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The Hindi Editorial Analysis- 31st August 2023 | Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly - UPSC PDF Download

सिंधु जल संधि की जटिलताएं और सतत सहयोग का मार्ग


सन्दर्भ :

भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों को आकार देने वाली सिंधु जल संधि( IWT), ऐतिहासिक जटिलताओं के मध्य एक मौलिक समझौता है, यद्यपि विभिन्न मुद्दों के चलते यह एक बार फिर केंद्र में आ गई है।
छह दशकों से अधिक समय से, सिंधु जल संधि( IWT) सहकारी कूटनीति और सतत विकास की नींव को रेखांकित करने के साथ संभावित हानि को रोकते हुए न्यायसंगत जल आवंटन में सामंजस्य स्थापित किये हुए है।

The Hindi Editorial Analysis- 31st August 2023 | Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly - UPSC

न्यायसंगत आवंटन: सहयोग की आधारशिला

  • अपने मूल में, सिंधु जल संधि ( IWT) न्यायसंगत आवंटन के सिद्धांत के आदर्श के रूप में स्थापित है, जो दोनों देशों के बीच नदी जल के न्यायसंगत बंटवारे के सार को समाहित करता है।
  • केवल जल-बंटवारे से परे, यह संधि संतुलित प्रगति और साझा समृद्धि के प्रति प्रतिबद्धता का प्रतीक है, जो राजनयिक सहयोग के एक महत्वपूर्ण पहलू को दर्शाती है।
  • यह संधि निष्पक्षता पर आधारित एक सामान्य आधार स्थापित करने का प्रयास करती है जो देश के हितों से समझौता किये बिना पानी का उपयोग करने के अधिकार को स्वीकार करती है।

नदियों का विभाजन और उपयोग: जिम्मेदारियों का निर्वाह

  • सिंधु जल संधि ( IWT) के प्रावधानों का अभिन्न अंग नदियों को अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित करना है, जिनमें भारत को तीन पूर्वी नदियों - रावी, ब्यास और सतलज - तक अप्रतिबंधित पहुंच प्राप्त है, जबकि पाकिस्तान को तीन पश्चिमी नदियों - सिंधु, झेलम और चिनाब - पर विशेष अधिकार प्राप्त है।
  • यह आवंटन भारत को संरक्षण, बिजली उत्पादन और बाढ़ नियंत्रण सहित कई क्षेत्रों में फैले 3.60 मिलियन फीट (एमएएफ) पानी को संग्रहित करने का अधिकार देता है। यह सावधानीपूर्वक आवंटन जिम्मेदारी को रेखांकित करता है, यह सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक राष्ट्र अपनी विकास आवश्यकताओं के लिए पानी का उपयोग कर सकता है।

जलविद्युत परियोजनाएँ और उभरते विवाद

  • उपर्युक्त पृष्ठभूमि के मध्य, वर्तमान असहमति का मुख्य कारण दो प्रमुख जलविद्युत परियोजनायें है जो की भारत के जम्मू और कश्मीर में स्थित किशनगंगा और रतले जलविद्युत संयंत्र हैं।
  • भारत के दृष्टिकोण से, ये परियोजनाएं इसकी ऊर्जा मांगों को पूरा करने और क्षेत्रीय विकास को गति देने के लिए अपरिहार्य हैं।
  • हालाँकि, पाकिस्तान संधि के प्रावधानों के संभावित उल्लंघन और उसकी जल आपूर्ति पर दूरगामी प्रभाव के बारे में आशंका व्यक्त करता है।
  • यह विवाद विकासात्मक आकांक्षाओं और साझा संसाधनों के संरक्षण के बीच नाजुक संतुलन पर प्रकाश डालता है।

विवाद का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

  • वर्तमान विवाद एक दशक से भी अधिक पुराना है। वर्ष 2006 में, पाकिस्तान ने पहली बार किशनगंगा परियोजना पर चिंता जताई, उसके बाद 2012 में रतले परियोजना पर भी पाकिस्तान ने आपत्ति प्रकट की ।
  • इसके बाद, 2010 में किशनगंगा मामले को मध्यस्थता न्यायालय (COA) में ले जाया गया। 2013 में, मध्यस्थता न्यायालय (COA) के फैसले ने न्यूनतम जल प्रवाह बनाए रखने की चेतावनी के साथ, बिजली उत्पादन के लिए किशनगंगा नदी से पानी को मोड़ने के भारत के विशेषाधिकार को स्वीकार किया। इस प्रकार यह समयरेखा एक स्थापित संधि के ढांचे के भीतर विवादों को हल करने की जटिलताओं को दर्शाती है।

एक गतिरोध और बाहरी मध्यस्थता: विश्व बैंक की भूमिका

  • दोनों देशों के सिंधु जल आयुक्तों की अगुवाई में वार्ता के कई दौर के बावजूद,अधिप्लव विन्यास (spillway configuration) से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दे अनसुलझे रह गये।
  • पाकिस्तान ने यह आरोप लगाते हुए विश्व बैंक का सहारा लिया कि भारत के कार्यों ने सिंधु जल संधि ( IWT) और मध्यस्थता न्यायालय (COA) के फैसले दोनों का उल्लंघन किया है। विवाद पर प्रतिक्रिया देते हुए, विश्व बैंक ने भारत को किशनगंगा और रतले परियोजनाओं पर काम निलंबित करने और दोनों देशों को वैकल्पिक विवाद समाधान तरीकों का पता लगाने का सुझाव दिया।
  • यह बाहरी हस्तक्षेप अंतरराष्ट्रीय प्रभाव वाले विवादों को संबोधित करने में तीसरे पक्ष की भागीदारी के महत्व को दर्शाता है।

कानूनी कार्यवाही और भारत की रणनीतिक प्रतिक्रिया

  • वर्ष 2016 में पाकिस्तान ने मध्यस्थता न्यायालय की स्थापना के लिए याचिका प्रस्तुत की , जिसके विरोध में भारत ने एक तटस्थ विशेषज्ञ की नियुक्ति की वकालत की । जो इस विवाद की कानूनी कार्यवाही के जटिल स्वरुप और बहुआयामी प्रकृति को रेखांकित करता है ।
  • 2023 में, स्थायी मध्यस्थता न्यायालय (पीसीए) ने सर्वसम्मति से इस विवाद पर अपने अधिकार क्षेत्र का दावा किया। परन्तु, भारत ने कार्यवाही की वैधता के विरुद्ध तर्क देते हुए इसकी कार्यवाही में भाग लेने से मना कर दिया । यह रणनीतिक दृष्टिकोण अंतरराष्ट्रीय कानून के ढांचे के भीतर राजनयिक जटिलताओं को स्पष्ट करता है।

समझौते का मार्ग प्रशस्त करना: एक पुनर्परिभाषित IWT

  • चुनौतियों की जटिल जटिलता के मध्य , समर्थक "न्यायसंगत और उचित उपयोग" के साथ "कोई हानि नहीं नियम" जैसे सिद्धांतों को शामिल करने के लिए IWT को पुनर्परिभाषा कीआवश्यकता है।
  • हालाँकि, इन संशोधनों को साकार करना एक अनुकूल राजनयिक वातावरण की स्थापना और आपसी विश्वास की बहाली पर निर्भर करता है, जो विगत वर्षों में कई कारकों के कारण कम हो गया है।
  • संधि का यह पुनर्निर्धारण विकासात्मक आकांक्षाओं और पारिस्थितिक संरक्षण के बीच सूक्ष्म संबंधों की विकसित होती समझ को दर्शाता है।

सहयोगात्मक रणनीतियाँ:

  • समाधान की दिशा में एक व्यवहार्य मार्ग निर्मित करने के लिए, साझा जल संसाधनों से संबंधित बातचीत प्रक्रियाओं में स्थानीय हितधारकों एवं विशेषज्ञों को सक्रिय रूप से एकीकृत करने के सुझाव दिया जाता है ।
  • दोनों देशों के तकनीकी विशेषज्ञों, जलवायु वैज्ञानिकों, जल प्रबंधन पेशेवरों और शोधकर्ताओं की भागीदारी वाली एक सहयोगी समिति की स्थापना, इस मुद्दे में अंतर्निहित बहुमुखी चुनौतियों की गहरी समझ को बढ़ावा दे सकती है।
  • यह बहु-विषयक दृष्टिकोण एक बहुआयामी मुद्दे को संबोधित करने के लिए व्यापक अंतर्दृष्टि की आवश्यकता को रेखांकित करता है।

अप्रयुक्त तंत्र का लाभ उठाना: अनुच्छेद VII और पारस्परिक लक्ष्यों की खोज

  • सिंधु जल संधि ( IWT) का अनुच्छेद VII सहयोग के लिए तंत्र का निर्माण करता है। इस सन्दर्भ में भारत और पाकिस्तान दोनों को सिंधु नदी प्रणाली के व्यापक विकास से अपने साझा लाभों को पहचानना चाहिए तथा अपने मौजूदा विवादों का समाधान करके सामंजस्यपूर्ण सहयोग की भावना का पोषण करना चाहिए।
  • यह निष्क्रिय प्रावधान सहयोग को सुविधाजनक बनाने और साझा जल संसाधनों के प्रबंधन के के विमर्श को फिर से परिभाषित करने का एक अवसर प्रस्तुत करता है।

बदलती वास्तविकताओं पर प्रतिक्रिया: संशोधन और विश्वास का गठजोड़

  • छह दशक पहले कि सिंधु जल संधि ( IWT) की अवधारणा वर्तमान संदर्भ में इसकी प्रयोज्यता पर विचार करने के लिए प्रेरित करती है। यही कारण है की संभावित संशोधनों के बारे में विचार-विमर्श बढ़ गया है।
  • यद्यपि, किसी भी प्रावधान में संशोधन के लिए द्विपक्षीय सहमति और विश्वास-निर्माण की की आवश्यकता होती है, क्योंकि एकतरफा संशोधन स्वाभाविक रूप से अव्यवहारिक होगा। यह अनुकूली दृष्टिकोण बदलती गतिशीलता की पहचान और लचीले ढांचे की आवश्यकता का प्रतीक है।

निष्कर्ष

सिंधु जल संधि भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों की रूपरेखा को आकार देती रही है, इसलिए यह एक महत्वपूर्ण संधि है जिसकी जटिलताओं को आपसी समझ, सहयोगात्मक प्रयासों और साझा प्रगति के प्रति दृढ़ समर्पण के माध्यम से समाधान की आवश्यकता है। अत: उभरते संदर्भ द्वारा प्रस्तुत चुनौतियों और अवसरों को स्वीकार करते हुए, दोनों देशों में साझा संसाधनों और सामंजस्यपूर्ण विकास की नींव पर अपने संबंधों को नया आकार देने का प्रयास करना चाहिए।

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