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Indian Society and Social Issues (भारतीय समाज और सामाजिक मुद्दे): May 2023 UPSC Current Affairs | Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly PDF Download

यौन उत्पीड़न से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2013

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में एक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) (Prevention of Sexual Harassment ActPoSH) अधिनियम, 2013 के कार्यान्वयन को लेकर चिंता व्यक्त की।

  • न्यायालय ने इस अधिनियम से संबंधित गंभीर खामियों और अनिश्चितताओं पर प्रकाश डाला है जिसके कारण कई कामकाज़ी महिलाओं को अपनी नौकरी छोड़ने के लिये मजबूर होना पड़ा। 

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा व्यक्त प्रमुख चिंताएँ

  • PoSH अधिनियम के कार्यान्वयन में गंभीर खामियाँ और अनिश्चितताएँ पाई गई हैं, उदाहरण के लिये 30 राष्ट्रीय खेल संघों में से केवल 16 संघों द्वारा अनिवार्य आंतरिक शिकायत समितियों (Internal Complaints Committees- ICCs) का गठन किया गया था
    • यह PoSH अधिनियम को लागू करने के लिये ज़िम्मेदार राज्य के अधिकारियों, सार्वजनिक प्राधिकरणों, निजी उपक्रमों, संगठनों और संस्थानों पर खराब प्रभाव डालता है।
  • इन खामियों के कारण महिलाओं के आत्मसम्मान, भावनात्मक कल्याण और शारीरिक स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त यह महिलाओं को यौन उत्पीड़न की घटनाओं की रिपोर्ट करने से हतोत्साहित करता है क्योंकि वे इसके परिणाम के बारे में अनिश्चित होती हैं और उनमें न्याय व्यवस्था को लेकर विश्वास की कमी भी होती है।
  • सिफारिश:  
    • यदि कार्यस्थल का माहौल शत्रुतापूर्ण, असंवेदनशील और अनुत्तरदायी बना रहता है, तो अधिनियम केवल औपचारिक बनकर रह जाएगा। कार्यस्थल पर महिलाओं की गरिमा और सम्मान सुनिश्चित करने हेतु अधिनियम को प्रभावशाली रूप से लागू किया जाना चाहिये।
    • प्रासंगिक निकायों ने अधिनियम के तहत ICC, स्थानीय समितियों (LC) और आंतरिक समितियों (IC) का गठन किया है या नहीं, यह सत्यापित करने के लिये एक समयबद्ध अभ्यास प्रक्रिया की आवश्यकता है।
      • निकायों को अपनी संबंधित समितियों का विवरण अपनी वेबसाइट्स पर प्रकाशित करने का निर्देश दिया गया है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी मंत्रालयों, निकायों को अधिनियम 2013 के आदेशों का पालन करने के लिये आठ सप्ताह का समय दिया है।

PoSH अधिनियम, 2013

  • परिचय: 
    • PoSH अधिनियम 2013 में भारत सरकार द्वारा कार्यस्थल पर महिलाओं द्वारा सामना किये जाने वाले यौन उत्पीड़न के मुद्दे को हल करने के लिये बनाया गया एक कानून है।
      • अधिनियम का उद्देश्य महिलाओं के लिये एक सुरक्षित और अनुकूल कार्य वातावरण बनाना तथा उन्हें यौन उत्पीड़न के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करना है।
    • PoSH अधिनियम यौन उत्पीड़न को परिभाषित करता है जिसमें शारीरिक संपर्क और यौन प्रस्ताव, यौन अनुग्रह के लिये मांग या अनुरोध, अश्लील टिप्पणी करना, अश्लील चित्र दिखाना तथा किसी भी अन्य अवांछित शारीरिक, मौखिक या गैर-मौखिक व्यवहार जैसे अवांछित कार्य शामिल हैं। 
  • पृष्ठभूमि: सर्वोच्च न्यायालय ने विशाखा और अन्य बनाम राजस्थान राज्य 1997 मामले में एक ऐतिहासिक निर्णय में 'विशाखा दिशा-निर्देशजारी किये। 
    • इन दिशा-निर्देशों में कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 ("यौन उत्पीड़न अधिनियम") को आधार बनाया। 
    • सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 15 (केवल धर्म, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव के खिलाफ) सहित संविधान के कई प्रावधानों से शक्ति प्राप्त की, साथ ही प्रासंगिक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और मानदंडों जैसे सामान्य अनुशंसाओं का भी चित्रण किया, जैसे कि महिलाओं के खिलाफ सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन पर कन्वेंशन (CEDAW), जिसे भारत ने वर्ष 1993 में अनुसमर्थित किया।
  • प्रमुख प्रावधान: 
    • रोकथाम और निषेध: अधिनियम कार्यस्थल में यौन उत्पीड़न को रोकने और प्रतिबंधित करने के लिये नियोक्ताओं पर कानूनी दायित्व डालता है।
    • आंतरिक शिकायत समिति (ICC): यौन उत्पीड़न की शिकायतें प्राप्त करने और उनका समाधान करने के लिये नियोक्ताओं को 10 या अधिक कर्मचारियों वाले प्रत्येक कार्यस्थल पर एक ICC का गठन करना आवश्यक है।
      • शिकायत समितियों के पास साक्ष्य एकत्र करने के लिये दीवानी अदालतों की शक्तियाँ हैं।
    • नियोक्ताओं के कर्तव्य: नियोक्ताओं को जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करने चाहिये, एक सुरक्षित कार्य वातावरण प्रदान करना चाहिये और कार्यस्थल पर POSH अधिनियम के बारे में जानकारी प्रदर्शित करनी चाहिये।
    • शिकायत तंत्र: अधिनियम शिकायत दर्ज करने, पूछताछ करने और शामिल पक्षों को उचित अवसर प्रदान करने के लिये एक प्रक्रिया निर्धारित करता है।
    • दंड: अधिनियम के प्रावधानों का पालन न करने पर दंड का प्रावधान है, जिसमें ज़ुर्माना और व्यवसाय लाइसेंस रद्द करना शामिल है। 

कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न पर जस्टिस वर्मा समिति की सिफारिशें

  • घरेलू कामगारों को PoSH अधिनियम के दायरे में शामिल किया जाना चाहिये।
  • यह एक सुलह प्रक्रिया का प्रस्ताव करता है जहाँ शिकायतकर्त्ता और प्रतिवादी को शुरू में बातचीत और समझौते के माध्यम से मुद्दे को हल करने हेतु प्रोत्साहित किया जाता है।
  • नियोक्ता को यौन उत्पीड़न का शिकार हुई महिला को मुआवज़ा देना चाहिये।
  • PoSH अधिनियम में आंतरिक शिकायत समिति (Internal Complaints Committee- ICC) के बजाय एक रोज़गार न्यायाधिकरण की स्थापना करना।

महिला सुरक्षा से संबंधित अन्य पहलें

  • वन स्टॉप सेंटर योजना
  • उज्ज्वला: तस्करी की रोकथाम और बचाव, तस्करी तथा वाणिज्यिक यौन शोषण के पीड़ितों के पुनर्वास एवं पुन: एकीकरण हेतु व्यापक योजना
  • स्वाधार (SWADHAR) गृह (कठिन परिस्थितियों में महिलाओं हेतु योजना)
  • नारी शक्ति पुरस्कार

आदर्श कारागार अधिनियम, 2023

चर्चा में क्यों?

गृह मंत्रालय (MHA) ने 'मॉडल जेल अधिनियम, 2023' तैयार किया है, जो ब्रिटिश युग के कानून (1894 का जेल अधिनियम) की जगह लेगा, ताकि जेल प्रशासन में सुधार किया जा सके, यह कैदियों के सुधार और पुनर्वास पर ध्यान केंद्रित करेगा। 

आदर्श कारागार अधिनियम, 2023

  • आवश्यकता: 
    • पुराने स्वतंत्रता-पूर्व अधिनियम, 1894 के कारागार अधिनियम में "कई खामियाँ" हैं और मौजूदा अधिनियम में सुधारात्मक फोकस की "स्पष्ट चूक" था।
    • जेल अधिनियम 1894 मुख्य रूप से अपराधियों को हिरासत में रखने और जेलों में अनुशासन एवं व्यवस्था को लागू करने पर केंद्रित है। इस अधिनियम में कैदियों के सुधार तथा पुनर्वास का कोई प्रावधान नहीं है।
  • नए अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ:
    • कारागारों में मोबाइल फोन जैसी प्रतिबंधित वस्तुओं के इस्तेमाल पर कैदियों और कारागार कर्मचारियों के लिये दंड का प्रावधान।
    • उच्च सुरक्षा वाले कारागारों, खुले कारागारों (खुले एवं अर्द्ध खुले ) की स्थापना एवं प्रबंधन।
    • कुख्यात और आदतन अपराधियों की आपराधिक गतिविधियों से समाज को सुरक्षित रखने के प्रावधान।
    • अच्छे आचरण को प्रोत्साहित करने के लिये कैदियों को कानूनी सहायता, पैरोल, फर्लो और समय से पहले रिहाई प्रदान करना।
    • कैदियों का सुरक्षा मूल्यांकन और अलगाव, किसी व्यक्ति की सज़ा का निर्धारण; शिकायत निवारण, कारागार विकास बोर्ड, कैदियों के प्रति व्यवहार में बदलाव एवं महिला कैदियों, ट्रांसजेंडर आदि के लिये अलग आवास का प्रावधान।
    • कारागार प्रशासन में पारदर्शिता लाने की दृष्टि से इसमें प्रौद्योगिकी के उपयोग का प्रावधान, न्यायालयों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग का प्रावधान, कारागारों में वैज्ञानिक तथा तकनीकी हस्तक्षेप आदि का प्रावधान किया गया है। 
  • महत्त्व: 
    • भारत में कारागार और 'उसमें हिरासत में रखे गए व्यक्ति' राज्य का विषय है। आदर्श कारागार अधिनियम, 2023 का उपयोग राज्यों द्वारा प्रत्येक राज्य की सीमाओं के भीतर अपनाए जाने वाले आदर्श कानून के रूप में किया जा सकता है।
    • कैदी अधिनियम, 1900 और कैदियों का स्थानांतरण अधिनियम, 1950 दशकों पुराना है तथा इन अधिनियमों के प्रासंगिक प्रावधानों को आदर्श कारागार अधिनियम, 2023 में शामिल किया गया है जिससे भारतीय कारागार प्रणाली को अंतर्राष्ट्रीय मानकों के साथ संरेखित करने और आवश्यक सुधार होने की उम्मीद है।

भारत में कारागार से संबंधित मुद्दे

  • कारागार में क्षमता से अधिक भीड़: 
    • यह भारत में कारागार प्रणाली का गंभीर मुद्दा रहा है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की एक रिपोर्ट के अनुसार, कारगारों की अधिभोग दर (Occupancy Rate) जेल क्षमता का 118.5% है।
    • यह पाया गया कि 4,03,700 की क्षमता वाले कारगारों में कैदियों की संख्या लगभग 4,78,600 थी।
    • भीड़भाड़ के कारण रहने की स्थिति खराब होती है। इससे कई संचारी रोगों के संचरण का जोखिम बना रहता है।
  • स्वास्थ्य और स्वच्छता:
    • बहुत से कारागारों में उचित चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। इससे कई कैदियों की अनदेखी भी की जाती  है और उनमें से अधिकांश अनुपचारित ही रहते हैं। कैदियों के लिये साफ-सफाई व स्वच्छता की भी व्यवस्था ठीक नहीं है।
  • ट्रायल में विलंब:
    • ऐसा देखा जाता है कि कई मामले कई वर्षों से लंबित हैं। इससे जेल प्रशासन प्रणाली में व्यवधान उत्पन्न होता है। हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने हुसैनारा खातून बनाम गृह सचिव मामला 1979 में कैदियों के त्वरित परीक्षण/ट्रायल के अधिकार को मान्यता दी।
  • हिरासत में यातना: 
    • कैदियों को हिरासत में यातनाएँ काफी प्रचलित है। हालाँकि वर्ष 1986 में डी.के. बसु के मामले में लिये गए ऐतिहासिक फैसले के बाद पुलिस को थर्ड-डिग्री यातना देने की अनुमति नहीं है, फिर भी जेलों के अंदर क्रूर हिंसा का प्रचलन है।
    • गृह मंत्रालय के अनुसार, वर्ष 2017-2018 के दौरान पुलिस हिरासत में मौत के कुल 146 मामले दर्ज किये गए, पिछले पाँच वर्षों में हिरासत में मौत की सबसे अधिक संख्या (80) गुजरात में, इसके बाद महाराष्ट्र ( 76), उत्तर प्रदेश (41) में दर्ज की गई।
  • महिलाएँ और बच्चे: 
    • महिला अपराधियों की संख्या अपेक्षाकृत कम है। हालाँकि उन्हें स्वच्छता सुविधाओं की कमी, गर्भावस्था के दौरान देखभाल की कमी, शैक्षिक प्रशिक्षण की कमी सहित शारीरिक और मानसिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
    • बच्चों को ज़्यादातर जेलों के बजाय सुधार गृहों में रखा जाता है ताकि वे खुद को सुधार सकें और अपने सामान्य जीवन में वापस जा सकें। हालाँकि उन्हें बहुत अधिक दुर्व्यवहार का भी सामना करना पड़ता है एवं मनोवैज्ञानिक आघात से गुज़रना पड़ता है।

इन समस्याओं पर नियंत्रण

  • सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2018 में जेल सुधारों पर अपने सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति अमिताभ रॉय की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया।
  • भीड़भाड़ यानी स्पीडी ट्रायल, वकीलों से कैदियों के अनुपात में वृद्धि, विशेष न्यायालयों की शुरुआत, स्थगन से बचने की समस्या को दूर करने हेतु सिफारिशें की गईं।
  • उन्होंने जेल के पहले सप्ताह में प्रत्येक नए कैदी हेतु निःशुल्क फोन कॉल की भी सिफारिश की। समिति ने आधुनिक रसोई सुविधाओं की भी सिफारिश की।
  • भारतीय दंड संहिता की धारा 304 हिरासत में मौत हेतु सज़ा का प्रावधान करती है। मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम की धारा 30 में जेलों के अंदर CCTV लगाने के बारे में सिफारिश की है।

भारत में कारागार सुधारों से संबंधित पहलें

  • कारागार योजना का आधुनिकीकरण: कारागारों, कैदियों और कर्मियों की स्थिति में सुधार के उद्देश्य से कारागारों के आधुनिकीकरण की योजना वर्ष  2002-03 में शुरू की गई थी।
  • कारागार योजना का आधुनिकीकरण (2021-26): सरकार ने निम्नलिखित के लिये कारागार में आधुनिक सुरक्षा उपकरणों का उपयोग करने हेतु योजना के माध्यम से राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को वित्तीय सहायता प्रदान करने का निर्णय लिया है: 
    • कारागारों की सुरक्षा बढ़ाई जाए।
    • प्रशासनिक सुधार कार्यक्रमों के माध्यम से कैदियों के सुधार और पुनर्वास के कार्य को सुगम बनाना।
  • ई-कारागार योजना: ई-कारागार योजना का उद्देश्य डिजिटलीकरण के माध्यम से जेल प्रबंधन में दक्षता लाना है।
  • मॉडल प्रिज़न मैनुअल 2016: मैनुअल कारागार के कैदियों को उपलब्ध कानूनी सेवाओं (मुफ्त सेवाओं सहित) के संदर्भ में विस्तृत जानकारी प्रदान करता है।
  • राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA): इसका गठन विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के तहत किया गया था, जो 9 नवंबर, 1995 को समाज के कमज़ोर वर्गों को मुफ्त और सक्षम विधिक सेवाएँ प्रदान करने के लिये एक राष्ट्रव्यापी समान नेटवर्क स्थापित करने के लिये लागू हुआ था।

निष्कर्ष

  • भारत की कारागार प्रणाली में प्राचीन काल से महत्त्वपूर्ण सुधार हुए हैं लेकिन आधुनिक समय में अभी भी इसमें और सुधार की आवश्यकता है।
  • भारत में लागू किये गए विभिन्न कारागार सुधारों के बावजूद स्थिति में उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है। यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि यद्यपि कैदियों ने अपराध किये हैं, फिर भी उनके पास कुछ ऐसे अधिकार हैं जो उनसे छीने नहीं जा सकते।

आंतरिक विस्थापन पर वैश्विक रिपोर्ट- 2023

चर्चा में क्यों?

हाल ही में आंतरिक विस्थापन निगरानी केंद्र (Internal Displacement Monitoring Centre- IDMC) ने आंतरिक विस्थापन पर वैश्विक रिपोर्ट (Global Report on Internal Displacement- GRID 2023) नामक रिपोर्ट जारी की है जिसके अनुसार, आपदाओं के कारण वर्ष 2021 की तुलना में वर्ष 2022 में विस्थापित लोगों की संख्या में 40% की वृद्धि हुई।

  • IDMC, आंतरिक विस्थापन पर डेटा एवं विश्लेषण का विश्व का प्रमुख स्रोत है। यह आंतरिक विस्थापन पर उच्च गुणवत्ता वाला डेटा, विश्लेषण और विशेषज्ञता प्रदान करता है जिसका उद्देश्य नीति एवं परिचालन निर्णयों को सूचित करना है जो भविष्य में विस्थापन के जोखिम को कम कर सकते हैं।

GRID- 2023 की प्रमुख खोज क्या हैं? 

  • विस्थापन की कुल संख्या: 
    • आंतरिक विस्थापन में रहने वाले लोगों की संख्या 110 देशों और क्षेत्रों में 71.1 मिलियन के रिकॉर्ड उच्च स्तर पर पहुँच चुकी है। 
    • 62.5 मिलियन लोग संघर्ष एवं हिंसा के चलते जबकि 8.7 मिलियन आपदाओं के चलते विस्थापित हुए हैं।
      • आपदाओं ने दिसंबर 2022 तक 88 देशों और क्षेत्रों से 8.7 मिलियन लोगों को आंतरिक रूप से विस्थापित किया।
      • इससे पाकिस्तान, नाइजीरिया और ब्राज़ील सहित कई देशों में बाढ़ से विस्थापितों की संख्या में वृद्धि हुई है।
    • वर्ष 2021 तक आपदाओं के कारण 30.7 मिलियन लोग विस्थापित हुए। वर्ष 2022 में लगभग 150 देशों/क्षेत्रों ने इस तरह के विस्थापन की सूचना दी।
  • देशों के अनुसार परिदृश्य:
    • वर्ष 2022 में दुनिया में सबसे अधिक 8.16 मिलियन लोग आपदा के कारण पाकिस्तान में विस्थापित हुए थे।
      • पाकिस्तान में बाढ़ ने लाखों लोगों को विस्थापित किया, जो वैश्विक आपदा विस्थापन के एक-चौथाई के लिये ज़िम्मेदार है।
    • 5.44 मिलियन विस्थापन के साथ फिलीपींस दूसरे स्थान और 3.63 मिलियन के साथ चीन तीसरे स्थान पर था।
    • भारत ने 2.5 मिलियन विस्थापन के साथ चौथा सबसे बड़ा आपदा विस्थापन दर्ज किया और नाइजीरिया 2.4 मिलियन के साथ पाँचवें स्थान पर रहा।
  • विस्थापन के कारक:
    • आपदा: आपदाओं में वृद्धि विशेष रूप से मौसम संबंधी प्रभाव, काफी हद तक ला नीना के प्रभाव का परिणाम है जो लगातार तीसरे वर्ष जारी रहा।
      • "ट्रिपल-डिप" ला नीना ने दुनिया भर में व्यापक आपदाएँ उत्पन्न कीं।
    • रूस-यूक्रेन प्रेरित विस्थापन: 2022 में रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण विस्थापित हुए लोगों की संख्या में वृद्धि हुई।
      • संघर्ष के कारण 16.9 मिलियन लोगों का विस्थापन हुआ "किसी भी देश के लिये अब तक का सबसे अधिक आँकड़ा दर्ज किया गया।"
      • संघर्ष और हिंसा से जुड़े विस्थापनों की संख्या लगभग दोगुनी होकर 28.3 मिलियन हो गई।
  • आशय:
    • गंभीर संघर्ष, आपदाओं एवं विस्थापन ने वर्ष 2022 में वैश्विक खाद्य सुरक्षा को और खराब कर दिया, जो कोविड-19 महामारी से मंद तथा असमान वसूली के परिणामस्वरूप पहले से ही एक चिंता का विषय बना था।
    • निम्न-आय वाले देश, जिनमें से कई आंतरिक विस्थापन से संबंधित हैं, खाद्य तथा उर्वरक आयात और अंतर्राष्ट्रीय मानवीय सहायता पर उनकी निर्भरता को देखते हुए सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं।
      • खाद्य सुरक्षा संकट के स्तर का सामना कर रहे 75% देशों में आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों (Internally Displaced People- IDP) हैं।

भारतीय परिदृश्य

  • भारत में 2022 में संघर्ष और हिंसा के कारण 631,000 लोग आंतरिक रूप से विस्थापित हुए, जबकि 25 लाख लोग आपदा के कारण विस्थापित हुए।
  • भारत और बांग्लादेश में मानसून के मौसम की आधिकारिक पुष्टि से पहले ही बाढ़ की स्थिति देखी गई, जो प्राय: मध्य जुलाई तथा सितंबर के बीच की अवधि है।
    • भारत का उत्तर-पूर्वी राज्य असम मई 2022 में शुरुआती बाढ़ से प्रभावित हुआ था और जून में एक बार फिर उन्हीं क्षेत्रों में बाढ़ आई थी। इससे पूरे राज्य में लगभग पाँच लाख लोग प्रभावित हुए।
  • भारत के कुछ हिस्सों में जुलाई 2022 में  पिछले 122 वर्षों में सबसे कम वर्षा दर्ज की गई।
  • मानसूनी अवधि की समाप्ति तक पूरे भारत में 2.1 मिलियन लोग विस्थापित हुए, जो वर्ष 2021 के मौसम के दौरान 5 मिलियन की तुलना में काफी कम थे।

आंतरिक विस्थापन 

  • परिचय: आंतरिक विस्थापन उन लोगों की स्थिति का वर्णन करता है जिन्हें अपने घर छोड़ने के लिये मजबूर किया गया है लेकिन उन्होंने अपना देश नहीं छोड़ा है। 
  • विस्थापन के कारक: प्रत्येक वर्ष लाखों लोग संघर्ष, हिंसा, विकास परियोजनाओं, आपदाओं और जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में अपने घरों या निवास स्थानों को छोड़कर अपने देशों की सीमाओं के भीतर विस्थापित हो जाते हैं। 
  • घटक: आंतरिक विस्थापन दो घटकों पर आधारित है:
    • यदि लोगों का विस्थापन ज़बरदस्ती या अनैच्छिक है (उन्हें आर्थिक और अन्य स्वैच्छिक प्रवासियों से अलग करने हेतु); 
    • यदि व्यक्ति अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त राज्य की सीमाओं के भीतर रहता है (उन्हें शरणार्थियों से अलग करने हेतु)।
  • शरणार्थी से भिन्नता:  वर्ष 1951 के शरणार्थी सम्मेलन के अनुसार, "शरणार्थी" वह व्यक्ति है जिस पर अत्याचार किया गया हो और जिसे अपने मूल देश को छोड़ने के लिये मजबूर किया गया हो।
    • शरणार्थी माने जाने की एक पूर्व शर्त यह है कि वह व्यक्ति किसी अंतर्राष्ट्रीय सीमा को पार करता हो।
    • शरणार्थियों के विपरीत आंतरिक रूप से विस्थापित लोग किसी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का विषय नहीं हैं।
    • अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आंतरिक रूप से विस्थापित व्यक्तियों की सुरक्षा और सहायता पर वैश्विक नेतृत्व के रूप में किसी एक एजेंसी या संगठन को नामित नहीं किया गया है। 
    • हालाँकि आंतरिक विस्थापन पर संयुक्त राष्ट्र के मार्गदर्शक सिद्धांत हैं।

सिफारिशें

  • निम्नलिखित क्षेत्रों में सुधार करना आवश्यक है: गरीबी में कमी, आपदा जोखिम में कमी, शांति निर्माण, आपदा समाधान, जलवायु लचीलापन और खाद्य सुरक्षा।
  • विस्थापित व्यक्तियों के सामने आने वाली समस्याओं के निपटारे हेतु स्थायी समाधान अधिक आवश्यक होते जा रहे हैं। इसमें नकद सहायता एवं आजीविका पहलों को बढ़ाना शामिल है  जिन्हें जोखिम को कम करने हेतु रणनीतिक निवेश के माध्यम से आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों (Internally Displaced People- IDP) की वित्तीय स्थिरता को बढ़ाते हैं।
  • तत्काल मानवीय सहायता के अलावा विस्थापित समुदायों के लचीलेपन को बढ़ाने वाली सक्रिय कार्रवाई और साथ ही जोखिम कम करने की रणनीतियों में निवेश की आवश्यकता है।
  • आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों (IDP) की आजीविका और कौशल विकसित करने से उनकी खाद्य सुरक्षा व  उनके समुदायों तथा देशों की आत्मनिर्भरता में वृद्धि करके टिकाऊ समाधान की सुविधा प्रदान करने में मदद मिलेगी।

शिक्षा में PwD को सशक्त बनाने पर राष्ट्रीय कार्यशाला 

चर्चा में क्यों?  

हाल ही में मध्य प्रदेश के जबलपुर में राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 के संदर्भ में "दिव्यांग के क्षेत्र में प्रशिक्षण संस्थानों और मानव संसाधन विकास की क्षमता निर्माण" पर राष्ट्रीय कार्यशाला का उद्घाटन किया गया।

  • भारतीय पुनर्वास परिषद (RCI) द्वारा आयोजित कार्यशाला का उद्देश्य दिव्यांग व्यक्तियों को सशक्त बनाना और NEP 2020 के लक्ष्यों को लागू करना है।
  • इसके अलावा दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारिता विभाग, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, 18 मई, 2023 को वैश्विक पहुँच जागरूकता दिवस (GAAD) मना रहा है।

वैश्विक सुगम्यता जागरूकता दिवस (GAAD)

  • GAAD मई के तीसरे गुरुवार को मनाया जाने वाला एक वार्षिक कार्यक्रम है, जो दिव्यांग व्यक्तियों के लिये डिजिटल एक्सेसिबिलिटी/सुगम्यता के साथ जागरूकता और समझ को बढ़ावा देने के लिये समर्पित है।
  • यह सुगम्यता को ध्यान में रखते हुए डिजिटल तकनीकों को डिज़ाइन करने और विकसित करने के महत्त्व पर ज़ोर देता है, यह सुनिश्चित करता है कि हर कोई जानकारी तक पहुँच सके, ऑनलाइन गतिविधियों में संलग्न हो सके तथा बिना किसी बाधा के डिजिटल दुनिया में भाग ले सके।

भारत में दिव्यांग व्यक्तियों (PwD) के लिये संवैधानिक और विधायी ढाँचा

  • भारत का संविधान सभी व्यक्तियों की समानता, स्वतंत्रता, न्याय और गरिमा सुनिश्चित करता है तथा दिव्यांग व्यक्तियों सहित सभी के लिये एक समावेशी समाज को स्पष्ट रूप से अधिदेशित करता है।
  • राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (Directive Principles of State Policy- DPSP) के अनुच्छेद 41 में कहा गया है कि राज्य अपनी आर्थिक क्षमता और विकास की सीमाओं के अंदर कार्य, शिक्षा और बेरोज़गारी, बुढ़ापा, बीमारी तथा अक्षमता के मामलों में सार्वजनिक सहायता के अधिकार को सुरक्षित करने के लिये प्रभावी प्रावधान करेगा।
  • दिव्यांगता अधिकारों पर मुख्य कानून दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016 है।
    • यह अधिनियम निर्दिष्ट दिव्यांगों की एक विस्तृत शृंखला को कवर करता है और बेंचमार्क दिव्यांगों एवं उच्च समर्थन की आवश्यकताओं वाले लोगों को अतिरिक्त लाभ प्रदान करता है।
    • यह अधिनियम ज़िला न्यायालय या राज्य सरकार द्वारा नामित किसी प्राधिकरण की  संरक्षकता प्रदान करने का भी प्रावधान करता है जिसके तहत अभिभावक एवं दिव्यांग व्यक्तियों के बीच संयुक्त निर्णय लिया जाएगा

भारत में दिव्यांग व्यक्ति से जुड़े मुद्दे

  • अभिगम्यता चिंता: सार्वजनिक क्षेत्रों, परिवहन, संरचनाओं और बुनियादी ढाँचे में पहुँच की कमी मुख्य चुनौतियों में से एक है। कई जगहों पर रैंप, लिफ्ट या सुलभ शौचालय नहीं हैं, जिससे दिव्यांग व्यक्तियों के लिये स्वतंत्र रूप से घूमना मुश्किल हो जाता है।
  • शिक्षा तक पहुँच का अभाव: दिव्यांग व्यक्तियों के लिये गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच सीमित है।
    • विशेष शिक्षा सुविधाएँ और प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव है तथा समावेशी शिक्षा प्रथाओं को व्यापक रूप से लागू नहीं किया जाता है। शैक्षिक अवसरों की यह कमी उनके व्यक्तिगत और व्यावसायिक विकास में बाधा डालती है।
  • उचित स्वास्थ्य सेवा का अभाव: बड़ी संख्या में दिव्यांगताओं को रोका जा सकता है, जिनमें जन्म के दौरान चिकित्सा संबंधी समस्याएँ, मातृ स्थिति, कुपोषण, साथ ही इसमें दुर्घटनाओं के कारण चोट लगना शामिल है।
    • हालाँकि यहाँ जागरूकता की कमी, देखभाल और अच्छी एवं  सुलभ चिकित्सा सुविधाओं की कमी है। 
  • सामाजिक कलंक और भेदभाव: भारतीय समाज में निःशक्तता को लेकर नकारात्मक दृष्टिकोण और सामाजिक कलंक प्रचलित हैं।
    • दिव्यांग लोगों को अक्सर भेदभाव, बहिष्करण और उपेक्षा का सामना करना पड़ता है, जो उनके आत्मसम्मान और सामाजिक संबंधों को प्रभावित करता है।

पीडब्ल्यूडी (PWD) के सशक्तीकरण के लिये हाल की पहलें

  • भारत: 
    • सुगम्य भारत अभियान (Accessible India Campaign)
    • दीनदयाल दिव्यांग पुनर्वास योजना (DeenDayal Disabled Rehabilitation Scheme)
    • दिव्यांग छात्रों के लिये राष्ट्रीय फैलोशिप  (National Fellowship for Students with Disabilities )
  • वैश्विक सम्मेलन जिसका भारत हस्ताक्षरकर्त्ता है:
    • एशिया-प्रशांत क्षेत्र में दिव्यांग लोगों की पूर्ण भागीदारी और समानता पर घोषणा।
    • बिवाको मिलेनियम फ्रेमवर्क
    • दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों और गरिमा के संरक्षण और संवर्द्धन पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन

नोट: भारतीय पुनर्वास परिषद, संसद के एक अधिनियम द्वारा एक वैधानिक निकाय के रूप में स्थापित, प्रशिक्षण कार्यक्रमों को मानकीकृत, विनियमित एवं मॉनिटर करने, केंद्रीय पुनर्वास रजिस्टर (Central Rehabilitation Register- CRR) को बनाए रखने एवं विशेष शिक्षा व दिव्यांगता के क्षेत्र में अनुसंधान को बढ़ावा देने हेतु अधिकृत है।

आगे की राह

  • समावेशन को बढ़ावा: सुलभ भवनों, सार्वजनिक स्थानों, ट्रांज़िट नेटवर्क और संचार प्रौद्योगिकी के डिज़ाइन एवं निर्माण को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। रैंप, लिफ्ट, टैक्टाइल वॉकवे, ऑडियो अनाउंसमेंट और ब्रेल संकेत ऐसी सुविधाएँ इसके उदाहरण हैं।
  • अत्याधुनिक समाधानों के साथ क्षमताओं को सशक्त बनाना: प्रोस्थेटिक्स, गतिशीलता उपकरणों, श्रवण यंत्रों और संचार उपकरणों जैसी सस्ती एवं स्थानीय रूप से सहायक तकनीकों के विकास तथा इन्हें अपनाने को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। इन व्यक्तियों हेतु समाधानों को अनुकूलित करने के लिये 3D प्रिंटिंग व कृत्रिम बुद्धिमत्ता जैसी उभरती प्रौद्योगिकियों को अपनाने पर ज़ोर दिया जाना चाहिये।
  • ज्ञान और समानता के अवसर: समावेशी शिक्षा नीतियों हेतु लागू करना जो दिव्यांग छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक समान पहुँच सुनिश्चित करती है। इसमें सहायक उपकरण, शिक्षकों हेतु विशेष प्रशिक्षण, सुलभ शिक्षण सामग्री एवं समावेशी पाठ्यक्रम विकास शामिल है।
  • जागरूकता और संवेदनशीलता के माध्यम से कलंक/स्टिग्मा का समापन: समावेशिता को बढ़ावा देने और दिव्यांगता संबंधी सामाजिक कलंक को कम करने हेतु जागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता है।
    • इसमें दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों और क्षमताओं के बारे में समुदायों, नियोक्ताओं, शिक्षकों एवं स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को संवेदनशील बनाना शामिल है।

गर्भधारण पूर्व और प्रसवपूर्व निदान तकनीक अधिनियम, 1994 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की है कि PCPNDT के प्रभावी कार्यान्वयन के लिये गर्भधारण पूर्व और प्रसवपूर्व निदान तकनीक (Pre-Conception and Pre-Natal Diagnostic Techniques- PCPNDT) अधिनियम के कुछ पहलुओं पर पुनर्विचार किये जाने की आवश्यकता है।

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह निर्देश PCPNDT अधिनियम की विभिन्न धाराओं के तहत दर्ज एक प्राथमिकी को रद्द करने की मांग करने वाले व्यक्ति द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया है।

PCPNDT अधिनियम

  • परिचय:
    • गर्भधारण पूर्व और प्रसवपूर्व निदान तकनीक अधिनियम, 1994 भारत की संसद द्वारा पारित अधिनियम है जिसे कन्या भ्रूण हत्या को रोकने और भारत में गिरते लिंगानुपात को रोकने, प्रसवपूर्व लिंग चयन को प्रतिबंधित करने लिये अधिनियमित किया गया था।
  • उद्देश्य:
    • इस अधिनियम को लागू करने का मुख्य उद्देश्य गर्भाधान से पहले अथवा बाद में लिंग चयन तकनीकों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाना और लिंग-चयनात्मक गर्भपात के लिये प्रसवपूर्व निदान तकनीकों के दुरुपयोग को रोकना है।
  • प्रावधान:
    • यह अल्ट्रासाउंड मशीन जैसे- प्रसवपूर्व निदान तकनीकों के उपयोग को विनियमित करता है और इस प्रकार की मशीनों को केवल आनुवंशिक असामान्यताओं, चयापचय संबंधी विकार, क्रोमोसोमल असामान्यताओं, कुछ जन्मजात विकृतियों, हीमोग्लोबिनोपैथी तथा लिंग संबंधी विकार का पता लगाने के लिये उपयोग में लाने की अनुमति देता है।
    • भ्रूण के लिंग का पता लगाने के उद्देश्य से प्रयोगशाला या केंद्र अथवा क्लिनिक अल्ट्रासोनोग्राफी सहित कोई परीक्षण किया जाना निषिद्ध है।
    • अल्ट्रासाउंड जैसी तकनीकों के प्रयोग से व्यक्ति द्वारा गर्भवती महिला अथवा उसके रिश्तेदारों को शब्दों, संकेतों अथवा किसी अन्य तरीके से भ्रूण के लिंग की जानकारी देना निषिद्ध है।
    • कोई भी व्यक्ति जो नोटिस, सर्कुलर, लेबल अथवा किसी दस्तावेज़ के रूप में प्रसवपूर्व और गर्भधारण पूर्व लिंग चयन संबंधी सुविधाओं का विज्ञापन देता है या फिर इलेक्ट्रॉनिक अथवा प्रिंट रूप में अन्य मीडिया के माध्यम से विज्ञापित करता है, ऐसे व्यक्ति, संस्थान या केंद्र के संचालक को तीन वर्ष तक की कैद हो सकती है और 10,000 रुपए का जुर्माना लगाया जा सकता है।
  • इस अधिनियम के तहत आने वाले अपराध:
    • इस अधिनियम के तहत अपंजीकृत स्वास्थ्य केंद्रों में प्रसवपूर्व निदान तकनीकों का उपयोग करना एक अपराध है।
    • इस अधिनियम के तहत लिंग चयन निषिद्ध है।
    • इस अधिनियम में निर्दिष्ट उद्देश्य के अतिरिक्त किसी अन्य उद्देश्य के लिये प्रसवपूर्व निदान तकनीक का इस्तेमाल करना अपराध है।
    • इस अधिनियम के तहत किसी भी अल्ट्रासाउंड मशीन अथवा भ्रूण लिंग का पता लगाने में सक्षम किसी भी अन्य उपकरण की बिक्री, वितरण, आपूर्ति, किराए पर लेना आदि निषिद्ध है।

लिंग-चयनात्मक गर्भपात के खिलाफ पहल

  • बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ: यह अभियान भारत सरकार द्वारा वर्ष 2015 में शुरू किया गया था जिसका उद्देश्य लिंग आधारित चयन पर रोकथाम, बालिकाओं के अस्तित्त्व और सुरक्षा को सुनिश्चित करना तथा बालिकाओं के लिये शिक्षा की उचित व्यवस्था तथा उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने के संबंध में जागरूकता का प्रसार करना है।
  • बच्चों के लिये राष्ट्रीय कार्ययोजना, 2016: यह बच्चों के अधिकारों और कल्याण के लिये प्रमुख प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में से एक के रूप में लिंग-पक्षपाती लिंग चयन के उन्मूलन की दिशा में कार्य करता है।

दिल्ली उच्च न्यायालय की चिंता का विषय

  • छापे और बरामदगी में पुलिस की भागीदारी की व्यावहारिकता:
    • न्यायालय ने कहा कि हालाँकि PCPNDT नियमों में इस बात पर ध्यान दिया जाता है कि “जहाँ तक संभव हो” पुलिस छापेमारी, जब्ती आदि में शामिल न हो, लेकिन इस पहलू की व्यावहारिकता पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि ऐसी कार्रवाई सुविधा केंद्रों/क्लीनिकों पर छापे मारने के लिये CrPC के अनुसार होनी चाहिये"।
  • जाँच और गिरफ्तारी की शक्तियाँ:
    • न्यायालय ने पाया कि यद्यपि उपयुक्त प्राधिकारी को PCPNDT अधिनियम का उल्लंघन करने वाले चिकित्सा केंद्रों और सुविधाओं के पंजीकरण की जाँच करने तथा छापेमारी, रद्द या निलंबित करने की शक्तियाँ दी गई हैं, लेकिन उसके पास इस अधिनियम के तहत किसी को भी गिरफ्तार करने की शक्ति नहीं है
      • इस अधिनियम के तहत अपराधों को 'संज्ञेय' बनाया गया है, जिसका अर्थ है कि पुलिस गिरफ्तारी कर सकती है।
      • हालाँकि न्यायालय ने अधिनियम को लागू करने में उपयुक्त प्राधिकरण की भूमिका की प्रभावशीलता के बारे में चिंता जताई क्योंकि उसके पास गिरफ्तारी की शक्ति नहीं है।
  • सज़ा की कम दर:
    • कम दोष सिद्धि दर उन मामलों के प्रतिशत को संदर्भित करती है जिनमें अभियुक्त दोषी पाए जाते हैं और उस अपराध हेतु दोषी पाए जाते हैं जिसके लिये उन्हें आरोपित किया गया था।
    • PCPNDT अधिनियम के संदर्भ में इसका मतलब है कि वास्तव में अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करने के लिये दोषी ठहराए गए लोगों की संख्या बहुत कम है।
      • यह अपराधियों पर प्रभावी ढंग से मुकदमा चलाने और लिंग-चयन गर्भपात के अवैध अभ्यास को रोकने के लिये न्याय प्रणाली की विफलता को इंगित करता है।

दिल्ली उच्च न्यायालय की टिप्पणी के निहितार्थ

  • पुलिस की जाँच और गिरफ्तारी की शक्तियों पर स्पष्टता: न्यायालय द्वारा उठाई गई चिंताओं ने अधिनियम को लागू करने में पुलिस की भूमिका के साथ-साथ उपयुक्त प्राधिकारियों में निहित जाँच और गिरफ्तारी की शक्तियों पर अधिक स्पष्टता की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
  • दोषसिद्धि दर में वृद्धि: PCPNDT अधिनियम के तहत दोषसिद्धि की कम दर एक सतत् चुनौती रही है और अदालत की टिप्पणी लिंग-चयनात्मक गर्भपात से संबंधित मामलों में दोषसिद्धि दर बढ़ाने में मदद कर सकती है।

प्रसवपूर्व निदान और लिंग-चयनात्मक गर्भपात से जुड़े नैतिक मुद्दे

  • अधिकारों और मानवीय गरिमा का उल्लंघन: लिंग-चयनात्मक गर्भपात लैंगिक भेदभाव एवं महिलाओं के खिलाफ हिंसा का एक रूप है जो उनके जीवन, सम्मान और समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है।
    • यह मानव जीवन के मूल्य और गरिमा तथा मानव समाज की विविधता को भी कमज़ोर करता है।
  • सामाजिक समस्याओं में वृद्धि: समाज पर इसके प्रतिकूल परिणाम देखे जाते हैं जैसे- विषम लिंगानुपात, बढ़ती तस्करी और महिलाओं के खिलाफ हिंसा, पुरुषों के लिये विवाह की संभावनाएँ कम होना आदि।
    • यह गैर-चिकित्सा उद्देश्यों के लिये प्रसवपूर्व निदान के उपयोग और अजन्मे बच्चे के प्रति माता-पिता और स्वास्थ्य देखभाल प्रदाताओं की ज़िम्मेदारी को लेकर नैतिक प्रश्न भी उठाता है।
  • हेल्थकेयर तक पहुँच: प्रसवपूर्व निदान और लिंग-चयनात्मक गर्भपात मौजूदा स्वास्थ्य असमानता और अन्य असमानताओं को बढ़ा सकता है, विशेष रूप से हाशिये पर रहने वाले उन समुदायों के लिये जिनकी स्वास्थ्य सेवा और जानकारी तक सीमित पहुँच हो सकती है।

हू इज़ टिपिंग द स्केल रिपोर्ट: IPES

चर्चा में क्यों?

हाल ही में इंटरनेशनल पैनल ऑफ एक्सपर्ट्स ऑन सस्टेनेबल फूड सिस्टम्स (IPES) द्वारा "हू इज़ टिपिंग द स्केल" शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की गई है, जिसमें बताया गया है कि कैसे वैश्विक खाद्य प्रशासन पर कॉर्पोरेट वर्चस्व बढ़ता जा रहा है एवं यह ब्लूवॉशिंग के बारे में चिंताएँ बढ़ा रहा है। 

ब्लूवाशिंग

  • ब्लूवॉशिंग उपभोक्ताओं को यह विश्वास दिलाने के लिये गलत सूचना का उपयोग कर रहा है कि एक कंपनी वास्तव में डिजिटल रूप से अधिक नैतिक एवं सुरक्षित है।
    • यह बिल्कुल ग्रीनवाशिंग की तरह है लेकिन यह पर्यावरण के बजाय सामाजिक और आर्थिक ज़िम्मेदारी पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है।
    • ग्रीनवाशिंग भ्रामक विपणन का एक रूप है जिसमें एक कंपनी झूठा दावा करती है कि उसके उत्पाद, नीतियाँ या कार्यक्रम पर्यावरण के अनुकूल या लाभकारी हैं, जबकि ये व्यवहार में पर्यावरण की सहायता हेतु बहुत कम या कुछ भी नहीं करते हैं।
  • 'ब्लूवॉशिंग' शब्द का इस्तेमाल पहली बार उन कंपनियों हेतु किया गया था जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र ग्लोबल कॉम्पेक्ट एवं इसके सिद्धांतों पर हस्ताक्षर किये थे लेकिन कोई वास्तविक नीतिगत सुधार नहीं किया था।
  • यह कार्य प्रायः कंपनियों द्वारा अपने डेटा गोपनीयता और सुरक्षा के बारे में अस्पष्ट या निराधार दावा या कृत्रिम बुद्धिमत्ता की रक्षा एवं सुरक्षा के बारे में दावा कर किया जाता है।

प्रमुख बिंदु

  • खाद्य प्रशासन पर निगम का प्रभाव:
    • प्रशासन के क्षेत्र में वैध अभिनेता होने का दावा करने वाली फर्मों की संख्या में वृद्धि हुई है।
    • हाल के दशकों में निगम सरकारों को यह विश्वास दिलाने में सफल रहे हैं कि खाद्य प्रणालियों के भविष्य पर होने वाली किसी भी चर्चा में उनकी केंद्रीय भूमिका होनी चाहिये।
    • निगम भागीदारी ने निर्णय लेने पर अधिक प्रभाव वाले वैश्विक खाद्य प्रशासन संस्थानों और निगमों हेतु धन का एक प्रमुख स्रोत प्रदान किया है।
  • खाद्य प्रशासन में कॉर्पोरेट भूमिका का सामान्यीकरण:
    • सार्वजनिक-निजी भागीदारी और बहु-हितधारक गोलमेज़ (राउंडटेबल्स) द्वारा खाद्य प्रशासन एवं निर्णय लेने में निजी निगमों की भूमिका को सामान्य कर दिया गया है, जबकि सार्वजनिक प्रशासन की पहल निजी वित्तपोषण पर बहुत अधिक निर्भर हो गई है।
      • संयुक्त राष्ट्र खाद्य प्रणाली शिखर सम्मेलन, 2021 को सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रशासन में कॉर्पोरेट प्रभाव के महत्त्व पर प्रकाश डालने हेतु एक ऐतिहासिक क्षण के रूप में वर्णित किया गया था।
  • कॉर्पोरेट प्रभाव पर चिंता:
    • नागरिक सामाजिक संगठनों, खाद्य वैज्ञानिकों ने यह चिंता व्यक्त की है कि खाद्य प्रशासन में निगमों की बढ़ती भागीदारी से जनता की भलाई और लोगों तथा समुदायों के अधिकारों पर प्रभाव पड़ सकता है।
  • प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कॉर्पोरेट प्रभाव:
    • निगमों ने प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से वैश्विक खाद्य प्रशासन को प्रभावित किया है।
    • बेहतर पोषण हेतु वैश्विक गठबंधन, खाद्य एवं भूमि उपयोग गठबंधन और पोषण गतिविधियों में वृद्धि करने से वैश्विक खाद्य प्रणालियों के प्लेटफॉर्म में कॉर्पोरेट प्रभाव देखा जा सकता है।
    • निजी क्षेत्र के उद्यमों द्वारा राजनैतिक और संस्थागत अनुदान, व्यापार और निवेश नियमों एवं अनुसंधान रणनीतियों का नियमन और वैश्विक खाद्य प्रणालियों के विविध संरचनात्मक पहलू अन्य न्यून प्रभावी तरीके थे जिनमें खाद्य प्रणाली शासन में कॉर्पोरेट प्रभाव देखा गया था।
  • कॉर्पोरेट भागीदारी बढ़ने का कारण:
    • कोविड-19 महामारी, यूक्रेन पर रूस के आक्रमण और खाद्य मुद्रास्फीति ने मिलकर कॉर्पोरेट भागीदारी के मुद्दे को बढ़ावा दिया।
    • इन संकटों के बाद सरकारों और बहुपक्षीय एजेंसियों को निवेश की कमी का सामना करना पड़ रहा है।
  • कॉर्पोरेट भागीदारी की घटनाएँ:
    • अंतर्राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान पर सलाहकार समूह (CGIAR) खाद्य उद्योग से जुड़े निजी फर्मों और निजी परोपकारी संस्थानों के वित्तपोषण पर निर्भर था।
    • बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन, जो वर्ष 2020 में CGIAR का दूसरा सबसे बड़ा दानकर्त्ता था, ने लगभग 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर का योगदान दिया, जो संयुक्त राज्य अमेरिका सहित सरकारों द्वारा व्यक्तिगत रूप से दिये गए योगदान से कहीं अधिक था।
    • FAO को अपने पूरे इतिहास में उद्योग साझेदारी के माध्यम से निगमों के साथ घनिष्ठ सहयोग करने के लिये भी जाना जाता है। हालाँकि इन योगदानों के बारे में विवरण आसानी से उपलब्ध नहीं थे।

वैश्विक खाद्य प्रशासन में अत्यधिक कॉर्पोरेट भागीदारी से संबंधित चुनौतियाँ?

  • सीमित जवाबदेही:
    • खाद्य प्रणाली में निजी अभिकर्त्ता जनता या नियामक निकायों के प्रति जवाबदेह नहीं हो सकते हैं, जिससे खाद्य सुरक्षा, गुणवत्ता और स्थिरता को लेकर अपर्याप्त निगरानी की आशंका उत्पन्न हो सकती है।
    • निजी अभिकर्त्ता भी सार्वजनिक भलाई पर अपने मुनाफे को प्राथमिकता दे सकते हैं, जिससे हितों का टकराव हो सकता है जो खाद्य सुरक्षा, गुणवत्ता और स्थिरता से समझौता कर सकता है।
  • हाइपर नजिंग:
    • अत्यधिक कॉर्पोरेट भागीदारी से दैनिक लेन-देन डेटा (स्वचालित खाद्य सेवाओं के लिये डिजिटल वॉलेट) को पुनः प्राप्त किया जा सकता है, जिसे वे लोगों की खाने की आदतों में हेर-फेर करने हेतु इसे ऑनलाइन प्राप्त जानकारी के साथ जोड़ सकते हैं।
  • लाभों का असमान वितरण:
    • निजी अभिकर्त्ता लघु किसानों और उपभोक्ताओं की बजाय बड़े पैमाने पर उत्पादनकर्त्ताओं और खुदरा विक्रेताओं को प्राथमिकता प्रदान कर सकते हैं जिससे खाद्य प्रणाली से होने वाले लाभ का वितरण असमान हो सकता है।
  • सीमित पारदर्शिता:
    • निजी अभिकर्त्ताओं द्वारा उपयोग किये जाने वाले तरीकों, उत्पादों और नीतियों को स्पष्ट रूप से उजागर नहीं किये जाने से हितधारकों को उनके द्वारा उठाए गए कदमों का खाद्य प्रणाली पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन करना कठिन हो सकता है।
  • खाद्य सुरक्षा की गंभीर स्थिति:
    • खाद्य प्रणाली का नियंत्रण बिग डेटा टेक्नोलॉजीज़ और ई-कॉमर्स प्लेटफाॅर्म के हाथों में चले जाने से इससे खाद्य असुरक्षा की स्थिति और गंभीर हो सकती है, साथ ही पर्यावरणीय क्षरण में भी वृद्धि हो सकती है।
    • कृत्रिम बुद्धिमता खाद्य पारिस्थितिकी तंत्र की पुनर्संरचना करने की दिशा में अग्रसर है, डिजिटल अवसंरचना के रूप में रोबोटिक ट्रैक्टर्स और ड्रोन्स के आगमन के साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लाखों लोग शहरी क्षेत्रों की ओर जाने हेतु बाध्य हो जाएंगे।

सुझाव

  • मानवाधिकारों पर आधारित एक ठोस शिकायत नीति और नए कार्यतंत्र की स्थापना की जानी चाहिये जो जन संगठनों, सामाजिक आंदोलनों और अन्य नागरिक समाज अभिकर्त्ताओं को अपनी शर्तों पर खाद्य प्रशासन में भाग लेने की अनुमति प्रदान करता हो।
  • जन संगठनों और सामाजिक आंदोलनों के दावों एवं प्रस्तावों के लिये स्वायत्त प्रक्रियाओं का निर्धारण किया जाना चाहिये, विशेष रूप से उनके लिये जो हाशिये के समुदायों के लिये एजेंसी का निर्माण करते हैं।
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