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Politics and Governance (राजनीति और शासन): April 2023 UPSC Current Affairs | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

जनहित प्रतिरक्षा दावा कार्यवाही

चर्चा में क्यों?  

हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायालयों में सीलबंद कवर कार्यवाही के उपयोग और एक मलयालम चैनल के प्रसारण प्रतिबंध मामले पर निर्णय सुनाया। 

  • न्यायालय ने मीडिया में आवाज़ों को दबाने एवं संवैधानिक अधिकारों को कम करने तथा निष्पक्ष सुनवाई की प्रक्रियात्मक गारंटी हेतु सरकार की आलोचना की।  
  • न्यायालय ने सीलबंद कवर (मोहरबंद लिफाफा)  के उपयोग को बदलने हेतु जनहित प्रतिरक्षा दावा कार्यवाही के लिये एक वैकल्पिक प्रक्रिया भी तैयार की।

जनहित प्रतिरक्षा दावा कार्यवाही

  • परिचय:  
    • सर्वोच्च न्यायालय ने गोपनीयता के लिये राज्य के दावों से निपटने के दौरान सीलबंद कवर कार्यवाही हेतु "विकल्प" के रूप में "कम प्रतिबंधात्मक" जनहित प्रतिरक्षा  (PII) दावा कार्यवाही को विकसित किया।
    • PII की कार्यवाही एक "गुप्त बैठक" होगी, लेकिन राज्य के PII के दावे को अनुमति देने या खारिज़ करने का एक तर्कपूर्ण आदेश खुले न्यायालय में घोषित करने का प्रावधान है।
  • प्रक्रिया - न्यायमित्र (एमिकस क्यूरी) की भूमिका:  
    • न्यायालय द्वारा न्यायमित्र (एमिकस क्यूरी), जिसका अर्थ "न्यायालय का मित्र" है, की नियुक्ति की जाएगी, जो जनहित प्रतिरक्षा दावों में शामिल पक्षों के बीच एक सेतु के रूप में कार्य करेगा। 
    • न्यायालय द्वारा नियुक्त न्यायमित्र को राज्य द्वारा रोके जाने की माँग की गई है, जिसके लिये उन्हें दस्तावेज़ों  को प्रदान किया जाएगा और कार्यवाही से पूर्व आवेदक तथा उनके अधिवक्ता के साथ बातचीत करने की अनुमति दी जाएगी ताकि उनके मामले का पता लगाया जा सके।
    • जनहित प्रतिरक्षा कार्यवाही शुरू होने के पश्चात् न्यायमित्र, आवेदक या उनके अधिवक्ता के साथ बातचीत नहीं करेगा जिसके लिये अधिवक्ताओं ने दस्तावेज़ को रोके जाने की माँग की है।
    • न्यायमित्र "अपनी क्षमता के अनुसार आवेदक के हितों का प्रतिनिधित्त्व करेगा" और किसी अन्य व्यक्ति के साथ दस्तावेज़ पर चर्चा नहीं करने की शपथ से बाध्य होगा।
  • त्रुटियाँ/दोष :   
    • चूँकि संविधान का अनुच्छेद 145 विशेष रूप से अनिवार्य करता है कि सर्वोच्च न्यायालय के सभी निर्णय स्वतंत्र रूप से दिये जाएं, PII के अनुसार गुप्त बैठक की कार्यवाही इस संवैधानिक आदेश के विरुद्ध हो सकती है।
    • सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिक्रिया: जबकि न्यायालय ने यह माना कि जनहित प्रतिरक्षा कार्यवाही एक गुप्त बैठक में होगी, उसने स्पष्ट रूप से कहा कि न्यायालय को स्वतंत्र रूप से निर्णय देने या खारिज़ करने के लिये एक तर्कपूर्ण आदेश पारित करने की आवश्यकता है।
    • इसके अतिरिक्त सीलबंद कवर कार्यवाही न्याय के प्राकृतिक मानदंडों के साथ-साथ पारदर्शी व प्रत्यक्ष न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करती है तथा PII के दावों का भी न्याय के इन मानकों पर प्रभाव पड़ता है।

हिमाचल प्रदेश सुखाश्रय अधिनियम, 2023

चर्चा में क्यों ?

हिमाचल प्रदेश ने अनाथों और विशेष रूप से ज़रूरतमंदों का कल्याण सुनिश्चित करने के लिये सुखाश्रय (राज्य के बच्चों की देखभाल, संरक्षण एवं आत्मनिर्भरता) अधिनियम, 2023 पारित किया है।

सुखाश्रय अधिनियम, 2023 के मुख्य बिंदु

  • परिचय: 
    • यह अधिनियम ऐसे बच्चों जिन्हें देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता है, जिनके माता-पिता नहीं हैं या माता-पिता अक्षम हैं, को अनाथ के रूप में परिभाषित करता है। इसमें ऐसे बच्चे शामिल हैं जिनके पास घर नहीं है या जो जबरन शादी, अपराध या नशीली दवाओं के दुरुपयोग के जोखिम में हैं।
    • यह अधिनियम 18-27 वर्ष की आयु के बीच के लाभार्थियों को व्यावसायिक प्रशिक्षण, कौशल विकास और अनुशिक्षण के साथ समाज के सक्रिय सदस्य बनने में मदद करने हेतु वित्तीय तथा संस्थागत लाभ प्रदान करता है।
    • अधिनियम समाज के सबसे कमज़ोर वर्ग की सुरक्षा एवं देखभाल सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
  • अधिनियम के तहत लाभ:
    • 101 करोड़ रुपए परिव्यय के साथ मुख्यमंत्री सुखाश्रय सहायता कोष बनाया गया है तथा योजना की देख-रेख के लिये प्रत्येक ज़िले में एक बाल कल्याण समिति की स्थापना की जाएगी।
    • इसके तहत अनाथ एवं विशेष रूप से ज़रूरतमंद बच्चे 'राज्य के बच्चे' माने जाएंगे। 
    • इसके तहत वित्तीय लाभ में गर्मियों एवं सर्दियों में 5,000 रुपए, प्रमुख त्योहारों हेतु 500 रुपए तथा कॉलेज में दैनिक खर्च के लिये 4,000 रुपए मासिक भत्ता शामिल है।
    • संस्थागत लाभों में ट्रेन टिकट और राज्य के भीतर 10 दिनों के लिये आवास तथा ITI एवं सरकारी कॉलेजों में लाभार्थियों हेतु छात्रावास शुल्क शामिल है। 
    • सरकार, शादी के समय तय रकम तथा अपना घर बनाने के लिये तीन बिस्वा ज़मीन प्रदान करेगी।
    • अनाथ जो अपने स्वयं के स्टार्टअप स्थापित करना चाहते हैं, उन्हें उद्यमशीलता की गतिविधियों को प्रोत्साहित करने हेतु एक सांकेतिक कोष प्रदान किया जाएगा।
    • पीएच.डी. छात्रों को मासिक भत्ता भी मिलेगा।
  • अधिनियम में उल्लिखित अन्य सुरक्षा उपाय: 
    • बाल देखभाल संस्थानों के पूर्व निवासियों को 21 वर्ष की आयु तक राज्य सरकार द्वारा सहायता प्रदान की जाएगी।
    • प्रत्येक बच्चे और अनाथ का आवर्ती जमा खाता खोला जाएगा एवं राज्य सरकार इन खातों में प्रचलित दरों के अनुसार अंशदान करेगी।
    • बाल कल्याण समिति अनाथों की पहचान हेतु सर्वेक्षण करेगी एवं ज़रूरतमंद बच्चों की मांगों पर गौर करेगी

भारतीय लोकतंत्र में संसदीय समितियों की भूमिका

चर्चा में क्यों? 

  • संसदीय समितियों का गठन सार्वजनिक मामलों को गहराई से समझने और विशेषज्ञ राय विकसित करने हेतु किया जाता है

संसदीय समितियाँ (Parliamentary Committees)

समितियों का विकास

  • संरचित समिति प्रणाली वर्ष 1993 में स्थापित की गई थी, लेकिन स्वतंत्रता के बाद से व्यक्तिगत समितियों का गठन किया गया है।
  • उदाहरण के लिये संविधान सभा की कई समितियों में से पाँच महत्त्वपूर्ण समितियाँ निम्नलिखित हैं:
  • भारतीय नागरिकता की प्रकृति एवं दायरे पर चर्चा करने हेतु नागरिकता खंड पर तदर्थ समिति का गठन किया गया था।
  • पूर्वोत्तर सीमांत (असम) जनजातीय और बहिष्कृत क्षेत्र उप-समिति तथा बहिष्कृत एवं आंशिक रूप से बहिष्कृत क्षेत्र (असम के अलावा) उप-समिति स्वतंत्रता के दौरान महत्त्वपूर्ण समितियाँ थीं।

संघ संविधान के वित्तीय प्रावधानों पर विशेषज्ञ समिति और अल्पसंख्यकों हेतु राजनीतिक सुरक्षा के विषय पर सलाहकार समिति का गठन क्रमशः कराधान एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिये आरक्षण के उन्मूलन पर सिफारिशें देने हेतु किया गया था।

  • परिचय 
    • संसदीय समिति का अर्थ है एक समिति जो:
    • संसदीय समिति सांसदों का एक पैनल है जिसे सदन द्वारा नियुक्त या निर्वाचित किया जाता है या अध्यक्ष/सभापति द्वारा नामित किया जाता है।
    • अध्यक्ष/सभापति के निर्देशन में कार्य करती है।
    • अपनी रिपोर्ट सदन या अध्यक्ष/सभापति को प्रस्तुत करती है।
    • लोकसभा/राज्यसभा द्वारा प्रदान किया गया सचिवालय है।
    • परामर्शदात्री समितियाँ जिनमें संसद के सदस्य भी शामिल हैं, संसदीय समितियाँ नहीं हैं क्योंकि वे उपरोक्त चार शर्तों को पूरा नहीं करती हैं।
  • प्रकार:  
    • स्थायी समितियाँ: स्थायी (प्रत्येक वर्ष  या समय-समय पर गठित) और निरंतर आधार पर कार्य करती हैं।
    • स्थायी समितियों को निम्नलिखित छह श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
      • वित्तीय समितियाँ
      • विभागीय स्थायी समितियाँ
      • पूछताछ हेतु समितियाँ
      • जाँच और नियंत्रण हेतु समितियाँ
      • सदन के दिन-प्रतिदिन के कार्य से संबंधित समितियाँ
      • हाउस-कीपिंग समितियाँ या सेवा समितियाँ
  • तदर्थ समितियाँ:
    • ये अस्थायी होती हैं और उन्हें सौंपे गए कार्य के पूरा होने पर उनका अस्तित्त्व समाप्त हो जाता है। उदाहरण- संयुक्त संसदीय समिति
  • संवैधानिक प्रावधान:
    • संसदीय समितियाँ अनुच्छेद 105 (संसद सदस्यों के विशेषाधिकारों पर) और अनुच्छेद 118 (इसकी प्रक्रिया एवं कार्य संचालन को विनियमित करने तथा नियम बनाने के लिये संसद के अधिकार पर) से अपने अधिकार प्राप्त करती हैं

संसदीय समितियों की भूमिका

  • विधायी विशेषज्ञता प्रदान करना:
    • अधिकांश सांसद चर्चा किये जा रहे विषयों के विषय विशेषज्ञ नहीं होते हैं। संसदीय समितियाँ सांसदों को विशेषज्ञता हासिल करने में सहायता और मुद्दों पर विस्तार से विचार करने के लिये समय प्रदान करती हैं।
  • लघु-संसद के रूप में कार्य करना:
    • ये समितियाँ एक लघु संसद के रूप में कार्य करती हैं क्योंकि उनके पास अलग-अलग दलों का प्रतिनिधित्त्व करने वाले सांसद एकल संक्रमणीय मत प्रणाली के माध्यम से चुने जाते हैं, (संसद में उनकी शक्ति के समान अनुपात में)।
  • विस्तृत जाँच का साधन: 
    • जब बिल इन समितियों को भेजे जाते हैं, तो उनकी गहनता से जाँच की जाती है और जनता सहित विभिन्न बाहरी हितधारकों से उन पर सुझाव मांगा जाता है।  
  • सरकार पर निगरानी रखने में मदद: 
    • हालाँकि समिति की सिफारिशें सरकार के लिये कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं होती हैं किंतु उनकी रिपोर्टें परामर्शों का एक सार्वजनिक रिकॉर्ड प्रदान करती हैं और विवादित भागों के प्रति प्रशासन के रुख पर पुनर्विचार करने के लिये दबाव डालती हैं।
    • जनता की नज़रों से दूर होने और एक पृथक माहौल में होने के कारण समिति की बैठकों में चर्चाएँ अधिक उत्पादक प्रकृति की होती हैं, साथ ही सांसदों पर मीडिया का दबाव कम होता है।
  • हालिया समय में संसदीय समितियों की भूमिका पर प्रभाव: 
    • 17वीं लोकसभा के दौरान केवल 14 विधेयकों को आगे की जाँच के लिये भेजा गया
    • PRS के आँकड़ों के अनुसार, 16वीं लोकसभा में पेश किये गए विधेयकों में से केवल 25% को समितियों को भेजा गया था, जबकि 15वीं और 14वीं लोकसभा में यह आँकड़ा क्रमशः  71% और 60% था।

आगे की राह  

  • कार्यपालिका को उत्तरदायी बनाने के लिये उन्हें अधिक संसाधन, शक्तियाँ और अधिकार देकर संसदीय समितियों की भूमिका को बढ़ाया जा सकता है।
  • विभिन्न दृष्टिकोणों और सूचित निर्णयन सुनिश्चित करने के लिये समिति की कार्यवाही में नागरिक समाज, विशेषज्ञों तथा हितधारकों की अधिक भागीदारी को प्रोत्साहित किया जा सकता है।
  • लाइव स्ट्रीमिंग तथा बैठकों की रिकॉर्डिंग एवं रिपोर्ट और सिफारिशों को सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराकर समिति की कार्यवाही में पारदर्शिता व जवाबदेही को सुनिश्चित किया जा सकता है।
  • सभी हितधारकों के हितों के प्रतिनिधित्त्व को सुनिश्चित करते हुए अधिक उत्पादक और कुशल विधायी प्रक्रिया को बढ़ावा देने हेतु समितियों के भीतर द्विदलीय आम सहमति-निर्माण की संस्कृति को विकसित करने का प्रयास किया जा सकता है

न्यायेतर हत्याएँ

चर्चा में क्यों? 

उत्तर प्रदेश में पुलिस मुठभेड़ (Encounter) के मामलों को देखते हुए हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में न्यायेतर हत्याओं (Extra-Judicial Killings- EJK) पर अपने विचार व्यक्त किये हैं और कहा है कि जीवन का अधिकार संविधान के तहत एक मौलिक अधिकार है और न्यायेतर हत्याएँ इस अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन हैं। 

  • सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि हाल के वर्षों में भारत में पुलिस मुठभेड़ों और न्यायेतर हत्याओं के कई मामले सामने आए हैं जिससे पुलिस द्वारा शक्ति के दुरुपयोग किये जाने को लेकर चिंता जताई जाती रही है

न्यायेतर हत्याएँ

  • परिचय: 
    • न्यायेतर हत्या से तात्पर्य राज्य या उसके एजेंटों द्वारा बिना किसी न्यायिक अथवा कानूनी कार्यवाही के किसी व्यक्ति की हत्या करने से है।
    • इसका मतलब यह है कि किसी व्यक्ति को बिना किसी मुकदमे, उचित प्रक्रिया या किसी कानूनी औचित्य के मार दिया जाता है।
    • इसके विभिन्न रूप हो सकते हैं, जैसे कि न्यायेतर मृत्युदंड (Extrajudicial Executions)अविलंबित मृत्युदंड (Summary Executions) और बलपूर्वक गायब किया जाना आदि। ये सभी कार्य अवैध हैं और मानवाधिकारों तथा कानून के शासन का उल्लंघन करते हैं।
    • अक्सर कानून व्यवस्था बनाए रखने अथवा आतंकवाद का मुकाबला करने के नाम पर ऐसे कार्य कानून प्रवर्तन एजेंसियों अथवा सुरक्षा बलों द्वारा किये जाते हैं।
  • संवैधानिक प्रावधान:
    • संविधान के अनुसार, भारत में कानून का शासन होना चाहिये, संविधान ही सर्वोच्च शक्ति है और विधायी एवं कार्यपालिका इसी से अधिकृत होते हैं।
    • संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का गैर-परक्राम्य अधिकार है। निर्दोषता या अपराध के बावजूद यह पुलिस का कर्त्तव्य है कि वह संविधान को बनाए रखे एवं सभी के जीवन के अधिकार की रक्षा करे। 
  • पुलिस के अधिकार: 
    • पुलिस आत्मरक्षा में या शांति और व्यवस्था बनाए रखने हेतु घातक बल सहित बल का प्रयोग कर सकती है।
    • भारतीय दंड संहिता की धारा-96 के तहत प्रत्येक व्यक्ति को आत्मरक्षा का अधिकार है।
    • आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-46 पुलिस को किसी गंभीर अपराध के आरोपी को गिरफ्तार करने हेतु घातक बल सहित बल प्रयोग करने की अनुमति देती है।
  • भारत में EJK की स्थिति: 
    • भारत में वर्ष 2016-17 और 2021-22 के बीच छह वर्षों में दर्ज पुलिस मुठभेड़ में हत्या के मामलों में 15% की गिरावट आई है, जबकि  वर्ष 2021-22 से मार्च 2022 तक पिछले दो वर्षों में मामलों में 69.5% की वृद्धि हुई।
    • भारत में पिछले छह वर्षों में पुलिस मुठभेड़ में हत्याओं के 813 मामले दर्ज किये गए हैं।
    • अप्रैल 2016 से छह वर्षों में छत्तीसगढ़ में न्यायेतर हत्या के सबसे अधिक 259 मामले दर्ज किये गए, इसके बाद उत्तर प्रदेश में 110 एवं असम में 79 मामले दर्ज किये गए।

EJK का कारण

  • सार्वजनिक जन समर्थन: 
    • कभी-कभी लोग ऐसी हत्याओं का समर्थन इसलिये करते हैं क्योंकि उनका मानना है कि न्यायालयी व्यवस्था समय पर न्याय नहीं देगी। यह जन समर्थन पुलिस को और अधिक साहसी बनाता है, जिससे ऐसी हत्याओं में वृद्धि होती है। 
  • राजनीतिक समर्थन: 
    • कई राजनेताओं का मानना है कि पुलिस मुठभेड़ की अधिक  घटनाएँ राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखने के संदर्भ में उनकी उपलब्धि के रूप में काम करेगी। 
  • दंडात्मक हिंसा:
    • कुछ पुलिस अधिकारियों का मानना है कि हिंसा और यातना का प्रयोग अपराध को नियंत्रित करने और संभावित अपराधियों के बीच भय की भावना पैदा करने का एकमात्र तरीका है। 
  • नायक के रूप में चित्रित करना: 
    • ऐसी हत्याओं को अकसर जनता और मीडिया द्वारा महिमामंडित किया जाता है, इसमें शामिल पुलिस अधिकारियों को नायकों के रूप में चित्रित किया जाता है जो समाज को भय मुक्त करने का कार्य कर रहे हैं।  
    • इस गैरकानूनी हिंसा का जश्न मना रही जनता और मीडिया यह भूल जाती है कि पुलिस के पास इस तरह का कृत्य करने का कोई अधिकार नहीं है और यह आरोपी के मानवाधिकारों का उल्लंघन है।  
  • पुलिस की अक्षमता:
    • जाँच करने के लिये पुलिस के पास पर्याप्त संसाधन नहीं होने से सज़ा देने की दर को कम हो सकती है। मुठभेड़ों को पुलिस के लिये क्षेत्र में कानून व्यवस्था बनाए रखने की सकारात्मक छवि बनाने के एक आसान तरीके के रूप में देखा जाता है।

भारत में पुलिस मुठभेड़ से संबंधित दिशा-निर्देश

  • सर्वोच्च न्यायालय:
    • सितंबर 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने "पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र" के मामले में मौत के प्रकरणों में पुलिस मुठभेड़ों की जाँच के लिये दिशा-निर्देश जारी किये। दिशा-निर्देशों में निम्नलिखित शामिल थे: 
    • मजिस्ट्रियल जाँच के प्रावधानों के साथ अनिवार्य रूप से प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) का पंजीकरण।
    • पूछताछ में मृतक के परिजनों को शामिल करना।
    • गोपनीय सूचनाओं का लिखित रिकॉर्ड रखना। 
    • स्पष्ट और निष्पक्ष जाँच सुनिश्चित करने के लिये CID जैसी स्वतंत्र एजेंसी द्वारा जाँच। 
    • घटना के बारे में जानकारी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) या राज्य मानवाधिकार आयोग को भेजी जानी चाहिये, हालाँकि NHRC की भागीदारी आवश्यक नहीं है, जब तक कि स्वतंत्र और निष्पक्ष जाँच के बारे में गंभीर संदेह न हो।
    • न्यायालय ने निर्देश दिया कि इन आवश्यकताओं/मानदंडों को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत घोषित एक कानून मानते हुए पुलिस मुठभेड़ों में होने वाली मौत और गंभीर चोट के सभी मामलों में सख्त रवैया अपनाया जाना चाहिये।
  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC): 
    • वर्ष 1997 में NHRC ने पुलिस मुठभेड़ में हुई मौतों के बारे में जानकारी दर्ज करने, राज्य CID (केंद्रीय जाँच विभाग) द्वारा स्वतंत्र जाँच की अनुमति देने और पुलिस अधिकारियों के दोषी होने की स्थिति में मृतक के आश्रितों को मुआवज़ा देने के लिये दिशा-निर्देश प्रदान किये।
    • वर्ष 2010 में इन दिशा-निर्देशों में संशोधन किया गया था ताकि प्राथमिकी दर्ज करना, मजिस्ट्रेटी जाँच करना और सभी मौतों के मामलों की रिपोर्ट 48 घंटे के भीतर वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक या पुलिस अधीक्षक द्वारा NHRC को दी जाए। तीन महीने के बाद पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट, जाँच रिपोर्ट और पूछताछ के निष्कर्षों के साथ दूसरी रिपोर्ट भेजी जानी चाहिये।

आगे की राह 

  • पुलिस मुठभेड़ में होने वाली मौतों की स्वतंत्र जाँच की जानी चाहिये क्योंकि इनसे विधि के शासन का नियम प्रभावित होता है। यह सुनिश्चित किये जाने की आवश्यकता है कि समाज में एक कानून व्यवस्था विद्यमान हो जिसका प्रत्येक राज्य प्राधिकरण और जनता द्वारा पालन किया जाना चाहिये।
  • पुलिस कर्मियों को बेहतर ढंग से प्रशिक्षित करने और उन्हें सभी प्रासंगिक कौशल से युक्त करने के लिये मानक दिशा-निर्देशों को निर्धारित करने की आवश्यकता है ताकि वे किसी भी गंभीर स्थिति से प्रभावी ढंग से निपट सकें।
  • मुठभेड़ों में हुई हत्याओं की बढ़ती संख्या मानवाधिकारों के उल्लंघन का कारण बन रही है, इसलिये पुलिस अधिकारियों को मानवाधिकारों के महत्त्व के बारे में शिक्षित करना और इन गैरकानूनी हत्याओं को रोकना आवश्यक है।

असम और अरुणाचल प्रदेश के बीच सीमा विवाद का समाधान

चर्चा में क्यों?  

हाल ही में असम और अरुणाचल प्रदेश के बीच वर्ष 1972 से चले आ रहे सीमा विवाद का स्थायी समाधान हो गया है।  

असम और अरुणाचल प्रदेश 804 किलोमीटर लंबी सीमा साझा करते हैं।

समझौते के प्रमुख बिंदु

  • इस समझौते से ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, जनसांख्यिकीय प्रोफाइल, प्रशासनिक सुविधा, सीमा की निकटता और निवासियों की आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए दोनों राज्यों के बीच 700 किलोमीटर से अधिक की सीमा को कवर करने वाले 123 गाँवों से संबंधित विवाद का समाधान होने की उम्मीद है। 
  • यह अंतिम समझौता होगा जिसके अंतर्गत कोई भी राज्य भविष्य में किसी भी क्षेत्र या गाँव से संबंधित कोई नया दावा नहीं करेगा 
  • समझौते के बाद सीमाओं का निर्धारण करने के लिये दोनों राज्य सरकारों के प्रतिनिधियों की उपस्थिति में सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा एक विस्तृत सर्वेक्षण किया जाएगा।

भारत में राज्यों के बीच अन्य सीमा विवाद

  • कर्नाटक-महाराष्ट्र:  
    • उत्तरी कर्नाटक में बेलगावी, कारवार और निपानी को लेकर सीमा विवाद काफी पुराना है। 1956 के राज्य पुनर्गठन अधिनियम के अनुसार, जब राज्य की सीमाओं को भाषायी आधार पर पुनः तैयार किया गया, तो बेलगावी पूर्ववर्ती मैसूर राज्य का हिस्सा बन गया।
    • यह अधिनियम न्यायमूर्ति फज़ल अली आयोग के निष्कर्षों पर आधारित था जिसे 1953 में नियुक्त किया गया था और इसने दो वर्ष बाद अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। 
    • महाराष्ट्र का दावा है कि बेलगावी के कुछ हिस्से, जहाँ मराठी प्रमुख भाषा है, को महाराष्ट्र में ही रहना चाहिये। 
    • अक्तूबर 1966 में केंद्र ने महाराष्ट्र, कर्नाटक और केरल में सीमा विवाद को हल करने के लिये महाजन आयोग की स्थापना की। 
    • आयोग ने सिफारिश की कि बेलगाम और 247 गाँव कर्नाटक में ही रहेंगे। महाराष्ट्र ने रिपोर्ट को खारिज़ कर दिया और वर्ष 2004 में सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया
  • असम-मिज़ोरम:  
    • असम और मिज़ोरम के बीच सीमा विवाद वर्ष 1875 और वर्ष 1933 की ब्रिटिश काल की दो अधिसूचनाओं की विरासत है, जब मिज़ोरम को असम का एक ज़िला लुशाई हिल्स कहा जाता था।
    • वर्ष 1875 की अधिसूचना ने लुशाई हिल्स को कछार के मैदानों से तथा लुशाई हिल्स और मणिपुर के बीच अन्य सीमांकित सीमा से अलग कर दिया।  
    • जबकि मिज़ोरम विद्रोह के वर्षों के बाद वर्ष 1987 में ही एक राज्य बन गया था, यह अभी भी वर्ष 1875 में तय की गई सीमा पर ज़ोर देता है। 
    • दूसरी ओर असम वर्ष 1986 में (1933 की अधिसूचना के आधार पर) सीमा का सीमांकन चाहता था
  • हरियाणा-हिमाचल प्रदेश:
    • दोनों राज्यों के बीच सीमा विवाद को लेकर परवाणू क्षेत्र सुर्खियों में रहा है।
    • यह हरियाणा के पंचकुला ज़िले के निकट है और हरियाणा ने हिमाचल प्रदेश में भूमि के कुछ हिस्सों पर अपना दावा जताया है।
  • हिमाचल प्रदेश-लद्दाख:
    • हिमाचल और लद्दाख लेह तथा मनाली के बीच के मार्ग के एक क्षेत्र सरचू पर दावा करते हैं।
    • यह एक प्रमुख बिंदु है जहाँ यात्रीगण इन दो शहरों के बीच यात्रा के दौरान रुकते हैं।
    • सरचू हिमाचल के लाहुल तथा स्पीति ज़िले और लद्दाख के लेह ज़िले के बीच में है। 
  • मेघालय-असम:
    • असम और मेघालय के बीच सीमा को लेकर समस्या तब शुरू हुई जब मेघालय ने पूर्वोत्तर क्षेत्र (पुनर्गठन) अधिनियम, 1971 को चुनौती दी जिसके तहत मिकिर हिल्स अथवा वर्तमान के कार्बी आंगलोंग ज़िले के खंड I और II असम को सौंप दिये गए थे।
    • मेघालय का तर्क है कि जब वर्ष 1835 में दोनों खंडों को अधिसूचित किया गया था, तब ये दोनों खंड तत्कालीन संयुक्त खासी और जयंतिया हिल्स ज़िले का हिस्सा थे। 
  • असम-नगालैंड:
    • वर्ष 1963 में नगालैंड राज्य के रूप में स्थापित होने के तुरंत बाद सीमा संबंधी विवाद की शुरुआत हो गई।
    • नगालैंड राज्य अधिनियम, 1962 के तहत वर्ष 1925 की एक अधिसूचना के अनुसार, राज्य की सीमाओं को परिभाषित किया गया था जब नगा हिल्स और तुएनसांग क्षेत्र (NHTA) को एक नई प्रशासनिक इकाई में एकीकृत किया गया था।
    • हालाँकि नगालैंड सीमा रेखांकन को स्वीकार नहीं करता है और उसने मांग की है कि नए राज्य में उत्तरी कछार और नागाँव ज़िलों में सभी नगा बहुल क्षेत्र शामिल होने चाहिये।
    • राज्य के तुरंत बाद असम और नगालैंड के बीच तनाव बढ़ गया, जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 1965 में पहला सीमा संघर्ष हुआ।
    • इसके बाद क्रमशः वर्ष 1968, 1979, 1985, 2007 और 2014 में सीमा पर दोनों राज्यों के बीच बड़ी झड़पें हुईं।

भारत में सीमा विवादों के समाधान के अन्य तरीके

  • अनुसूचित जाति के विशेष मूल अधिकार क्षेत्र के माध्यम से:  
    • भारत के संविधान के अनुच्छेद 131 के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय के पास अनन्य मूल क्षेत्राधिकार है, जिसका अर्थ है कि कोई अन्य न्यायालय इन मामलों की सुनवाई नहीं कर सकता है:
    • यह भारत सरकार और एक या एक से अधिक राज्यों के बीच विवादों को सुनवाई कर सकता है।
    • यह एक तरफ भारत सरकार और किसी भी राज्य (राज्यों) और दूसरी तरफ एक या अधिक अन्य राज्यों के बीच विवादों की सुनवाई कर सकता है।
    • यह दो या दो से अधिक राज्यों के बीच विवादों को सुनवाई कर सकता है यदि विवाद में कानून या तथ्य का प्रश्न शामिल है जिस पर कानूनी अधिकार का अस्तित्त्व या सीमा निर्भर करती है।
    • क्षेत्राधिकार से संबंधित सीमाएँ: सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार उन संधियों, समझौतों, प्रसंविदाओं, अनुबंधों या इसी तरह के अन्य आयामों से उत्पन्न होने वाले ऐसे विवादों तक नहीं है जो संविधान के प्रारंभ से पहले दर्ज किये गए थे या इनके द्वारा ऐसा प्रावधान किया गया है कि इसका क्षेत्राधिकार ऐसे विवादों तक विस्तारित नहीं होगा।
  • अंतर्राज्यीय परिषद द्वारा:  
    • संविधान का अनुच्छेद 263 राष्ट्रपति को अंतर्राज्यीय परिषद स्थापित करने का अधिकार देता है।
    • यह राज्यों के बीच चर्चा और विवादों के समाधान के साथ-साथ राज्यों या संघ एवं एक या अधिक राज्यों के बीच सामान्य हितों से संबंधित विषयों पर चर्चा हेतु एक मंच के रूप में कार्य करती है।
    • वर्ष 1990 में राष्ट्रपति के आदेश के माध्यम से अंतर्राज्यीय परिषद की स्थापना की गई थी।  
    • वर्ष 2021 में इस परिषद का पुनर्गठन किया गया था।

राज्य विधेयकों पर राज्यपाल की शक्ति

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल की सहमति के लिये भेजे गए विधेयकों को "जितनी जल्दी हो सके" वापस कर दिया जाना चाहिये, उन्हें रोकना नहीं चाहिये, क्योंकि राज्यपाल की शिथिलता के कारण राज्य विधानसभाओं को अनिश्चित काल तक इंतजार करना पड़ता है।

  • सर्वोच्च न्यायालय ने तेलंगाना राज्य द्वारा दायर एक याचिका में अपने न्यायिक आदेश में कहा कि राज्यपाल के पास भेजे गए कई महत्त्वपूर्ण विधेयकों को लंबित रखा गया है।

सर्वोच्च न्यायालय की सलाह

संविधान के अनुच्छेद 200 के पहले प्रावधान का उल्लेख करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि विधानसभाओं द्वारा पारित किये जाने के बाद उन्हें सहमति के लिये भेजे गए विधेयकों पर राज्यपालों को देरी नहीं करनी चाहिये।

"जितनी जल्दी हो सके" उन्हें लौटा दिया जाना चाहिये और अपने पास लंबित नहीं रखना चाहिये। इस अनुच्छेद में अभिव्यक्ति "जितनी जल्दी हो सके" का महत्त्वपूर्ण संवैधानिक उद्देश्य है और संवैधानिक प्राधिकारी को इसे ध्यान में रखना चाहिये।

राज्यपाल द्वारा विलंब के हाल के उदाहरण

  • तमिलनाडु विधानसभा ने एक प्रस्ताव पारित किया है जिसमें केंद्र सरकार और राष्ट्रपति से आग्रह किया गया है कि सदन में लाए गए विधेयकों पर राज्यपाल की सहमति के लिये एक समय-सीमा निर्धारित की जाए।
  • उदाहरण के लिये तमिलनाडु के राज्यपाल ने राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (NEET) से छूट वाले विधेयक को काफी विलंब के बाद राष्ट्रपति को भेजा।
  • केरल में राज्यपाल द्वारा सार्वजनिक रूप से की गई घोषणा कि वह लोकायुक्त संशोधन विधेयक और केरल विश्वविद्यालय संशोधन विधेयक को स्वीकृति नहीं देंगे, की वजह से अजीब स्थिति उत्पन्न हो गई है ।

विलंबित सहमति के खिलाफ कानूनी तर्क

राज्यों का संवैधानिक दायित्त्व

  • विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल की निष्क्रियता एक ऐसी स्थिति पैदा करती है जहाँ राज्य सरकार संविधान के अनुसार कार्य करने में असमर्थ होती है।
  • यदि राज्यपाल संविधान के अनुसार कार्य करने में विफल रहता है, तो राज्य सरकार का संवैधानिक दायित्त्व है कि वह अनुच्छेद 355 को लागू करे और यह अनुरोध करते हुए राष्ट्रपति को सूचित करे कि सरकार की प्रक्रिया संविधान के अनुसार संचालित हो, यह सुनिश्चित करने के लिये राज्यपाल को उचित निर्देश जारी किये जाएँ।

सर्वोच्च न्यायालय का फैसला

  • संविधान के अनुच्छेद 361 के तहत राज्यपाल को अपनी शक्तियों का प्रयोग कर किये गए किसी भी कार्य के लिये अदालती कार्यवाही से पूर्ण छूट प्राप्त है।
  • यह प्रावधान तब एक अजीब स्थिति उत्पन्न करता है जब किसी सरकार को किसी विधेयक पर सहमति रोकने की राज्यपाल की कार्रवाई को चुनौती देने की आवश्यकता हो सकती है।
  • अत: राज्यपाल को यह घोषणा करते हुए कि वह किसी विधेयक पर सहमति नहीं देता/देती है, उसे इस तरह की अस्वीकृति के कारण का खुलासा करना होगा, एक उच्च संवैधानिक प्राधिकारी होने के नाते वह मनमाने ढंग से कार्य नहीं कर सकता/सकती है।
  • यदि इनकार करने का आधार दुर्भावनापूर्ण या बाहरी विचार या अधिकारातीत प्रतीत होता है, तो राज्यपाल के इनकार करने की कार्रवाई को असंवैधानिक करार दिया जा सकता है।
  • रामेश्वर प्रसाद और ओआरएस बनाम भारत संघ एवं एएनआर मामले में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने इन बिंदुओं को तय किया है।
  • न्यायालय ने निर्णय दिया कि "अनुच्छेद 361(1) द्वारा प्रदान की गई प्रतिरक्षा दुर्भावना के आधार पर कार्रवाई की वैधता की समीक्षा करने की न्यायालय की क्षमता को सीमित नहीं करती है।

विदेशों में उपयोग में लाई जाने वाली प्रथाएँ

यूनाइटेड किंगडम

  • किसी विधेयक को कानून बनाने के लिये शाही सहमति की आवश्यकता की प्रथा यूनाइटेड किंगडम में मौजूद है, लेकिन अभ्यास और उपयोग से क्राउन के पास कानून को खत्म करने का अधिकार नहीं है। विवादास्पद आधारों पर शाही सहमति को अस्वीकार करना असंवैधानिक के रूप में देखा जाता है।
  • अमेरिका:
  • संयुक्त राज्य अमेरिका में राष्ट्रपति किसी विधेयक को स्वीकृति देने से इनकार कर सकता है, लेकिन इसे प्रत्येक सदन के दो-तिहाई सदस्यों के साथ फिर से पारित किये जाने के बाद यह विधेयक कानून बन जाता है।

आगे की राह

  • संविधान निर्माताओं को इस बात का अनुमान नहीं था कि अनुच्छेद 200 के तहत राजपाल किसी विधेयक पर कोई कार्रवाई किये बिना अनिश्चितकाल तक के लिये उसे अपने पास रख सकता है।
  • राज्यपाल की ओर से टालमटोल एक नई घटना है जिसके लिये संविधान के ढाँचे में कुछ नए बदलाव किये जाने की आवश्यकता है। इसलिये सर्वोच्च न्यायालय को देश में संघवाद के हित में विधानसभा द्वारा पारित विधेयक पर निर्णय लेने के लिये राज्यपालों हेतु एक उचित समय सीमा निर्धारित करनी चाहिये।
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