विभिन्न चुनौतियों का सामना करती हैं।
  • बिल के खिलाफ तर्क:
    • महिलाएँ कोई सजातीय समुदाय नहीं हैं, जैसे कि कोई जाति समूह। इसलिये महिलाओं के लिये जाति-आधारित आरक्षण हेतु जो तर्क दिये गए हैं, वे उचित नहीं है।
    • महिलाओं के लिये सीटों के आरक्षण का कुछ लोगों द्वारा विरोध किया जाता है। वे दावा करते हैं कि ऐसा करने से संविधान की समानता की गारंटी का उल्लंघन होगा। यदि महिलाओं को आरक्षण दिया जाता है, तो उनका तर्क है कि महिलाएँ योग्यता के आधार पर प्रतिस्पर्द्धा नहीं करेंगी, जिससे महिलाओं की सामाजिक स्थिति में गिरावट आ सकती है।

भारतीय राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्त्व

  • स्वतंत्रता से पहले:  
    • पितृसत्तात्मक सामाजिक मानदंडों और मानसिकता ने ऐतिहासिक रूप से भारत में महिलाओं को हाशिये पर रखने और उनका शोषण करने की अनुमति दी है।
    • सामाजिक सुधारों की शुरुआत और स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी: महिलाओं ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में प्रभावशाली योगदान दिया, जो बंगाल में स्वदेशी आंदोलन (1905–08) के साथ शुरू हुआ, जिसमें महिलाओं ने राजनीतिक प्रदर्शनों का आयोजन, संसाधन जुटाना एवं आंदोलनों में नेतृत्त्व की स्थिति संभाली।
  • आज़ादी के बाद:  
    • भारत के संविधान ने निर्धारित किया है कि सभी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र पुरुषों एवं महिलाओं के साथ समान व्यवहार करेंगे।
    • वर्तमान में भारतीय संसद की लगभग 14.4% सदस्य महिलाएँ हैं, जो अब तक की सबसे अधिक संख्या है। हालाँकि अंतर-संसदीय संघ के अनुसार, भारत के निम्न सदन में नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका एवं बांग्लादेश जैसे पड़ोसियों की तुलना में महिलाओं का प्रतिशत कम है।
    • भारत निर्वाचन आयोग (Election Commission of India- ECI) के नवीनतम आँकड़ों के अनुसार, अक्तूबर 2021 में महिला प्रतिनिधि संसद के कुल सदस्यों का 10.5% हैं।
    • भारत में सभी राज्य विधानसभाओं में महिला सदस्यों (MLA) के लिये परिदृश्य और भी बदतर है, जिसका राष्ट्रीय औसत 9% है। आज़ादी के पिछले 75 वर्षों में लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्त्व 10% भी नहीं बढ़ा है।

भारत में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी के मूल्यांकन हेतु मानदंड

  • मतदाता के रूप में महिलाएँ:  
    • वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में पुरुषों की तुलना में लगभग उतनी ही महिलाओं ने मतदान किया, यह राजनीति में लैंगिक समानता की दिशा में भारत की यात्रा में एक महत्त्वपूर्ण अवसर है, जिसे "क्वाइट रिवाॅल्यूशन ऑफ सेल्फ एम्पावरमेंट" कहा गया गया है। इस बढ़ती भागीदारी के विशेषकर वर्ष 1990 के दशक के दौरान से कई कारण रहे हैं।
  • उम्मीदवार के रूप में महिलाएँ: 
    • सामान्यतः संसदीय चुनावों में महिला उम्मीदवारों का अनुपात समय के साथ बढ़ा है लेकिन पुरुष उम्मीदवारों की तुलना में यह कम रहा। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भाग लेने वाले 8,049 उम्मीदवारों में 9% से कम महिलाएँ थीं। 

भारत में महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्त्व को बेहतर करने हेतु उपाय

  • भारतीय राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्त्व अनेक वर्षों से चर्चा का विषय रहा है और इसमें कुछ प्रगति भी हुई है किंतु अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना शेष है। भारतीय राजनीति में महिलाओं के बेहतर प्रतिनिधित्त्व हेतु कुछ तरीके इस प्रकार हैं: 
  • सीटों का आरक्षण: स्थानीय निकायों और विधानसभाओं में महिलाओं के लिये सीटों का आरक्षण राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्त्व में वृद्धि करने का एक सफल तरीका रहा है। महिलाओं को निर्णय लेने की प्रक्रिया में भाग लेने के अधिक अवसर प्रदान करने हेतु ऐसी और अधिक आरक्षण नीतियाँ लागू की जा सकती हैं।
  • जागरूक और शिक्षित करना: महिलाओं में उनके अधिकारों और राजनीति में भागीदारी के महत्त्व के विषय में जागरूकता पैदा करना आवश्यक है। शैक्षिक कार्यक्रम तथा जागरूकता अभियान महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी बढ़ाने में मदद कर सकते हैं।
  • लिंग आधारित हिंसा और उत्पीड़न को रोकने हेतु आवश्यक कदम: लिंग आधारित हिंसा एवं उत्पीड़न राजनीति में महिलाओं की भागीदारी की दिशा में प्रमुख बाधाएँ हैं। नीति तथा विधिक उपायों के माध्यम से इन मुद्दों को हल करने से राजनीति में महिलाओं के लिये सुरक्षित और अधिक सहायक वातावरण तैयार हो सकता है।
  • चुनावी प्रक्रिया में सुधार: अधिक महिलाओं का चयन सुनिश्चित करने हेतु आनुपातिक प्रतिनिधित्त्व और अधिमान्य मतदान प्रणाली को लागू करने जैसे सुधार राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्त्व को बढ़ावा दे सकते हैं।
  • भारतीय राजनीति में महिलाओं की संख्या बढ़ाने के उपाय सीमित हैं। दीर्घकालिक प्रभाव के लिये कई चुनौतियों से निपटने हेतु एक बहुआयामी रणनीति की आवश्यकता है।

भारत में महिला एवं पुरुष, वर्ष 2022

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने भारत में महिला एवं पुरुष, वर्ष 2022 रिपोर्ट जारी की है।

प्रमुख बिंदु

  • लिंगानुपात: 
    • वर्ष 2017-2019 में जन्म के समय लिंगानुपात 904 से बढ़कर वर्ष 2018-2020 में तीन अंक की वृद्धि के साथ 907 हो गया।
    • वर्ष 2011 के 943 की तुलना में वर्ष 2036 तक भारत में लिंगानुपात (प्रति 1,000 पुरुषों पर महिलाएँ) बढ़कर 952 होने की उम्मीद है।
  • श्रम बल में भागीदारी: 
    • वर्ष 2017-2018 में 15 वर्ष से अधिक आयु वाले श्रम बल की भागीदारी में वृद्धि देखी गई है। हालाँकि इसमें पुरुषों की तुलना में महिलाएँ काफी पीछे हैं।
    • वर्ष 2021-2022 में पुरुषों के लिये यह दर 77.2 और महिलाओं के लिये 32.8 थी तथा  अनेक वर्षों से इस असमानता में कोई सुधार नहीं देखा गया है।
    • कार्यस्थल पर पारिश्रमिक और अवसरों के संदर्भ में सामाजिक कारक, शैक्षिक योग्यता तथा लैंगिक असमानता इस प्रकार की समस्या के प्रमुख कारण हैं। 
  • जनसंख्या वृद्धि:
    • जनसंख्या वृद्धि, जो वर्ष 1971 के 2.2% से लेकर वर्ष 2021 में 1.1% रही पहले से ही नीचे की ओर अग्रसर है, के वर्ष 2036 में 0.58% तक गिरने का अनुमान है।  
    • पूर्ण आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, 1.2 बिलियन लोगों में महिला जनसंख्या 48.5% थी और वर्ष 2036 में 1.5 बिलियन लोगो में महिला जनसंख्या हिस्सेदारी (48.8%) में मामूली सुधार अपेक्षित है। 
  • लिंग विन्यास के अनुसार आयु:
    • भारत में आयु एवं लिंग संरचना के अनुसार 15 वर्ष से कम आयु की आबादी में गिरावट की और वर्ष 2036 तक 60 वर्ष से अधिक की आबादी में वृद्धि होने की संभावना है। 
    • इस प्रकार जनसंख्या पिरामिड एक परिवर्तन से गुज़रेगा क्योंकि वर्ष 2036 में पिरामिड का आधार छोटा हो जाएगा, जबकि मध्य का भाग बड़ा हो जाएगा। 
    • किसी देश में जनसंख्या की आयु एवं लिंग संरचना विभिन्न माध्यमों से लिंग संबंधी मुद्दों को प्रभावित कर सकती है। समाज के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करने वाली आयु संरचना मुख्य रूप से प्रजनन क्षमता और मृत्यु दर के रुझानों से निर्धारित होती है।
  • स्वास्थ्य सूचना और सेवाओं तक पहुँच:
    • संसाधनों और निर्णय लेने की शक्ति तक पहुँच का अभाव, गतिशीलता पर प्रतिबंध आदि पुरुषों तथा लड़कों की तुलना में महिलाओं व लड़कियों हेतु स्वास्थ्य संबंधी जानकारी एवं सेवाओं तक पहुँच को अधिक कठिन बनाते हैं।
  • प्रजनन दर: 
    • वर्ष 2016 और 2020 के बीच 20-24 वर्ष तथा 25-29 वर्ष आयु वर्ग हेतु आयु-विशिष्ट प्रजनन दर क्रमशः 135.4 एवं 166.0 से घटकर 113.6 व 139.6 हो गई।
    • इसकी सबसे अधिक संभावना उचित शिक्षा और रोज़गार के माध्यम से आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त करने का परिणाम हो सकता है।
    • यह दर 35-39 आयु वर्ग हेतु वर्ष 2016 के 32.7 से बढ़कर वर्ष 2020 में 35.6 हो गया।
    • विवाह हेतु औसत आयु जो कि वर्ष 2017 में 22.1 थी, वर्ष 2020 में बढ़कर 22.7 वर्ष  हो गई, जो कि मामूली सुधार है।  
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